भागसूचना
अष्टनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
पत्नीसहित राजा द्युमत्सेनकी सत्यवान्के लिये चिन्ता, ऋषियोंका उन्हें आश्वासन देना, सावित्री और सत्यवान्का आगमन तथा सावित्रीद्वारा विलम्बसे आनेके कारणपर प्रकाश डालते हुए वरप्राप्तिका विवरण बताना
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नेव काले तु द्युमत्सेनो महाबलः।
लब्धचक्षुः प्रसन्नायां दृष्ट्यां सर्वं ददर्श ह ॥ १ ॥
मूलम्
एतस्मिन्नेव काले तु द्युमत्सेनो महाबलः।
लब्धचक्षुः प्रसन्नायां दृष्ट्यां सर्वं ददर्श ह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इसी समय महाबली महाराजा द्युमत्सेनको उनकी खोयी हुई आँखें मिल गयीं। दृष्टि स्वच्छ हो जानेके कारण वे सब कुछ देखने लगे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सर्वानाश्रमान् गत्वा शैब्यया सह भार्यया।
पुत्रहेतोः परामार्तिं जगाम भरतर्षभ ॥ २ ॥
मूलम्
स सर्वानाश्रमान् गत्वा शैब्यया सह भार्यया।
पुत्रहेतोः परामार्तिं जगाम भरतर्षभ ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! वे अपनी पत्नी शैब्याके साथ सभी आश्रमोंमें जाकर पुत्रका पता लगाने लगे। उस समय उन्हें सत्यवान्के लिये बड़ी वेदना हो रही थी॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावाश्रमान् नदीश्चैव वनानि च सरांसि च।
तस्यां निशि विचिन्वन्तौ दम्पती परिजग्मतुः ॥ ३ ॥
मूलम्
तावाश्रमान् नदीश्चैव वनानि च सरांसि च।
तस्यां निशि विचिन्वन्तौ दम्पती परिजग्मतुः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों पति-पत्नी उस रातमें पुत्रकी खोज करते हुए विभिन्न आश्रमों, नदीके तटों तथा वनों और सरोवरोंमें भ्रमण करने लगे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा शब्दं तु यं कञ्चिदुन्मुखौ सुतशङ्कया।
सावित्रीसहितोऽभ्येति सत्यवानित्यभाषताम् ॥ ४ ॥
मूलम्
श्रुत्वा शब्दं तु यं कञ्चिदुन्मुखौ सुतशङ्कया।
सावित्रीसहितोऽभ्येति सत्यवानित्यभाषताम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कोई भी शब्द कानमें पड़ता, उसीको सुनकर वे अपने पुत्रके आनेकी आशंकासे उत्सुक हो उठते और परस्पर कहने लगते कि ‘सावित्रीके साथ सत्यवान् आ रहा है’॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भिन्नैश्च परुषैः पादैः सव्रणैः शोणितोक्षितैः।
कुशकण्टकविद्धाङ्गावुन्मत्ताविव धावतः ॥ ५ ॥
मूलम्
भिन्नैश्च परुषैः पादैः सव्रणैः शोणितोक्षितैः।
कुशकण्टकविद्धाङ्गावुन्मत्ताविव धावतः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके पैरोंमें बिवाई फट गयी थी, वे कठोर हो गये थे तथा घाव हो जानेके कारण रक्तसे भींगे रहते थे, तो भी उन्हीं पैरोंसे वे दोनों दम्पति इधर-उधर पागलोंकी भाँति दौड़ रहे थे। उस समय उनके अंगोंमें कुश और काँटे बिंध गये थे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽभिसृत्य तैर्विप्रैः सर्वैराश्रमवासिभिः ।
परिवार्य समाश्वास्य तावानीतौ स्वमाश्रमम् ॥ ६ ॥
मूलम्
ततोऽभिसृत्य तैर्विप्रैः सर्वैराश्रमवासिभिः ।
परिवार्य समाश्वास्य तावानीतौ स्वमाश्रमम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन आश्रमोंमें रहनेवाले समस्त ब्राह्मणोंने उनके पास जा उन्हें सब ओरसे घेरकर आश्वासन दिया तथा उन दोनोंको उनके आश्रमपर पहुँचाया॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र भार्यासहायः स वृतो वृद्धैस्तपोधनैः।
