भागसूचना
चतुर्नवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
सावित्रीका सत्यवान्के साथ विवाह करनेका दृढ़ निश्चय
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ मद्राधिपो राजा नारदेन समागतः।
उपविष्टः सभामध्ये कथायोगेन भारत ॥ १ ॥
मूलम्
अथ मद्राधिपो राजा नारदेन समागतः।
उपविष्टः सभामध्ये कथायोगेन भारत ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजी कहते हैं— भरतनन्दन युधिष्ठिर! एक दिन मद्रराज अश्वपति अपनी सभामें बैठे हुए देवर्षि नारदजीके साथ मिलकर बातें कर रहे थे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽभिगम्य तीर्थानि सर्वाण्येवाश्रमांस्तथा ।
आजगाम पितुर्वेश्म सावित्री सह मन्त्रिभिः ॥ २ ॥
मूलम्
ततोऽभिगम्य तीर्थानि सर्वाण्येवाश्रमांस्तथा ।
आजगाम पितुर्वेश्म सावित्री सह मन्त्रिभिः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी समय सावित्री सब तीर्थों और आश्रमोंमें घूम-फिरकर मन्त्रियोंके साथ अपने पिताके घर आ पहुँची॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारदेन सहासीनं सा दृष्ट्वा पितरं शुभा।
उभयोरेव शिरसा चक्रे पादाभिवादनम् ॥ ३ ॥
मूलम्
नारदेन सहासीनं सा दृष्ट्वा पितरं शुभा।
उभयोरेव शिरसा चक्रे पादाभिवादनम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ पिताको नारदजीके साथ बैठे हुए देखकर शुभलक्षणा सावित्रीने दोनोंके चरणोंमें मस्तक रखकर प्रणाम किया॥३॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्व गताभूत् सुतेयं ते कुतश्चैवागता नृप।
किमर्थं युवतीं भर्त्रे न चैनां सम्प्रयच्छसि ॥ ४ ॥
मूलम्
क्व गताभूत् सुतेयं ते कुतश्चैवागता नृप।
किमर्थं युवतीं भर्त्रे न चैनां सम्प्रयच्छसि ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने पूछा— राजन्! आपकी यह पुत्री कहाँ गयी थी और कहाँसे आ रही है? अब तो यह युवती हो गयी है। आप किसी वरके साथ इसका विवाह क्यों नहीं कर देते हैं?॥४॥
मूलम् (वचनम्)
अश्वपतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कार्येण खल्वनेनैव प्रेषिताद्यैव चागता।
एतस्याः शृणु देवर्षे भर्तारं योऽनया वृतः ॥ ५ ॥
मूलम्
कार्येण खल्वनेनैव प्रेषिताद्यैव चागता।
एतस्याः शृणु देवर्षे भर्तारं योऽनया वृतः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वपतिने कहा— देवर्षे! इसे मैंने इसी कार्यसे भेजा था और यह अभी-अभी लौटी है। इसने अपने लिये जिस पतिका वरण किया है, उसका नाम इसीके मुखसे सुनिये॥५॥
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा ब्रूहि विस्तरेणेति पित्रा संचोदिता शुभा।
तदैव तस्य वचनं प्रतिगृह्येदमब्रवीत् ॥ ६ ॥
मूलम्
सा ब्रूहि विस्तरेणेति पित्रा संचोदिता शुभा।
तदैव तस्य वचनं प्रतिगृह्येदमब्रवीत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजी कहते हैं— युधिष्ठिर! पिताके यह कहनेपर कि ‘बेटी! तू अपनी यात्राका वृतान्त विस्तारके साथ बतला’ शुभलक्षणा सावित्री उनकी आज्ञा मानकर उस समय इस प्रकार बोली॥६॥
मूलम् (वचनम्)
सावित्र्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसीच्छाल्वेषु धर्मात्मा क्षत्रियः पृथिवीपतिः।
द्युमत्सेन इति ख्यातः पश्चाच्चान्धो बभूव ह ॥ ७ ॥
मूलम्
आसीच्छाल्वेषु धर्मात्मा क्षत्रियः पृथिवीपतिः।
