२८९ इन्द्रजिद्वधे

भागसूचना

एकोननवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्रीराम-लक्ष्मणका सचेत होकर कुबेरके भेजे हुए अभिमन्त्रित जलसे प्रमुख वानरोंसहित अपने नेत्र धोना, लक्ष्मणद्वारा इन्द्रजित्‌का वध एवं सीताको मारनेके लिये उद्यत हुए रावणका अविन्ध्यके द्वारा निवारण करना

मूलम् (वचनम्)

मार्कण्डेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावुभौ पतितौ दृष्ट्वा भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।
बबन्ध रावणिर्भूयः शरैर्दत्तवरैस्तदा ॥ १ ॥

मूलम्

तावुभौ पतितौ दृष्ट्वा भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।
बबन्ध रावणिर्भूयः शरैर्दत्तवरैस्तदा ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्कण्डेयजी कहते हैं— युधिष्ठिर! उन दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मणको पृथ्वीपर पड़े देख रावणकुमार इन्द्रजित्‌ने जिनके लिये देवताओंका वर प्राप्त था, उन बाणोंद्वारा उन्हें सब ओरसे बाँध लिया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ वीरौ शरबन्धेन बद्धाविन्द्रजिता रणे।
रेजतुः पुरुषव्याघ्रौ शकुन्ताविव पञ्जरे ॥ २ ॥

मूलम्

तौ वीरौ शरबन्धेन बद्धाविन्द्रजिता रणे।
रेजतुः पुरुषव्याघ्रौ शकुन्ताविव पञ्जरे ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रजित्‌द्वारा बाणोंके बन्धनसे बँधे हुए वे दोनों वीर पुरुषसिंह श्रीराम और लक्ष्मण पिंजड़ेमें बंद हुए दो पक्षियोंकी भाँति शोभा पा रहे थे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ दृष्ट्वा पतितौ भूमौ शतशः सायकैश्चितौ।
सुग्रीवः कपिभिः सार्धं परिवार्य ततः स्थितः ॥ ३ ॥

मूलम्

तौ दृष्ट्वा पतितौ भूमौ शतशः सायकैश्चितौ।
सुग्रीवः कपिभिः सार्धं परिवार्य ततः स्थितः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनोंको सैकड़ों बाणोंसे व्याप्त एवं पृथ्वीपर पड़े देख वानरोंसहित सुग्रीव उन्हें सब ओरसे घेरकर खड़े हो गये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुषेणमैन्दद्विविदैः कुमुदेनाङ्गदेन च ।
हनुमन्नीलतारैश्च नलेन च कपीश्वरः ॥ ४ ॥

मूलम्

सुषेणमैन्दद्विविदैः कुमुदेनाङ्गदेन च ।
हनुमन्नीलतारैश्च नलेन च कपीश्वरः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुषेण, मैन्द, द्विविद, कुमुद, अंगद, हनुमान्, नील, तार तथा नलके साथ कपिराज सुग्रीव उन दोनों बन्धुओंकी रक्षा करने लगे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तं देशमागम्य कृतकर्मा विभीषणः।
बोधयामास तौ वीरौ प्रज्ञास्त्रेण प्रबोधितौ ॥ ५ ॥

मूलम्

ततस्तं देशमागम्य कृतकर्मा विभीषणः।
बोधयामास तौ वीरौ प्रज्ञास्त्रेण प्रबोधितौ ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर अपने कर्तव्य कर्मको पूरा करके विभीषण उस स्थानपर आये। उन्होंने प्रज्ञास्त्रद्वारा उन दोनों वीरोंको होशमें लाकर जगाया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशल्यौ चापि सुग्रीवः क्षणेनैतौ चकार ह।
विशल्यया महौषध्या दिव्यमन्त्रप्रयुक्तया ॥ ६ ॥

मूलम्

विशल्यौ चापि सुग्रीवः क्षणेनैतौ चकार ह।
विशल्यया महौषध्या दिव्यमन्त्रप्रयुक्तया ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर सुग्रीवने दिव्य मन्त्रोंद्वारा अभिमन्त्रित विशल्या नामक महौषधिद्वारा उनके अंगोंसे बाण निकालकर उन्हें क्षणभरमें स्वस्थ कर दिया॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ लब्धसंज्ञौ नृवरौ विशल्यावुदतिष्ठताम्।
गततन्द्रीक्लमौ चापि क्षणेनैतौ महारथौ ॥ ७ ॥