आश्वासितोऽपि चित्रार्थैः पूर्वराज्ञां कथाश्रयैः ॥ ७ ॥
ततस्तौ पुनराश्वस्तौ वृद्धौ पुत्रदिदृक्षया।
बाल्यवृत्तानि पुत्रस्य स्मरन्तौ भृशदुःखितौ ॥ ८ ॥
मूलम्
तत्र भार्यासहायः स वृतो वृद्धैस्तपोधनैः।
आश्वासितोऽपि चित्रार्थैः पूर्वराज्ञां कथाश्रयैः ॥ ७ ॥
ततस्तौ पुनराश्वस्तौ वृद्धौ पुत्रदिदृक्षया।
बाल्यवृत्तानि पुत्रस्य स्मरन्तौ भृशदुःखितौ ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तपस्याके धनी वृद्ध ब्राह्मणोंद्वारा घिरे हुए पत्नीसहित राजा द्युमत्सेनको प्राचीन राजाओंकी विचित्र अर्थोंसे भरी हुई कथाएँ सुनाकर पूरा आश्वासन दिया गया, तो भी वे दोनों वृद्ध बारंबार सान्त्वना मिलते रहनेपर भी अपने पुत्रको देखनेकी इच्छासे उसके बचपनकी बातें सोचते हुए बहुत दुःखी हो गये॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनरुक्त्वा च करुणां वाचं तौ शोककर्शितौ।
हा पुत्र हा साध्वि वधूः क्वासि क्वासीत्यरोदताम्।
ब्राह्मणः सत्यवाक् तेषामुवाचेदं तयोर्वचः ॥ ९ ॥
मूलम्
पुनरुक्त्वा च करुणां वाचं तौ शोककर्शितौ।
हा पुत्र हा साध्वि वधूः क्वासि क्वासीत्यरोदताम्।
ब्राह्मणः सत्यवाक् तेषामुवाचेदं तयोर्वचः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे शोककातर दम्पति बारंबार करुण वचन बोलते हुए ‘हा पुत्र! हा सती-साध्वी बहू! तुम कहाँ हो, कहाँ हो?’ यों कहकर रोने लगे। उस समय एक सत्यवादी ब्राह्मणने उन दोनोंसे इस प्रकार कहा॥९॥
मूलम् (वचनम्)
सुवर्चा उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथास्य भार्या सावित्री तपसा च दमेन च।
आचारेण च संयुक्ता तथा जीवति सत्यवान् ॥ १० ॥
मूलम्
यथास्य भार्या सावित्री तपसा च दमेन च।
आचारेण च संयुक्ता तथा जीवति सत्यवान् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुवर्चा बोले— सत्यवान्की पत्नी सावित्री जैसी तपस्या, इन्द्रियसंयम तथा सदाचारसे संयुक्त है, उसे देखते हुए मैं कह सकता हूँ कि सत्यवान् जीवित है॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
गौतम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदाः साङ्गा मयाधीतास्तपो मे संचितं महत्।
कौमारब्रह्मचर्यं च गुरवोऽग्निश्च तोषिताः ॥ ११ ॥
समाहितेन चीर्णानि सर्वाण्येव व्रतानि मे।
वायुभक्षोपवासश्च कृतो मे विधिवत् पुरा ॥ १२ ॥
अनेन तपसा वेद्मि सर्वं परचिकीर्षितम्।
सत्यमेतन्निबोधध्वं ध्रियते सत्यवानिति ॥ १३ ॥
मूलम्
वेदाः साङ्गा मयाधीतास्तपो मे संचितं महत्।
कौमारब्रह्मचर्यं च गुरवोऽग्निश्च तोषिताः ॥ ११ ॥
समाहितेन चीर्णानि सर्वाण्येव व्रतानि मे।
वायुभक्षोपवासश्च कृतो मे विधिवत् पुरा ॥ १२ ॥
अनेन तपसा वेद्मि सर्वं परचिकीर्षितम्।
सत्यमेतन्निबोधध्वं ध्रियते सत्यवानिति ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गौतम बोले— मैंने छहों अंगोंसहित सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन किया है। महान् तपका संचय किया है। कुमारावस्थासे ही ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए गुरुजनों तथा अग्निदेवको संतुष्ट किया है। एकाग्रचित्त होकर सभी व्रत पूर्ण किये हैं। पूर्वकालमें हवा पीकर विधिपूर्वक उपवासव्रतका साधन किया है। इस तपस्याके प्रभावसे मैं दूसरोंकी सारी चेष्टाओंको जान लेता हूँ। आपलोग मेरी यह बात सच मानें कि सत्यवान् जीवित है॥११—१३॥
मूलम् (वचनम्)
