भागसूचना
(पतिव्रतामाहात्म्यपर्व)
त्रिनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजा अश्वपतिको देवी सावित्रीके वरदानसे सावित्री नामक कन्याकी प्राप्ति तथा सावित्रीका पतिवरणके लिये विभिन्न देशोंमें भ्रमण
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नात्मानमनुशोचामि नेमान् भ्रातॄन् महामुने।
हरणं चापि राज्यस्य यथेमां द्रुपदात्मजाम् ॥ १ ॥
मूलम्
नात्मानमनुशोचामि नेमान् भ्रातॄन् महामुने।
हरणं चापि राज्यस्य यथेमां द्रुपदात्मजाम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— महामुने! इस द्रुपदकुमारीके लिये मुझे जैसा शोक होता है, वैसा न तो अपने लिये, न इन भाइयोंके लिये न राज्य छिन जानेके लिये ही होता है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्यूते दुरात्मभिः क्लिष्टाः कृष्णया तारिता वयम्।
जयद्रथेन च पुनर्वनाच्चापि हृता बलात् ॥ २ ॥
मूलम्
द्यूते दुरात्मभिः क्लिष्टाः कृष्णया तारिता वयम्।
जयद्रथेन च पुनर्वनाच्चापि हृता बलात् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुरात्मा धृतराष्ट्रपुत्रोंने जूएके समय हमलोगोंको भारी संकटमें डाल दिया था, परंतु इस द्रौपदीने हमें बचा लिया। फिर जयद्रथने इस वनसे इसका बलपूर्वक अपहरण किया॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्ति सीमन्तिनी काचिद् दृष्टपूर्वापि वा श्रुता।
पतिव्रता महाभागा यथेयं द्रुपदात्मजा ॥ ३ ॥
मूलम्
अस्ति सीमन्तिनी काचिद् दृष्टपूर्वापि वा श्रुता।
पतिव्रता महाभागा यथेयं द्रुपदात्मजा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्या आपने किसी ऐसी परम सौभाग्यवती पतिव्रता नारीको पहले कभी देखा अथवा सुना है, जैसी यह द्रौपदी है?॥३॥
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु राजन् कुलस्त्रीणां महाभाग्यं युधिष्ठिर।
सर्वमेतद् यथा प्राप्तं सावित्र्या राजकन्यया ॥ ४ ॥
मूलम्
शृणु राजन् कुलस्त्रीणां महाभाग्यं युधिष्ठिर।
सर्वमेतद् यथा प्राप्तं सावित्र्या राजकन्यया ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजी बोले— राजा युधिष्ठिर! राजकन्या सावित्रीने कुलकामिनियोंके लिये परम सौभाग्यरूप यह पातिव्रत्य आदि सब सद्गुणसमूह जिस प्रकार प्राप्त किया था, वह बताता हूँ, सुनो॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसीन्मद्रेषु धर्मात्मा राजा परमधार्मिकः।
ब्रह्मण्यश्च महात्मा च सत्यसंधो जितेन्द्रियः ॥ ५ ॥
मूलम्
आसीन्मद्रेषु धर्मात्मा राजा परमधार्मिकः।
ब्रह्मण्यश्च महात्मा च सत्यसंधो जितेन्द्रियः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राचीनकालकी बात है, मद्रदेशमें एक परम धर्मात्मा राजा राज्य करते थे। वे ब्राह्मण-भक्त, विशालहृदय, सत्य-प्रतिज्ञ और जितेन्द्रिय थे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्वा दानपतिर्दक्षः पौरजानपदप्रियः ।
पार्थिवोऽश्वपतिर्नाम सर्वभूतहिते रतः ॥ ६ ॥
मूलम्
यज्वा दानपतिर्दक्षः पौरजानपदप्रियः ।
पार्थिवोऽश्वपतिर्नाम सर्वभूतहिते रतः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे यज्ञ करनेवाले, दानाध्यक्ष, कार्यकुशल, नगर और जनपदके लोगोंके परम प्रिय तथा सम्पूर्ण भूतोंके हितमें तत्पर रहनेवाले भूपाल थे। उनका नाम अश्वपति था॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षमावाननपत्यश्च सत्यवाग् विजितेन्द्रियः ।
अतिक्रान्तेन वयसा संतापमुपजग्मिवान् ॥ ७ ॥
मूलम्
क्षमावाननपत्यश्च सत्यवाग् विजितेन्द्रियः ।