मूलम्

तौ लब्धसंज्ञौ नृवरौ विशल्यावुदतिष्ठताम्।
गततन्द्रीक्लमौ चापि क्षणेनैतौ महारथौ ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

होशमें आ जानेपर वे दोनों नरश्रेष्ठ महारथी वीर बाणोंसे रहित हो आलस्य और थकावट त्यागकर क्षणभरमें उठ खड़े हुए॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विभीषणः पार्थ राममिक्ष्वाकुनन्दनम्।
उवाच विज्वरं दृष्ट्वा कृताञ्जलिरिदं वचः ॥ ८ ॥

मूलम्

ततो विभीषणः पार्थ राममिक्ष्वाकुनन्दनम्।
उवाच विज्वरं दृष्ट्वा कृताञ्जलिरिदं वचः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! तदनन्तर विभीषणने इक्ष्वाकुकुलनन्दन श्रीरामचन्द्रजीको नीरोग एवं स्वस्थ देख हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा—॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदमम्भो गृहीत्वा तु राजराजस्य शासनात्।
गुह्यकोऽभ्यागतः श्वेतात् त्वत्सकाशमरिन्दम ॥ ९ ॥

मूलम्

इदमम्भो गृहीत्वा तु राजराजस्य शासनात्।
गुह्यकोऽभ्यागतः श्वेतात् त्वत्सकाशमरिन्दम ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुदमन! राजाधिराज कुबेरकी आज्ञासे एक गुह्यक यह जल लिये हुए श्वेतपर्वतसे चलकर आपके समीप आया है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदमम्भः कुबेरस्ते महाराजः प्रयच्छति।
अन्तर्हितानां भूतानां दर्शनार्थं परंतप ॥ १० ॥

मूलम्

इदमम्भः कुबेरस्ते महाराजः प्रयच्छति।
अन्तर्हितानां भूतानां दर्शनार्थं परंतप ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतप! महाराज कुबेर आपको यह जल इस उद्देश्यसे समर्पित कर रहे हैं कि आप इसे नेत्रोंमें लगाकर मायासे अदृश्य हुए प्राणियोंको देख सकें॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेन मृष्टनयनो भूतान्यन्तर्हितान्युत ।
भवान् द्रक्ष्यति यस्मै च प्रदास्यति नरः स तु॥११॥

मूलम्

अनेन मृष्टनयनो भूतान्यन्तर्हितान्युत ।
भवान् द्रक्ष्यति यस्मै च प्रदास्यति नरः स तु॥११॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन्होंने कहा है कि आप इस जलसे अपने दोनों नेत्र धोकर अदृश्य प्राणियोंको भी देख सकेंगे और आप जिसे यह जल अर्पित करेंगे, वह मनुष्य भी अदृश्य भूतोंको देखनेमें समर्थ होगा’॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेति रामस्तद् वारि प्रतिगृह्याभिसंस्कृतम्।
चकार नेत्रयोः शौचं लक्ष्मणश्च महामनाः ॥ १२ ॥

मूलम्

तथेति रामस्तद् वारि प्रतिगृह्याभिसंस्कृतम्।
चकार नेत्रयोः शौचं लक्ष्मणश्च महामनाः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बहुत अच्छा’ कहकर श्रीरामचन्द्रजीने वह अभिमन्त्रित जल ले लिया। फिर उन्होंने तथा महामना लक्ष्मणने भी उससे अपने दोनों नेत्र धोये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुग्रीवजाम्बवन्तौ च हनुमानङ्गदस्तथा ।
मैन्दद्विविदनीलाश्च प्रायः प्लवगसत्तमाः ॥ १३ ॥

मूलम्

सुग्रीवजाम्बवन्तौ च हनुमानङ्गदस्तथा ।
मैन्दद्विविदनीलाश्च प्रायः प्लवगसत्तमाः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुग्रीव, जाम्बवान्, हनुमान्, अंगद, मैन्द, द्विविद तथा नील आदि प्रायः सभी प्रमुख वानरोंने उस जलसे अपनी-अपनी आँखें धोयीं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा समभवच्चापि यदुवाच विभीषणः।
क्षणेनातीन्द्रियाण्येषां चक्षूंष्यासन् युधिष्ठिर ॥ १४ ॥

