२८४ लङ्काप्रवेशे

भागसूचना

चतुरशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अंगदका रावणके पास जाकर रामका संदेश सुनाकर लौटना तथा राक्षसों और वानरोंका घोर संग्राम
मार्कण्डेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभूतान्नोदके तस्मिन् बहुमूलफले वने।
सेनां निवेश्य काकुत्स्थो विधिवत् पर्यरक्षत ॥ १ ॥

मूलम्

प्रभूतान्नोदके तस्मिन् बहुमूलफले वने।
सेनां निवेश्य काकुत्स्थो विधिवत् पर्यरक्षत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्कण्डेयजी कहते हैं— युधिष्ठिर! लंकाके उस वनमें अन्न और जलका बहुत सुभीता था। फल और मूल प्रचुरमात्रामें उपलब्ध थे; अतः वहीं सेनाकी छावनी डालकर श्रीरामचन्द्रजी विधिपूर्वक उसकी रक्षा करते रहे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावणः संविधं चक्रे लङ्कायां शास्त्रनिर्मिताम्।
प्रकृत्यैव दुराधर्षा दृढप्राकारतोरणा ॥ २ ॥

मूलम्

रावणः संविधं चक्रे लङ्कायां शास्त्रनिर्मिताम्।
प्रकृत्यैव दुराधर्षा दृढप्राकारतोरणा ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर रावण लंकामें शास्त्रोक्त प्रकारसे बनी हुई युद्ध-सामग्री (मशीनगन आदि)-का संग्रह करने लगा। लंकाकी चहारदीवारी और नगर-द्वार अत्यन्त सुदृढ़ थे; अतः स्वभावसे ही वह दुर्धर्ष थी—किसी भी आक्रमणकारीका वहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन था॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगाधतोयाः परिखा मीननक्रसमाकुलाः ।
बभूवुः सप्त दुर्धर्षाः खादिरैः शङ्कुभिश्चिताः ॥ ३ ॥

मूलम्

अगाधतोयाः परिखा मीननक्रसमाकुलाः ।
बभूवुः सप्त दुर्धर्षाः खादिरैः शङ्कुभिश्चिताः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नगरके चारों ओर सात गहरी खाइयाँ थीं, जिनमें अगाध जल भरा रहता था और उनमें मत्स्य-मगर आदि जल-जन्तु निवास करते थे। इन खाइयोंमें सब ओर खैरके खूँटे गड़े हुए थे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कपाटयन्त्रदुर्धर्षा बभूवुः सहुडोपलाः ।
साशीविषघटायोधाः ससर्जरसपांसवः ॥ ४ ॥

मूलम्

कपाटयन्त्रदुर्धर्षा बभूवुः सहुडोपलाः ।
साशीविषघटायोधाः ससर्जरसपांसवः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मजबूत किवाड़ लगे थे और गोला बरसानेवाले यन्त्र (मशीनें) यथास्थान लगे थे। इनके सिवा वहाँ बहुत-से शृंग और गोले जमा किये गये थे। इन सब कारणोंसे इन खाइयोंको पार करना बहुत कठिन था। विषधर सर्पोंके समूह, सैनिक, सर्जरस (लाह) और धूल—इन सबसे संयुक्त और सुरक्षित होनेके कारण भी वे खाइयाँ दुर्गम थीं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुसलालातनाराचतोमरासिपरश्वधैः ।
अन्विताश्च शतघ्नीभिः समधूच्छिष्टमुद्‌गराः ॥ ५ ॥

मूलम्

मुसलालातनाराचतोमरासिपरश्वधैः ।
अन्विताश्च शतघ्नीभिः समधूच्छिष्टमुद्‌गराः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुसल, अलात (बनैठी), बाण, तोमर, तलवार, फरसे, मोमके मुद्‌गर तथा तोप आदि अस्त्र-शस्त्रोंके संग्रहके कारण भी वे खाइयाँ दुर्लंघ्य थीं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरद्वारेषु सर्वेषु गुल्माः स्थावरजङ्गमाः।
बभूवुः पत्तिबहुलाः प्रभूतगजवाजिनः ॥ ६ ॥

