२९६ सावित्र्युपाख्याने

भागसूचना

षण्णवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

सावित्रीकी व्रतचर्या तथा सास-ससुर और पतिकी आज्ञा लेकर सत्यवान्‌के साथ उसका वनमें जाना

मूलम् (वचनम्)

मार्कण्डेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः काले बहुतिथे व्यतिक्रान्ते कदाचन।
प्राप्तः स कालो मर्तव्यं यत्र सत्यवता नृप ॥ १ ॥

मूलम्

ततः काले बहुतिथे व्यतिक्रान्ते कदाचन।
प्राप्तः स कालो मर्तव्यं यत्र सत्यवता नृप ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्कण्डेयजी कहते हैं— युधिष्ठिर! तदनन्तर बहुत दिन बीत जानेपर एक दिन वह समय भी आ पहुँचा जब कि सत्यवान्‌की मृत्यु होनेवाली थी॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गणयन्त्याश्च सावित्र्या दिवसे दिवसे गते।
यद् वाक्यं नारदेनोक्तं वर्तते हृदि नित्यशः ॥ २ ॥

मूलम्

गणयन्त्याश्च सावित्र्या दिवसे दिवसे गते।
यद् वाक्यं नारदेनोक्तं वर्तते हृदि नित्यशः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सावित्री एक-एक दिन बीतनेपर उसकी गणना करती रहती थी। नारदजीने जो बात कही थी, वह उसके हृदयमें सदा विद्यमान रहती थी॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्थेऽहनि मर्तव्यमिति संचिन्त्य भाविनी।
व्रतं त्रिरात्मुद्दिश्य दिवारात्रं स्थिताभवत् ॥ ३ ॥

मूलम्

चतुर्थेऽहनि मर्तव्यमिति संचिन्त्य भाविनी।
व्रतं त्रिरात्मुद्दिश्य दिवारात्रं स्थिताभवत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाविनी सावित्रीको जब यह निश्चय हो गया कि मेरे पतिको आजसे चौथे दिन मरना है, तब उसने तीन रातका व्रत धारण किया और उसमें वह दिन-रात खड़ी ही रही॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं श्रुत्वा नियमं तस्या भृशं दुःखान्वितो नृपः।
उत्थाय वाक्यं सावित्रीमब्रवीत् परिसान्त्वयन् ॥ ४ ॥

मूलम्

तं श्रुत्वा नियमं तस्या भृशं दुःखान्वितो नृपः।
उत्थाय वाक्यं सावित्रीमब्रवीत् परिसान्त्वयन् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सावित्रीका यह कठोर नियम सुनकर राजा द्युमत्सेनको बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने उठकर सावित्रीको सान्त्वना देते हुए कहा॥४॥

मूलम् (वचनम्)

द्युमत्सेन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतितीव्रोऽयमारम्भस्त्वयाऽऽरब्धो नृपात्मजे ।
तिसृणां वसतीनां हि स्थानं परमदुश्चरम् ॥ ५ ॥

मूलम्

अतितीव्रोऽयमारम्भस्त्वयाऽऽरब्धो नृपात्मजे ।
तिसृणां वसतीनां हि स्थानं परमदुश्चरम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्युमत्सेन बोले— राजकुमारी! तुमने यह बड़ा कठोर व्रत आरम्भ किया है। तीन दिनोंतक निराहार रहना तो अत्यन्त दुष्कर कार्य है॥५॥

मूलम् (वचनम्)

सावित्र्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कार्यस्तात संतापः पारयिष्याम्यहं व्रतम्।
व्यवसायकृतं हीदं व्यवसायश्च कारणम् ॥ ६ ॥

मूलम्

न कार्यस्तात संतापः पारयिष्याम्यहं व्रतम्।
व्यवसायकृतं हीदं व्यवसायश्च कारणम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सावित्री बोली— पिताजी! आप चिन्ता न करें। मैं इस व्रतको पूर्ण कर लूँगी। दृढ़ निश्चय ही व्रतके निर्वाहमें कारण हुआ करता है, सो मैंने भी दृढ़ निश्चयसे ही इस व्रतको आरम्भ किया है॥६॥

मूलम् (वचनम्)

द्युमत्सेन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्रतं भिन्धीति वक्तुं त्वां नास्मि शक्तः कथञ्चन।
पारयस्वेति वचनं युक्तमस्मद्विधो वदेत् ॥ ७ ॥