शिष्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपाध्यायस्य मे वक्त्राद् यथा वाक्यं विनिःसृतम्।
नैव जातु भवेन्मिथ्या तथा जीवति सत्यवान् ॥ १४ ॥
मूलम्
उपाध्यायस्य मे वक्त्राद् यथा वाक्यं विनिःसृतम्।
नैव जातु भवेन्मिथ्या तथा जीवति सत्यवान् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गौतमके शिष्यने कहा— मेरे गुरुजीके मुखसे जो बात निकली है वह कभी मिथ्या नहीं हो सकती। सत्यवान् अवश्य जीवित है॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
ऋषय ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथास्य भार्या सावित्री सर्वैरेव सुलक्षणैः।
अवैधव्यकरैर्युक्ता तथा जीवति सत्यवान् ॥ १५ ॥
मूलम्
यथास्य भार्या सावित्री सर्वैरेव सुलक्षणैः।
अवैधव्यकरैर्युक्ता तथा जीवति सत्यवान् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ ऋषियोंने कहा— सत्यवान्की पत्नी सावित्री उन सभी शुभ लक्षणोंसे युक्त है जो वैधव्यका निवारण करके सौभाग्यकी वृद्धि करनेवाले हैं, इसलिये सत्यवान् अवश्य जीवित है॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
भारद्वाज उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथास्य भार्या सावित्री तपसा च दमेन च।
आचारेण च संयुक्ता तथा जीवति सत्यवान् ॥ १६ ॥
मूलम्
यथास्य भार्या सावित्री तपसा च दमेन च।
आचारेण च संयुक्ता तथा जीवति सत्यवान् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारद्वाज बोले— सत्यवान्की पत्नी सावित्री जैसी तपस्या, इन्द्रियसंयम तथा सदाचारसे संयुक्त है, उसे देखते हुए मैं कह सकता हूँ कि सत्यवान् जीवित है॥
मूलम् (वचनम्)
दाल्भ्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा दृष्टिः प्रवृत्ता ते सावित्र्याश्च यथा व्रतम्।
गताऽऽहारमकृत्वा च तथा जीवति सत्यवान् ॥ १७ ॥
मूलम्
यथा दृष्टिः प्रवृत्ता ते सावित्र्याश्च यथा व्रतम्।
गताऽऽहारमकृत्वा च तथा जीवति सत्यवान् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दाल्भ्यने कहा— राजन्! जिस प्रकार आपको दृष्टि प्राप्त हो गयी और जिस प्रकार सावित्रीका उपवास-व्रत चल रहा था तथा जिस प्रकार वह आज भोजन किये बिना ही पतिके साथ गयी है, इन सब बातोंपर विचार करनेसे यही प्रतीत होता है कि सत्यवान् जीवित है॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
आपस्तम्ब उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा वदन्ति शान्तायां दिशि वै मृगपक्षिणः।
पार्थिवी च प्रवृत्तिस्ते तथा जीवति सत्यवान् ॥ १८ ॥
मूलम्
यथा वदन्ति शान्तायां दिशि वै मृगपक्षिणः।
पार्थिवी च प्रवृत्तिस्ते तथा जीवति सत्यवान् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपस्तम्ब बोले— इस शान्त (एवं प्रसन्न) दिशामें मृग और पक्षी जैसी बोली बोल रहे हैं और आपके द्वारा जिस प्रकार राजोचित धर्मका अनुष्ठान हो रहा है, उसके अनुसार यह कहा जा सकता है कि सत्यवान् जीवित है॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
धौम्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वैर्गूणैरुपेतस्ते यथा पुत्रो जनप्रियः।
दीर्घायुर्लक्षणोपेतस्तथा जीवति सत्यवान् ॥ १९ ॥
मूलम्
सर्वैर्गूणैरुपेतस्ते यथा पुत्रो जनप्रियः।
