२८० त्रिजटाकृतसीतासान्त्वने

भागसूचना

अशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राम और सुग्रीवकी मित्रता, वाली और सुग्रीवका युद्ध, श्रीरामके द्वारा वालीका वध तथा लंकाकी अशोकवाटिकामें राक्षसियोंद्वारा डरायी हुई सीताको त्रिजटाका आश्वासन

मूलम् (वचनम्)

मार्कण्डेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽविदूरे नलिनीं प्रभूतकमलोत्पलाम् ।
सीताहरणदुःखार्तः पम्पां रामः समासदत् ॥ १ ॥

मूलम्

ततोऽविदूरे नलिनीं प्रभूतकमलोत्पलाम् ।
सीताहरणदुःखार्तः पम्पां रामः समासदत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्कण्डेयजी कहते हैं— युधिष्ठिर! तदनन्तर सीताहरणके दुःखसे पीड़ित हो श्रीरामचन्द्रजी पम्पासरोवर-पर गये, जो वहाँसे थोड़ी ही दूरपर था। उसमें बहुत-से कमल और उत्पल लिखे हुए थे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मारुतेन सुशीतेन सुखेनामृतगन्धिना ।
सेव्यमानो वने तस्मिन् जगाम मनसा प्रियाम् ॥ २ ॥

मूलम्

मारुतेन सुशीतेन सुखेनामृतगन्धिना ।
सेव्यमानो वने तस्मिन् जगाम मनसा प्रियाम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस वनमें अमृतकी-सी सुगन्ध लिये मन्द गतिसे प्रवाहित होनेवाली सुखद शीतल वायुका स्पर्श पाकर श्रीरामचन्द्रजी मन-ही-मन अपनी प्रिया सीताका चिन्तन करने लगे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विललाप स राजेन्द्रस्तत्र कान्तामनुस्मरन्।
कामबाणाभिसंतप्तः सौमित्रिस्तमथाब्रवीत् ॥ ३ ॥

मूलम्

विललाप स राजेन्द्रस्तत्र कान्तामनुस्मरन्।
कामबाणाभिसंतप्तः सौमित्रिस्तमथाब्रवीत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी प्राणवल्लभाका बारंबार स्मरण करके कामबाणसे संतप्त हुए-से महाराज श्रीराम विलाप करने लगे। उस समय सुमित्रानन्दन लक्ष्मणने उनसे कहा—॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वामेवंविधो भावः स्प्रष्टुमर्हति मानद।
आत्मवन्तमिव व्याधिः पुरुषं वृद्धशीलिनम् ॥ ४ ॥

मूलम्

न त्वामेवंविधो भावः स्प्रष्टुमर्हति मानद।
आत्मवन्तमिव व्याधिः पुरुषं वृद्धशीलिनम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मानद! मनपर काबू रखनेवाले तथा वृद्धोंके समान संयम-नियमसे रहनेवाले पुरुषको जैसे कोई रोग नहीं छू सकता, उसी प्रकार आपको ऐसे दैन्यभावका स्पर्श होना उचित नहीं जान पड़ता है’॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रवृत्तिरुपलब्धा ते वैदेह्या रावणस्य च।
तां त्वं पुरुषकारेण बुद्ध्या चैवोपपादय ॥ ५ ॥

मूलम्

प्रवृत्तिरुपलब्धा ते वैदेह्या रावणस्य च।
तां त्वं पुरुषकारेण बुद्ध्या चैवोपपादय ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपको सीता तथा उनका अपहरण करनेवाले रावणका समाचार मिल ही गया है। अब आप अपने पुरुषार्थ और बुद्धिबलसे जानकीको प्राप्त कीजिये॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिगच्छाव सुग्रीवं शैलस्थं हरिपुङ्गवम्।
मयि शिष्ये च भृत्ये च सहाये च समाश्वस॥६॥

मूलम्

अभिगच्छाव सुग्रीवं शैलस्थं हरिपुङ्गवम्।
मयि शिष्ये च भृत्ये च सहाये च समाश्वस॥६॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हम दोनों यहाँसे वानरराज सुग्रीवके पास चलें, जो ऋष्यमूक पर्वतके शिखरपर रहते हैं। मैं आपका शिष्य, सेवक और सहायक हूँ। मेरे रहते आपको धैर्य रखना चाहिये’॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं बहुविधैर्वाक्यैर्लक्ष्मणेन स राघवः।
उक्तः प्रकृतिमापेदे कार्ये चानन्तरोऽभवत् ॥ ७ ॥