अतिक्रान्तेन वयसा संतापमुपजग्मिवान् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा अश्वपति क्षमाशील, सत्यवादी और जितेन्द्रिय होनेपर भी संतानहीन थे। बहुत अधिक अवस्था बीत जानेपर इसके कारण उनके मनमें बड़ा संताप हुआ॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपत्योत्पादनार्थं च तीव्रं नियममास्थितः।
काले परिमिताहारो ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः ॥ ८ ॥
मूलम्
अपत्योत्पादनार्थं च तीव्रं नियममास्थितः।
काले परिमिताहारो ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः उन्होंने संतानकी उत्पत्तिके लिये कठोर नियमोंका आश्रय लिया। वे निश्चित समयपर थोड़ा-सा भोजन करते और ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए इन्द्रियोंको संयममें रखते थे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुत्वा शतसहस्रं स सावित्र्या राजसत्तमः।
षष्ठे षष्ठे तदा काले बभूव मितभोजनः ॥ ९ ॥
मूलम्
हुत्वा शतसहस्रं स सावित्र्या राजसत्तमः।
षष्ठे षष्ठे तदा काले बभूव मितभोजनः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाओंमें श्रेष्ठ अश्वपति ब्राह्मणोंके साथ प्रतिदिन गायत्री-मन्त्रसे एक लाख आहुति देकर दिनके छठे भागमें परिमित भोजन करते थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतेन नियमेनासीद् वर्षाण्यष्टादशैव तु।
पूर्णे त्वष्टादशे वर्षे सावित्री तुष्टिमभ्यगात् ॥ १० ॥
मूलम्
एतेन नियमेनासीद् वर्षाण्यष्टादशैव तु।
पूर्णे त्वष्टादशे वर्षे सावित्री तुष्टिमभ्यगात् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनको इस नियमसे रहते हुए अठारह वर्ष बीत गये। अठारहवाँ वर्ष पूर्ण होनेपर सावित्रीदेवी संतुष्ट हुईं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपिणी तु तदा राजन् दर्शयामास तं नृपम्।
अग्निहोत्रात् समुत्थाय हर्षेण महतान्विता।
उवाच चैनं वरदा वचनं पार्थिवं तदा ॥ ११ ॥
(सा तमश्वपतिं राजन् सावित्री नियमे स्थितम्॥)
मूलम्
रूपिणी तु तदा राजन् दर्शयामास तं नृपम्।
अग्निहोत्रात् समुत्थाय हर्षेण महतान्विता।
उवाच चैनं वरदा वचनं पार्थिवं तदा ॥ ११ ॥
(सा तमश्वपतिं राजन् सावित्री नियमे स्थितम्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तब मूर्तिमती सावित्रीदेवीने अग्निहोत्रकी अग्निसे प्रकट होकर बड़े हर्षके साथ राजाको प्रत्यक्ष दर्शन दिया और वर देनेके लिये उद्यत हो अनुष्ठानके नियमोंमें स्थित उस राजा अश्वपतिसे इस प्रकार कहा॥
मूलम् (वचनम्)
सावित्र्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मचर्येण शुद्धेन दमेन नियमेन च।
सर्वात्मना च भक्त्या च तुष्टास्मि तव पार्थिव ॥ १२ ॥
मूलम्
ब्रह्मचर्येण शुद्धेन दमेन नियमेन च।
सर्वात्मना च भक्त्या च तुष्टास्मि तव पार्थिव ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सावित्री बोली— राजन्! मैं तुम्हारे विशुद्ध ब्रह्मचर्य, इन्द्रियसंयम, मनोनिग्रह तथा सम्पूर्ण हृदयसे की हुई भक्तिके द्वारा बहुत संतुष्ट हुई हूँ॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरं वृणीष्वाश्वपते मद्रराज यदीप्सितम्।
न प्रमादश्च धर्मेषु कर्तव्यस्ते कथञ्चन ॥ १३ ॥
मूलम्
वरं वृणीष्वाश्वपते मद्रराज यदीप्सितम्।
न प्रमादश्च धर्मेषु कर्तव्यस्ते कथञ्चन ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मद्रराज अश्वपते! तुम्हें जो अभीष्ट हो, वह वर माँगो। धर्मोंके पालनमें तुम्हें कभी किसी तरह भी प्रमाद नहीं करना चाहिये॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
अश्वपतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपत्यार्थः समारम्भः कृतो धर्मेप्सया मया।
पुत्रा मे बहवो देवि भवेयुः कुलभावनाः ॥ १४ ॥
मूलम्
अपत्यार्थः समारम्भः कृतो धर्मेप्सया मया।