दीर्घायुर्लक्षणोपेतस्तथा जीवति सत्यवान् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धौम्यने कहा— महाराज! आपका यह पुत्र जिस प्रकार समस्त सद्गुणोंसे सम्पन्न, जनप्रिय तथा चिरजीवी पुरुषोंके लक्षणोंसे युक्त है, उसके अनुसार यही मानना चाहिये कि सत्यवान् जीवित है॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमाश्वासितस्तैस्तु सत्यवाग्भिस्तपस्विभिः ।
तांस्तान् विगणयन् सर्वांस्ततः स्थिर इवाभवत् ॥ २० ॥
मूलम्
एवमाश्वासितस्तैस्तु सत्यवाग्भिस्तपस्विभिः ।
तांस्तान् विगणयन् सर्वांस्ततः स्थिर इवाभवत् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इस प्रकार सत्यवादी एवं तपस्वी मुनियोंने जब राजा द्युमत्सेनको पूर्णतः आश्वासन दिया, तब उन सबका समादर करते हुए उनकी बात मानकर वे स्थिर-से हो गये॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मुहूर्तात् सावित्री भर्त्रा सत्यवता सह।
आजगामाश्रमं रात्रौ प्रहृष्टा प्रविवेश ह ॥ २१ ॥
मूलम्
ततो मुहूर्तात् सावित्री भर्त्रा सत्यवता सह।
आजगामाश्रमं रात्रौ प्रहृष्टा प्रविवेश ह ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर दो ही घड़ीमें सावित्री अपने पति सत्यवान्के साथ रातमें वहाँ आयी और बड़े हर्षके साथ उसने आश्रममें प्रवेश किया॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मणा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रेण संगतं त्वां तु चक्षुष्मन्तं निरीक्ष्य च।
सर्वे वयं वै पृच्छामो वृद्धिं वै पृथिवीपते ॥ २२ ॥
मूलम्
पुत्रेण संगतं त्वां तु चक्षुष्मन्तं निरीक्ष्य च।
सर्वे वयं वै पृच्छामो वृद्धिं वै पृथिवीपते ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब ब्राह्मणोंने कहा— महाराज! पुत्रके साथ आपका मिलन हुआ और आपको नेत्र भी प्राप्त हो गये, इस अवस्थामें आपको देखकर हम सब लोग आपका अभ्युदय मना रहे हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समागमेन पुत्रस्य सावित्र्या दर्शनेन च।
चक्षुषश्चात्मनो लाभात् त्रिभिर्दिष्ट्या विवर्धसे ॥ २३ ॥
मूलम्
समागमेन पुत्रस्य सावित्र्या दर्शनेन च।
चक्षुषश्चात्मनो लाभात् त्रिभिर्दिष्ट्या विवर्धसे ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बड़े सौभाग्यकी बात है कि आपको पुत्रका समागम प्राप्त हुआ, बहू सावित्रीका दर्शन हुआ और अपने खोये हुए नेत्र पुनः मिल गये। इन तीनों बातोंसे आपका अभ्युदय सूचित होता है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वैरस्माभिरुक्तं यत् तथा तन्नात्र संशयः।
भूयोभूयः समृद्धिस्ते क्षिप्रमेव भविष्यति ॥ २४ ॥
मूलम्
सर्वैरस्माभिरुक्तं यत् तथा तन्नात्र संशयः।
भूयोभूयः समृद्धिस्ते क्षिप्रमेव भविष्यति ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हम सब लोगोंने जो बात कही है, वह ज्यों-की-त्यों सत्य निकली, इसमें संशय नहीं है। आगे भी शीघ्र ही आपकी बारंबार समृद्धि होनेवाली है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽग्निं तत्र संज्वाल्य द्विजास्ते सर्व एव हि।
उपासांचक्रिरे पार्थ द्युमत्सेनं महीपतिम् ॥ २५ ॥
मूलम्
ततोऽग्निं तत्र संज्वाल्य द्विजास्ते सर्व एव हि।
उपासांचक्रिरे पार्थ द्युमत्सेनं महीपतिम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! तदनन्तर सभी ब्राह्मण वहाँ आग जलाकर राजा द्युमत्सेनके पास बैठ गये॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शैब्या च सत्यवांश्चैव सावित्री चैकतः स्थिताः।
सर्वैस्तैरभ्यनुज्ञाता विशोकाः समुपाविशन् ॥ २६ ॥
मूलम्
