भागसूचना
द्व्यशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
श्रीरामका सुग्रीवपर कोप, सुग्रीवका सीताकी खोजमें वानरोंको भेजना तथा श्रीहनुमान्जीका लौटकर अपनी लंकायात्राका वृत्तान्त निवेदन करना
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राघवः सहसौमित्रिः सुग्रीवेणाभिपालितः ।
वसन् माल्यवतः पृष्ठे ददृशे विमलं नभः ॥ १ ॥
मूलम्
राघवः सहसौमित्रिः सुग्रीवेणाभिपालितः ।
वसन् माल्यवतः पृष्ठे ददृशे विमलं नभः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इधर श्रीराम और लक्ष्मण सुग्रीवसे सुरक्षित हो माल्यवान् पर्वतके पृष्ठभागपर रहने लगे। कुछ कालके अनन्तर जब वर्षाऋतु बीत गयी, तब उन्हें आकाश निर्मल दिखायी दिया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स दृष्ट्वा विमले व्योम्नि निर्मलं शशलक्षणम्।
ग्रहनक्षत्रताराभिरनुयातममित्रहा ॥ २ ॥
कुमुदोत्पलपद्मानां गन्धमादाय वायुना ।
महीधरस्थः शीतेन सहसा प्रतिबोधितः ॥ ३ ॥
मूलम्
स दृष्ट्वा विमले व्योम्नि निर्मलं शशलक्षणम्।
ग्रहनक्षत्रताराभिरनुयातममित्रहा ॥ २ ॥
कुमुदोत्पलपद्मानां गन्धमादाय वायुना ।
महीधरस्थः शीतेन सहसा प्रतिबोधितः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरद्ऋतुके निर्मल आकाशमें ग्रह, नक्षत्र तथा ताराओंसहित विमल चन्द्रमाका दर्शन करके शत्रुसंहारक श्रीराम अभी पर्वतपर सोये ही थे कि कुमुद, उत्पल और पद्मोंकी सुगन्ध लेकर बहती हुई शीतल एवं सुखद वायुने उन्हें सहसा जगा दिया॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभाते लक्ष्मणं वीरमभ्यभाषत दुर्मनाः।
सीतां संस्मृत्य धर्मात्मा रुद्धां राक्षसवेश्मनि ॥ ४ ॥
मूलम्
प्रभाते लक्ष्मणं वीरमभ्यभाषत दुर्मनाः।
सीतां संस्मृत्य धर्मात्मा रुद्धां राक्षसवेश्मनि ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मात्मा श्रीरामको प्रातःकाल राक्षसके भवनमें कैद हुई अपनी पत्नी सीताका स्मरण हो आया और वे खिन्नचित्त होकर वीरवर लक्ष्मणसे इस प्रकार बोले—॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ लक्ष्मण जानीहि किष्किन्धायां कपीश्वरम्।
प्रमत्तं ग्राम्यधर्मेषु कृतघ्नं स्वार्थपण्डितम् ॥ ५ ॥
मूलम्
गच्छ लक्ष्मण जानीहि किष्किन्धायां कपीश्वरम्।
प्रमत्तं ग्राम्यधर्मेषु कृतघ्नं स्वार्थपण्डितम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! जाओ और पता लगाओ कि किष्किन्धामें वानरराज सुग्रीव क्या कर रहा है? जान पड़ता है, स्वार्थसाधनकी कलामें पण्डित कृतघ्न सुग्रीव विषयभोगोंमें आसक्त हो अपने कर्तव्यको भूल गया है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽसौ कुलाधमो मूढो मया राज्येऽभिषेचितः।
सर्ववानरगोपुच्छा यमृक्षाश्च भजन्ति वै ॥ ६ ॥
मूलम्
योऽसौ कुलाधमो मूढो मया राज्येऽभिषेचितः।
सर्ववानरगोपुच्छा यमृक्षाश्च भजन्ति वै ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उस वानरकुलकलंक मूर्खको मैंने ही राज्यपर अभिषिक्त किया है। इसके कारण सम्पूर्ण वानर, लंगूर तथा रीछ उसकी सेवा करते हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदर्थं निहतो वाली मया रघुकुलोद्वह।
त्वया सह महाबाहो किष्किन्धोपवने तदा ॥ ७ ॥
मूलम्
यदर्थं निहतो वाली मया रघुकुलोद्वह।
त्वया सह महाबाहो किष्किन्धोपवने तदा ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रघुकुलतिलक महाबाहु लक्ष्मण! इसी सुग्रीवके लिये उन दिनों मैंने तुम्हारे साथ किष्किन्धाके उद्यानमें जाकर वालीका वध किया था॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतघ्नं तमहं मन्ये वानरापसदं भुवि।
यो मामेवंगतो मूढो न जानीतेऽद्य लक्ष्मण ॥ ८ ॥
मूलम्
कृतघ्नं तमहं मन्ये वानरापसदं भुवि।
यो मामेवंगतो मूढो न जानीतेऽद्य लक्ष्मण ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमित्रानन्दन! मैं तो उस नीच वानरको इस भूतलपर कृतघ्न मानता हूँ, क्योंकि वह मूर्ख इस अवस्थामें पहुँचकर मुझे भूल गया है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असौ मन्ये न जानीते समयप्रतिपालनम्।
कृतोपकारं मां नूनमवमन्याल्पया धिया ॥ ९ ॥
मूलम्
असौ मन्ये न जानीते समयप्रतिपालनम्।