मूलम्

पुरद्वारेषु सर्वेषु गुल्माः स्थावरजङ्गमाः।
बभूवुः पत्तिबहुलाः प्रभूतगजवाजिनः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नगरके सभी दरवाजोंपर छिपकर बैठनेके लिये बुर्ज बने हुए थे। ये स्थावर गुल्म कहलाते थे और घूम-फिरकर रक्षा करनेवाले जो सैनिक नियुक्त किये गये थे वे जंगम गुल्म कहे जाते थे। इनमें अधिकांश पैदल और बहुत-से हाथीसवार तथा घुड़सवार भी थे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्गदस्त्वथ लङ्काया द्वारदेशमुपागतः ।
विदितो राक्षसेन्द्रस्य प्रविवेश गतव्यथः ॥ ७ ॥
मध्ये राक्षसकोटीनां बह्वीनां सुमहाबलः।
शुशुभे मेघमालाभिरादित्य इव संवृतः ॥ ८ ॥

मूलम्

अङ्गदस्त्वथ लङ्काया द्वारदेशमुपागतः ।
विदितो राक्षसेन्द्रस्य प्रविवेश गतव्यथः ॥ ७ ॥
मध्ये राक्षसकोटीनां बह्वीनां सुमहाबलः।
शुशुभे मेघमालाभिरादित्य इव संवृतः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञासे) महाबली अंगद दूत बनकर लंकापुरीके द्वारपर आये। राक्षसराज रावणको उनके आगमनकी सूचना दी गयी। फिर अनुमति मिलनेपर उन्होंने निर्भय होकर पुरीमें प्रवेश किया। अनेक करोड़ राक्षसोंके बीचमें जाते हुए अंगद मेघोंकी घटासे घिरे हुए सूर्यदेवके समान सुशोभित हो रहे थे॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स समासाद्य पौलस्त्यममात्यैरभिसंवृतम् ।
रामसंदेशमामन्त्र्य वाग्मी वक्तुं प्रचक्रमे ॥ ९ ॥

मूलम्

स समासाद्य पौलस्त्यममात्यैरभिसंवृतम् ।
रामसंदेशमामन्त्र्य वाग्मी वक्तुं प्रचक्रमे ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्त्रियोंसे घिरकर बैठे हुए पुलस्त्यनन्दन रावणके पास पहुँचकर कुशल वक्ता अंगदने रावणको सम्बोधित करके श्रीरामचन्द्रजीका संदेश इस प्रकार कहना आरम्भ किया—॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आह त्वां राघवो राजन् कोसलेन्द्रो महायशाः।
प्राप्तकालमिदं वाक्यं तदादत्स्व कुरुष्व च ॥ १० ॥

मूलम्

आह त्वां राघवो राजन् कोसलेन्द्रो महायशाः।
प्राप्तकालमिदं वाक्यं तदादत्स्व कुरुष्व च ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! कोसलदेशके महाराज महायशस्वी श्रीरामचन्द्रजीने तुमसे कहनेके लिये जो समयोचित संदेश भेजा है, उसे सुनो और तदनुसार कार्य करो॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकृतात्मानमासाद्य राजानमनये रतम् ।
विनश्यन्त्यनयाविष्टा देशाश्च नगराणि च ॥ ११ ॥

मूलम्

अकृतात्मानमासाद्य राजानमनये रतम् ।
विनश्यन्त्यनयाविष्टा देशाश्च नगराणि च ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो राजा अपने मनको काबूमें न रखकर अन्यायमें तत्पर रहता है, उसका आश्रय लेकर उसके अधीन रहनेवाले नगर और देश भी अनीतिपरायण होकर नष्ट हो जाते हैं’॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वयैकेनापराद्धं मे सीतामाहरता बलात्।
वधायानपराद्धानामन्येषां तद् भविष्यति ॥ १२ ॥

मूलम्

त्वयैकेनापराद्धं मे सीतामाहरता बलात्।
वधायानपराद्धानामन्येषां तद् भविष्यति ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सीताका बलपूर्वक अपहरण करके मेरा अपराध तो अकेले तुमने किया है, परंतु इसके कारण अन्य निर्दोष लोग भी मारे जायँगे’॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये त्वया बलदर्पाभ्यामविष्टेन वनेचराः।
ऋषयो हिंसिताः पूर्वं देवाश्चाप्यवमानिताः ॥ १३ ॥
राजर्षयश्च निहता रुदत्यश्च हृताः स्त्रियः।
तदिदं समनुप्राप्तं फलं तस्यानयस्य ते ॥ १४ ॥

