भागसूचना
एकनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
श्रीरामका सीताके प्रति संदेह, देवताओंद्वारा सीताकी शुद्धिका समर्थन, श्रीरामका दल-बलसहित लंकासे प्रस्थान एवं किष्किन्धा होते हुए अयोध्यामें पहुँचकर भरतसे मिलना तथा राज्यपर अभिषिक्त होना
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हत्वा रावणं क्षुद्रं राक्षसेन्द्रं सुरद्विषम्।
बभूव हृष्टः ससुहृद् रामः सौमित्रिणा सह ॥ १ ॥
मूलम्
स हत्वा रावणं क्षुद्रं राक्षसेन्द्रं सुरद्विषम्।
बभूव हृष्टः ससुहृद् रामः सौमित्रिणा सह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इस प्रकार नीच स्वभाववाले देवद्रोही राक्षसराज रावणका वध करके भगवान् श्रीराम अपने मित्रों तथा लक्ष्मणके साथ बड़े प्रसन्न हुए॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो हते दशग्रीवे देवाः सर्षिपुरोगमाः।
आशीर्भिर्जययुक्ताभिरानर्चुस्तं महाभुजम् ॥ २ ॥
मूलम्
ततो हते दशग्रीवे देवाः सर्षिपुरोगमाः।
आशीर्भिर्जययुक्ताभिरानर्चुस्तं महाभुजम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दशाननके मारे जानेपर देवता तथा महर्षिगण जययुक्त आशीर्वाद देते हुए उन महाबाहुकी पूजा एवं प्रशंसा करने लगे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामं कमलपत्राक्षं तुष्टुवुः सर्वदेवताः।
गन्धर्वाः पुष्पवर्षैश्च वाग्भिश्च त्रिदशालयाः ॥ ३ ॥
मूलम्
रामं कमलपत्राक्षं तुष्टुवुः सर्वदेवताः।
गन्धर्वाः पुष्पवर्षैश्च वाग्भिश्च त्रिदशालयाः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वर्गवासी सम्पूर्ण देवताओं तथा गन्धर्वोंने फूलोंकी वर्षा करते हुए उत्तम वाणीद्वारा कमलनयन भगवान् श्रीरामका स्तवन किया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूजयित्वा यथा रामं प्रतिजग्मुर्यथागतम्।
तन्महोत्सवसंकाशमासीदाकाशमच्युत ॥ ४ ॥
मूलम्
पूजयित्वा यथा रामं प्रतिजग्मुर्यथागतम्।
तन्महोत्सवसंकाशमासीदाकाशमच्युत ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामकी भलीभाँति पूजा करके वे सब जैसे आये थे, उसी प्रकार लौट गये। युधिष्ठिर! उस समय आकाश महान् उत्सवसमारोहसे भरा-सा जान पड़ता था॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो हत्वा दशग्रीवं लङ्कां रामो महायशाः।
विभीषणाय प्रददौ प्रभुः परपुरञ्जयः ॥ ५ ॥
मूलम्
ततो हत्वा दशग्रीवं लङ्कां रामो महायशाः।
विभीषणाय प्रददौ प्रभुः परपुरञ्जयः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् शत्रुओंकी राजधानीपर विजय पानेवाले महायशस्वी भगवान् श्रीरामने दशानन रावणका वध करनेके अनन्तर लंकाका राज्य विभीषणको दे दिया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सीतां पुरस्कृत्य विभीषणपुरस्कृताम्।
अविन्ध्यो नाम सुप्रज्ञो वृद्धामात्यो विनिर्ययौ ॥ ६ ॥
मूलम्
ततः सीतां पुरस्कृत्य विभीषणपुरस्कृताम्।
अविन्ध्यो नाम सुप्रज्ञो वृद्धामात्यो विनिर्ययौ ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद उत्तम बुद्धिसे युक्त बूढ़े मन्त्री अविन्ध्य विभीषणसहित भगवती सीताको आगे करके लंकापुरीसे बाहर निकले॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाच च महात्मानं काकुत्स्थं दैन्यमास्थितः।
प्रतीच्छ देवीं सद्वृत्तां महात्मञ्जानकीमिति ॥ ७ ॥
मूलम्
उवाच च महात्मानं काकुत्स्थं दैन्यमास्थितः।
प्रतीच्छ देवीं सद्वृत्तां महात्मञ्जानकीमिति ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे ककुत्स्थकुलभूषण महात्मा श्रीरामचन्द्रजीसे दीनतापूर्वक बोले—‘महात्मन्! सदाचारसे सुशोभित जनककिशोरी महारानी सीताको ग्रहण कीजिये’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्मादवतीर्य रथोत्तमात् ।
बाष्पेणापिहितां सीतां ददर्शेक्ष्वाकुनन्दनः ॥ ८ ॥
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्मादवतीर्य रथोत्तमात् ।
बाष्पेणापिहितां सीतां ददर्शेक्ष्वाकुनन्दनः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर इक्ष्वाकुनन्दन भगवान् श्रीरामने उस उत्तम रथसे उतरकर सीताको देखा। उनके मुखपर आँसुओंकी धारा बह रही थी॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां दृष्ट्वा चारुसर्वाङ्गीं यानस्थां शोककर्शिताम्।
मलोपचितसर्वाङ्गीं जटिलां कृष्णवाससम् ॥ ९ ॥
मूलम्