कृतोपकारं मां नूनमवमन्याल्पया धिया ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं तो समझता हूँ, वह अपनी की हुई प्रतिज्ञाका पालन करना नहीं जानता और अपनी मन्दबुद्धिके कारण मुझ उपकारीकी भी वह निश्चय ही अवहेलना कर रहा है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि तावदनुद्युक्तः शेते कामसुखात्मकः।
नेतव्यो वालिमार्गेण सर्वभूतगतिं त्वया ॥ १० ॥
मूलम्
यदि तावदनुद्युक्तः शेते कामसुखात्मकः।
नेतव्यो वालिमार्गेण सर्वभूतगतिं त्वया ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि वह विषयसुखमें ही आसक्त हो सीताकी खोजके लिये कुछ उद्योग न कर रहा हो तो उसे भी तुम वालीके मार्गसे उसी लोकको पहुँचा देना, जहाँ एक-न-एक दिन सभी प्राणियोंको जाना पड़ता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथापि घटतेऽस्माकमर्थे वानरपुङ्गवः ।
तमादायैव काकुत्स्थ त्वरावान् भव मा चिरम् ॥ ११ ॥
मूलम्
अथापि घटतेऽस्माकमर्थे वानरपुङ्गवः ।
तमादायैव काकुत्स्थ त्वरावान् भव मा चिरम् ॥ ११ ॥
सूचना (हिन्दी)
सीताजीका रावणको फटकारना
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! यदि वानरराज हमारे कार्यके लिये कुछ चेष्टा कर रहा हो तो उसे साथ लेकर तुरंत लौट आना, देर न लगाना’॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तो लक्ष्मणो भ्रात्रा गुरुवाक्यहिते रतः।
प्रतस्थे रुचिरं गृह्य समार्गणगुणं धनुः ॥ १२ ॥
मूलम्
इत्युक्तो लक्ष्मणो भ्रात्रा गुरुवाक्यहिते रतः।
प्रतस्थे रुचिरं गृह्य समार्गणगुणं धनुः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भाईके ऐसा कहनेपर गुरुजनोंकी आज्ञाके पालन तथा हिताचरणमें तत्पर रहनेवाले लक्ष्मण बाण और प्रत्यञ्चासहित सुन्दर धनुष हाथमें लेकर वहाँसे चल दिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किष्किन्धाव्दारमासाद्य प्रविवेशानिवारितः ।
सक्रोध इति तं मत्वा राजा प्रत्युद्ययौ हरिः॥ १३॥
मूलम्
किष्किन्धाव्दारमासाद्य प्रविवेशानिवारितः ।
सक्रोध इति तं मत्वा राजा प्रत्युद्ययौ हरिः॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
किष्किन्धाके द्वारपर पहुँचकर वे बेरोक-टोक भीतर घुस गये। लक्ष्मण क्रोधमें भरे हुए आ रहे हैं, यह जानकर राजा सुग्रीव उनकी अगवानीके लिये आगे बढ़ आया॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं सदारो विनीतात्मा सुग्रीवः प्लवगाधिपः।
पूजया प्रतिजग्राह प्रीयमाणस्तदर्हया ॥ १४ ॥
तमब्रवीद् रामवचः सौमित्रिरकुतोभयः ।
मूलम्
तं सदारो विनीतात्मा सुग्रीवः प्लवगाधिपः।
पूजया प्रतिजग्राह प्रीयमाणस्तदर्हया ॥ १४ ॥
तमब्रवीद् रामवचः सौमित्रिरकुतोभयः ।
अनुवाद (हिन्दी)
पत्नीसहित वानरराज सुग्रीव विनीतभावसे लक्ष्मणजीकी पूजा करके उन्हें साथ लिवा ले गये। किसीसे भी भय न माननेवाले सुमित्रानन्दन लक्ष्मणने उस पूजा (आदर-सत्कार)-से प्रसन्न हो उनसे श्रीरामचन्द्रजीकी कही हुई सारी बातें कह सुनायीं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तत् सर्वमशेषेण श्रुत्वा प्रह्वः कृताञ्जलिः ॥ १५ ॥
सभृत्यदारो राजेन्द्र सुग्रीवो वानराधिपः।
इदमाह वचः प्रीतो लक्ष्मणं नरकुञ्जरम् ॥ १६ ॥
मूलम्
स तत् सर्वमशेषेण श्रुत्वा प्रह्वः कृताञ्जलिः ॥ १५ ॥
सभृत्यदारो राजेन्द्र सुग्रीवो वानराधिपः।
इदमाह वचः प्रीतो लक्ष्मणं नरकुञ्जरम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! वह सब कुछ पूरा-पूरा सुनकर नम्रतापूर्वक हाथ जोड़े हुए भार्या तथा सेवकोंसहित वानरराज सुग्रीवने नरश्रेष्ठ लक्ष्मणसे सहर्ष निवेदन किया—॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्मि लक्ष्मण दुर्मेधा नाकृतज्ञो न निर्घृणः।
श्रूयतां यः प्रयत्नो मे सीतापर्येषणे कृतः ॥ १७ ॥
मूलम्
नास्मि लक्ष्मण दुर्मेधा नाकृतज्ञो न निर्घृणः।
श्रूयतां यः प्रयत्नो मे सीतापर्येषणे कृतः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! मैं न तो दुर्बुद्धि हूँ, न अकृतज्ञ हूँ और न निर्दय ही हूँ। मैंने सीताकी खोजके लिये जो प्रयत्न किया है, उसे सुनिये॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिशः प्रस्थापिताः सर्वे विनीता हरयो मया।
सर्वेषां च कृतः कालो मासेनागमनं पुनः ॥ १८ ॥
मूलम्
दिशः प्रस्थापिताः सर्वे विनीता हरयो मया।
सर्वेषां च कृतः कालो मासेनागमनं पुनः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने सब दिशाओंमें सभी विनयशील वानरोंको भेज दिया है और उन सबके लिये एक महीनेके अंदर ही लौट आनेका समय निश्चित कर दिया है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यैरियं सवना साद्रिः सपुरा सागराम्बरा।