द्युमत्सेन इति ख्यातः पश्चाच्चान्धो बभूव ह ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सावित्रीने कहा— पिताजी! शाल्वदेशमें द्युमत्सेन नामसे प्रसिद्ध एक धर्मात्मा क्षत्रिय राजा राज्य करते थे। पीछे वे अंधे हो गये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विनष्टचक्षुषस्तस्य बालपुत्रस्य धीमतः ।
सामीप्येन हृतं राज्यं छिद्रेऽस्मिन् पूर्ववैरिणा ॥ ८ ॥
मूलम्
विनष्टचक्षुषस्तस्य बालपुत्रस्य धीमतः ।
सामीप्येन हृतं राज्यं छिद्रेऽस्मिन् पूर्ववैरिणा ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी आँखें चली गयीं और पुत्र अभी बाल्यावस्थामें था, यह अवसर पाकर उनके पूर्वशत्रु एक पड़ोसी राजाने आक्रमण किया और उस बुद्धिमान् नरेशका राज्य हर लिया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स बालवत्सया सार्धं भार्यया प्रस्थितो वनम्।
महारण्यं गतश्चापि तपस्तेपे महाव्रतः ॥ ९ ॥
तस्य पुत्रः पुरे जातः संवृद्धश्च तपोवने।
सत्यवाननुरूपो मे भर्तेति मनसा वृतः ॥ १० ॥
मूलम्
स बालवत्सया सार्धं भार्यया प्रस्थितो वनम्।
महारण्यं गतश्चापि तपस्तेपे महाव्रतः ॥ ९ ॥
तस्य पुत्रः पुरे जातः संवृद्धश्च तपोवने।
सत्यवाननुरूपो मे भर्तेति मनसा वृतः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब अपनी छोटी अवस्थाके पुत्रवाली पत्नीके साथ वे वनमें चले आये और विशाल वनके भीतर रहकर बड़े-बड़े व्रतोंका पालन करते हुए तपस्या करने लगे। उनके एक पुत्र हैं सत्यवान्, जो पैदा तो नगरमें हुए हैं, परंतु उनका पालन-पोषण एवं संवर्धन तपोवनमें हुआ है। वे ही मेरे योग्य पति हैं। उन्हींका मैंने मन-ही-मन वरण किया है॥९-१०॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो बत महत् पापं सावित्र्या नृपते कृतम्।
अजानन्त्या यदनया गुणवान् सत्यवान् वृतः ॥ ११ ॥
मूलम्
अहो बत महत् पापं सावित्र्या नृपते कृतम्।
अजानन्त्या यदनया गुणवान् सत्यवान् वृतः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(यह सुनकर) नारदजी बोल उठे— अहो! यह बड़े खेदकी बात है। राजन्! सावित्रीने बिना जाने ही अपना बड़ा अनिष्ट किया है, जो कि इसने सत्यवान्को गुणवान् समझकर वरण कर लिया है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यं वदत्यस्य पिता सत्यं माता प्रभाषते।
तथास्य ब्राह्मणाश्चक्रुर्नामैतत् सत्यवानिति ॥ १२ ॥
मूलम्
सत्यं वदत्यस्य पिता सत्यं माता प्रभाषते।
तथास्य ब्राह्मणाश्चक्रुर्नामैतत् सत्यवानिति ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस राजकुमारके पिता सदा सत्य बोलते हैं। इसकी माता भी सत्यभाषण करती है। इसलिये ब्राह्मणोंने इसका नाम ‘सत्यवान्’ रख दिया था॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालस्याश्वाः प्रियाश्चास्य करोत्यश्वांश्च मृन्मयान्।
चित्रेऽपि विलिखत्यश्वांश्चित्राश्व इति चोच्यते ॥ १३ ॥
मूलम्
बालस्याश्वाः प्रियाश्चास्य करोत्यश्वांश्च मृन्मयान्।
चित्रेऽपि विलिखत्यश्वांश्चित्राश्व इति चोच्यते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस बालकको अश्व बहुत प्रिय हैं। यह मिट्टीके अश्व बनाया करता है और चित्र लिखते समय भी अश्वोंको ही अंकित करता है, अतः इसे ‘चित्राश्व’ भी कहते हैं॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपीदानीं स तेजस्वी बुद्धिमान् वा नृपात्मजः।
क्षमावानपि वा शूरः सत्यवान् पितृवत्सलः ॥ १४ ॥