तां दृष्ट्वा चारुसर्वाङ्गीं यानस्थां शोककर्शिताम्।
मलोपचितसर्वाङ्गीं जटिलां कृष्णवाससम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिबिकामें बैठी हुई सर्वांगसुन्दरी सीता शोकसे दुबली हो गयी थीं। उनके समस्त अंगोंमें मैल जम गयी थी, सिरके बाल आपसमें चिपककर जटाके रूपमें परिणत हो गये थे और उनका वस्त्र काला पड़ा गया था॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाच रामो वैदेहीं परामर्शविशङ्कितः।
गच्छ वैदेहि मुक्ता त्वं यत् कार्यं तन्मया कृतम्॥१०॥
मूलम्
उवाच रामो वैदेहीं परामर्शविशङ्कितः।
गच्छ वैदेहि मुक्ता त्वं यत् कार्यं तन्मया कृतम्॥१०॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीके मनमें यह संदेह हुआ कि सम्भव है, सीता पर पुरुषके स्पर्शसे अपवित्र हो गयी हों; अतः उन्होंने विदेहनन्दिनी सीतासे स्पष्ट वचनोंद्वारा कहा—‘विदेहकुमारी! मैंने तुम्हें रावणकी कैदसे छुड़ा दिया। अब तुम जाओ। मेरा जो कर्तव्य था, उसे मैंने पूरा कर दिया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मामासाद्य पतिं भद्रे न त्वं राक्षसवेश्मनि।
जरां व्रजेथा इति मे निहतोऽसौ निशाचरः ॥ ११ ॥
मूलम्
मामासाद्य पतिं भद्रे न त्वं राक्षसवेश्मनि।
जरां व्रजेथा इति मे निहतोऽसौ निशाचरः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भद्रे! मुझ-जैसे पतिको पाकर तुम्हें वृद्धावस्थातक किसी राक्षसके घरमें न रहना पड़े, यही सोचकर मैंने उस निशाचरका वध किया है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं ह्यस्मद्विधो जातु जानन् धर्मविनिश्चयम्।
परहस्तगतां नारीं मुहूर्तमपि धारयेत् ॥ १२ ॥
मूलम्
कथं ह्यस्मद्विधो जातु जानन् धर्मविनिश्चयम्।
परहस्तगतां नारीं मुहूर्तमपि धारयेत् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धर्मके सिद्धान्तको जाननेवाला मेरे-जैसा कोई भी पुरुष दूसरेके हाथमें पड़ी हुई नारीको मुहूर्तभरके लिये भी कैसे ग्रहण कर सकता है?॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुवृत्तामसुवृत्तां वाप्यहं त्वामद्य मैथिलि।
नोत्सहे परिभोगाय श्वावलीढं हविर्यथा ॥ १३ ॥
मूलम्
सुवृत्तामसुवृत्तां वाप्यहं त्वामद्य मैथिलि।
नोत्सहे परिभोगाय श्वावलीढं हविर्यथा ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मिथिलेशनन्दिनी! तुम्हारा आचार-विचार शुद्ध रह गया हो अथवा अशुद्ध, अब मैं तुम्हें अपने उपयोगमें नहीं ला सकता—ठीक उसी तरह, जैसे कुत्तेके चाटे हुए हविष्यको कोई भी ग्रहण नहीं करता’॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सा सहसा बाला तच्छ्रुत्वा दारुणं वचः।
पपात देवी व्यथिता निकृत्ता कदली यथा ॥ १४ ॥
मूलम्
ततः सा सहसा बाला तच्छ्रुत्वा दारुणं वचः।
पपात देवी व्यथिता निकृत्ता कदली यथा ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सहसा यह कठोर वचन सुनकर देवी सीता व्यथित हो कटे हुए केलेके वृक्षकी भाँति सहसा पृथ्वीपर गिर पड़ीं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽप्यस्या हर्षसम्भूतो मुखरागस्तदाभवत् ।
क्षणेन स पुनर्नष्टो निःश्वास इव दर्पणे ॥ १५ ॥
मूलम्
योऽप्यस्या हर्षसम्भूतो मुखरागस्तदाभवत् ।
क्षणेन स पुनर्नष्टो निःश्वास इव दर्पणे ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे श्वास लेनेसे दर्पणमें पड़ा हुआ मुखका प्रतिबिम्ब मलिन हो जाता है, उसी प्रकार सीताके मुखपर उस समय जो हर्षजनित कान्ति छा रही थी, वह एक ही क्षणमें फिर विलीन हो गयी॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते हरयः सर्वे नच्छ्रुत्वा रामभाषितम्।
गतासुकल्पा निश्चेष्टा बभूवुः सहलक्ष्मणाः ॥ १६ ॥
मूलम्
ततस्ते हरयः सर्वे नच्छ्रुत्वा रामभाषितम्।
गतासुकल्पा निश्चेष्टा बभूवुः सहलक्ष्मणाः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीका यह कथन सुनकर समस्त वानर तथा लक्ष्मण सबके सब मरे हुएके समान निश्चेष्ट हो गये॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो देवो विशुद्धात्मा विमानेन चतुर्मुखः।
पद्मयोनिर्जगत्स्रष्टा दर्शयामास राघवम् ॥ १७ ॥
मूलम्
ततो देवो विशुद्धात्मा विमानेन चतुर्मुखः।