मूलम्

व्रतं भिन्धीति वक्तुं त्वां नास्मि शक्तः कथञ्चन।
पारयस्वेति वचनं युक्तमस्मद्विधो वदेत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्युमत्सेनने कहा— यह तो मैं तुम्हें किसी तरह नहीं कह सकता कि ‘बेटी! तुम व्रत भंग कर दो।’ मेरे-जैसा मनुष्य यही समुचित बात कह सकता है कि ‘तुम व्रतको निर्विघ्न पूर्ण करो’॥७॥

मूलम् (वचनम्)

मार्कण्डेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा द्युमत्सेनो विरराम महामनाः।
तिष्ठन्ती चैव सावित्री काष्ठभूतेव लक्ष्यते ॥ ८ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा द्युमत्सेनो विरराम महामनाः।
तिष्ठन्ती चैव सावित्री काष्ठभूतेव लक्ष्यते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्कण्डेयजी कहते हैं— युधिष्ठिर! ऐसा कहकर महामना द्युमत्सेन चुप हो गये। सावित्री एक स्थानपर खड़ी हुई काठ-सी दिखायी देती थी॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वोभूते भर्तृमरणे सावित्र्या भरतर्षभ।
दुःखान्वितायास्तिष्ठन्त्या सा रात्रिर्व्यत्यवर्तत ॥ ९ ॥

मूलम्

श्वोभूते भर्तृमरणे सावित्र्या भरतर्षभ।
दुःखान्वितायास्तिष्ठन्त्या सा रात्रिर्व्यत्यवर्तत ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! कल ही पतिदेवकी मृत्यु होनेवाली है, यह सोचकर दुःखमें डूबी हुई सावित्रीकी वह रात खड़े-ही-खड़े बीत गयी॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य तद् दिवसं चेति हुत्वा दीप्तं हुताशनम्।
युगमात्रोदिते सूर्ये कृत्वा पौर्वाह्णिकीः क्रियाः ॥ १० ॥

मूलम्

अद्य तद् दिवसं चेति हुत्वा दीप्तं हुताशनम्।
युगमात्रोदिते सूर्ये कृत्वा पौर्वाह्णिकीः क्रियाः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरे दिन यह सोचकर कि आज ही वह दिन है, उसने सूर्यदेवके चार हाथ ऊपर उठते-उठते पूर्वाह्णकालके सब कृत्य पूरे कर लिये और प्रज्वलित अग्निमें आहुति दी॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सर्वान् द्विजान् वृद्धान् श्वश्रूं श्वशुरमेव च।
अभिवाद्यानुपूर्व्येण प्राञ्जलिर्नियता स्थिता ॥ ११ ॥

मूलम्

ततः सर्वान् द्विजान् वृद्धान् श्वश्रूं श्वशुरमेव च।
अभिवाद्यानुपूर्व्येण प्राञ्जलिर्नियता स्थिता ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर सभी ब्राह्मणों, बड़े-बूढ़ों और सास-ससुरको क्रमशः प्रणाम करके वह नियमपूर्वक हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ी रही॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवैधव्याशिषस्ते तु सावित्र्यर्थं हिताः शुभाः।
ऊचुस्तपस्विनः सर्वे तपोवननिवासिनः ॥ १२ ॥

मूलम्

अवैधव्याशिषस्ते तु सावित्र्यर्थं हिताः शुभाः।
ऊचुस्तपस्विनः सर्वे तपोवननिवासिनः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस तपोवनमें रहनेवाले सभी तपस्वियोंने सावित्रीके लिये अवैधव्यसूचक—सौभाग्यवर्धक, शुभ और हितकर आशीर्वाद दिये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमस्त्विति सावित्री ध्यानयोगपरायणा ।
मनसा ता गिरः सर्वा प्रत्यगृह्णात् तपस्विनाम् ॥ १३ ॥

मूलम्

एवमस्त्विति सावित्री ध्यानयोगपरायणा ।
मनसा ता गिरः सर्वा प्रत्यगृह्णात् तपस्विनाम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सावित्रीने ध्यानयोगमें स्थित हो तपस्वियोंकी उस आशीर्वादमयी वाणीको ‘एवमस्तु (ऐसा ही हो)’ कहकर मन-ही-मन शिरोधार्य किया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं कालं तं मुहूर्तं च प्रतीक्षन्ती नृपात्मजा।
यथोक्तं नारदवचश्चिन्तयन्ती सुदुःखिता ॥ १४ ॥