विचेतव्या मही वीर सग्रामनगराकरा ॥ १९ ॥
मूलम्
यैरियं सवना साद्रिः सपुरा सागराम्बरा।
विचेतव्या मही वीर सग्रामनगराकरा ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीर! वे सब लोग वन, पर्वत, पुर, ग्राम, नगर तथा आकरोंसहित समुद्रवसना इस सारी पृथ्वीपर सीताकी खोज करेंगे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मासः पञ्चरात्रेण पूर्णो भवितुमर्हति।
ततः श्रोष्यसि रामेण सहितः सुमहत् प्रियम् ॥ २० ॥
मूलम्
स मासः पञ्चरात्रेण पूर्णो भवितुमर्हति।
ततः श्रोष्यसि रामेण सहितः सुमहत् प्रियम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह एक मास, जिसके समाप्त होनेतक वानरोंको लौट आना है, पाँच रातमें पूरा हो जायगा। तत्पश्चात् आप रामचन्द्रजीके साथ सीताका अत्यन्त प्रिय समाचार सुनेंगे’॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तो लक्ष्मणस्तेन वानरेन्द्रेण धीमता।
त्यक्त्वा रोषमदीनात्मा सुग्रीवं प्रत्यपूजयत् ॥ २१ ॥
मूलम्
इत्युक्तो लक्ष्मणस्तेन वानरेन्द्रेण धीमता।
त्यक्त्वा रोषमदीनात्मा सुग्रीवं प्रत्यपूजयत् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमान् वानरराज सुग्रीवके ऐसा कहनेपर उदार हृदयवाले लक्ष्मणने रोष त्यागकर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स रामं सहसुग्रीवो माल्यवत्पृष्ठमास्थितम्।
अभिगम्योदयं तस्य कार्यस्य प्रत्यवेदयत् ॥ २२ ॥
मूलम्
स रामं सहसुग्रीवो माल्यवत्पृष्ठमास्थितम्।
अभिगम्योदयं तस्य कार्यस्य प्रत्यवेदयत् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् वे सुग्रीवको साथ लेकर माल्यवान् पर्वतके पृष्ठभागमें रहनेवाले श्रीरामचन्द्रजीके पास गये। वहाँ उन्होंने बताया कि सीताका अनुसंधानकार्य आरम्भ हो गया है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवं वानरेन्द्रास्ते समाजग्मुः सहस्रशः।
दिशस्तिस्रो विचित्याथ न तु ये दक्षिणां गताः ॥ २३ ॥
मूलम्
इत्येवं वानरेन्द्रास्ते समाजग्मुः सहस्रशः।
दिशस्तिस्रो विचित्याथ न तु ये दक्षिणां गताः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद मास पूर्ण होनेपर तीन दिशाओंकी खोज करके सहस्रों वानरप्रमुख वहाँ आये। केवल वे ही नहीं आये जो दक्षिण दिशामें पता लगाने गये थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचख्युस्तत्र रामाय महीं सागरमेखलाम्।
विचितां न तु वैदेह्या दर्शनं रावणस्य वा ॥ २४ ॥
मूलम्
आचख्युस्तत्र रामाय महीं सागरमेखलाम्।
विचितां न तु वैदेह्या दर्शनं रावणस्य वा ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आये हुए वानरोंने श्रीरामचन्द्रजीसे बताया कि समुद्रसे घिरी हुई सारी पृथ्वी हमने देख डाली, परंतु कहीं भी सीता अथवा रावणका दर्शन नहीं हुआ॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गतास्तु दक्षिणामाशां ये वै वानरपुङ्गवाः।
आशावांस्तेषु काकुत्स्थः प्राणानार्तोऽभ्यधारयत् ॥ २५ ॥
मूलम्
गतास्तु दक्षिणामाशां ये वै वानरपुङ्गवाः।
आशावांस्तेषु काकुत्स्थः प्राणानार्तोऽभ्यधारयत् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो प्रमुख वानर दक्षिण दिशाकी ओर गये थे, उन्हींसे सीताका वास्तविक समाचार मिलनेकी आशा बँधी हुई थी, इसीलिये व्यथित होनेपर भी श्रीरामचन्द्रजी अपने प्राणोंको धारण किये रहे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विमासोपरमे काले व्यतीते प्लवगास्ततः।
सुग्रीवमभिगम्येदं त्वरिता वाक्यमब्रुवन् ॥ २६ ॥
मूलम्
द्विमासोपरमे काले व्यतीते प्लवगास्ततः।
सुग्रीवमभिगम्येदं त्वरिता वाक्यमब्रुवन् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दो मास व्यतीत हो जानेपर कुछ वानर बड़ी उतावलीके साथ सुग्रीवके पास आये और इस प्रकार कहने लगे—॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्षितं वालिना यत् तत् स्फीतं मधुवनं महत्।
त्वया च प्लवगश्रेष्ठ तद् भुङ्क्ते पवनात्मजः ॥ २७ ॥
मूलम्
रक्षितं वालिना यत् तत् स्फीतं मधुवनं महत्।