पुत्रा मे बहवो देवि भवेयुः कुलभावनाः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वपतिने कहा— देवि! मैंने धर्मप्राप्तिकी इच्छासे संतानके लिये यह अनुष्ठान आरम्भ किया था। आपकी कृपासे मुझे बहुत-से वंशप्रवर्तक पुत्र प्राप्त हों॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुष्टासि यदि मे देवि वरमेतं वृणोम्यहम्।
संतानं परमो धर्म इत्याहुर्मां द्विजातयः ॥ १५ ॥
मूलम्
तुष्टासि यदि मे देवि वरमेतं वृणोम्यहम्।
संतानं परमो धर्म इत्याहुर्मां द्विजातयः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! यदि आप प्रसन्न हैं तो मैं आपसे यह संतानसम्बन्धी वर ही माँगता हूँ; क्योंकि द्विजातिगण मुझसे बराबर यही कहते हैं कि ‘न्याययुक्त संतानोत्पादन (भी) परम धर्म है’॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
सावित्र्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वमेव मया राजन्नभिप्रायमिमं तव।
ज्ञात्वा पुत्रार्थमुक्तो वै भगवांस्ते पितामहः ॥ १६ ॥
मूलम्
पूर्वमेव मया राजन्नभिप्रायमिमं तव।
ज्ञात्वा पुत्रार्थमुक्तो वै भगवांस्ते पितामहः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सावित्री बोली— राजन्! मैंने पहले ही तुम्हारे इस अभिप्रायको जानकर पुत्रके लिये भगवान् ब्रह्माजीसे निवेदन किया था॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसादाच्चैव तस्मात् ते स्वयम्भुविहिताद् भुवि।
कन्या तेजस्विनी सौम्य क्षिप्रमेव भविष्यति ॥ १७ ॥
मूलम्
प्रसादाच्चैव तस्मात् ते स्वयम्भुविहिताद् भुवि।
कन्या तेजस्विनी सौम्य क्षिप्रमेव भविष्यति ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः सौम्य! भगवान् ब्रह्माजीके कृपाप्रसादसे तुम्हें शीघ्र ही इस पृथ्वीपर एक तेजस्विनी कन्या प्राप्त होगी॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तरं च न ते किंचिद् व्याहर्तव्यं कथञ्चन।
पितामहनिसर्गेण तुष्टा ह्येतद् ब्रवीमि ते ॥ १८ ॥
मूलम्
उत्तरं च न ते किंचिद् व्याहर्तव्यं कथञ्चन।
पितामहनिसर्गेण तुष्टा ह्येतद् ब्रवीमि ते ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस विषयमें तुम्हें किसी तरह भी कोई प्रतिवाद या उत्तर नहीं देना चाहिये। मैं ब्रह्माजीकी आज्ञासे संतुष्ट होकर तुमसे यह बात कहती हूँ॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तथेति प्रतिज्ञाय सावित्र्या वचनं नृपः।
प्रसादयामास पुनः क्षिप्रमेतद् भविष्यति ॥ १९ ॥
मूलम्
स तथेति प्रतिज्ञाय सावित्र्या वचनं नृपः।
प्रसादयामास पुनः क्षिप्रमेतद् भविष्यति ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजी कहते हैं— राजन्! सावित्रीदेवीकी बात सुनकर राजाने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञाका पालन करनेकी प्रतिज्ञा की और पुनः सावित्रीदेवीको इस उद्देश्यसे प्रसन्न किया कि यह भविष्यवाणी शीघ्र सफल हो॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तर्हितायां सावित्र्यां जगाम स्वपुरं नृपः।
स्वराज्ये चावसद् वीरः प्रजा धर्मेण पालयन् ॥ २० ॥
मूलम्
अन्तर्हितायां सावित्र्यां जगाम स्वपुरं नृपः।
स्वराज्ये चावसद् वीरः प्रजा धर्मेण पालयन् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब सावित्रदेवी अन्तर्धान हो गयीं, तब वीर राजा अश्वपति भी अपने नगरको चले गये और प्रजाका धर्मपूर्वक पालन करते हुए अपने राज्यमें ही रहने लगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्मिंश्चित् तु गते काले स राजा नियतव्रतः।
ज्येष्ठायां धर्मचारिण्यां महिष्यां गर्भमादधे ॥ २१ ॥
मूलम्
कस्मिंश्चित् तु गते काले स राजा नियतव्रतः।