मूलम्

एवं बहुविधैर्वाक्यैर्लक्ष्मणेन स राघवः।
उक्तः प्रकृतिमापेदे कार्ये चानन्तरोऽभवत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार लक्ष्मणद्वारा अनेक प्रकारके वचनोंसे धैर्य दिलाये जानेपर श्रीरामचन्द्रजी स्वस्थ हुए और आवश्यक कार्यमें लग गये॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निषेव्य वारि पम्पायास्तर्पयित्वा पितॄनपि।
प्रतस्थतुरुभौ वीरौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥ ८ ॥

मूलम्

निषेव्य वारि पम्पायास्तर्पयित्वा पितॄनपि।
प्रतस्थतुरुभौ वीरौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने पम्पासरोवरके जलमें स्नान करके पितरोंका तर्पण किया। फिर उन दोनों वीर भ्राता श्रीराम और लक्ष्मणने वहाँसे प्रस्थान किया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावृष्यमूकमभ्येत्य बहुमूलफलद्रुमम् ।
गिर्यग्रे वानरान् पञ्च वीरौ ददृशतुस्तदा ॥ ९ ॥

मूलम्

तावृष्यमूकमभ्येत्य बहुमूलफलद्रुमम् ।
गिर्यग्रे वानरान् पञ्च वीरौ ददृशतुस्तदा ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रचुर फल, मूल और वृक्षोंसे भरे हुए ऋष्यमूक पर्वतपर पहुँचकर उन दोनों वीरोंने देखा, पर्वतके शिखरपर पाँच वानर बैठे हुए हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुग्रीवः प्रेषयामास सचिवं वानरं तयोः।
बुद्धिमन्तं हनूमन्तं हिमवन्तमिव स्थितम् ॥ १० ॥

मूलम्

सुग्रीवः प्रेषयामास सचिवं वानरं तयोः।
बुद्धिमन्तं हनूमन्तं हिमवन्तमिव स्थितम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुग्रीवने हिमालयके समान गम्भीर भावसे बैठे हुए अपने बुद्धिमान् सचिव हनुमान्‌को उन दोनोंके पास भेजा॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन सम्भाष्य पूर्वं तौ सुग्रीवमभिजग्मतुः।
सख्यं वानरराजेन चक्रे रामस्तदा नृप ॥ ११ ॥

मूलम्

तेन सम्भाष्य पूर्वं तौ सुग्रीवमभिजग्मतुः।
सख्यं वानरराजेन चक्रे रामस्तदा नृप ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके साथ पहले बातचीत हो जानेपर वे दोनों भाई सुग्रीवके पास गये। राजन्! उस समय श्रीरामचन्द्रजीने वानरराज सुग्रीवके साथ मैत्री की॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् वासो दर्शयामासुस्तस्य कार्ये निवेदिते।
वानराणां तु यत् सीता ह्रियमाणा व्यपासृजत् ॥ १२ ॥

मूलम्

तद् वासो दर्शयामासुस्तस्य कार्ये निवेदिते।
वानराणां तु यत् सीता ह्रियमाणा व्यपासृजत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रामने सुग्रीवके समक्ष जब अपना कार्य निवेदन किया, तब उन्होंने श्रीरामको वह वस्त्र दिखाया, जिसे अपहरणकालमें सीताने वानरोंके बीचमें डाल दिया था॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् प्रत्ययकरं लब्ध्वा सुग्रीवं प्लवगाधिपम्।
पृथिव्यां वानरैश्वर्ये स्वयं रामोऽभ्यषेचयत् ॥ १३ ॥

मूलम्

तत् प्रत्ययकरं लब्ध्वा सुग्रीवं प्लवगाधिपम्।
पृथिव्यां वानरैश्वर्ये स्वयं रामोऽभ्यषेचयत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणद्वारा सीताके अपहृत होनेका यह विश्वासजनक प्रमाण पाकर श्रीरामने स्वयं ही वानरराज सुग्रीवको अखिल भूमण्डलके वानरोंके सम्राट्‌पदपर अभिषिक्त कर दिया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिजज्ञे च काकुत्स्थः समरे वालिनो वधम्।
सुग्रीवश्चापि वैदेह्याः पुनरानयनं नृप ॥ १४ ॥