त्वया च प्लवगश्रेष्ठ तद् भुङ्क्ते पवनात्मजः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वानरराज! वालीने तथा आपने भी जिस समृद्धिशाली महान् मधुवनकी रक्षा की थी, उसे पवननन्दन हनुमान्जी (राजाज्ञाके बिना ही) अपने उपभोगमें ला रहे हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वालिपुत्रोऽङ्गदश्चैव ये चान्ये प्लवगर्षभाः।
विचेतुं दक्षिणामाशां राजन् प्रस्थापितास्त्वया ॥ २८ ॥
मूलम्
वालिपुत्रोऽङ्गदश्चैव ये चान्ये प्लवगर्षभाः।
विचेतुं दक्षिणामाशां राजन् प्रस्थापितास्त्वया ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! उनके साथ वालिपुत्र अंगद तथा अन्य सभी श्रेष्ठ वानर इस काममें भाग ले रहे हैं, जिन्हें आपने दक्षिण दिशामें सीताजीकी खोजके लिये भेजा था’॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषामपनयं श्रुत्वा मेने स कृतकृत्यताम्।
कृतार्थानां हि भृत्यानामेतद् भवति चेष्टितम् ॥ २९ ॥
मूलम्
तेषामपनयं श्रुत्वा मेने स कृतकृत्यताम्।
कृतार्थानां हि भृत्यानामेतद् भवति चेष्टितम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन वानरोंके अनुचित बर्तावका समाचार सुनकर सुग्रीवको यह विश्वास हो गया कि वे सब काम पूरा करके लौटे हैं; क्योंकि ऐसी धृष्टतापूर्ण चेष्टा उन्हीं सेवकोंकी होती है जो अपने कार्यमें सफल हो जाते हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तद् रामाय मेधावी शशंस प्लवगर्षभः।
रामश्चाप्यनुमानेन मेने दृष्टां तु मैथिलीम् ॥ ३० ॥
मूलम्
स तद् रामाय मेधावी शशंस प्लवगर्षभः।
रामश्चाप्यनुमानेन मेने दृष्टां तु मैथिलीम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमान् वानरप्रवर सुग्रीवने श्रीरामचन्द्रजीसे अपना निश्चय बताया। श्रीरामचन्द्रजीने भी अनुमानसे यह मान लिया कि उन वानरोंने अवश्य ही मिथिलेशकुमारी सीताका दर्शन किया होगा॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हनुमत्प्रमुखाश्चापि विश्रान्तास्ते प्लवङ्गमाः ।
अभिजग्मुर्हरीन्द्रं तं रामलक्ष्मणसंनिधौ ॥ ३१ ॥
मूलम्
हनुमत्प्रमुखाश्चापि विश्रान्तास्ते प्लवङ्गमाः ।
अभिजग्मुर्हरीन्द्रं तं रामलक्ष्मणसंनिधौ ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान् आदि श्रेष्ठ वानर विश्राम कर लेनेके पश्चात् श्रीराम और लक्ष्मणके समीप बैठे हुए उन वानरराज सुग्रीवके पास गये॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गतिं च मुखवर्णं च दृष्ट्वा रामो हनूमतः।
अगमत् प्रत्ययं भूयो दृष्टा सीतेति भारत ॥ ३२ ॥
मूलम्
गतिं च मुखवर्णं च दृष्ट्वा रामो हनूमतः।
अगमत् प्रत्ययं भूयो दृष्टा सीतेति भारत ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! हनुमान्जीकी चाल-ढाल और मुखकी कान्ति देखकर श्रीरामचन्द्रजीको यह विश्वास हो गया कि इन्होंने सीताको देखा है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हनुमत्प्रमुखास्ते तु वानराः पूर्णमानसाः।
प्रणेमुर्विधिवद् रामं सुग्रीवं लक्ष्मणं तथा ॥ ३३ ॥
मूलम्
हनुमत्प्रमुखास्ते तु वानराः पूर्णमानसाः।
प्रणेमुर्विधिवद् रामं सुग्रीवं लक्ष्मणं तथा ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सफलमनोरथ हुए हनुमान् आदि प्रमुख वानरोंने श्रीराम, सुग्रीव तथा लक्ष्मणको विधिपूर्वक प्रणाम किया॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानुवाचानतान् रामः प्रगृह्य सशरं धनुः।
अपि मां जीवयिष्यध्वमपि वः कृतकृत्यता ॥ ३४ ॥
मूलम्
तानुवाचानतान् रामः प्रगृह्य सशरं धनुः।
अपि मां जीवयिष्यध्वमपि वः कृतकृत्यता ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय श्रीरामचन्द्रजी धनुष-बाण लेकर उन प्रणाम करते हुए वानरोंसे पूछा—‘क्या तुमलोग सीताका अमृतमय समाचार सुनाकर मुझे जीवनदान दोगे? क्या तुम लोगोंको अपने कार्यमें सफलता मिली है?॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि राज्यमयोध्यायां कारयिष्याम्यहं पुनः।
निहत्य समरे शत्रूनाहृत्य जनकात्मजाम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
अपि राज्यमयोध्यायां कारयिष्याम्यहं पुनः।
निहत्य समरे शत्रूनाहृत्य जनकात्मजाम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्या मैं युद्धमें शत्रुओंको मारकर जनकनन्दिनी सीताको साथ ले पुनः अयोध्यामें रहकर राज्य करूँगा?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमोक्षयित्वा वैदेहीमहत्वा च रणे रिपून्।
हृतदारोऽवधूतश्च नाहं जीवितुमुत्सहे ॥ ३६ ॥
मूलम्