शैब्या च सत्यवांश्चैव सावित्री चैकतः स्थिताः।
सर्वैस्तैरभ्यनुज्ञाता विशोकाः समुपाविशन् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शैब्या, सत्यवान् तथा सावित्री—ये तीनों भी एक ओर खड़े थे, जो उन सब महात्माओंकी आज्ञा पाकर शोकरहित हो बैठ गये॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो राज्ञा सहासीनाः सर्वे ते वनवासिनः।
जातकौतूहलाः पार्थ पप्रच्छुर्नृपतेः सुतम् ॥ २७ ॥
मूलम्
ततो राज्ञा सहासीनाः सर्वे ते वनवासिनः।
जातकौतूहलाः पार्थ पप्रच्छुर्नृपतेः सुतम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! तत्पश्चात् राजाके साथ बैठे हुए वे सभी वनवासी कौतूहलवश राजकुमार सत्यवान्से पूछने लगे॥२७॥
मूलम् (वचनम्)
ऋषय ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रागेव नागतं कस्मात् सभार्येण त्वया विभो।
विरात्रे चागतं कस्मात् कोऽनुबन्धस्तवाभवत् ॥ २८ ॥
मूलम्
प्रागेव नागतं कस्मात् सभार्येण त्वया विभो।
विरात्रे चागतं कस्मात् कोऽनुबन्धस्तवाभवत् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषि बोले— राजकुमार! तुम अपनी पत्नीके साथ पहले ही क्यों नहीं चले आये? क्यों इतनी रात बिताकर आये? तुम्हारे सामने कौन-सी अड़चन आ गयी थी?॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतापितः पिता माता वयं चैव नृपात्मज।
कस्मादिति न जानीमस्तत् सर्वं वक्तुमर्हसि ॥ २९ ॥
मूलम्
संतापितः पिता माता वयं चैव नृपात्मज।
कस्मादिति न जानीमस्तत् सर्वं वक्तुमर्हसि ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजपुत्र! तुमने आनेमें विलम्ब करके अपने माता-पिता तथा हमलोगोंको भी भारी संतापमें डाल दिया था। तुमने ऐसा क्यों किया? यह हम नहीं जान पाते हैं, अतः सब बातें स्पष्ट रूपसे बताओ॥२९॥
मूलम् (वचनम्)
सत्यवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पित्राहमभ्यनुज्ञातः सावित्रीसहितो गतः ।
अथ मेऽभूच्छिरोदुःखं वने काष्ठानि भिन्दतः ॥ ३० ॥
मूलम्
पित्राहमभ्यनुज्ञातः सावित्रीसहितो गतः ।
अथ मेऽभूच्छिरोदुःखं वने काष्ठानि भिन्दतः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यवान् बोले— मैं पिताकी आज्ञा पाकर सावित्रीके साथ वनमें गया। फिर वनमें लकड़ियोंको चीरते समय मेरे सिरमें बड़े जोरसे दर्द होने लगा॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुप्तश्चाहं वेदनया चिरमित्युपलक्षये ।
तावत् कालं न च मया सुप्तपूर्वं कदाचन ॥ ३१ ॥
मूलम्
सुप्तश्चाहं वेदनया चिरमित्युपलक्षये ।
तावत् कालं न च मया सुप्तपूर्वं कदाचन ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं समझता हूँ कि मैं वेदनासे व्याकुल होकर देरतक सोता रह गया। उतने समयतक मैं उसके पहले कभी नहीं सोया था॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वेषामेव भवतां संतापो मा भवेदिति।
अतो विरात्रागमनं नान्यदस्तीह कारणम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
सर्वेषामेव भवतां संतापो मा भवेदिति।
अतो विरात्रागमनं नान्यदस्तीह कारणम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नींद खुलनेपर मैं इतनी रातके बाद भी इसलिये चला आया कि आप सब लोगोंको मेरे लिये चिन्तित न होना पड़े। इस विलम्बमें और कोई कारण नहीं है॥३२॥
मूलम् (वचनम्)
गौतम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकस्माच्चक्षुषः प्राप्तिर्द्युमत्सेनस्य ते पितुः।