पद्मयोनिर्जगत्स्रष्टा दर्शयामास राघवम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय विशुद्ध अन्तःकरणवाले कमलयोनि जगत्स्रष्टा चतुर्मुख ब्रह्माजीने विमानद्वारा वहाँ आकर श्रीरामचन्द्रजीको दर्शन दिया॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्रश्चाग्निश्च वायुश्च यमो वरुण एव च।
यक्षाधिपश्च भगवांस्तथा सप्तर्षयोऽमलाः ॥ १८ ॥
मूलम्
शक्रश्चाग्निश्च वायुश्च यमो वरुण एव च।
यक्षाधिपश्च भगवांस्तथा सप्तर्षयोऽमलाः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साथ ही इन्द्र, अग्नि, वायु, यम, वरुण, यक्षराज भगवान् कुबेर तथा निर्मल चित्तवाले सप्तर्षिगण भी वहाँ आ गये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा दशरथश्चैव दिव्यभास्वरमूर्तिमान् ।
विमानेन महार्हेण हंसयुक्तेन भास्वता ॥ १९ ॥
मूलम्
राजा दशरथश्चैव दिव्यभास्वरमूर्तिमान् ।
विमानेन महार्हेण हंसयुक्तेन भास्वता ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके सिवा हंसोंसे युता एक बहुमूल्य तेजस्वी विमानद्वारा दिव्य प्रकाशमय स्वरूप धारण किये स्वयं राजा दशरथ भी वहाँ पधारे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽन्तरिक्षं तत् सर्वं देवगन्धर्वसंकुलम्।
शुशुभे तारकाचित्रं शरदीव नभस्तलम् ॥ २० ॥
मूलम्
ततोऽन्तरिक्षं तत् सर्वं देवगन्धर्वसंकुलम्।
शुशुभे तारकाचित्रं शरदीव नभस्तलम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय देवताओं और गन्धर्वोंसे भरा हुआ वह सम्पूर्ण अन्तरिक्ष इस प्रकार शोभा पाने लगा, मानो असंख्य तारागणोंसे चित्रित शरद्ऋतुका आकाश हो॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत उत्थाय वैदेही तेषां मध्ये यशस्विनी।
उवाच वाक्यं कल्याणी रामं पृथुलवक्षसम् ॥ २१ ॥
मूलम्
तत उत्थाय वैदेही तेषां मध्ये यशस्विनी।
उवाच वाक्यं कल्याणी रामं पृथुलवक्षसम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन सबके बीचमें खड़ी होकर कल्याणमयी यशस्विनी सीताने चौड़ी छातीवाले भगवान् श्रीरामसे इस प्रकार कहा—॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजपुत्र न ते दोषं करोमि विदिता हि ते।
गतिः स्त्रीणां नराणां च शृणु चेदं वचो मम॥२२॥
मूलम्
राजपुत्र न ते दोषं करोमि विदिता हि ते।
गतिः स्त्रीणां नराणां च शृणु चेदं वचो मम॥२२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजपुत्र! मैं आपको दोष नहीं देती, क्योंकि आप स्त्रियों और पुरुषोंकी कैसी गति है, यह अच्छी तरह जानते हैं। केवल मेरी यह बात सुन लीजिये॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तश्चरति भूतानां मातरिश्वा सदागतिः।
स मे विमुञ्चतु प्राणान् यदि पापं चराम्यहम् ॥ २३ ॥
मूलम्
अन्तश्चरति भूतानां मातरिश्वा सदागतिः।
स मे विमुञ्चतु प्राणान् यदि पापं चराम्यहम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निरन्तर संचरण करनेवाले वायुदेव समस्त प्राणियोंके भीतर विचरते हैं। यदि मैंने कोई पापाचार किया हो तो वे वायुदेवता मेरे प्राणोंका परित्याग कर दें॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्निरापस्तथाऽऽकाशं पृथिवी वायुरेव च।
विमुञ्चन्तु मम प्राणान् यदि पापं चराम्यहम् ॥ २४ ॥
मूलम्
अग्निरापस्तथाऽऽकाशं पृथिवी वायुरेव च।
विमुञ्चन्तु मम प्राणान् यदि पापं चराम्यहम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि मैं पापका आचरण करती होऊँ तो अग्नि, जल, आकाश, पृथ्वी और वायु—ये सब मिलकर मुझसे मेरे प्राणोंका वियोग करा दें॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाहं त्वदृते वीर नान्यं स्वप्नेऽप्यचिन्तयम्।
तथा मे देवनिर्दिष्टस्त्वमेव हि पतिर्भव ॥ २५ ॥
मूलम्
यथाहं त्वदृते वीर नान्यं स्वप्नेऽप्यचिन्तयम्।
तथा मे देवनिर्दिष्टस्त्वमेव हि पतिर्भव ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीर! यदि मैंने आपके सिवा दूसरे किसी पुरुषका स्वप्नमें भी चिन्तन न किया हो तो देवताओंके दिये हुए एकमात्र आप ही मेरे पति हों’॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽन्तरिक्षे वागासीत् सुभगा लोकसाक्षिणी।
पुण्या संहर्षणी तेषां वानराणां महात्मनाम् ॥ २६ ॥
मूलम्
ततोऽन्तरिक्षे वागासीत् सुभगा लोकसाक्षिणी।
पुण्या संहर्षणी तेषां वानराणां महात्मनाम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर आकाशमें सब लोगोंको साक्षी देती हुई एक सुन्दर वाणी उच्चरित हुई, जो परम पवित्र होनेके साथ ही उन महामना वानरोंको भी हर्ष प्रदान करनेवाली थी॥२६॥