अमोक्षयित्वा वैदेहीमहत्वा च रणे रिपून्।
हृतदारोऽवधूतश्च नाहं जीवितुमुत्सहे ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विदेहनन्दिनी सीताको बिना छुड़ाने तथा समरभूमिमें शत्रुओंका बिना संहार किये पत्नीको खोकर और अवधूत बनकर मैं जीवित नहीं रह सकता’॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तवचनं रामं प्रत्युवाचानिलात्मजः ।
प्रियमाख्यामि ते राम दृष्टा सा जानकी मया ॥ ३७ ॥
मूलम्
इत्युक्तवचनं रामं प्रत्युवाचानिलात्मजः ।
प्रियमाख्यामि ते राम दृष्टा सा जानकी मया ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीके ऐसा कहनेपर वायुपुत्र हनुमान्जीने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया—‘श्रीराम! मैं आपको प्रिय समाचार सुना रहा हूँ। मैंने जनकनन्दिनी सीताका दर्शन किया है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विचित्य दक्षिणामाशां सपर्वतवनाकराम् ।
श्रान्ताः काले व्यतीते स्म दृष्टवन्तो महागुहाम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
विचित्य दक्षिणामाशां सपर्वतवनाकराम् ।
श्रान्ताः काले व्यतीते स्म दृष्टवन्तो महागुहाम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पर्वत, वन तथा आकरोंसहित सम्पूर्ण दक्षिण दिशामें श्रीसीताजीका अनुसंधान करके जब हमलोग थक गये और यहाँ लौटनेका समय व्यतीत हो गया, तब हमें एक बहुत बड़ी गुफा दिखायी दी॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रविशामो वयं तां तु बहुयोजनमायताम्।
सान्धकारां सुविपिनां गहनां कीटसेविताम् ॥ ३९ ॥
गत्वा सुमहदध्वानमादित्यस्य प्रभां ततः।
दृष्टवन्तः स्म तत्रैव भवनं दिव्यमन्तरा ॥ ४० ॥
मूलम्
प्रविशामो वयं तां तु बहुयोजनमायताम्।
सान्धकारां सुविपिनां गहनां कीटसेविताम् ॥ ३९ ॥
गत्वा सुमहदध्वानमादित्यस्य प्रभां ततः।
दृष्टवन्तः स्म तत्रैव भवनं दिव्यमन्तरा ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह कई योजन लंबी थी। उसमें अन्धकार भरा हुआ था। उसके भीतर घने जंगल थे। उस गहन गुफामें बहुत-से कीड़े रहा करते थे। उसमें प्रवेश करके हमने बहुत दूरतकका रास्ता पार कर लिया। तत्पश्चात् सूर्यके प्रकाशका दर्शन हुआ। उसी गुफाके अंदर एक दिव्य भवन शोभा पा रहा था॥३९-४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयस्य किल दैत्यस्य तदासीद् वेश्म राघव।
तत्र प्रभावती नाम तपोऽतप्यत तापसी ॥ ४१ ॥
मूलम्
मयस्य किल दैत्यस्य तदासीद् वेश्म राघव।
तत्र प्रभावती नाम तपोऽतप्यत तापसी ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रघुनन्दन! वह सुन्दर भवन दैत्यराज मयका निवासस्थान बताया जाता है। उसमें प्रभावती नामकी एक तपस्विनी तप कर रही थी॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तया दत्तानि भोज्यानि पानानि विविधानि च।
भुक्त्वा लब्धबलाः सन्तस्तयोक्तेन पथा ततः ॥ ४२ ॥
निर्याय तस्मादुद्देशात् पश्यामो लवणाम्भसः।
समीपे सह्यमलयौ दर्दुरं च महागिरिम् ॥ ४३ ॥
मूलम्
तया दत्तानि भोज्यानि पानानि विविधानि च।
भुक्त्वा लब्धबलाः सन्तस्तयोक्तेन पथा ततः ॥ ४२ ॥
निर्याय तस्मादुद्देशात् पश्यामो लवणाम्भसः।
समीपे सह्यमलयौ दर्दुरं च महागिरिम् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उसने हमें अनेक प्रकारके भोज्य पदार्थ तथा भाँति-भाँतिके पीने योग्य रस दिये। उन्हें खाकर हमें नूतन बल प्राप्त हुआ। फिर उसीके बताये हुए मार्गसे जब हम गुफासे बाहर निकले, तब हमें लवणसमुद्रके निकटवर्ती सह्य, मलय और दर्दुर नामक महान् पर्वत दिखायी दिये॥४२-४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मलयमारुह्य पश्यन्तो वरुणालयम्।
विषण्णा व्यथिताः खिन्ना निराशा जीविते भृशम् ॥ ४४ ॥
मूलम्
ततो मलयमारुह्य पश्यन्तो वरुणालयम्।
विषण्णा व्यथिताः खिन्ना निराशा जीविते भृशम् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘फिर हमलोग मलयाचलपर चढ़कर समुद्रकी ओर देखने लगे। उसकी विशालता देखकर हमारा हृदय विषादसे भर गया। हम खिन्न और व्यथित हो गये। हमें जीवनकी कोई आशा न रही॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेकशतविस्तीर्णं योजनानां महोदधिम् ।
तिमिनक्रझषावासं चिन्तयन्तः सुदुःखिताः ॥ ४५ ॥
मूलम्
अनेकशतविस्तीर्णं योजनानां महोदधिम् ।