नास्य त्वं कारणं वेत्सि सावित्री वक्तुमर्हति ॥ ३३ ॥
मूलम्
अकस्माच्चक्षुषः प्राप्तिर्द्युमत्सेनस्य ते पितुः।
नास्य त्वं कारणं वेत्सि सावित्री वक्तुमर्हति ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गौतम बोले— तुम्हारे पिता द्युमत्सेनको जो सहसा नेत्रोंकी प्राप्ति हुई है, इसका कारण तुम नहीं जानते। सम्भवतः सावित्री बतला सकती है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रोतुमिच्छामि सावित्रि त्वं हि वेत्थ परावरम्।
त्वां हि जानामि सावित्रि सावित्रीमिव तेजसा ॥ ३४ ॥
त्वमत्र हेतुं जानीषे तस्मात् सत्यं निरूच्यताम्।
रहस्यं यदि ते नास्ति किंचिदत्र वदस्व नः ॥ ३५ ॥
मूलम्
श्रोतुमिच्छामि सावित्रि त्वं हि वेत्थ परावरम्।
त्वां हि जानामि सावित्रि सावित्रीमिव तेजसा ॥ ३४ ॥
त्वमत्र हेतुं जानीषे तस्मात् सत्यं निरूच्यताम्।
रहस्यं यदि ते नास्ति किंचिदत्र वदस्व नः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सावित्री! मैं इसका रहस्य तुमसे सुनना चाहता हूँ; क्योंकि तुम भूत और भविष्य सब कुछ जानती हो। मैं तुम्हें साक्षात् सावित्रीदेवीके समान तेजस्विनी जानता हूँ। राजाको जो सहसा नेत्रोंकी प्राप्ति हुई है, इसका कारण तुम जानती हो। सच-सच बताओ, यदि इसमें कुछ छिपानेकी बात न हो तो हमसे अवश्य कहो॥३४-३५॥
मूलम् (वचनम्)
सावित्र्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेतद् यथा वेत्थ संकल्पो नान्यथा हि वः।
न हि किंचिद् रहस्यं मे श्रूयतां तथ्यमेव यत्॥३६॥
मूलम्
एवमेतद् यथा वेत्थ संकल्पो नान्यथा हि वः।
न हि किंचिद् रहस्यं मे श्रूयतां तथ्यमेव यत्॥३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
सावित्री बोली— मुनीश्वरो! आपलोग जैसा समझते हैं, ठीक है। आपलोगोंका संकल्प अन्यथा नहीं हो सकता। मेरे लिये कोई छिपानेकी बात नहीं है। मैं सब घटनाएँ ठीक-ठीक बताती हूँ, सुनिये॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृत्युर्मे पत्युराख्यातो नारदेन महात्मना।
स चाद्य दिवसः प्राप्तस्ततो नैनं जहाम्यहम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
मृत्युर्मे पत्युराख्यातो नारदेन महात्मना।
स चाद्य दिवसः प्राप्तस्ततो नैनं जहाम्यहम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महात्मा नारदजीने मुझसे मेरे पतिकी मृत्युका हाल बताया था। वह मृत्युदिवस आज ही आया था; इसलिये मैं इन्हें अकेला नहीं छोड़ती थी॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुप्तं चैनं यमः साक्षादुपागच्छत् सकिङ्करः।
स एनमनयद् बद्ध्वा दिशं पितृनिषेविताम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
सुप्तं चैनं यमः साक्षादुपागच्छत् सकिङ्करः।
स एनमनयद् बद्ध्वा दिशं पितृनिषेविताम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब ये सिरके दर्दसे व्याकुल होकर सो गये, उस समय साक्षात् भगवान् यमराज अपने सेवकके साथ पधारे। वे इन्हें बाँधकर दक्षिण दिशाकी ओर ले चले॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्तौषं तमहं देवं सत्येन वचसा विभुम्।
पञ्च वै तेन मे दत्ता वराः शृणुत तान् मम॥३९॥
मूलम्
अस्तौषं तमहं देवं सत्येन वचसा विभुम्।
पञ्च वै तेन मे दत्ता वराः शृणुत तान् मम॥३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय मैंने सत्यवचनोंद्वारा उन भगवान् यमकी स्तुति की। तब उन्होंने मुझे पाँच वर दिये। उन वरोंको आप मुझसे सुनिये॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चक्षुषी च स्वराज्यं च द्वौ वरौ श्वशुरस्य मे।