मूलम्

तथा समभवच्चापि यदुवाच विभीषणः।
क्षणेनातीन्द्रियाण्येषां चक्षूंष्यासन् युधिष्ठिर ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! जैसा विभीषणने बताया था, उसका वैसा ही प्रभाव देखनेमें आया। इन सबकी आँखें क्षणभरमें अतीन्द्रिय वस्तुओंका साक्षात्कार करनेवाली हो गयीं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रजित् कृतकर्मा च पित्रे कर्म तदाऽऽत्मनः।
निवेद्य पुनरागच्छत् त्वरयाऽऽजि शिरःप्रति ॥ १५ ॥

मूलम्

इन्द्रजित् कृतकर्मा च पित्रे कर्म तदाऽऽत्मनः।
निवेद्य पुनरागच्छत् त्वरयाऽऽजि शिरःप्रति ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रजित्‌ने उस दिन युद्धमें जो पराक्रम कर दिखाया था, अपने उस वीरोचित कर्मको पितासे बताकर वह पुनः युद्धके मुहानेकी ओर लौटने लगा॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमापतन्तं संक्रुद्धं पुनरेव युयुत्सया।
अभिदुद्राव सौमित्रिर्विभीषणमते स्थितः ॥ १६ ॥

मूलम्

तमापतन्तं संक्रुद्धं पुनरेव युयुत्सया।
अभिदुद्राव सौमित्रिर्विभीषणमते स्थितः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे क्रोधमें भरकर पुनः युद्धकी इच्छासे आते देख विभीषणकी सम्मतिसे लक्ष्मणने उसपर धावा किया॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकृताह्निकमेवैनं जिघांसुर्जितकाशिनम् ।
शरैर्जघान संक्रुद्धः कृतसंज्ञोऽथ लक्ष्मणः ॥ १७ ॥

मूलम्

अकृताह्निकमेवैनं जिघांसुर्जितकाशिनम् ।
शरैर्जघान संक्रुद्धः कृतसंज्ञोऽथ लक्ष्मणः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रजित् विजयके उल्लाससे सुशोभित हो रहा था। अभी उसने नित्यकर्म भी नहीं किया था, उसी अवस्थामें सचेत हुए लक्ष्मणने कुपित होकर उसे मार डालनेकी इच्छासे उसपर बाणोंद्वारा प्रहार करना आरम्भ किया॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोः समभवद् युद्धं तदान्योन्यं जिगीषतोः।
अतीव चित्रमाश्चर्यं शक्रप्रह्लादयोरिव ॥ १८ ॥

मूलम्

तयोः समभवद् युद्धं तदान्योन्यं जिगीषतोः।
अतीव चित्रमाश्चर्यं शक्रप्रह्लादयोरिव ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों ही एक-दूसरेको जीतनेके लिये उत्सुक थे। उस समय उनमें इन्द्र और प्रह्लादकी भाँति अत्यन्त अद्‌भुत तथा आश्चर्यजनक युद्ध होने लगा॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविध्यदिन्द्रजित् तीक्ष्णैः सौमित्रिं मर्मभेदिभिः।
सौमित्रिश्चानलस्पर्शैरविध्यद् रावणिं शरैः ॥ १९ ॥

मूलम्

अविध्यदिन्द्रजित् तीक्ष्णैः सौमित्रिं मर्मभेदिभिः।
सौमित्रिश्चानलस्पर्शैरविध्यद् रावणिं शरैः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रजित्‌ने तीखे तथा मर्मभेदी बाणोंद्वारा सुमित्रा-कुमार लक्ष्मणको बींध डाला। इसी प्रकार लक्ष्मणने भी अग्निके समान दाहक स्पर्शवाले तीखे सायकोंद्वारा रावणकुमार इन्द्रजित्‌को घायल कर दिया॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौमित्रिशरसंस्पर्शाद् रावणिः क्रोधमूर्च्छितः ।
असृजल्लक्ष्मणायाष्टौ शरानाशीविषोपमान् ॥ २० ॥