तिमिनक्रझषावासं चिन्तयन्तः सुदुःखिताः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उस महासागरका विस्तार कई सौ योजनोंमें था। उसमें तिमि, मगर और बड़े-बड़े मत्स्य निवास करते थे। उसके इस स्वरूपका स्मरण करके हम सब लोग बहुत दुःखी हो गये॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रानशनसंकल्पं कृत्वाऽऽसीना वयं तदा।
ततः कथान्ते गृध्रस्य जटायोरभवत् कथा ॥ ४६ ॥
मूलम्
तत्रानशनसंकल्पं कृत्वाऽऽसीना वयं तदा।
ततः कथान्ते गृध्रस्य जटायोरभवत् कथा ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अन्तमें अनशन करके प्राण त्याग देनेका संकल्प लेकर हम सब लोग वहाँ बैठ गये। फिर आपसमें बातचीत होने लगी और बीचमें जटायुका प्रसंग छिड़ गया॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पर्वतशृङ्गाभं घोररूपं भयावहम्।
पक्षिणं दृष्टवन्तः स्म वैनतेयमिवापरम् ॥ ४७ ॥
मूलम्
ततः पर्वतशृङ्गाभं घोररूपं भयावहम्।
पक्षिणं दृष्टवन्तः स्म वैनतेयमिवापरम् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इतनेमें ही हमने दूसरे गरुड़की भाँति एक भयंकर पक्षीको देखा जो पर्वतशिखरके समान जान पड़ता था। उसका स्वरूप बड़ा डरावना था॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽस्मानतर्कयद् भोक्तुमथाभ्येत्य वचोऽब्रवीत् ।
भोः क एष मम भ्रातुर्जटायोः कुरुते कथाम् ॥ ४८ ॥
सम्पातिर्नाम तस्याहं ज्येष्ठो भ्राता खगाधिपः।
अन्योन्यस्पर्धयारूढावावामादित्यसत्पदम् ॥ ४९ ॥
मूलम्
सोऽस्मानतर्कयद् भोक्तुमथाभ्येत्य वचोऽब्रवीत् ।
भोः क एष मम भ्रातुर्जटायोः कुरुते कथाम् ॥ ४८ ॥
सम्पातिर्नाम तस्याहं ज्येष्ठो भ्राता खगाधिपः।
अन्योन्यस्पर्धयारूढावावामादित्यसत्पदम् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह पक्षी हमें खा जानेकी युक्ति सोचने लगा। फिर हमारे पास आकर बोला—‘अजी! कौन मेरे भाई जटायुकी बात कर रहा था। मैं उसका बड़ा भाई पक्षिराज सम्पाति हूँ। हम दोनों एक-दूसरेसे होड़ लगाकर आकाशमें सूर्यमण्डलतक पहुँचनेके लिये उड़े थे॥४८-४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दग्धाविमौ पक्षौ न दग्धौ तु जटायुषः।
तदा मे चिरदृष्टः स भ्राता गृध्रपतिः प्रियः ॥ ५० ॥
निर्दग्धपक्षः पतितो ह्यहमस्मिन् महागिरौ।
मूलम्
ततो दग्धाविमौ पक्षौ न दग्धौ तु जटायुषः।
तदा मे चिरदृष्टः स भ्राता गृध्रपतिः प्रियः ॥ ५० ॥
निर्दग्धपक्षः पतितो ह्यहमस्मिन् महागिरौ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘इससे मेरी ये दोनों पाँखें जल गयीं, परंतु जटायुके पंख नहीं जले। तबसे दीर्घकाल व्यतीत हो गया। उन्हीं दिनों मैंने अपने प्रिय भाई गृध्रराज जटायुको देखा था। पंख जल जानेसे मैं इसी महान् पर्वतपर गिर पड़ा’॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यैवं वदतोऽस्माभिर्हतो भ्राता निवेदितः ॥ ५१ ॥
व्यसनं भवतश्चेदं संक्षेपाद् वै निवेदितम्।
मूलम्
तस्यैवं वदतोऽस्माभिर्हतो भ्राता निवेदितः ॥ ५१ ॥
व्यसनं भवतश्चेदं संक्षेपाद् वै निवेदितम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘सम्पाति जब इस तरहकी बातें कर रहा था, उस समय हमलोगोंने बताया कि जटायु मारे गये। साथ ही हमने संक्षेपसे आपके ऊपर आये हुए इस संकटका समाचार भी निवेदन कर दिया॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सम्पातिस्तदा राजन् श्रुत्वा सुमहदप्रियम् ॥ ५२ ॥
विषण्णचेताः पप्रच्छ पुनरस्मानरिंदम ।
कः स रामः कथं सीता जटायुश्च कथं हतः॥५३॥
इच्छामि सर्वमेवैतच्छ्रोतुं प्लवगसत्तमाः ।
मूलम्
स सम्पातिस्तदा राजन् श्रुत्वा सुमहदप्रियम् ॥ ५२ ॥
विषण्णचेताः पप्रच्छ पुनरस्मानरिंदम ।
कः स रामः कथं सीता जटायुश्च कथं हतः॥५३॥
इच्छामि सर्वमेवैतच्छ्रोतुं प्लवगसत्तमाः ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! यह अत्यन्त अप्रिय वृत्तान्त सुनकर उस सम्पातिके मनमें बड़ा खेद हुआ। शत्रुदमन! उसने पुनः हमलोगोंसे पूछा—‘श्रेष्ठ वानरगण! वे श्रीराम कौन हैं, सीता कैसी है और जटायु किस प्रकार मारे गये? ये सब बातें मैं विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ’॥५२-५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याहं सर्वमेवैतद् भवतो व्यसनागमम् ॥ ५४ ॥
प्रायोपवेशने चैव हेतुं विस्तरशोऽब्रुवम्।
मूलम्
तस्याहं सर्वमेवैतद् भवतो व्यसनागमम् ॥ ५४ ॥