मूलम्

प्रतिजज्ञे च काकुत्स्थः समरे वालिनो वधम्।
सुग्रीवश्चापि वैदेह्याः पुनरानयनं नृप ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साथ ही उन्होंने युद्धमें वालीके वधकी भी प्रतिज्ञा की। राजन्! तब सुग्रीवने भी विदेहनन्दिनी सीताको पुनः ढूँढ़ लानेकी प्रतिज्ञा की॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा समयं कृत्वा विश्वास्य च परस्परम्।
अभ्येत्य सर्वे किष्किन्धां तस्थुर्युद्धाभिकाङ्‌क्षिणः ॥ १५ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा समयं कृत्वा विश्वास्य च परस्परम्।
अभ्येत्य सर्वे किष्किन्धां तस्थुर्युद्धाभिकाङ्‌क्षिणः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार प्रतिज्ञापूर्वक एक-दूसरेको विश्वास दिलाकर वे सब-के-सब किष्किन्धापुरीमें आये और युद्धकी अभिलाषासे डटकर खड़े हो गये॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुग्रीवः प्राप्य किष्किन्धां ननादौघनिभस्वनः।
नास्य तन्ममृषे वाली तारा तं प्रत्यषेधयत् ॥ १६ ॥

मूलम्

सुग्रीवः प्राप्य किष्किन्धां ननादौघनिभस्वनः।
नास्य तन्ममृषे वाली तारा तं प्रत्यषेधयत् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुग्रीवने किष्किन्धामें जाकर बड़े जोरसे सिंहनाद किया, मानो बहुत बड़े जनसमूहका शब्द गूँज उठा हो। वालीको यह सहन नहीं हो सका। जब वह युद्धके लिये निकलने लगा, तब उसकी स्त्री ताराने उसे मना करते हुए कहा—॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा नदति सुग्रीवो बलवानेष वानरः।
मन्ये चाश्रयवान् प्राप्तो न त्वं निष्क्रान्तुमर्हसि ॥ १७ ॥

मूलम्

यथा नदति सुग्रीवो बलवानेष वानरः।
मन्ये चाश्रयवान् प्राप्तो न त्वं निष्क्रान्तुमर्हसि ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नाथ! आज सुग्रीव जिस प्रकार गर्जना कर रहा है, उससे मालूम होता है, इस समय उसका बल बढ़ा हुआ है। मेरी समझमें उसे कोई बलवान् सहायक मिल गया है, तभी वह यहाँतक आ सका है। अतः आप घरसे न निकलें’॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हेममाली ततो वाली तारां ताराधिपाननाम्।
प्रोवाच वचनं वाग्मी तां वानरपतिः पतिः ॥ १८ ॥

मूलम्

हेममाली ततो वाली तारां ताराधिपाननाम्।
प्रोवाच वचनं वाग्मी तां वानरपतिः पतिः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सुवर्णमालासे विभूषित तारापति वानरराज वाली, जो बातचीत करनेमें कुशल था, अपनी चन्द्रमुखी पत्नी तारासे इस प्रकार बोला—॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वभूतरुतज्ञा त्वं पश्य बुद्ध्या समन्विता।
केन चाश्रयवान् प्राप्तो ममैष भ्रातृगन्धिकः ॥ १९ ॥

मूलम्

सर्वभूतरुतज्ञा त्वं पश्य बुद्ध्या समन्विता।
केन चाश्रयवान् प्राप्तो ममैष भ्रातृगन्धिकः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रिये! तुम समस्त प्राणियोंकी बोली समझती हो, साथ ही बुद्धिमती भी हो। अतः सोचो तो सही, यह मेरा नाममात्रका भाई किसका सहारा लेकर यहाँ आया है?’॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिन्तयित्वा मुहूर्तं तु तारा ताराधिपप्रभा।
पतिमित्यब्रवीत् प्राज्ञा शृणु सर्वं कपीश्वर ॥ २० ॥

मूलम्

चिन्तयित्वा मुहूर्तं तु तारा ताराधिपप्रभा।
पतिमित्यब्रवीत् प्राज्ञा शृणु सर्वं कपीश्वर ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तारा अपनी अंगकान्तिसे चन्द्रमाकी ज्योत्स्नाके समान उद्दीप्त हो रही थी। उस विदुषीने दो घड़ीतक विचार करके अपने पतिसे कहा—‘कपीश्वर! मैं सब बातें बताती हूँ, सुनिये॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृतदारो महासत्त्वो रामो दशरथात्मजः।
तुल्यारिमित्रतां प्राप्तः सुग्रीवेण धनुर्धरः ॥ २१ ॥