मूलम्

सौमित्रिशरसंस्पर्शाद् रावणिः क्रोधमूर्च्छितः ।
असृजल्लक्ष्मणायाष्टौ शरानाशीविषोपमान् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मणके बाणोंकी चोट खाकर रावणकुमार क्रोधसे मूर्च्छित हो उठा। उसने उनके ऊपर विषधर साँपोंके समान विषैले आठ बाण छोड़े॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यासून् पावकस्पर्शैः सौमित्रिः पत्त्रिभिस्त्रिभिः।
यथा निरहरद् वीरस्तन्मे निगदतः शृणु ॥ २१ ॥

मूलम्

तस्यासून् पावकस्पर्शैः सौमित्रिः पत्त्रिभिस्त्रिभिः।
यथा निरहरद् वीरस्तन्मे निगदतः शृणु ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीर सुमित्राकुमारने अग्निके समान दाहक तीन बाणोंद्वारा जिस प्रकार इन्द्रजित्‌के प्राण लिये, वह बताता हूँ; सुनो॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकेनास्य धनुष्मन्तं बाहुं देहादपातयत्।
द्वितीयेन सनाराचं भुजं भूमौ न्यपातयत् ॥ २२ ॥

मूलम्

एकेनास्य धनुष्मन्तं बाहुं देहादपातयत्।
द्वितीयेन सनाराचं भुजं भूमौ न्यपातयत् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बाणद्वारा उन्होंने इन्द्रजित्‌की धनुष धारण करनेवाली भुजाको काटकर शरीरसे अलग कर दिया। दूसरे बाणद्वारा नाराच लिये हुए शत्रुकी दूसरी भुजाको धराशायी कर दिया॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तृतीयेन तु बाणेन पृथुधारेण भास्वता।
जहार सुनसं चापि शिरो भ्राजिष्णुकुण्डलम् ॥ २३ ॥

मूलम्

तृतीयेन तु बाणेन पृथुधारेण भास्वता।
जहार सुनसं चापि शिरो भ्राजिष्णुकुण्डलम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् मोटी धारवाले और चमकीले तीसरे बाणसे उन्होंने सुन्दर नासिका और शोभाशाली कुण्डलोंसे विभूषित शत्रुके मस्तकको भी धड़से अलग कर दिया॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनिकृत्तभुजस्कन्धं कबन्धं भीमदर्शनम् ।
तं हत्वा सूतमप्यस्त्रैर्जघान बलिनां वरः ॥ २४ ॥

मूलम्

विनिकृत्तभुजस्कन्धं कबन्धं भीमदर्शनम् ।
तं हत्वा सूतमप्यस्त्रैर्जघान बलिनां वरः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भुजाओं और कंधोंके कट जानेसे उसका धड़ बड़ा भयंकर दिखायी देता था। इन्द्रजित्‌को मारकर बलवानोंमें श्रेष्ठ लक्ष्मणने अपने अस्त्रोंद्वारा उसके सारथिको भी मार गिराया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लङ्कां प्रवेशयामासुस्तं रथं वाजिनस्तदा।
ददर्श रावणस्तं च रथं पुत्रविनाकृतम् ॥ २५ ॥
स पुत्रं निहतं ज्ञात्वा त्रासात् सम्भ्रान्तमानसः।
रावणः शोकमोहार्तो वैदेहीं हन्तुमुद्यतः ॥ २६ ॥

मूलम्

लङ्कां प्रवेशयामासुस्तं रथं वाजिनस्तदा।
ददर्श रावणस्तं च रथं पुत्रविनाकृतम् ॥ २५ ॥
स पुत्रं निहतं ज्ञात्वा त्रासात् सम्भ्रान्तमानसः।
रावणः शोकमोहार्तो वैदेहीं हन्तुमुद्यतः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय घोड़ोंने उस ही खाली रथको लंकापुरीमें पहुँचाया। रावणने देखा, मेरे पुत्रका रथ उसके बिना ही लौट आया है। तब पुत्रको मारा गया जान भयके मारे रावणका मन उद्भ्रान्त हो उठा। वह शोक और मोहसे आतुर होकर विदेहनन्दिनी सीताको मार डालनेके लिये उद्यत हो गया॥२५-२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशोकवनिकास्थां तां रामदर्शनलालसाम् ।
खड्‌गमादाय दुष्टात्मा जवेनाभिपपात ह ॥ २७ ॥