मूलम् (वचनम्)
वायुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भो भो राघव सत्यं वै वायुरस्मि सदागतिः।
अपापा मैथिली राजन् संगच्छ सह भार्यया ॥ २७ ॥
मूलम्
भो भो राघव सत्यं वै वायुरस्मि सदागतिः।
अपापा मैथिली राजन् संगच्छ सह भार्यया ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(उस आकाशवाणीके रूपमें) वायुदेवता बोले— रघुनन्दन! मैं सदा विचरण करनेवाला वायुदेवता हूँ। सीताने जो कुछ कहा है, वह सत्य है। राजन्! मिथिलेशकुमारी सर्वथा पापशून्य हैं। आप अपनी इस पत्नीसे निःसंकोच होकर मिलिये॥२७॥
मूलम् (वचनम्)
अग्निरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहमन्तःशरीरस्थो भूतानां रघुनन्दन ।
सुसूक्ष्ममपि काकुत्स्थ मैथिली नापराध्यति ॥ २८ ॥
मूलम्
अहमन्तःशरीरस्थो भूतानां रघुनन्दन ।
सुसूक्ष्ममपि काकुत्स्थ मैथिली नापराध्यति ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्निदेवने कहा— रघुनन्दन! मैं समस्त प्राणियोंके शरीरमें रहनेवाला अग्नि हूँ। मुझे मालूम है कि मिथिलेशकुमारीके द्वारा कभी सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म अपराध नहीं हुआ है॥२८॥
मूलम् (वचनम्)
वरुण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
रसा वै मत्प्रसूता हि भूतदेहेषु राघव।
अहं वै त्वां प्रब्रवीमि मैथिली प्रतिगृह्यताम् ॥ २९ ॥
मूलम्
रसा वै मत्प्रसूता हि भूतदेहेषु राघव।
अहं वै त्वां प्रब्रवीमि मैथिली प्रतिगृह्यताम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वरुणदेवने कहा— श्रीराम! समस्त प्राणियोंके शरीरमें जो जलतत्त्व है, वह मुझसे ही उत्पन्न हुआ है। अतः मैं तुमसे कहता हूँ, मिथिलेशकुमारी निष्पाप है, इसे ग्रहण करो॥२९॥
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्र नैतदिहाश्चर्यं त्वयि राजर्षिधर्मणि।
साधो सद्वृत्त काकुत्स्थ शृणु चेदं वचो मम ॥ ३० ॥
मूलम्
पुत्र नैतदिहाश्चर्यं त्वयि राजर्षिधर्मणि।
साधो सद्वृत्त काकुत्स्थ शृणु चेदं वचो मम ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् ब्रह्माजी बोले— वत्स! तुम राजर्षियोंके धर्मपर चलनेवाले हो; अतः तुममें ऐसा सद्विचार होना आश्चर्यकी बात नहीं है। साधु सदाचारी श्रीराम! तुम मेरी यह बात सुनो॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शत्रुरेष त्वया वीर देवगन्धर्वभोगिनाम्।
यक्षाणां दानवानां च महर्षीणां च पातितः ॥ ३१ ॥
मूलम्
शत्रुरेष त्वया वीर देवगन्धर्वभोगिनाम्।
यक्षाणां दानवानां च महर्षीणां च पातितः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीरवर! यह रावण देवता, गन्धर्व, नाग, यक्ष, दानव तथा महर्षियोंका भी शत्रु था। इसे तुमने मार गिराया है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवध्यः सर्वभूतानां मत्प्रसादात् पुराभवत्।
कस्माच्चित् कारणात् पापः कञ्चित् कालमुपेक्षितः ॥ ३२ ॥
मूलम्
अवध्यः सर्वभूतानां मत्प्रसादात् पुराभवत्।
कस्माच्चित् कारणात् पापः कञ्चित् कालमुपेक्षितः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें मेरे ही प्रसादसे यह समस्त प्राणियोंके लिये अवध्य हो गया था। किसी कारणवश ही कुछ कालतक इस पापीकी उपेक्षा की गयी थी॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वधार्थमात्मनस्तेन हृता सीता दुरात्मना।
नलकूबरशापेन रक्षा चास्याः कृता मया ॥ ३३ ॥
मूलम्
वधार्थमात्मनस्तेन हृता सीता दुरात्मना।
नलकूबरशापेन रक्षा चास्याः कृता मया ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुरात्मा रावणने अपने वधके लिये ही सीताका अपहरण किया था। नलकूबरके शापद्वारा मैंने सीताकी रक्षाका प्रबन्ध कर दिया था॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि ह्यकामां सेवेत स्त्रियमन्यामपि ध्रुवम्।
शतधास्य फलेन्मूर्धा इत्युक्तः सोऽभवत् पुरा ॥ ३४ ॥
मूलम्
यदि ह्यकामां सेवेत स्त्रियमन्यामपि ध्रुवम्।
शतधास्य फलेन्मूर्धा इत्युक्तः सोऽभवत् पुरा ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें रावणको यह शाप दिया गया था कि यदि यह उसे न चाहनेवाली किसी परायी स्त्रीका बलपूर्वक सेवन करेगा तो इसके मस्तकके सैकड़ों टुकड़े हो जायँगे॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नात्र शङ्का त्वया कार्या प्रतीच्छेमां महाद्युते।