मूलम्

हृतदारो महासत्त्वो रामो दशरथात्मजः।
तुल्यारिमित्रतां प्राप्तः सुग्रीवेण धनुर्धरः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दशरथनन्दन श्रीराम महान् शक्तिशाली वीर हैं। उनकी पत्नीका किसीने अपहरण कर लिया है। उसकी खोजके लिये उन्होंने सुग्रीवसे मित्रता की है और दोनोंने एक-दूसरेके शत्रुको शत्रु तथा मित्रको मित्र मान लिया है। श्रीरामचन्द्रजी बड़े धनुर्धर हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्राता चास्य महाबाहुः सौमित्रिरपराजितः।
लक्ष्मणो नाम मेधावी स्थितः कार्यार्थसिद्धये ॥ २२ ॥

मूलम्

भ्राता चास्य महाबाहुः सौमित्रिरपराजितः।
लक्ष्मणो नाम मेधावी स्थितः कार्यार्थसिद्धये ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उनके भाई महाबाहु सुमित्रानन्दन लक्ष्मणजी भी किसीसे परास्त होनेवाले नहीं हैं। उनकी बुद्धि बड़ी प्रखर है। वे श्रीरामके प्रत्येक कार्यकी सिद्धिके लिये उनके साथ रहते हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैन्दश्च द्विविदश्चापि हनूमांश्चानिलात्मजः ।
जाम्बवानृक्षराजश्च सुग्रीवसचिवाः स्थिताः ॥ २३ ॥

मूलम्

मैन्दश्च द्विविदश्चापि हनूमांश्चानिलात्मजः ।
जाम्बवानृक्षराजश्च सुग्रीवसचिवाः स्थिताः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इनके सिवा, मैन्द, द्विविद, वायुपुत्र हनुमान् तथा ऋक्षराज जाम्बवान्—ये सुग्रीवके चार मन्त्री हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्व एते महात्मानो बुद्धिमन्तो महाबलाः।
अलं तव विनाशाय रामवीर्यबलाश्रयात् ॥ २४ ॥

मूलम्

सर्व एते महात्मानो बुद्धिमन्तो महाबलाः।
अलं तव विनाशाय रामवीर्यबलाश्रयात् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये सब-के-सब महामनस्वी, बुद्धिमान् और महाबली हैं। श्रीरामचन्द्रजीके बल-पराक्रमका सहारा मिल जानेसे ये लोग आपको मार डालनेमें समर्थ हैं’॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यास्तदाक्षिप्य वचो हितमुक्तं कपीश्वरः।
पर्यशङ्कत तामीर्षुः सुग्रीवगतमानसाम् ॥ २५ ॥

मूलम्

तस्यास्तदाक्षिप्य वचो हितमुक्तं कपीश्वरः।
पर्यशङ्कत तामीर्षुः सुग्रीवगतमानसाम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि ताराने वालीके हितकी बात कही थी, तो भी वानरराज वालीने उसके कथनपर आक्षेप किया और ईर्ष्यावश उसके मनमें यह शंका हो गयी कि तारा मन-ही-मन सुग्रीवको चाहती है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तारां परुषमुक्त्वा तु निर्जगाम गुहामुखात्।
स्थितं माल्यवतोऽभ्याशे सुग्रीवं सोऽभ्यभाषत ॥ २६ ॥

मूलम्

तारां परुषमुक्त्वा तु निर्जगाम गुहामुखात्।
स्थितं माल्यवतोऽभ्याशे सुग्रीवं सोऽभ्यभाषत ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ताराको कठोर बातें सुनाकर वाली किष्किन्धाकी गुफाके द्वारसे बाहर निकला और माल्यवान् पर्वतके निकट खड़े हुए सुग्रीवसे इस प्रकार बोला—॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असकृत् त्वं मया पूर्वं निर्जितो जीवितप्रियः।
मुक्तो ज्ञातिरिति ज्ञात्वा का त्वरा मरणे पुनः ॥ २७ ॥