मूलम्

अशोकवनिकास्थां तां रामदर्शनलालसाम् ।
खड्‌गमादाय दुष्टात्मा जवेनाभिपपात ह ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुष्टात्मा दशानन हाथमें तलवार लेकर अशोक-वाटिकामें श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनकी लालसासे बैठी हुई सीताजीके पास बड़े वेगसे दौड़ा गया॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दृष्ट्वा तस्य दुर्बुद्धेरविन्ध्यः पापनिश्चयम्।
शमयामास संक्रुद्धं श्रूयतां येन हेतुना ॥ २८ ॥

मूलम्

तं दृष्ट्वा तस्य दुर्बुद्धेरविन्ध्यः पापनिश्चयम्।
शमयामास संक्रुद्धं श्रूयतां येन हेतुना ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूषित बुद्धिवाले उस निशाचरके इस पापपूर्ण निश्चयको जानकर मन्त्री अविन्ध्यने समझा-बुझाकर उसका क्रोध शान्त किया। किस मुक्तिसे उसने रावणको शान्त किया, यह बताता हूँ, सुनो—॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाराज्ये स्थितो दीप्ते न स्त्रियं हन्तुमर्हसि।
हतैवैषा यदा स्त्री च बन्धनस्था च ते वशे॥२९॥

मूलम्

महाराज्ये स्थितो दीप्ते न स्त्रियं हन्तुमर्हसि।
हतैवैषा यदा स्त्री च बन्धनस्था च ते वशे॥२९॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राक्षसराज! आप लंकाके समुज्ज्वल सम्राट्-पदपर विराजमान होकर एक अबलाको न मारें। यह स्त्री होकर आपके वशमें पड़ी है, आपके घरमें कैद है; ऐसी दशामें यह तो मरी हुई है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैषा देहभेदेन हता स्यादिति मे मतिः।
जहि भर्तारमेवास्या हते तस्मिन् हता भवेत् ॥ ३० ॥

मूलम्

न चैषा देहभेदेन हता स्यादिति मे मतिः।
जहि भर्तारमेवास्या हते तस्मिन् हता भवेत् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसके शरीरके टुकड़े-टुकड़े कर देनेसे ही इसका वध नहीं होगा, ऐसा मेरा विचार है। इसके पतिको ही मार डालिये। उसके मारे जानेपर यह स्वतः मर जायगी॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि ते विक्रमे तुल्यः साक्षादपि शतक्रतुः।
असकृद्धि त्वया सेन्द्रास्त्रासितास्त्रिदशा युधि ॥ ३१ ॥

मूलम्

न हि ते विक्रमे तुल्यः साक्षादपि शतक्रतुः।
असकृद्धि त्वया सेन्द्रास्त्रासितास्त्रिदशा युधि ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘साक्षात् इन्द्र भी पराक्रममें आपकी समानता नहीं कर सकते। आपने अनेक बार युद्धमें इन्द्रसहित संपूर्ण देवताओंको भयभीत (एवं पराजित) किया है’॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं बहुविधैर्वाक्यैरविन्ध्यो रावणं तदा।
क्रुद्धं संशमयामास जगृहे च स तद्वचः ॥ ३२ ॥

मूलम्

एवं बहुविधैर्वाक्यैरविन्ध्यो रावणं तदा।
क्रुद्धं संशमयामास जगृहे च स तद्वचः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस तरह अनेक प्रकारके वचनोंद्वारा अविन्ध्यने रावणका क्रोध शान्त किया और रावणने भी उसकी बात मान ली॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्याणे स मतिं कृत्वा निधायासिं क्षपाचरः।
आज्ञापयामास तदा रथो मे कल्प्यतामिति ॥ ३३ ॥

मूलम्

निर्याणे स मतिं कृत्वा निधायासिं क्षपाचरः।
आज्ञापयामास तदा रथो मे कल्प्यतामिति ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उस निशाचरने युद्धके लिये प्रस्थान करनेका निश्चय करके तलवार रख दी और आज्ञा दी—‘मेरा रथ तैयार किया जाय’॥३३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि श्रीरामोपाख्यानपर्वणि इन्द्रजिद्वधे एकोननवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २८९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत रामोपाख्यानपर्वमें इन्द्रजित्-वधविषयक दो सौ नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२८९॥