लब्धं पितुः पुत्रशतं पुत्राणां चात्मनः शतम् ॥ ४० ॥
मूलम्
चक्षुषी च स्वराज्यं च द्वौ वरौ श्वशुरस्य मे।
लब्धं पितुः पुत्रशतं पुत्राणां चात्मनः शतम् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नेत्र तथा अपने राज्यकी प्राप्ति—ये दो वर मेरे श्वशुरके लिये प्राप्त हुए हैं। इसके सिवा मैंने अपने पिताके लिये सौ पुत्र तथा अपने लिये भी सौ पुत्र होनेके दो वर और पाये हैं॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्वर्षशतायुर्मे भर्ता लब्धश्च सत्यवान्।
भर्तुर्हि जीवितार्थं तु मया चीर्णं त्विदं व्रतम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
चतुर्वर्षशतायुर्मे भर्ता लब्धश्च सत्यवान्।
भर्तुर्हि जीवितार्थं तु मया चीर्णं त्विदं व्रतम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाँचवें वरके रूपमें मुझे मेरे पति सत्यवान् चार सौ वर्षोंकी आयु लेकर प्राप्त हुए हैं। पतिके जीवनकी रक्षाके लिये ही मैंने यह व्रत किया था॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् सर्वं मयाऽऽख्यातं कारणं विस्तरेण वः।
यथावृत्तं सुखोदर्कमिदं दुःखं महन्मम ॥ ४२ ॥
मूलम्
एतत् सर्वं मयाऽऽख्यातं कारणं विस्तरेण वः।
यथावृत्तं सुखोदर्कमिदं दुःखं महन्मम ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे विलम्बसे आनेका कारण और उसका यथावत् वृत्तान्त विस्तारपूर्वक बताया है। मुझे जो यह महान् दुःख उठाना पड़ा है उसका अन्तिम फल सुख ही हुआ है॥४२॥
मूलम् (वचनम्)
ऋषय ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
निमज्जमानं व्यसनैरभिद्रुतं
कुलं नरेन्द्रस्य तमोमये ह्रदे।
त्वया सुशीलव्रतपुण्यया कुलं
समुद्धृतं साध्वि पुनः कुलीनया ॥ ४३ ॥
मूलम्
निमज्जमानं व्यसनैरभिद्रुतं
कुलं नरेन्द्रस्य तमोमये ह्रदे।
त्वया सुशीलव्रतपुण्यया कुलं
समुद्धृतं साध्वि पुनः कुलीनया ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषि बोले— पतिव्रते! राजा द्युमत्सेनका कुल भाँति-भाँतिकी विपत्तियोंसे ग्रस्त होकर दुःखके अंधकारमय गढ़ेमें डूबा जा रहा था; परंतु तुझ-जैसी सुशीला, व्रतपरायणा और पवित्र आचरणवाली कुलीन वधूने आकर इसका उद्धार कर दिया॥४३॥
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा प्रशस्य ह्यभिपूज्य चैव
वरस्त्रियं तामृषयः समागताः ।
नरेन्द्रमामन्त्र्य सपुत्रमञ्जसा
शिवेन जग्मुर्मुदिताः स्वमालयम् ॥ ४४ ॥
मूलम्
तथा प्रशस्य ह्यभिपूज्य चैव
वरस्त्रियं तामृषयः समागताः ।
नरेन्द्रमामन्त्र्य सपुत्रमञ्जसा
शिवेन जग्मुर्मुदिताः स्वमालयम् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इस प्रकार वहाँ आये हुए महर्षियोंने स्त्रियोंमें श्रेष्ठ सावित्रीकी भूरि-भूरि प्रशंसा तथा आदर-सत्कार करके पुत्रसहित राजा द्युमत्सेनकी अनुमति ले सुख और प्रसन्नताके साथ अपने-अपने घरको प्रस्थान किया॥४४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि पतिव्रतामाहात्म्यपर्वणि सावित्र्युपाख्याने अष्टनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २९८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत पतिव्रतामाहात्म्यपर्वमें सावित्री-उपाख्यानविषयक दौ सौ अट्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९८॥