प्रायोपवेशने चैव हेतुं विस्तरशोऽब्रुवम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘तब मैंने सम्पातिके समक्ष आपपर संकट आनेका यह सारा वृत्तान्त और अपने आमरण अनशनका कारण विस्तारपूर्वक बताया॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽस्मानुत्थापयामास वाक्येनानेन पक्षिराट् ॥ ५५ ॥
रावणो विदितो मह्यं लङ्का चास्य महापुरी।
दृष्टा पारे समुद्रस्य त्रिकूटगिरिकन्दरे ॥ ५६ ॥
भवित्री तत्र वैदेही न मेऽस्त्यत्र विचारणा।
मूलम्
सोऽस्मानुत्थापयामास वाक्येनानेन पक्षिराट् ॥ ५५ ॥
रावणो विदितो मह्यं लङ्का चास्य महापुरी।
दृष्टा पारे समुद्रस्य त्रिकूटगिरिकन्दरे ॥ ५६ ॥
भवित्री तत्र वैदेही न मेऽस्त्यत्र विचारणा।
अनुवाद (हिन्दी)
‘तब पक्षिराज सम्पातिने अपने निम्नांकित वचनद्वारा हमें उत्साहित करके उठाया। ‘वानरो! मैं रावणको जानता हूँ। उसकी महापुरी लंका भी मैंने देखी है। वह समुद्रके उस पार त्रिकूटगिरिकी कन्दरामें बसी है। विदेहकुमारी सीता अवश्य वहीं होंगी, इस विषयमें मुझे कोई अन्यथा विचार नहीं हो रहा है’॥५५-५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति तस्य वचः श्रुत्वा वयमुत्थाय सत्वतः ॥ ५७ ॥
सागरक्रमणे मन्त्रं मन्त्रयामः परंतप।
मूलम्
इति तस्य वचः श्रुत्वा वयमुत्थाय सत्वतः ॥ ५७ ॥
सागरक्रमणे मन्त्रं मन्त्रयामः परंतप।
अनुवाद (हिन्दी)
परंतप! उसकी यह बात सुनकर हमलोग तुरंत उठे और समुद्र पार करनेके विषयमें परस्पर सलाह करने लगे॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाध्यवास्यद् यदा कश्चित् सागरस्य विलङ्घनम् ॥ ५८ ॥
ततः पितरमाविश्य पुप्लवेऽहं महार्णवम्।
शतयोजनविस्तीर्णं निहत्य जलराक्षसीम् ॥ ५९ ॥
मूलम्
नाध्यवास्यद् यदा कश्चित् सागरस्य विलङ्घनम् ॥ ५८ ॥
ततः पितरमाविश्य पुप्लवेऽहं महार्णवम्।
शतयोजनविस्तीर्णं निहत्य जलराक्षसीम् ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब कोई भी समुद्रको लाँघनेका साहस न कर सका, तब मैं अपने पिता वायुके स्वरूपमें प्रविष्ट होकर वह सौ योजन विस्तृत महासागर लाँघ गया। उस समय समुद्रके जलमें एक राक्षसी रहती थी, जिसे अपने मार्गमें विघ्न डालनेपर मैंने मार डाला था॥५८-५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र सीता मया दृष्टा रावणान्तःपुरे सती।
उपवासतपःशीला भर्तृदर्शनलालसा ॥ ६० ॥
मूलम्
तत्र सीता मया दृष्टा रावणान्तःपुरे सती।
उपवासतपःशीला भर्तृदर्शनलालसा ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लंकामें पहुँचकर रावणके अन्तःपुरमें मैंने सती सीताका दर्शन किया, जो अपने पतिदेवताके दर्शनकी लालसासे निरन्तर उपवास और तपस्या किया करती हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जटिला मलदिग्धाङ्गी कृशा दीना तपस्विनी।
निमित्तैस्तामहं सीतामुपलभ्य पृथग्विधैः ॥ ६१ ॥
उपसृत्याब्रुवं चार्यामभिगम्य रहोगताम् ।
सीते रामस्य दूतोऽहं वानरो मारुतात्मजः ॥ ६२ ॥
मूलम्
जटिला मलदिग्धाङ्गी कृशा दीना तपस्विनी।
निमित्तैस्तामहं सीतामुपलभ्य पृथग्विधैः ॥ ६१ ॥
उपसृत्याब्रुवं चार्यामभिगम्य रहोगताम् ।
सीते रामस्य दूतोऽहं वानरो मारुतात्मजः ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उनके केश जटाके रूपमें परिणत हो गये थे। अंग-अंगमें मैल जम गयी थी। वे दीन, दुर्बल और तपस्विनी दिखायी देती थीं। कई भिन्न-भिन्न कारणोंसे उन्हें आर्या सीताके रूपमें पहचानकर मैं एकान्तमें उनके निकट गया और इस प्रकार बोला—‘देवि सीते! मैं श्रीरामचन्द्रजीका दूत पवनपुत्र हनुमान् नामक वानर हूँ॥६१-६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वद्दर्शनमभिप्रेप्सुरिह प्राप्तो विहायसा ।
राजपुत्रौ कुशलिनौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥ ६३ ॥
मूलम्
त्वद्दर्शनमभिप्रेप्सुरिह प्राप्तो विहायसा ।
राजपुत्रौ कुशलिनौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपके दर्शनके लिये मैं आकाशमार्गसे यहाँ आया हूँ। दोनों भाई राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण कुशलसे हैं॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वशाखामृगेन्द्रेण सुग्रीवेणाभिपालितौ ।
कुशलं त्वाब्रवीद् रामः सीते सौमित्रिणा सह ॥ ६४ ॥
मूलम्
सर्वशाखामृगेन्द्रेण सुग्रीवेणाभिपालितौ ।