कृतं त्वया महत् कार्यं देवानाममरप्रभ ॥ ३५ ॥
मूलम्
नात्र शङ्का त्वया कार्या प्रतीच्छेमां महाद्युते।
कृतं त्वया महत् कार्यं देवानाममरप्रभ ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः महातेजस्वी श्रीराम! तुम्हें सीताके विषयमें कोई शंका नहीं करनी चाहिये। इसे ग्रहण करो। देवताओंके समान तेजस्वी वीर! तुमने रावणको मारकर देवताओंका महान् कार्य सिद्ध किया है॥३५॥
मूलम् (वचनम्)
दशरथ उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीतोऽस्मि वत्स भद्रं ते पिता दशरथोऽस्मि ते।
अनुजानामि राज्यं च प्रशाधि पुरुषोत्तम ॥ ३६ ॥
मूलम्
प्रीतोऽस्मि वत्स भद्रं ते पिता दशरथोऽस्मि ते।
अनुजानामि राज्यं च प्रशाधि पुरुषोत्तम ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दशरथजी बोले— वत्स! मैं तुम्हारा पिता दशरथ हूँ, तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारा कल्याण हो। पुरुषोत्तम! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि अब तुम अयोध्याका राज्य करो॥३६॥
मूलम् (वचनम्)
राम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिवादये त्वां राजेन्द्र यदि त्वं जनको मम।
गमिष्यामि पुरीं रम्यामयोध्यां शासनात् तव ॥ ३७ ॥
मूलम्
अभिवादये त्वां राजेन्द्र यदि त्वं जनको मम।
गमिष्यामि पुरीं रम्यामयोध्यां शासनात् तव ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीने कहा— राजेन्द्र! यदि आप मेरे पिता हैं तो मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आपकी आज्ञासे अब मैं रमणीय अयोध्यापुरीको लौट जाऊँगा॥३७॥
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुवाच पिता भूयः प्रहृष्टो भरतर्षभ।
गच्छायोध्यां प्रशाधीति रामं रक्तान्तलोचनम् ॥ ३८ ॥
सम्पूर्णानीह वर्षाणि चतुर्दश महाद्युते।
मूलम्
तमुवाच पिता भूयः प्रहृष्टो भरतर्षभ।
गच्छायोध्यां प्रशाधीति रामं रक्तान्तलोचनम् ॥ ३८ ॥
सम्पूर्णानीह वर्षाणि चतुर्दश महाद्युते।
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजी कहते हैं— भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर! तदनन्तर पिता दशरथने अत्यन्त प्रसन्न होकर कुछ-कुछ लाल नेत्रोंवाले श्रीरामचन्द्रजीसे पुनः कहा—‘महाद्युते! तुम्हारे वनवासके चौदह वर्ष पूरे हो गये हैं। अब तुम अयोध्या जाओ और वहाँका शासन अपने हाथमें लो’॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो देवान् नमस्कृत्य सुहृद्भिरभिनन्दितः ॥ ३९ ॥
महेन्द्र इव पौलोम्या भार्यया स समेयिवान्।
मूलम्
ततो देवान् नमस्कृत्य सुहृद्भिरभिनन्दितः ॥ ३९ ॥
महेन्द्र इव पौलोम्या भार्यया स समेयिवान्।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्रजीने देवताओंको नमस्कार किया और सुहृदोंसे अभिनन्दित हो अपनी पत्नी सीतासे मिले, मानो इन्द्रका शचीसे मिलन हुआ हो॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वरं ददौ तस्मै ह्यविन्ध्याय परंतपः ॥ ४० ॥
त्रिजटां चार्थमानाभ्यां योजयामास राक्षसीम्।
मूलम्
ततो वरं ददौ तस्मै ह्यविन्ध्याय परंतपः ॥ ४० ॥
त्रिजटां चार्थमानाभ्यां योजयामास राक्षसीम्।
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद परंतप श्रीरामने अविन्ध्यको अभीष्ट वरदान दिया तथा त्रिजटा राक्षसीको धन और सम्मानसे संतुष्ट किया॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुवाच ततो ब्रह्मा देवैः शक्रपुरोगमैः ॥ ४१ ॥
कौसल्यामातरिष्टांस्ते वरानद्य ददानि कान्।
मूलम्
तमुवाच ततो ब्रह्मा देवैः शक्रपुरोगमैः ॥ ४१ ॥
कौसल्यामातरिष्टांस्ते वरानद्य ददानि कान्।
अनुवाद (हिन्दी)
यह सब हो जानेपर इन्द्र आदि देवताओंसहित ब्रह्माने भगवान् रामसे कहा—‘कौसल्यानन्दन! कहो, आज मैं तुम्हें कौन-कौनसे अभीष्ट वर प्रदान करूँ’?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वव्रे रामः स्थितिं धर्मे शत्रुभिश्चापराजयम् ॥ ४२ ॥
राक्षसैर्निहतानां च वानराणां समुद्भवम्।
मूलम्
वव्रे रामः स्थितिं धर्मे शत्रुभिश्चापराजयम् ॥ ४२ ॥
राक्षसैर्निहतानां च वानराणां समुद्भवम्।
अनुवाद (हिन्दी)
तब श्रीरामचन्द्रजीने उनसे ये वर माँगे—‘मेरी धर्ममें सदा स्थिति रहे, शत्रुओंसे कभी पराजय न हो तथा राक्षसोंके द्वारा मारे गये वानर पुनः जीवित हो जायँ’॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते ब्रह्मणा प्रोक्ते तथेति वचने तदा ॥ ४३ ॥