मूलम्

तं कालं तं मुहूर्तं च प्रतीक्षन्ती नृपात्मजा।
यथोक्तं नारदवचश्चिन्तयन्ती सुदुःखिता ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर पतिकी मृत्युसे सम्बन्ध रखनेवाले समय और मुहूर्तकी प्रतीक्षा करती हुई राजकुमारी सावित्री नारदजीके पूर्वोक्त वचनका चिन्तन करके बहुत दुःखी हो गयी॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु श्वश्रूश्वशुरावूचतुस्तां नृपात्मजाम् ।
एकान्तमास्थितां वाक्यं प्रीत्या भरतसत्तम ॥ १५ ॥

मूलम्

ततस्तु श्वश्रूश्वशुरावूचतुस्तां नृपात्मजाम् ।
एकान्तमास्थितां वाक्यं प्रीत्या भरतसत्तम ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर सास और ससुरने एकान्तमें बैठी हुई राजकुमारी सावित्रीसे प्रेमपूर्वक इस प्रकार कहा॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

श्वशुरावूचतुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्रतं यथोपदिष्टं तु तथा तत् पारितं त्वया।
आहारकालः सम्प्राप्तः क्रियतां यदनन्तरम् ॥ १६ ॥

मूलम्

व्रतं यथोपदिष्टं तु तथा तत् पारितं त्वया।
आहारकालः सम्प्राप्तः क्रियतां यदनन्तरम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सास-ससुर बोले— बेटी! तुमने शास्त्रके उपदेशके अनुसार अपना व्रत पूरा कर लिया है, अब पारण करनेका समय हो गया है। अतः जो कर्तव्य है, वह करो॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

सावित्र्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्तं गते मयाऽऽदित्ये भोक्तव्यं कृतकामया।
एष मे हृदि संकल्पः समयश्च कृतो मया ॥ १७ ॥

मूलम्

अस्तं गते मयाऽऽदित्ये भोक्तव्यं कृतकामया।
एष मे हृदि संकल्पः समयश्च कृतो मया ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सावित्री बोली— सूर्यास्त होनेपर जब मेरा मनोरथ पूर्ण हो जायगा तभी मैं भोजन करूँगी। यह मेरे मनका संकल्प है और मैंने ऐसा करनेकी प्रतिज्ञा कर ली है॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

मार्कण्डेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सम्भाषमाणायाः सावित्र्या भोजनं प्रति।
स्कन्धे परशुमादाय सत्यवान् प्रस्थितो वनम ॥ १८ ॥

मूलम्

एवं सम्भाषमाणायाः सावित्र्या भोजनं प्रति।
स्कन्धे परशुमादाय सत्यवान् प्रस्थितो वनम ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्कण्डेयजी कहते हैं— युधिष्ठिर! जब सावित्री भोजनके सम्बन्धमें इस प्रकार बातें कर रही थी, उसी समय सत्यवान् कंधेपर कुल्हाड़ी रखकर (फल-फूल, समिधा आदि लानेके लिये) वनकी ओर चले॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सावित्री त्वाह भर्तारं नैकस्त्वं गन्तुमर्हसि।
सह त्वया गमिष्यामि न हि त्वां हातुमुत्सहे ॥ १९ ॥

मूलम्

सावित्री त्वाह भर्तारं नैकस्त्वं गन्तुमर्हसि।
सह त्वया गमिष्यामि न हि त्वां हातुमुत्सहे ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय सावित्रीने अपने पतिसे कहा— नाथ! आप अकेले न जाइये। मैं भी आपके साथ चलूँगी। आज मैं आपको अकेला नहीं छोड़ सकती॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

सत्यवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वनं न गतपूर्वं ते दुःखः पन्थाश्च भाविनि।
व्रतोपवासक्षामा च कथं पद्भ्यां गमिष्यसि ॥ २० ॥

मूलम्

वनं न गतपूर्वं ते दुःखः पन्थाश्च भाविनि।
व्रतोपवासक्षामा च कथं पद्भ्यां गमिष्यसि ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्यवान्‌ने कहा— सुन्दरि! तुम पहले कभी वनमें नहीं गयी हो। वनका रास्ता बड़ा दुःखदायक होता है, तुम व्रत और उपवास करनेके कारण दुर्बल हो रही हो। ऐसी दशामें पैदल कैसे चल सकोगी?॥२०॥

मूलम् (वचनम्)