मूलम्

ये त्वया बलदर्पाभ्यामविष्टेन वनेचराः।
ऋषयो हिंसिताः पूर्वं देवाश्चाप्यवमानिताः ॥ १३ ॥
राजर्षयश्च निहता रुदत्यश्च हृताः स्त्रियः।
तदिदं समनुप्राप्तं फलं तस्यानयस्य ते ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुमने बल और अहंकारसे उन्मत्त होकर पहले जिन वनवासी ऋषियोंकी हत्या की, देवताओंका अपमान किया, राजर्षियोंके प्राण लिये तथा रोती-बिलखती अबलाओंका भी अपहरण किया था, उन सब अत्याचारोंका फल अब तुम्हें प्राप्त होनेवाला है’॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्तास्मि त्वां सहामात्यैर्युध्यस्व पुरुषो भव।
पश्य मे धनुषो वीर्यं मानुषस्य निशाचर ॥ १५ ॥

मूलम्

हन्तास्मि त्वां सहामात्यैर्युध्यस्व पुरुषो भव।
पश्य मे धनुषो वीर्यं मानुषस्य निशाचर ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं मन्त्रियोंसहित तुम्हें मार डालूँगा। साहस हो तो युद्ध करो और पौरुषका परिचय दो। निशाचर! यद्यपि मैं मनुष्य हूँ, तो भी मेरे धनुषका बल देखना॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुच्यतां जानकी सीता न मे मोक्ष्यसि कर्हिचित्।
अराक्षसमिमं लोकं कर्तास्मि निशितैः शरैः ॥ १६ ॥

मूलम्

मुच्यतां जानकी सीता न मे मोक्ष्यसि कर्हिचित्।
अराक्षसमिमं लोकं कर्तास्मि निशितैः शरैः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जनकनन्दिनी सीताको छोड़ दो, अन्यथा कभी मेरे हाथसे जीवित नहीं बचोगे। मैं अपने तीखे बाणोंद्वारा इस संसारको राक्षसोंसे सूना कर दूँगा’॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति तस्य ब्रुवाणस्य दूतस्य परुषं वचः।
श्रुत्वा न ममृषे राजा रावणः क्रोधमूर्च्छितः ॥ १७ ॥

मूलम्

इति तस्य ब्रुवाणस्य दूतस्य परुषं वचः।
श्रुत्वा न ममृषे राजा रावणः क्रोधमूर्च्छितः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके दूतके मुखसे ऐसी कठोर बातें सुनकर राजा रावण सहन न कर सका। वह क्रोधसे मूर्च्छित हो उठा॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इङ्गितज्ञास्ततो भर्तुश्चत्वारो रजनीचराः ।
चतुर्ष्वङ्गेषु जगृहुः शार्दूलमिव पक्षिणः ॥ १८ ॥

मूलम्

इङ्गितज्ञास्ततो भर्तुश्चत्वारो रजनीचराः ।
चतुर्ष्वङ्गेषु जगृहुः शार्दूलमिव पक्षिणः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब स्वामीके संकेतको समझनेवाले चार निशाचर अपनी जगहसे उठे और जिस प्रकार पक्षी सिंहको पकड़े, उसी प्रकार वे अंगदके चार अंगोंको पकड़ने लगे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तांस्तथाङ्गेषु संसक्तानङ्गदो रजनीचरान् ।
आदायैव खमुत्पत्य प्रासादतलमाविशत् ॥ १९ ॥

मूलम्

तांस्तथाङ्गेषु संसक्तानङ्गदो रजनीचरान् ।
आदायैव खमुत्पत्य प्रासादतलमाविशत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अंगद इस प्रकार अपने अंगोंसे सटे हुए उन चारों राक्षसोंको लिये-दिये आकाशमें उछलकर महलकी छतपर जा चढ़े॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेगेनोत्पततस्तस्य पेतुस्ते रजनीचराः ।
भुवि सम्भिन्नहृदयाः प्रहारवरपीडिताः ॥ २० ॥

मूलम्

वेगेनोत्पततस्तस्य पेतुस्ते रजनीचराः ।
भुवि सम्भिन्नहृदयाः प्रहारवरपीडिताः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उछलते समय उनके वेगसे छूटकर वे चारों राक्षस पृथ्वीपर जा गिरे। उन राक्षसोंकी छाती फट गयी और अधिक चोट लगनेके कारण उन्हें बड़ी पीड़ा हुई॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संसक्तो हर्म्यशिखरात् तस्मात् पुनरवापतत्।
लङ्घयित्वा पुरीं लङ्कां सुवेलस्य समीपतः ॥ २१ ॥