समुत्तस्थुर्महाराज वानरा लब्धचेतसः ।
मूलम्
ततस्ते ब्रह्मणा प्रोक्ते तथेति वचने तदा ॥ ४३ ॥
समुत्तस्थुर्महाराज वानरा लब्धचेतसः ।
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर ब्रह्माजीने कहा—‘ऐसा ही हो।’ महाराज! उनके इतना कहते ही सभी वानर चेतना प्राप्त करके जी उठे॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीता चापि महाभागा वरं हनुमते ददौ ॥ ४४ ॥
रामकीर्त्या समं पुत्र जीवितं ते भविष्यति।
मूलम्
सीता चापि महाभागा वरं हनुमते ददौ ॥ ४४ ॥
रामकीर्त्या समं पुत्र जीवितं ते भविष्यति।
अनुवाद (हिन्दी)
महासौभाग्यवती सीताने भी हनुमान्जीको यह वर दिया—‘पुत्र! जबतक इस धरातलपर भगवान् श्रीरामकी कीर्ति बनी रहेगी, तबतक तुम्हारा जीवन स्थिर रहेगा॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिव्यास्त्वामुपभोगाश्च मत्प्रसादकृताः सदा ॥ ४५ ॥
उपस्थास्यन्ति हनुमन्निति स्म हरिलोचन।
मूलम्
दिव्यास्त्वामुपभोगाश्च मत्प्रसादकृताः सदा ॥ ४५ ॥
उपस्थास्यन्ति हनुमन्निति स्म हरिलोचन।
अनुवाद (हिन्दी)
‘पिंगलनयन हनुमान्! मेरी कृपासे तुम्हें सदा ही दिव्य भोग प्राप्त होते रहेंगे’॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते प्रेक्षमाणानां तेषामक्लिष्टकर्मणाम् ॥ ४६ ॥
अन्तर्धानं ययुर्देवाः सर्वे शक्रपुरोगमाः।
मूलम्
ततस्ते प्रेक्षमाणानां तेषामक्लिष्टकर्मणाम् ॥ ४६ ॥
अन्तर्धानं ययुर्देवाः सर्वे शक्रपुरोगमाः।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर अनायास ही महान् पराक्रम करनेवाले वानरोंके देखते-देखते वहाँ इन्द्र आदि सब देवता अन्तर्धान हो गये॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा रामं तु जानक्या संगतं शक्रसारथिः ॥ ४७ ॥
उवाच परमप्रीतः सुहृन्मध्य इदं वचः।
देवगन्धर्वयक्षाणां मानुषासुरभोगिनाम् ॥ ४८ ॥
अपनीतं त्वया दुःखमिदं सत्यपराक्रम।
मूलम्
दृष्ट्वा रामं तु जानक्या संगतं शक्रसारथिः ॥ ४७ ॥
उवाच परमप्रीतः सुहृन्मध्य इदं वचः।
देवगन्धर्वयक्षाणां मानुषासुरभोगिनाम् ॥ ४८ ॥
अपनीतं त्वया दुःखमिदं सत्यपराक्रम।
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीको जनकनन्दिनी सीताके साथ विराजमान देख इन्द्रसारथि मातलिको बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने सब सुहृदोंके बीचमें इस प्रकार कहा—‘सत्यपराक्रमी श्रीराम! आपने देवता, गन्धर्व, यक्ष, मनुष्य, असुर और नाग—इन सबका दुःख दूर कर दिया है॥४७-४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदेवासुरगन्धर्वा यक्षराक्षसपन्नगाः ॥ ४९ ॥
कथयिष्यन्ति लोकास्त्वां यावद् भूमिर्धरिष्यति।
मूलम्
सदेवासुरगन्धर्वा यक्षराक्षसपन्नगाः ॥ ४९ ॥
कथयिष्यन्ति लोकास्त्वां यावद् भूमिर्धरिष्यति।
अनुवाद (हिन्दी)
‘जबतक यह पृथ्वी रहेगी, तबतक देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस तथा नागोंसहित सम्पूर्ण जगत्के लोग आपकी कीर्तिकथाका गान करेंगे’॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवमुक्त्वानुज्ञाप्य रामं शस्त्रभृतां बरम् ॥ ५० ॥
सम्पूज्यापाक्रमत् तेन रथेनादित्यवर्चसा ।
मूलम्
इत्येवमुक्त्वानुज्ञाप्य रामं शस्त्रभृतां बरम् ॥ ५० ॥
सम्पूज्यापाक्रमत् तेन रथेनादित्यवर्चसा ।
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञा ले उनकी पूजा करके सूर्यके समान तेजस्वी उसी रथके द्वारा मातलि स्वर्गलोकको चला गया॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सीतां पुरस्कृत्य रामः सौमित्रिणा सह ॥ ५१ ॥
सुग्रीवप्रमुखैश्चैव सहितः सर्ववानरैः ।
विधाय रक्षां लङ्कायां विभीषणपुरस्कृतः ॥ ५२ ॥
संततार पुनस्तेन सेतुना मकरालयम्।
पुष्पकेण विमानेन खेचरेण विराजता ॥ ५३ ॥
कामगेन यथामुख्यैरमात्यैः संवृतो वशी।
मूलम्
ततः सीतां पुरस्कृत्य रामः सौमित्रिणा सह ॥ ५१ ॥
सुग्रीवप्रमुखैश्चैव सहितः सर्ववानरैः ।
विधाय रक्षां लङ्कायां विभीषणपुरस्कृतः ॥ ५२ ॥
संततार पुनस्तेन सेतुना मकरालयम्।
पुष्पकेण विमानेन खेचरेण विराजता ॥ ५३ ॥