ज्येष्ठायां धर्मचारिण्यां महिष्यां गर्भमादधे ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नियमपूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाले राजा अश्वपतिने किसी समय अपनी धर्मपरायणा बड़ी रानीमें गर्भ स्थापित किया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजपुत्र्यास्तु गर्भः स मालव्या भरतर्षभ।
व्यवर्धत तदा शुक्ले तारापतिरिवाम्बरे ॥ २२ ॥
मूलम्
राजपुत्र्यास्तु गर्भः स मालव्या भरतर्षभ।
व्यवर्धत तदा शुक्ले तारापतिरिवाम्बरे ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! अश्वपतिकी पत्नी मालवदेशकी राजकुमारी थीं। उनका वह गर्भ आकाशमें शुक्लपक्षीय चन्द्रमाकी भाँति दिनोदिन बढ़ने लगा॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्ते काले तु सुषुवे कन्यां राजीवलोचनाम्।
क्रियाश्च तस्या मुदितश्चक्रे च नृपसत्तमः ॥ २३ ॥
मूलम्
प्राप्ते काले तु सुषुवे कन्यां राजीवलोचनाम्।
क्रियाश्च तस्या मुदितश्चक्रे च नृपसत्तमः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समय प्राप्त होनेपर महारानीने एक कमलनयनी कन्याको जन्म दिया तथा नृपश्रेष्ठ अश्वपतिने अत्यन्त प्रसन्न होकर उसके जातकर्म आदि संस्कार सम्पन्न करवाये॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सावित्र्या प्रीतया दत्ता सावित्र्या हुतया ह्यपि।
सावित्रीत्येव नामास्याश्चक्रुर्विप्रास्तथा पिता ॥ २४ ॥
मूलम्
सावित्र्या प्रीतया दत्ता सावित्र्या हुतया ह्यपि।
सावित्रीत्येव नामास्याश्चक्रुर्विप्रास्तथा पिता ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सावित्रीने प्रसन्न होकर उस कन्याको दिया था तथा गायत्री-मन्त्रद्वारा आहुति देनेसे ही सावित्रीदेवी प्रसन्न हुई थीं, अतः ब्राह्मणों तथा पिताने उस कन्याका नाम ‘सावित्री’ ही रखा॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा विग्रहवतीव श्रीर्व्यवर्धत नृपात्मजा।
कालेन चापि सा कन्या यौवनस्था बभूव ह ॥ २५ ॥
मूलम्
सा विग्रहवतीव श्रीर्व्यवर्धत नृपात्मजा।
कालेन चापि सा कन्या यौवनस्था बभूव ह ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह राजकन्या मूर्तिमती लक्ष्मीके समान बढ़ने लगी और यथासमय उसने युवावस्थामें प्रवेश किया॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां सुमध्यां पृथुश्रोणीं प्रतिमां काञ्चनीमिव।
प्राप्तेयं देवकन्येति दृष्ट्वा सम्मेनिरे जनाः ॥ २६ ॥
मूलम्
तां सुमध्यां पृथुश्रोणीं प्रतिमां काञ्चनीमिव।
प्राप्तेयं देवकन्येति दृष्ट्वा सम्मेनिरे जनाः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके शरीरका कटिभाग परम सुन्दर तथा नितम्बदेश पृथुल था। वह सुवर्णकी बनी हुई प्रतिमा-सी जान पड़ती थी। उसे देखकर सब लोग यही मानते थे कि यह कोई देवकन्या आ गयी है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां तु पद्मपलाशाक्षीं ज्वलन्तीमिव तेजसा।
न कश्चिद् वरयामास तेजसा प्रतिवारितः ॥ २७ ॥
मूलम्
तां तु पद्मपलाशाक्षीं ज्वलन्तीमिव तेजसा।
न कश्चिद् वरयामास तेजसा प्रतिवारितः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके नेत्रयुगल विकसित नील कमलदलके समान मनोहर थे। वह अपने तेजसे प्रज्वलित-सी जान पड़ती थी। उसके तेजसे प्रतिहत हो जानेके कारण कोई भी राजा या राजकुमार उसका वरण नहीं कर सका॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथोपोष्य शिरःस्नाता देवतामभिगम्य सा।
हुत्वाग्निं विधिवद् विप्रान् वाचयामास पर्वणि ॥ २८ ॥
मूलम्
अथोपोष्य शिरःस्नाता देवतामभिगम्य सा।