मूलम्
अपीदानीं स तेजस्वी बुद्धिमान् वा नृपात्मजः।
क्षमावानपि वा शूरः सत्यवान् पितृवत्सलः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने पूछा— देवर्षे! इस समय पितृभक्त राजकुमार सत्यवान् तेजस्वी, बुद्धिमान्, क्षमावान् और शूरवीर तो है न?॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विवस्वानिव तेजस्वी बृहस्पतिसमो मतौ।
महेन्द्र इव वीरश्च वसुधेव समन्वितः ॥ १५ ॥
मूलम्
विवस्वानिव तेजस्वी बृहस्पतिसमो मतौ।
महेन्द्र इव वीरश्च वसुधेव समन्वितः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— वह राजकुमार सूर्यके समान तेजस्वी, बृहस्पतिके समान बुद्धिमान्, इन्द्रके समान वीर और पृथ्वीके समान क्षमाशील है॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
अश्वपतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि राजात्मजो दाता ब्रह्मण्यश्चापि सत्यवान्।
रूपवानप्युदारो वाप्यथवा प्रियदर्शनः ॥ १६ ॥
मूलम्
अपि राजात्मजो दाता ब्रह्मण्यश्चापि सत्यवान्।
रूपवानप्युदारो वाप्यथवा प्रियदर्शनः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वपतिने पूछा— क्या राजपुत्र सत्यवान् दानी, ब्राह्मणभक्त, रूपवान्, उदार अथवा प्रियदर्शन भी है?॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सांकृते रन्तिदेवस्य स्वशक्त्या दानतः समः।
ब्रह्मण्यः सत्यवादी च शिबिरौशीनरो यथा ॥ १७ ॥
मूलम्
सांकृते रन्तिदेवस्य स्वशक्त्या दानतः समः।
ब्रह्मण्यः सत्यवादी च शिबिरौशीनरो यथा ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— सत्यवान् अपनी शक्तिके अनुसार दान देनेमें संकृतिनन्दन रन्तिदेवके समान है तथा उशीनरपुत्र शिबिके समान ब्राह्मणभक्त और सत्यवादी है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ययातिरिव चोदारः सोमवत् प्रियदर्शनः।
रूपेणान्यतमोऽश्विभ्यां द्युमत्सेनसुतो बली ॥ १८ ॥
मूलम्
ययातिरिव चोदारः सोमवत् प्रियदर्शनः।
रूपेणान्यतमोऽश्विभ्यां द्युमत्सेनसुतो बली ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह ययातिकी भाँति उदार और चन्द्रमाके समान प्रियदर्शन है। द्युमत्सेनका वह बलवान् पुत्र रूपवान् तो इतना है मानो अश्विनीकुमारोंमेंसे ही एक हो॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स दान्तः स मृदुः शूरः स सत्यः संयतेन्द्रियः।
स मैत्रः सोऽनसूयश्च स ह्रीमान् द्युतिमांश्च सः ॥ १९ ॥
मूलम्
स दान्तः स मृदुः शूरः स सत्यः संयतेन्द्रियः।
स मैत्रः सोऽनसूयश्च स ह्रीमान् द्युतिमांश्च सः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह जितेन्द्रिय, मृदुल, शूरवीर, सत्यस्वरूप, इन्द्रियसंयमी, सबके प्रति मैत्रीभाव रखनेवाला, अदोषदर्शी, लज्जावान् और कान्तिमान् है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यशश्चार्जवं तस्मिन् स्थितिस्तस्यैव च ध्रुवा।
संक्षेपतस्तपोवृद्धैः शीलवृद्धैश्च कथ्यते ॥ २० ॥
मूलम्
नित्यशश्चार्जवं तस्मिन् स्थितिस्तस्यैव च ध्रुवा।
संक्षेपतस्तपोवृद्धैः शीलवृद्धैश्च कथ्यते ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तप और शीलमें बढ़े हुए वृद्ध पुरुष संक्षेपमें उसके विषयमें ऐसा कहते हैं कि राजकुमार सत्यवान्में सरलताका नित्य निवास है और उस सद्गुणमें उसकी अविचल स्थिति है॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