मूलम्

संसक्तो हर्म्यशिखरात् तस्मात् पुनरवापतत्।
लङ्घयित्वा पुरीं लङ्कां सुवेलस्य समीपतः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

छतपर चढ़े हुए अंगद फिर उस महलके कँगूरेसे कूद पड़े और लंकापुरीको लाँघकर सुवेलपर्वतके समीप आ पहुँचे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोसलेन्द्रमथागम्य सर्वमावेद्य वानरः ।
विशश्राम स तेजस्वी राघवेणाभिनन्दितः ॥ २२ ॥

मूलम्

कोसलेन्द्रमथागम्य सर्वमावेद्य वानरः ।
विशश्राम स तेजस्वी राघवेणाभिनन्दितः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर कोसलनरेश श्रीरामचन्द्रजीसे मिलकर तेजस्वी वानर अंगदने रावणके दरबारकी सारी बातें बतायीं। श्रीरामने अंगदकी बड़ी प्रशंसा की। फिर वे विश्राम करने लगे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सर्वाभिसारेण हरीणां वातरंहसाम्।
भेदयामास लङ्कायाः प्राकारं रघुनन्दनः ॥ २३ ॥

मूलम्

ततः सर्वाभिसारेण हरीणां वातरंहसाम्।
भेदयामास लङ्कायाः प्राकारं रघुनन्दनः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर भगवान् श्रीरामने वायुके समान वेगशाली वानरोंकी सम्पूर्ण सेनाके द्वारा एक साथ लंकापर धावा बोल दिया और उसकी चहारदीवारी तुड़वा डाली॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विभीषणर्क्षाधिपती पुरस्कृत्याथ लक्ष्मणः ।
दक्षिणं नगरद्वारमवामृद्‌नाद् दुरासदम् ॥ २४ ॥

मूलम्

विभीषणर्क्षाधिपती पुरस्कृत्याथ लक्ष्मणः ।
दक्षिणं नगरद्वारमवामृद्‌नाद् दुरासदम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नगरके दक्षिण द्वारमें प्रवेश करना बहुत कठिन था, परंतु लक्ष्मणने विभीषण और जाम्बवान्‌को आगे करके उसे भी धूलमें मिला दिया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

करभारुणपाण्डूनां हरीणां युद्धशालिनाम् ।
कोटीशतसहस्रेण लङ्कामभ्यपपत् तदा ॥ २५ ॥

मूलम्

करभारुणपाण्डूनां हरीणां युद्धशालिनाम् ।
कोटीशतसहस्रेण लङ्कामभ्यपपत् तदा ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् उन्होंने हथेलीके समान श्वेत और लाल रंगके युद्धकुशल वानरोंकी दस खरब सेनाके साथ लंकामें प्रवेश किया॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रलम्बबाहूरुकरजङ्घान्तरविलम्बिनाम् ।
ऋक्षाणां धूम्रवर्णानां तिस्रः कोट्यो व्यवस्थिताः ॥ २६ ॥

मूलम्

प्रलम्बबाहूरुकरजङ्घान्तरविलम्बिनाम् ।
ऋक्षाणां धूम्रवर्णानां तिस्रः कोट्यो व्यवस्थिताः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके भुजा, ऊरु, हाथ और जंघा (पिंडली)—ये सभी अङ्ग विशाल थे तथा अंगोंकी कान्ति धुएँके समान काली थी, ऐसे तीन करोड़ रीछ सैनिक भी उनके साथ लंकामें जाकर युद्धके लिये डटे हुए थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्पतद्‌भिः पतद्‌भिश्च निपतद्‌भिश्च वानरैः।
नादृश्यत तदा सूर्यो रजसा नाशितप्रभः ॥ २७ ॥

मूलम्

उत्पतद्‌भिः पतद्‌भिश्च निपतद्‌भिश्च वानरैः।
नादृश्यत तदा सूर्यो रजसा नाशितप्रभः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय वानरोंके उछलने-कूदने तथा गिरने-पड़नेसे इतनी धूल उड़ी कि उससे सूर्यकी प्रभा नष्ट-सी हो गयी और उसका दीखना बंद हो गया॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शालिप्रसूनसदृशैः शिरीषकुसुमप्रभैः ।
तरुणादित्यसदृशैः शणगौरैश्च वानरैः ॥ २८ ॥
प्राकारं ददृशुस्ते तु समन्तात् कपिलीकृतम्।
राक्षसा विस्मिता राजन् सस्त्रीवृद्धाः समन्ततः ॥ २९ ॥