हुत्वाग्निं विधिवद् विप्रान् वाचयामास पर्वणि ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन किसी पर्वके अवसरपर उपवासपूर्वक शिरसे स्नान करके सावित्री देवताके दर्शनके लिये गयी और विधिपूर्वक अग्निमें आहुति दे उसने ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराया॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सुमनसः शेषाः प्रतिगृह्य महात्मनः।
पितुः समीपमगमद् देवी श्रीरिव रूपिणी ॥ २९ ॥
मूलम्
ततः सुमनसः शेषाः प्रतिगृह्य महात्मनः।
पितुः समीपमगमद् देवी श्रीरिव रूपिणी ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर इष्टदेवताका प्रसाद लेकर मूर्तिमती लक्ष्मीदेवीके समान सुशोभित होती हुई वह अपने महात्मा पिताके समीप गयी॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साभिवाद्य पितुः पादौ शेषाः पूर्वं निवेद्य च।
कृताञ्जलिर्वरारोहा नृपतेः पार्श्वमास्थिता ॥ ३० ॥
मूलम्
साभिवाद्य पितुः पादौ शेषाः पूर्वं निवेद्य च।
कृताञ्जलिर्वरारोहा नृपतेः पार्श्वमास्थिता ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले प्रसाद आदि निवेदन करके उसने पिताके चरणोंमें प्रणाम किया। फिर वह सुन्दरी कन्या हाथ जोड़कर पिताके पार्श्वभागमें खड़ी हो गयी॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यौवनस्थां तु तां दृष्ट्वा स्वां सुतां देवरूपिणीम्।
अयाच्यमानां स वरैर्नृपतिर्दुःखितोऽभवत् ॥ ३१ ॥
मूलम्
यौवनस्थां तु तां दृष्ट्वा स्वां सुतां देवरूपिणीम्।
अयाच्यमानां स वरैर्नृपतिर्दुःखितोऽभवत् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी देवस्वरूपिणी पुत्रीको युवावस्थामें प्रविष्ट हुई देख और अभीतक इसके लिये किसी वरने याचना नहीं की, यह सोचकर मद्रनरेशको बड़ा दुःख हुआ॥३१॥
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रि प्रदानकालस्ते न च कश्चिद् वृणोति माम्।
स्वयमन्विच्छ भर्तारं गुणैः सदृशमात्मनः ॥ ३२ ॥
मूलम्
पुत्रि प्रदानकालस्ते न च कश्चिद् वृणोति माम्।
स्वयमन्विच्छ भर्तारं गुणैः सदृशमात्मनः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा बोले— बेटी! अब किसी वरके साथ तेरा ब्याह कर देनेका समय आ गया है, परंतु (तेरे तेजसे प्रतिहत हो जानेके कारण) कोई भी मुझसे तुझे माँग नहीं रहा है। इसलिये तू स्वयं ही ऐसे वरकी खोज कर ले जो गुणोंमें तेरे समान हो॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रार्थितः पुरुषो यश्च स निवेद्यस्त्वया मम।
विमृश्याहं प्रदास्यामि वरय त्वं यथेप्सितम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
प्रार्थितः पुरुषो यश्च स निवेद्यस्त्वया मम।
विमृश्याहं प्रदास्यामि वरय त्वं यथेप्सितम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस पुरुषको तू पतिरूपमें प्राप्त करना चाहे, उसका मुझे परिचय दे देना; फिर मैं सोच-विचारकर उसके साथ तेरा ब्याह कर दूँगा। तू मनोवांछित वरका वरण कर ले॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतं हि धर्मशास्त्रेषु पठ्यमानं द्विजातिभिः।
तथा त्वमपि कल्याणि गदतो मे वचः शृणु ॥ ३४ ॥
मूलम्
श्रुतं हि धर्मशास्त्रेषु पठ्यमानं द्विजातिभिः।
तथा त्वमपि कल्याणि गदतो मे वचः शृणु ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कल्याणि! मैंने ब्राह्मणोंके मुखसे धर्मशास्त्रोंकी जो बात सुनी है, उसे बता रहा हूँ, तू भी सुन ले—॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्रदाता पिता वाच्यो वाच्यश्चानुपयन् पतिः।
मृते भर्तरि पुत्तश्च वाच्यो मातुररक्षिता ॥ ३५ ॥
मूलम्
अप्रदाता पिता वाच्यो वाच्यश्चानुपयन् पतिः।