कामगेन यथामुख्यैरमात्यैः संवृतो वशी।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर जितेन्द्रिय भगवान् श्रीरामने लंकापुरीकी सुरक्षाका प्रबन्ध करके लक्ष्मण, सुग्रीव आदि सभी श्रेष्ठ वानरों, विभीषण तथा प्रधान-प्रधान सचिवोंके साथ सीताको आगे करके इच्छानुसार चलनेवाले, आकाशचारी, शोभाशाली पुष्पकविमानपर आरूढ़ हो उसीके द्वारा पूर्वोक्त सेतुमार्गसे ऊपर-ही-ऊपर पुनः मकरालय समुद्रको पार किया॥५१—५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तीरे समुद्रस्य यत्र शिश्ये स पार्थिवः ॥ ५४ ॥
तत्रैवोवास धर्मात्मा सहितः सर्ववानरैः।
मूलम्
ततस्तीरे समुद्रस्य यत्र शिश्ये स पार्थिवः ॥ ५४ ॥
तत्रैवोवास धर्मात्मा सहितः सर्ववानरैः।
अनुवाद (हिन्दी)
समुद्रके इस पार आकर धर्मात्मा श्रीरामने पहले जहाँ शयन किया था, उसी स्थानपर सम्पूर्ण वानरोंके साथ विश्राम किया॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथैनान् राघवः काले समानीयाभिपूज्य च ॥ ५५ ॥
विसर्जयामास तदा रत्नैः संतोष्य सर्वशः।
मूलम्
अथैनान् राघवः काले समानीयाभिपूज्य च ॥ ५५ ॥
विसर्जयामास तदा रत्नैः संतोष्य सर्वशः।
अनुवाद (हिन्दी)
फिर श्रीरघुनाथजीने यथासमय सबको अपने पास बुलाकर सबका यथायोग्य आदर-सत्कार किया तथा रत्नोंकी भेंटसे संतुष्ट करके सभी वानरों और रीछोंको बिदा किया॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गतेषु वानरेन्द्रेषु गोपुच्छर्क्षेषु तेषु च ॥ ५६ ॥
सुग्रीवसहितो रामः किष्किन्धां पुनरागमत्।
मूलम्
गतेषु वानरेन्द्रेषु गोपुच्छर्क्षेषु तेषु च ॥ ५६ ॥
सुग्रीवसहितो रामः किष्किन्धां पुनरागमत्।
अनुवाद (हिन्दी)
जब वे रीछ, श्रेष्ठ वानर और लंगूर चले गये, तब सुग्रीवसहित श्रीरामने पुनः किष्किन्धापुरीको प्रस्थान किया॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभीषणेनानुगतः सुग्रीवसहितस्तदा ॥ ५७ ॥
पुष्पकेण विमानेन वैदेह्या दर्शयन् वनम्।
किष्किन्धां तु समासाद्य रामः प्रहरतां वरः ॥ ५८ ॥
अङ्गदं कृतकर्माणं यौवराज्येऽभ्यषेचयत् ।
मूलम्
विभीषणेनानुगतः सुग्रीवसहितस्तदा ॥ ५७ ॥
पुष्पकेण विमानेन वैदेह्या दर्शयन् वनम्।
किष्किन्धां तु समासाद्य रामः प्रहरतां वरः ॥ ५८ ॥
अङ्गदं कृतकर्माणं यौवराज्येऽभ्यषेचयत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
विभीषण और सुग्रीवके साथ पुष्पक-विमानद्वारा विदेहकुमारी सीताको वनकी शोभा दिखाते हुए योद्धाओंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीने किष्किन्धामें पहुँचकर अंगदको, जिन्होंने लंकाके युद्धमें महान् पराक्रम दिखाया था, युवराजके पदपर अभिषिक्त किया॥५७-५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तैरेव सहितो रामः सौमित्रिणा सह ॥ ५९ ॥
यथागतेन मार्गेण प्रययौ स्वपुरं प्रति।
मूलम्
ततस्तैरेव सहितो रामः सौमित्रिणा सह ॥ ५९ ॥
यथागतेन मार्गेण प्रययौ स्वपुरं प्रति।
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद लक्ष्मण तथा सुग्रीव आदिके साथ श्रीरामचन्द्रजी जिस मार्गसे आये थे, उसीके द्वारा अपनी राजधानी अयोध्याकी ओर प्रस्थित हुए॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयोध्यां स समासाद्य पुरीं राष्ट्रपतिस्ततः ॥ ६० ॥
भरताय हनूमन्तं दूतं प्रास्थापयत् तदा।
मूलम्
अयोध्यां स समासाद्य पुरीं राष्ट्रपतिस्ततः ॥ ६० ॥
भरताय हनूमन्तं दूतं प्रास्थापयत् तदा।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् अयोध्यापुरीके निकट पहुँचकर राष्ट्रपति श्रीरामने हनुमानजीको दूत बनाकर भरतके पास भेजा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लक्षयित्वेङ्गितं सर्वं प्रियं तस्मै निवेद्य वै ॥ ६१ ॥
वायुपुत्रे पुनः प्राप्ते नन्दिग्राममुपागमत्।
मूलम्
लक्षयित्वेङ्गितं सर्वं प्रियं तस्मै निवेद्य वै ॥ ६१ ॥
वायुपुत्रे पुनः प्राप्ते नन्दिग्राममुपागमत्।
अनुवाद (हिन्दी)
जब वायुपुत्र हनुमान्जी भरतजीकी सारी चेष्टाओंको लक्ष्य करके उन्हें श्रीरामचन्द्रजीके पुनरागमनका प्रिय समाचार सुनाकर लौट आये, तब श्रीरामचन्द्रजी नन्दिग्राममें आये॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तत्र मलदिग्धाङ्गं भरतं चीरवाससम् ॥ ६२ ॥
अग्रतः पादुके कृत्वा ददर्शासीनमासने।
मूलम्
स तत्र मलदिग्धाङ्गं भरतं चीरवाससम् ॥ ६२ ॥
अग्रतः पादुके कृत्वा ददर्शासीनमासने।
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ आकर श्रीरामने देखा, भरत चीरवस्त्र पहने हुए हैं, उनका शरीर मैलसे भरा हुआ है और वे मेरी चरणपादुकाएँ आगे रखकर कुशासनपर बैठे हैं॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संगतो भरतेनाथ शत्रुघ्नेन च वीर्यवान् ॥ ६३ ॥