मूलम्

शालिप्रसूनसदृशैः शिरीषकुसुमप्रभैः ।
तरुणादित्यसदृशैः शणगौरैश्च वानरैः ॥ २८ ॥
प्राकारं ददृशुस्ते तु समन्तात् कपिलीकृतम्।
राक्षसा विस्मिता राजन् सस्त्रीवृद्धाः समन्ततः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! धानके फूल-जैसे रंगवाले, मौलसिरीके पुष्प-सदृश कान्तिवाले, प्रातःकालके सूर्यके समान अरुण प्रभावाले तथा सनईके समान सफेद रंगवाले वानरोंसे व्याप्त होनेके कारण लंकाकी चहारदीवारी चारों ओर कपिलवर्णकी दिखायी देती थी। स्त्रियों और वृद्धोंसहित समस्त लंकावासी राक्षस चारों ओर आश्चर्यचकित होकर इस दृश्यको देख रहे थे॥२८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिभिदुस्ते मणिस्तम्भान् कर्णाट्टशिखराणि च।
भग्नोन्मथितशृङ्गाणि यन्त्राणि च विचिक्षिपुः ॥ ३० ॥

मूलम्

बिभिदुस्ते मणिस्तम्भान् कर्णाट्टशिखराणि च।
भग्नोन्मथितशृङ्गाणि यन्त्राणि च विचिक्षिपुः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वानर सैनिक वहाँके मणिनिर्मित खम्भों और अत्यन्त ऊँचे-ऊँचे महलोंके कंगूरोंको तोड़ने-फोड़ने लगे। गोलाबारी करनेवाले जो तोप आदि यन्त्र लगे थे, उनके शिखरोंको चूर-चूर करके उन्होंने दूर फेंक दिया॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिगृह्य शतघ्नीश्च सचक्राः सहुडोपलाः।
चिक्षिपुर्भुजवेगेन लङ्कामध्ये महास्वनाः ॥ ३१ ॥

मूलम्

परिगृह्य शतघ्नीश्च सचक्राः सहुडोपलाः।
चिक्षिपुर्भुजवेगेन लङ्कामध्ये महास्वनाः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहियोंवाली तोपों, शृंगों और गोलोंको ले-लेकर महान् कोलाहल करते हुए वानर अपनी भुजाओंके वेगसे उन्हें लंकामें फेंकने लगे॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राकारस्थाश्च ये केचिन्निशाचरगणास्तथा ।
प्रदुद्रुवुस्ते शतशः कपिभिः समभिद्रुताः ॥ ३२ ॥

मूलम्

प्राकारस्थाश्च ये केचिन्निशाचरगणास्तथा ।
प्रदुद्रुवुस्ते शतशः कपिभिः समभिद्रुताः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कोई निशाचर चहारदीवारीकी रक्षाके लिये सैकड़ोंकी संख्यामें वहाँ खड़े थे, वे सब वानरोंद्वारा खदेड़े जानेपर भाग खड़े हुए॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु राजवचनाद् राक्षसाः कामरूपिणः।
निर्ययुर्विकृताकाराः सहस्रशतसङ्घशः ॥ ३३ ॥

मूलम्

ततस्तु राजवचनाद् राक्षसाः कामरूपिणः।
निर्ययुर्विकृताकाराः सहस्रशतसङ्घशः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर राक्षसराज रावणकी आज्ञा पाकर इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले राक्षस लाख-लाखकी टोली बनाकर नगरसे बाहर निकले। उन सबकी आकृति बड़ी विकराल थी॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शस्त्रवर्षाणि वर्षन्तो द्रावयित्वा वनौकसः।
प्राकारं शोभयन्तस्ते परं विक्रममास्थिताः ॥ ३४ ॥

मूलम्

शस्त्रवर्षाणि वर्षन्तो द्रावयित्वा वनौकसः।
प्राकारं शोभयन्तस्ते परं विक्रममास्थिताः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे चहारदीवारीकी शोभा बढ़ाते हुए अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करके वनवासी वानरोंको खदेड़ने लगे और अपने उत्तम पराक्रमका परिचय देने लगे॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स माषराशिसदृशैर्बभूव क्षणदाचरैः ।
कृतो निर्वानरो भूयः प्राकारो भीमदर्शनैः ॥ ३५ ॥