अश्वपतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणैरुपेतं सर्वैस्तं भगवन् प्रब्रवीषि मे।
दोषानप्यस्य मे ब्रूहि यदि सन्तीह केचन ॥ २१ ॥
मूलम्
गुणैरुपेतं सर्वैस्तं भगवन् प्रब्रवीषि मे।
दोषानप्यस्य मे ब्रूहि यदि सन्तीह केचन ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वपति बोले— भगवन्! आप तो उसे सभी गुणोंसे सम्पन्न ही बता रहे हैं, यदि उसमें कोई दोष हों तो उन्हें भी बतलाइये॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक एवास्य दोषो हि गुणानाक्रम्य तिष्ठति।
स च दोषः प्रयत्नेन न शक्यमतिवर्तितुम् ॥ २२ ॥
मूलम्
एक एवास्य दोषो हि गुणानाक्रम्य तिष्ठति।
स च दोषः प्रयत्नेन न शक्यमतिवर्तितुम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— दोष तो एक ही है, जो उसके सभी गुणोंको दबाकर स्थित है। उस दोषको प्रयत्न करके भी हटाया नहीं जा सकता॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको दोषोऽस्ति नान्योऽस्य सोऽद्यप्रभृति सत्यवान्।
संवत्सरेण क्षीणायुर्देहन्यासं करिष्यति ॥ २३ ॥
मूलम्
एको दोषोऽस्ति नान्योऽस्य सोऽद्यप्रभृति सत्यवान्।
संवत्सरेण क्षीणायुर्देहन्यासं करिष्यति ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आजसे लेकर एक वर्ष पूर्ण होनेतक सत्यवान्की आयु पूर्ण हो जायगी और वह शरीर त्याग देगा। केवल यही दोष उसमें है, दूसरा नहीं॥२३॥
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहि सावित्रि गच्छस्व अन्यं वरय शोभने।
तस्य दोषो महानेको गुणानाक्रम्य च स्थितः ॥ २४ ॥
मूलम्
एहि सावित्रि गच्छस्व अन्यं वरय शोभने।
तस्य दोषो महानेको गुणानाक्रम्य च स्थितः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा बोले— बेटी सावित्री! यहाँ आ। शोभने! तू पुनः यात्रा कर और दूसरे किसी पुरुषका वरण कर ले। सत्यवान्का यह एक ही बहुत बड़ा दोष है जो उसके सभी गुणोंको दबाकर स्थित है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा मे भगवानाह नारदो देवसत्कृतः।
संवत्सरेण सोऽल्पायुर्देहन्यासं करिष्यति ॥ २५ ॥
मूलम्
यथा मे भगवानाह नारदो देवसत्कृतः।
संवत्सरेण सोऽल्पायुर्देहन्यासं करिष्यति ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसा कि देववदिन्त भगवान् नारदजी कह रहे हैं, सत्यवान्की आयु बहुत थोड़ी है और वह एक ही वर्षमें देहत्याग कर देगा॥२५॥
मूलम् (वचनम्)
सावित्र्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सकृदंशो निपतति सकृत् कन्या प्रदीयते।
सकृदाह ददानीति त्रीण्येतानि सकृत् सकृत् ॥ २६ ॥
दीर्घायुरथवाल्पायुः सगुणो निर्गुणोऽपि वा।
सकृद् वृतो मया भर्ता न द्वितीयं वृणोम्यहम् ॥ २७ ॥
मूलम्
सकृदंशो निपतति सकृत् कन्या प्रदीयते।
सकृदाह ददानीति त्रीण्येतानि सकृत् सकृत् ॥ २६ ॥
दीर्घायुरथवाल्पायुः सगुणो निर्गुणोऽपि वा।
सकृद् वृतो मया भर्ता न द्वितीयं वृणोम्यहम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सावित्री बोली— भाइयोंमें धनका बँटवारा एक ही बार होता है, कन्या एक ही बार दी जाती है तथा श्रेष्ठ दाता ‘मैं दूँगा’, यह कहकर एक ही बार वचनदान करता है। ये तीन बातें एक-एक बार ही होती हैं। सत्यवान् दीर्घायु हों या अल्पायु, गुणवान् हों या गुणहीन; मैंने उन्हें एक बार अपना पति चुन लिया। अब मैं दूसरे किसी पुरुषका वरण नहीं कर सकती॥२६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनसा निश्चयं कृत्वा ततो वाचाभिधीयते।