सावित्र्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपवासान्न मे ग्लानिर्नास्ति चापि परिश्रमः।
गमने च कृतोत्साहां प्रतिषेद्‌धुं न मार्हसि ॥ २१ ॥

मूलम्

उपवासान्न मे ग्लानिर्नास्ति चापि परिश्रमः।
गमने च कृतोत्साहां प्रतिषेद्‌धुं न मार्हसि ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सावित्री बोली— उपवासके कारण मुझे किसी प्रकारकी शिथिलता और थकावट नहीं है। चलनेके लिये मेरे मनमें पूर्ण उत्साह है, अतः आप मुझे मना न कीजिये॥

मूलम् (वचनम्)

सत्यवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि ते गमनोत्साहः करिष्यामि तव प्रियम्।
मम त्वामन्त्रय गुरून् न मां दोषः स्पृशेदयम् ॥ २२ ॥

मूलम्

यदि ते गमनोत्साहः करिष्यामि तव प्रियम्।
मम त्वामन्त्रय गुरून् न मां दोषः स्पृशेदयम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्यवान्‌ने कहा— यदि तुम्हें चलनेका उत्साह है तो मैं तुम्हारा प्रिय मनोरथ पूर्ण करूँगा। परंतु तुम मेरे माता-पितासे पूछ लो, जिससे मुझे दोषका भागी न होना पड़े॥

मूलम् (वचनम्)

मार्कण्डेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

साभिवाद्याब्रवीच्छ्‌वश्रूं श्वशुरं च महाव्रता।
अयं गच्छति मे भर्ता फलाहारो महावनम् ॥ २३ ॥
इच्छेयमभ्यनुज्ञाता आर्यया श्वशुरेण ह।
अनेन सह निर्गन्तुं न मेऽद्य विरहः क्षमः ॥ २४ ॥
गुर्वग्निहोत्रार्थकृते प्रस्थितश्च सुतस्तव ।
न निवार्यो निवार्यः स्यादन्यथा प्रस्थितो वनम् ॥ २५ ॥
संवत्सरः किंचिदूनो न निष्क्रान्ताहमाश्रमात्।
वनं कुसुमितं द्रष्टुं परं कौतूहलं हि मे ॥ २६ ॥

मूलम्

साभिवाद्याब्रवीच्छ्‌वश्रूं श्वशुरं च महाव्रता।
अयं गच्छति मे भर्ता फलाहारो महावनम् ॥ २३ ॥
इच्छेयमभ्यनुज्ञाता आर्यया श्वशुरेण ह।
अनेन सह निर्गन्तुं न मेऽद्य विरहः क्षमः ॥ २४ ॥
गुर्वग्निहोत्रार्थकृते प्रस्थितश्च सुतस्तव ।
न निवार्यो निवार्यः स्यादन्यथा प्रस्थितो वनम् ॥ २५ ॥
संवत्सरः किंचिदूनो न निष्क्रान्ताहमाश्रमात्।
वनं कुसुमितं द्रष्टुं परं कौतूहलं हि मे ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्कण्डेयजी कहते हैं— तब महान् व्रतका पालन करनेवाली सावित्रीने अपने सास-ससुरको प्रणाम करके कहा—‘ये मेरे पतिदेव फल आदि लानेके लिये महान् वनमें जा रहे हैं। यदि सासजी और ससुरजी मुझे आज्ञा दें तो मैं भी इनके साथ जाना चाहती हूँ। आज मुझे इनका एक क्षणका भी विरह सहा नहीं जाता। आपके पुत्र आज गुरुजनोंके लिये तथा अग्निहोत्रके उद्देश्यसे फल, फूल और समिधा आदि लानेके लिये वनमें जा रहे हैं, अतः उनको रोकना उचित नहीं है। हाँ, यदि किसी दूसरे कार्यके लिये वनमें जाते होते तो उन्हें रोका भी जा सकता था। एक वर्षसे कुछ ही कम हुआ, मैं आश्रमसे बाहर नहीं निकली। अतः आज फूलोंसे भरे हुए वनको देखनेके लिये मेरे मनमें बड़ी उत्कण्ठा है॥२३—२६॥

मूलम् (वचनम्)

द्युमत्सेन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यतः प्रभृति सावित्री पित्रा दत्ता स्नुषा मम।
नानयाभ्यर्थनायुक्तमुक्तपूर्वं स्मराम्यहम् ॥ २७ ॥