मूलम्

असकृत् त्वं मया पूर्वं निर्जितो जीवितप्रियः।
मुक्तो ज्ञातिरिति ज्ञात्वा का त्वरा मरणे पुनः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अरे! तू तो पहले अनेक बार युद्धमें मेरेद्वारा परास्त हो चुका है और जीवनका अधिक लोभ होनेके कारण भागकर जान बचाता फिरा है। मैंने भी अपना भाई समझकर तुझे जीवित छोड़ दिया है। फिर आज तुझे मरनेके लिये इतनी उतावली क्यों हो गयी है?’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः प्राह सुग्रीवो भ्रातरं हेतुमद् वचः।
प्राप्तकालममित्रघ्नो रामं सम्बोधयन्निव ॥ २८ ॥

मूलम्

इत्युक्तः प्राह सुग्रीवो भ्रातरं हेतुमद् वचः।
प्राप्तकालममित्रघ्नो रामं सम्बोधयन्निव ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वालीके ऐसा कहनेपर शत्रुहन्ता सुग्रीव श्रीरामचन्द्रजीको परिस्थितिका ज्ञान कराते हुए-से अपने उस भाईसे अवसरके अनुरूप युक्तियुक्त वचन बोले—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृतराज्यस्य मे राजन् हृतदारस्य च त्वया।
किं मे जीवितसामर्थ्यमिति विद्धि समागतम् ॥ २९ ॥

मूलम्

हृतराज्यस्य मे राजन् हृतदारस्य च त्वया।
किं मे जीवितसामर्थ्यमिति विद्धि समागतम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! तुमने मेरा राज्य हर लिया है, मेरी स्त्रीको भी अपने अधिकारमें कर लिया है, ऐसी दशामें मुझमें जीवित रहनेकी शक्ति ही कहाँ है? यही सोचकर मरनेके लिये चला आया हूँ। आप मेरे आगमनका यही उद्देश्य समझ लें’॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा बहुविधं ततस्तौ संनिपेततुः।
समरे वालिसुग्रीवौ शालतालशिलायुधौ ॥ ३० ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा बहुविधं ततस्तौ संनिपेततुः।
समरे वालिसुग्रीवौ शालतालशिलायुधौ ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार बहुत-सी बातें करके वाली और सुग्रीव दोनों एक-दूसरेसे गुँथ गये। उस युद्धमें साखू और ताड़के वृक्ष तथा पत्थरकी चट्टानें—ये ही उनके अस्त्र-शस्त्र थे॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभौ जघ्नतुरन्योन्यमुभौ भूमौ निपेततुः।
उभौ ववल्गतुश्चित्रं मुष्टिभिश्च निजघ्नतुः ॥ ३१ ॥

मूलम्

उभौ जघ्नतुरन्योन्यमुभौ भूमौ निपेततुः।
उभौ ववल्गतुश्चित्रं मुष्टिभिश्च निजघ्नतुः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों दोनोंपर प्रहार करते, दोनों जमीनपर गिर जाते, फिर दोनों ही उछल-कूदकर विचित्र ढंगसे पैंतरे बदलते तथा मुक्कों और घूसोंसे एक-दूसरेको मारते थे॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभौ रुधिरसंसिक्तौ नखदन्तपरिक्षतौ ।
शुशुभाते तदा वीरौ पुष्पिताविव किंशुकौ ॥ ३२ ॥

मूलम्

उभौ रुधिरसंसिक्तौ नखदन्तपरिक्षतौ ।
शुशुभाते तदा वीरौ पुष्पिताविव किंशुकौ ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों नख और दाँतोंके आघातसे क्षत-विक्षत हो रक्तसे लथपथ हो रहे थे। उस समय वे दोनों वीर खिले हुए पलासके दो वृक्षोंकी भाँति शोभा पाते थे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न विशेषस्तयोर्युद्धे यदा कश्चन दृश्यते।
सुग्रीवस्य तदा मालां हनुमान् कण्ठ आसजत् ॥ ३३ ॥

मूलम्

न विशेषस्तयोर्युद्धे यदा कश्चन दृश्यते।
सुग्रीवस्य तदा मालां हनुमान् कण्ठ आसजत् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब युद्धमें उन दोनोंमें कोई अन्तर नहीं दिखायी दिया, तब हनुमान्‌जीने सुग्रीवकी पहचानके लिये उनके गलेमें एक माला डाल दी॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मालया तदा वीरः शुशुभे कण्ठसक्तया।
श्रीमानिव महाशैलो मलयो मेघमालया ॥ ३४ ॥