क्रियते कर्मणा पश्चात् प्रमाणं मे मनस्ततः ॥ २८ ॥
मूलम्
मनसा निश्चयं कृत्वा ततो वाचाभिधीयते।
क्रियते कर्मणा पश्चात् प्रमाणं मे मनस्ततः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले मनसे निश्चय करके फिर वाणीद्वारा कहा जाता है। तत्पश्चात् उसे कार्यरूपमें परिणत किया जाता है, अतः इस विषयमें मेरा मन ही प्रमाण है॥२८॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थिरा बुद्धिर्नरश्रेष्ठ सावित्र्या दुहितुस्तव।
नैषा वारयितुं शक्या धर्मादस्मात् कथंचन ॥ २९ ॥
मूलम्
स्थिरा बुद्धिर्नरश्रेष्ठ सावित्र्या दुहितुस्तव।
नैषा वारयितुं शक्या धर्मादस्मात् कथंचन ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी बोले— नरश्रेष्ठ! आपकी पुत्री सावित्रीकी बुद्धि स्थिर है। इसे इस धर्ममार्गसे किसी तरह हटाया नहीं जा सकता॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नान्यस्मिन् पुरुषे सन्ति ये सत्यवति वै गुणाः।
प्रदानमेव तस्मान्मे रोचते दुहितुस्तव ॥ ३० ॥
मूलम्
नान्यस्मिन् पुरुषे सन्ति ये सत्यवति वै गुणाः।
प्रदानमेव तस्मान्मे रोचते दुहितुस्तव ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यवान्में जो गुण हैं, वे दूसरे किसी पुरुषमें हैं भी नहीं। अतः मुझे आपकी पुत्रीका सत्यवान्के साथ विवाह कर देना ही ठीक मालूम पड़ता है॥३०॥
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविचाल्यं तदुक्तं यत् तथ्यं भगवता वचः।
करिष्याम्येतदेवं च गुरुर्हि भगवान् मम ॥ ३१ ॥
मूलम्
अविचाल्यं तदुक्तं यत् तथ्यं भगवता वचः।
करिष्याम्येतदेवं च गुरुर्हि भगवान् मम ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा बोले— देवर्षे! आपने जो बात कही है, वह ठीक है। उसे टाला नहीं जा सकता। अतः मैं ऐसा ही करूँगा, क्योंकि आप मेरे गुरु हैं॥३१॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविघ्नमस्तु सावित्र्याः प्रदाने दुहितुस्तव।
साधयिष्याम्यहं तावत् सर्वेषां भद्रमस्तु वः ॥ ३२ ॥
मूलम्
अविघ्नमस्तु सावित्र्याः प्रदाने दुहितुस्तव।
साधयिष्याम्यहं तावत् सर्वेषां भद्रमस्तु वः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— राजन्! आपकी पुत्री सावित्रीके विवाहमें किसी प्रकारकी विघ्न-बाधा न आवे। अच्छा, अब मैं चलता हूँ। आप सब लोगोंका कल्याण हो॥
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा समुत्पत्य नारदस्त्रिदिवं गतः।
राजापि दुहितुः सज्जं वैवाहिकमकारयत् ॥ ३३ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा समुत्पत्य नारदस्त्रिदिवं गतः।
राजापि दुहितुः सज्जं वैवाहिकमकारयत् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजी कहते हैं— युधिष्ठिर! ऐसा कहकर नारदजी उठे और स्वर्गलोकमें चले गये। इधर राजा भी अपनी पुत्रीके विवाहकी तैयारी कराने लगे॥३३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि पतिव्रतामाहात्म्यपर्वणि सावित्र्युपाख्याने चतुर्नवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २९४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत पतिव्रतामाहात्म्यपर्वमें सावित्री-उपाख्यानविषयक दो सौ चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९४॥