मृते भर्तरि पुत्तश्च वाच्यो मातुररक्षिता ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विवाहके योग्य हो जानेपर कन्याका दान न करनेवाला पिता निन्दनीय है। ऋतुकालमें पत्नीके साथ समागम न करनेवाला पति निन्दाका पात्र है तथा पतिके मर जानेपर विधवा माताकी रक्षा न करनेवाला पुत्र धिक्कारके योग्य है’॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं मे वचनं श्रुत्वा भर्तुरन्वेषणे त्वर।
देवतानां यथा वाच्यो न भवेयं तथा कुरु ॥ ३६ ॥
मूलम्
इदं मे वचनं श्रुत्वा भर्तुरन्वेषणे त्वर।
देवतानां यथा वाच्यो न भवेयं तथा कुरु ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी यह बात सुनकर तू पतिकी खोज करनेमें शीघ्रता कर। ऐसी चेष्टा कर, जिससे मैं देवताओंकी दृष्टिमें अपराधी न बनूँ॥३६॥
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा दुहितरं तथा वृद्धांश्च मन्त्रिणः।
व्यादिदेशानुयात्रं च गम्यतां चेत्यचोदयत् ॥ ३७ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा दुहितरं तथा वृद्धांश्च मन्त्रिणः।
व्यादिदेशानुयात्रं च गम्यतां चेत्यचोदयत् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजी कहते हैं— युधिष्ठिर! पुत्रीसे ऐसा कहकर राजाने बूढ़े मन्त्रियोंको आज्ञा दी—‘आपलोग यात्राके लिये आवश्यक सामग्री (वाहन आदि) लेकर सावित्रीके साथ जायँ’॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साभिवाद्य पितुः पादौ व्रीडितेव मनस्विनी।
पितुर्वचनमाज्ञाय निर्जगामाविचारितम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
साभिवाद्य पितुः पादौ व्रीडितेव मनस्विनी।
पितुर्वचनमाज्ञाय निर्जगामाविचारितम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनस्विनी सावित्रीने कुछ लज्जित-सी होकर पिताके चरणोंमें प्रणाम किया और उनकी आज्ञा शिरोधार्य करके बिना कुछ सोच-विचार किये उसने प्रस्थान कर दिया॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा हैमं रथमास्थाय स्थविरैः सचिवैर्वृता।
तपोवनानि रम्याणि राजर्षीणां जगाम ह ॥ ३९ ॥
मूलम्
सा हैमं रथमास्थाय स्थविरैः सचिवैर्वृता।
तपोवनानि रम्याणि राजर्षीणां जगाम ह ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुवर्णमय रथपर सवार हो बूढ़े मन्त्रियोंसे घिरी हुई वह राजकन्या राजर्षियोंके सुरम्य तपोवनोंमें गयी॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मान्यानां तत्र वृद्धानां कृत्वा पादाभिवादनम्।
वनानि क्रमशस्तात सर्वाण्येवाभ्यगच्छत ॥ ४० ॥
मूलम्
मान्यानां तत्र वृद्धानां कृत्वा पादाभिवादनम्।
वनानि क्रमशस्तात सर्वाण्येवाभ्यगच्छत ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! वहाँ माननीय वृद्धजनोंकी चरणवन्दना करके उसने क्रमशः सभी वनोंमें भ्रमण किया॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं तीर्थेषु सर्वेषु धनोत्सर्गं नृपात्मजा।
कुर्वती द्विजमुख्यानां तं तं देशं जगाम ह ॥ ४१ ॥
मूलम्
एवं तीर्थेषु सर्वेषु धनोत्सर्गं नृपात्मजा।
कुर्वती द्विजमुख्यानां तं तं देशं जगाम ह ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार राजकुमारी सावित्री सभी तीर्थोंमें जाकर श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको धनदान करती हुई विभिन्न देशोंमें घूमती फिरी॥४१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि पतिव्रतामाहात्म्यपर्वणि सावित्र्युपाख्याने त्रिनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २९३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत पतिव्रतामाहात्म्यपर्वमें सावित्री-उपाख्यानविषयक दो सौ तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९३॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ४१ श्लोक हैं)