राघवः सहसौमित्रिर्मुमुदे भरतर्षभ ।
मूलम्
संगतो भरतेनाथ शत्रुघ्नेन च वीर्यवान् ॥ ६३ ॥
राघवः सहसौमित्रिर्मुमुदे भरतर्षभ ।
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! लक्ष्मणसहित पराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी भरत और शत्रुघ्नसे मिलकर बहुत प्रसन्न हुए॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो भरतशत्रुघ्नौ समेतौ गुरुणा तदा ॥ ६४ ॥
वैदेह्या दर्शनेनोभौ प्रहर्षं समवापतुः।
मूलम्
ततो भरतशत्रुघ्नौ समेतौ गुरुणा तदा ॥ ६४ ॥
वैदेह्या दर्शनेनोभौ प्रहर्षं समवापतुः।
अनुवाद (हिन्दी)
भरत और शत्रुघ्नको भी उस समय बड़े भाईसे मिलकर तथा विदेहकुमारी सीताका दर्शन करके महान् हर्ष प्राप्त हुआ॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मै तद् भरतो राज्यमागतायातिसत्कृतम्।
न्यासं निर्यातयामास युक्तः परमया मुदा ॥ ६५ ॥
मूलम्
तस्मै तद् भरतो राज्यमागतायातिसत्कृतम्।
न्यासं निर्यातयामास युक्तः परमया मुदा ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर भरतजीने बड़ी प्रसन्नताके साथ अयोध्या पधारे हुए भगवान् श्रीरामको अपने पास धरोहरके रूपमें रखा हुआ (अयोध्याका) राज्य अत्यन्त सत्कारपूर्वक लौटा दिया॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तं वैष्णवे शूंर नक्षत्रेऽभिमतेऽहनि।
वसिष्ठो वामदेवश्च सहितावभ्यषिञ्चताम् ॥ ६६ ॥
मूलम्
ततस्तं वैष्णवे शूंर नक्षत्रेऽभिमतेऽहनि।
वसिष्ठो वामदेवश्च सहितावभ्यषिञ्चताम् ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् विष्णुदेवतासम्बन्धी श्रवण नक्षत्रका पुण्य दिवस आनेपर वसिष्ठ और वामदेव दोनों ऋषियोंने मिलकर शूरशिरोमणि भगवान् रामका राज्याभिषेक किया॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽभिषिक्तः कपिश्रेष्ठं सुग्रीवं ससुहृज्जनम्।
विभीषणं च पौलस्त्यमन्वजानाद् गृहान् प्रति ॥ ६७ ॥
मूलम्
सोऽभिषिक्तः कपिश्रेष्ठं सुग्रीवं ससुहृज्जनम्।
विभीषणं च पौलस्त्यमन्वजानाद् गृहान् प्रति ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राज्याभिषेकका कार्य सम्पन्न हो जानेपर श्रीरामचन्द्रजीने सुहृदोंसहित सुग्रीवको तथा पुलस्त्यकुलनन्दन विभीषणको अपने-अपने घर लौटनेकी आज्ञा दी॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभ्यर्च्य विविधैर्भोगैः प्रीतियुक्तौ मुदा युतौ।
समाधायेतिकर्तव्यं दुःखेन विससर्ज ह ॥ ६८ ॥
मूलम्
अभ्यर्च्य विविधैर्भोगैः प्रीतियुक्तौ मुदा युतौ।
समाधायेतिकर्तव्यं दुःखेन विससर्ज ह ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामने भाँति-भाँतिके भोग अर्पित करके उन दोनोंका सत्कार किया। इससे वे बड़े प्रसन्न और आनन्दमग्न हो गये। तदनन्तर उन दोनोंको कर्तव्यकी शिक्षा देकर रघुनाथजीने उन्हें बड़े दुःखसे विदा किया॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुष्पकं च विमानं तत् पूजयित्वा स राघवः।
प्रादाद् वैश्रवणायैव प्रीत्या स रघुनन्दनः ॥ ६९ ॥
मूलम्
पुष्पकं च विमानं तत् पूजयित्वा स राघवः।
प्रादाद् वैश्रवणायैव प्रीत्या स रघुनन्दनः ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद उस पुष्पकविमानकी पूजा करके रघुनन्दन श्रीरामने उसे कुबेरको ही प्रेमपूर्वक लौटा दिया॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो देवर्षिसहितः सरितं गोमतीमनु।
दशाश्वमेधानाजह्रे जारूथ्यान् स निरर्गलान् ॥ ७० ॥
मूलम्
ततो देवर्षिसहितः सरितं गोमतीमनु।
दशाश्वमेधानाजह्रे जारूथ्यान् स निरर्गलान् ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर देवर्षियोंसहित गोमती नदीके तटपर जाकर श्रीरघुनाथजीने दस अश्वमेध यज्ञ किये, जो स्तुतिके योग्य थे और जिनमें अन्न आदिकी इच्छासे आनेवाले याचकोंके लिये कभी द्वार बंद नहीं होता था॥७०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि रामोपाख्यानपर्वणि श्रीरामाभिषेके एकनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २९१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत रामोपाख्यानपर्वमें श्रीरामाभिषेकविषयक दो सौ इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९१॥