कुशलं त्वाब्रवीद् रामः सीते सौमित्रिणा सह ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सम्पूर्ण वानरोंके अधीश्वर सुग्रीव इस समय उनकी रक्षामें तत्पर हैं। देवि! सुमित्रानन्दन लक्ष्मणके साथ भगवान् श्रीरामने आपको अपने सकुशल होनेका समाचार कहलाया है॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखिभावाच्च सुग्रीवः कुशलं त्वानुपृच्छति।
क्षिप्रमेष्यति ते भर्ता सर्वशाखामृगैः सह ॥ ६५ ॥
प्रत्ययं कुरु मे देवि वानरोऽस्मि न राक्षसः।
मूलम्
सखिभावाच्च सुग्रीवः कुशलं त्वानुपृच्छति।
क्षिप्रमेष्यति ते भर्ता सर्वशाखामृगैः सह ॥ ६५ ॥
प्रत्ययं कुरु मे देवि वानरोऽस्मि न राक्षसः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘उनके मित्र होनेके नाते सुग्रीव भी आपका कुशल-मंगल पूछते हैं। आपके स्वामी भगवान् श्रीराम सम्पूर्ण वानरोंकी सेनाके साथ शीघ्र यहाँ पधारेंगे। देवि! मेरा विश्वास कीजिये। मैं राक्षस नहीं, वानर हूँ’॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुहूर्तमिव च ध्यात्वा सीता मां प्रत्युवाच ह ॥ ६६ ॥
अवैमि त्वां हनूमन्तमविन्ध्यवचनादहम् ।
अविन्ध्यो हि महाबाहो राक्षसो वृद्धसम्मतः ॥ ६७ ॥
मूलम्
मुहूर्तमिव च ध्यात्वा सीता मां प्रत्युवाच ह ॥ ६६ ॥
अवैमि त्वां हनूमन्तमविन्ध्यवचनादहम् ।
अविन्ध्यो हि महाबाहो राक्षसो वृद्धसम्मतः ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तदनन्तर सीताने दो घड़ीतक कुछ सोचकर मुझसे इस प्रकार कहा—‘महाबाहो! मैं अविन्ध्यके कहनेसे यह विश्वास करती हूँ कि तुम हनुमान् हो। अविन्ध्य राक्षसकुलमें उत्पन्न होते हुए भी वृद्ध एवं आदरणीय हैं॥६६-६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथितस्तेन सुग्रीवस्त्वद्विधैः सचिवैर्वृतः ।
गम्यतामिति चोक्त्वा मां सीता प्रादादिमं मणिम् ॥ ६८ ॥
धारिता येन वैदेही कालमेतमनिन्दिता।
प्रत्ययर्थं कथां चेमां कथयामास जानकी ॥ ६९ ॥
मूलम्
कथितस्तेन सुग्रीवस्त्वद्विधैः सचिवैर्वृतः ।
गम्यतामिति चोक्त्वा मां सीता प्रादादिमं मणिम् ॥ ६८ ॥
धारिता येन वैदेही कालमेतमनिन्दिता।
प्रत्ययर्थं कथां चेमां कथयामास जानकी ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन्होंने ही तुम्हारे-जैसे मन्त्रियोंसे युक्त सुग्रीवका परिचय दिया है। वत्स! अब तुम भगवान् श्रीरामके पास जाओ।’ ऐसा कहकर सती साध्वी सीताने अपनी पहचानके लिये यह एक मणि दी, जिसको धारण करके वे अबतक अपने प्राणोंकी रक्षा करती आयी हैं। जानकीने विश्वास दिलानेके लिये यह एक कथा भी सुनायी थी—॥६८-६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षिप्तामिषीकां काकाय चित्रकूटे महागिरौ।
भवता पुरुषव्याघ्र प्रत्यभिज्ञानकारणात् ॥ ७० ॥
(एकाक्षिविकलः काकः सुदुष्टात्मा कृतश्च वै।)
मूलम्
क्षिप्तामिषीकां काकाय चित्रकूटे महागिरौ।
भवता पुरुषव्याघ्र प्रत्यभिज्ञानकारणात् ॥ ७० ॥
(एकाक्षिविकलः काकः सुदुष्टात्मा कृतश्च वै।)
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुरुषसिंह! उस कथाका मुख्य विषय यह है कि आपने महापर्वत चित्रकूटपर रहते समय किसी कौएके ऊपर एक सींकका बाण चलाया था और उस दुष्टात्मा कौएको एक आँखसे वंचित कर दिया था। यह प्रसंग उन्होंने केवल अपनी पहचान करानेके उद्देश्यसे प्रस्तुत किया था॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्राहयित्वाहमात्मानं ततो दग्ध्वा च तां पुरीम्।
सम्प्राप्त इति तं रामः प्रियवादिनमार्चयत् ॥ ७१ ॥
मूलम्
ग्राहयित्वाहमात्मानं ततो दग्ध्वा च तां पुरीम्।
सम्प्राप्त इति तं रामः प्रियवादिनमार्चयत् ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तदनन्तर मैंने जान-बूझकर अपने-आपको राक्षसोंद्वारा पकड़वा दिया और लंकापुरीको जलाकर समुद्रके इस पार आ पहुँचा।’ यह सब समाचार सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने प्रियवादी हनुमान्का अत्यन्त आदर-सत्कार किया॥७१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि रामोपाख्यानपर्वणि हनुमत्प्रत्यागमने द्व्यशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २८२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत रामोपाख्यानपर्वमें हनुमान्जीके लंकासे लौटनेसे सम्बन्ध रखनेवाला दो सौ बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२८२॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ७१ श्लोक हैं)