मूलम्

स माषराशिसदृशैर्बभूव क्षणदाचरैः ।
कृतो निर्वानरो भूयः प्राकारो भीमदर्शनैः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उड़दके ढेर-जैसे काले-कलूटे उन भयंकर निशाचरोंने लड़कर पुनः उस चहारदीवारीको वानरोंसे सूनी कर दिया॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पेतुः शूलविभिन्नाङ्गा बहवो वानरर्षभाः।
स्तम्भतोरणभग्नाश्च पेतुस्तत्र निशाचराः ॥ ३६ ॥

मूलम्

पेतुः शूलविभिन्नाङ्गा बहवो वानरर्षभाः।
स्तम्भतोरणभग्नाश्च पेतुस्तत्र निशाचराः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके शूलोंकी मारसे अंग विदीर्ण हो जानेके कारण बहुत-से श्रेष्ठ वानर धराशायी हो गये। इसी प्रकार वानरोंके हाथोंसे खम्भोंकी मार खाकर कितने ही निशाचर युद्धका मैदान छोड़कर भाग गये और कितने वहीं ढेर हो गये॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केशाकेश्यभवद् युद्धं रक्षसां वानरैः सह।
नखैर्दन्तश्च वीराणां खादतां वै परस्परम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

केशाकेश्यभवद् युद्धं रक्षसां वानरैः सह।
नखैर्दन्तश्च वीराणां खादतां वै परस्परम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् वीर राक्षसोंका वानरोंके साथ सिरके बाल पकड़कर युद्ध होने लगा। वे नखों और दाँतोंसे भी एक-दूसरेको काट खाते थे॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निष्टनन्तो ह्युभयतस्तत्र वानरराक्षसाः ।
हता निपतिता भूमौ न मुञ्चन्ति परस्परम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

निष्टनन्तो ह्युभयतस्तत्र वानरराक्षसाः ।
हता निपतिता भूमौ न मुञ्चन्ति परस्परम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों ओरसे गर्जना करते हुए वानर तथा राक्षस इस प्रकार युद्ध करते थे कि मरकर पृथ्वीपर गिर जानेके बाद भी एक-दूसरेको छोड़ते नहीं थे॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामस्तु शरजालानि ववर्ष जलदो यथा।
तानि लङ्कां समासाद्य जघ्नुस्तान् रजनीचरान् ॥ ३९ ॥

मूलम्

रामस्तु शरजालानि ववर्ष जलदो यथा।
तानि लङ्कां समासाद्य जघ्नुस्तान् रजनीचरान् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उधर श्रीरामचन्द्रजी भी, जैसे बादल जल बरसाते हैं, उसी प्रकार बाणसमूहोंकी वर्षा करने लगे और वे बाण लंकामें घुसकर वहाँ खड़े हुए निशाचरोंके प्राण लेने लगे॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौमित्रिरपि नाराचैर्दृढधन्वा जितक्लमः ।
आदिश्यादिश्य दुर्गस्थान् पातयामास राक्षसान् ॥ ४० ॥

मूलम्

सौमित्रिरपि नाराचैर्दृढधन्वा जितक्लमः ।
आदिश्यादिश्य दुर्गस्थान् पातयामास राक्षसान् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्लेश और थकावटपर विजय पानेवाले सुदृढ़ धनुर्धर सुमित्राकुमार लक्ष्मण भी सूचना दे-देकर नाराच नामक बाणोंद्वारा दुर्गके भीतर रहनेवाले राक्षसोंको भी मार गिराने लगे॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रत्यवहारोऽभूत् सैन्यानां राघवाज्ञया।
कृते विमर्दे लङ्कायां लब्धलक्ष्यो जयोत्तरः ॥ ४१ ॥

मूलम्

ततः प्रत्यवहारोऽभूत् सैन्यानां राघवाज्ञया।
कृते विमर्दे लङ्कायां लब्धलक्ष्यो जयोत्तरः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार लंकामें भीषण मार-काट मचानेके बाद वानरसैनिक लक्ष्यसिद्धिपूर्वक विजय पाकर श्रीरघुनाथजीकी आज्ञासे युद्ध बंद करके शिविरकी ओर लौट गये॥४१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि रामोपाख्यानपर्वणि लङ्काप्रवेशे चतुरशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २८४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत रामोपाख्यानपर्वमें लंकामें प्रवेशविषयक दो सौ चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२८४॥