मूलम्

यतः प्रभृति सावित्री पित्रा दत्ता स्नुषा मम।
नानयाभ्यर्थनायुक्तमुक्तपूर्वं स्मराम्यहम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्युमत्सेन बोले— जबसे सावित्रीके पिताने इसे मेरी पुत्रवधू बनाकर दिया है, तबसे आजतक इसने पहले कभी मुझसे किसी बातके लिये प्रार्थना की हो, इसका मुझे स्मरण नहीं है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेषा लभतां कामं यथाभिलषितं वधूः।
अप्रमादश्च कर्तव्यः पुत्रि सत्यवतः पथि ॥ २८ ॥

मूलम्

तदेषा लभतां कामं यथाभिलषितं वधूः।
अप्रमादश्च कर्तव्यः पुत्रि सत्यवतः पथि ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः आज मेरी पुत्रवधू अपना अभीष्ट मनोरथ प्राप्त करे। बेटी! जा, सत्यवान्‌के मार्गमें सावधानी रखना॥२८॥

मूलम् (वचनम्)

मार्कण्डेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभाभ्यामभ्यनुज्ञाता सा जगाम यशस्विनी।
सह भर्त्रा हसन्तीव हृदयेन विदूयता ॥ २९ ॥

मूलम्

उभाभ्यामभ्यनुज्ञाता सा जगाम यशस्विनी।
सह भर्त्रा हसन्तीव हृदयेन विदूयता ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्कण्डेयजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इस प्रकार सास और ससुर दोनोंकी आज्ञा पाकर यशस्विनी सावित्री अपने पतिदेवके साथ चल दी, वह ऊपरसे तो हँसती-सी जान पड़ती थी, किंतु उसका हृदय दुःखकी ज्वालासे दग्ध हो रहा था॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा वनानि विचित्राणि रमणीयानि सर्वशः।
मयूरगणजुष्टानि ददर्श विपुलेक्षणा ॥ ३० ॥

मूलम्

सा वनानि विचित्राणि रमणीयानि सर्वशः।
मयूरगणजुष्टानि ददर्श विपुलेक्षणा ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विशाल नेत्रोंवाली सावित्रीने सब ओर घूम-घूमकर मयूरसमूहोंसे सेवित रमणीय और विचित्र वन देखे॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नदीः पुण्यवहाश्चैव पुष्पितांश्च नगोत्तमान्।
सत्यवानाह पश्येति सावित्रीं मधुरं वचः ॥ ३१ ॥

मूलम्

नदीः पुण्यवहाश्चैव पुष्पितांश्च नगोत्तमान्।
सत्यवानाह पश्येति सावित्रीं मधुरं वचः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पवित्र जल बहानेवाली नदियों तथा फूलोंसे लदे हुए सुन्दर वृक्षोंको लक्ष्य करके सत्यवान् सावित्रीसे मधुर वाणीमें कहते—‘प्रिये! देखो, कैसा मनोहर दृश्य है’॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरीक्षमाणा भर्तारं सर्वावस्थमनिन्दिता ।
मृतमेव हि भर्तारं काले मुनिवचः स्मरन् ॥ ३२ ॥

मूलम्

निरीक्षमाणा भर्तारं सर्वावस्थमनिन्दिता ।
मृतमेव हि भर्तारं काले मुनिवचः स्मरन् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सती-साध्वी सावित्री अपने पतिकी सभी अवस्थाओंका निरीक्षण करती थी। नारदजीके वचनोंको स्मरण करके उसे निश्चय हो गया था कि समयपर मेरे पतिकी मृत्यु अवश्यम्भावी है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुव्रजन्ती भर्तारं जगाम मृदुगामिनी।
द्विधेव हृदयं कृत्वा तं च कालमवेक्षती ॥ ३३ ॥

मूलम्

अनुव्रजन्ती भर्तारं जगाम मृदुगामिनी।
द्विधेव हृदयं कृत्वा तं च कालमवेक्षती ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्दगतिसे चलनेवाली सावित्री मानो अपने हृदयके दो भाग करके एकसे अपने पतिका अनुसरण करती और दूसरेसे प्रतिक्षण उनके मृत्युकालकी प्रतीक्षा कर रही थी॥३३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि पतिव्रतामाहात्म्यपर्वणि सावित्र्युपाख्याने षण्णवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २९६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत पतिव्रतामाहात्म्यपर्वमें सावित्री-उपाख्यानविषयक दो सौ छानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९६॥