मूलम्

स मालया तदा वीरः शुशुभे कण्ठसक्तया।
श्रीमानिव महाशैलो मलयो मेघमालया ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कण्ठमें पड़ी हुई उस मालासे वीर सुग्रीव उस समय मेघपंक्तिसे सुशोभित महापर्वत मलयकी भाँति शोभा पा रहे थे॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतचिह्नं तु सुग्रीवं रामो दृष्ट्‌वा महाधनुः।
विचकर्ष धनुः श्रेष्ठं वालिमुद्दिश्य लक्ष्यवत् ॥ ३५ ॥
विस्फारस्तस्य धनुषो यन्त्रस्येव तदा बभौ।
वितत्रास तदा वाली शरेणाभिहतोरसि ॥ ३६ ॥

मूलम्

कृतचिह्नं तु सुग्रीवं रामो दृष्ट्‌वा महाधनुः।
विचकर्ष धनुः श्रेष्ठं वालिमुद्दिश्य लक्ष्यवत् ॥ ३५ ॥
विस्फारस्तस्य धनुषो यन्त्रस्येव तदा बभौ।
वितत्रास तदा वाली शरेणाभिहतोरसि ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाधनुर्धर श्रीरामचन्द्रजीने सुग्रीवको चिह्न धारण किये देख वालीको लक्ष्य बनाकर अपना महान् धनुष खींचा। उस धनुषकी टंकार मशीनकी भयंकर आवाजके समान जान पड़ती थी। उसे सुनकर वाली भयभीत हो उठा। इतनेमें ही श्रीरामके बाणने उसकी छातीपर भारी चोट की॥३५-३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भिन्नहृदयो वाली वक्राच्छोणितमुद्वमन्।
ददर्शावस्थितं रामं ततः सौमित्रिणा सह ॥ ३७ ॥

मूलम्

स भिन्नहृदयो वाली वक्राच्छोणितमुद्वमन्।
ददर्शावस्थितं रामं ततः सौमित्रिणा सह ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे वालीका वक्षःस्थल विदीर्ण हो गया और वह अपने मुँहसे रक्त वमन करने लगा। सामने ही उसे लक्ष्मणके साथ खड़े हुए श्रीराम दिखायी दिये॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गर्हयित्वा स काकुत्स्थं पपात भुवि मूर्च्छितः।
तारा ददर्श तं भूमौ तारापतिसमौजसम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

गर्हयित्वा स काकुत्स्थं पपात भुवि मूर्च्छितः।
तारा ददर्श तं भूमौ तारापतिसमौजसम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वह (छिपकर आघात करनेके कारण) श्रीरामचन्द्रजीकी निन्दा करके पृथ्वीपर गिर पड़ा और मूर्च्छित हो गया। ताराने चन्द्रमाके समान तेजस्वी अपने वीर पति वालीको प्राणहीन होकर पृथ्वीपर पड़ा देखा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हते वालिनि सुग्रीवः किष्किन्धां प्रत्यपद्यत।
तां च तारापतिमुखीं तारां निपतितेश्वराम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

हते वालिनि सुग्रीवः किष्किन्धां प्रत्यपद्यत।
तां च तारापतिमुखीं तारां निपतितेश्वराम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वालीके मारे जानेपर अनाथ हुई किष्किन्धापुरी तथा चन्द्रमुखी तारा सुग्रीवको प्राप्त हुई॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामस्तु चतुरो मासान् पृष्ठे माल्यवतः शुभे।
निवासमकरोद् धीमान् सुग्रीवेणाभ्युपस्थितः ॥ ४० ॥

मूलम्

रामस्तु चतुरो मासान् पृष्ठे माल्यवतः शुभे।
निवासमकरोद् धीमान् सुग्रीवेणाभ्युपस्थितः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम बुद्धिमान् श्रीरामचन्द्रजीने माल्यवान् पर्वतकी सुन्दर घाटीमें वर्षाके चार महीनोंतक निवास किया। समय-समयपर सुग्रीव भी उनकी सेवामें उपस्थित होते रहते थे॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावणोऽपि पुरीं गत्वा लङ्कां कामबलात्कृतः।
सीतां निवेशयामास भवने नन्दनोपमे ॥ ४१ ॥
अशोकवनिकाभ्याशे तापसाश्रमसंनिभे ।
भर्तृस्मरणतन्वङ्गी तापसीवेषधारिणी ॥ ४२ ॥

मूलम्

रावणोऽपि पुरीं गत्वा लङ्कां कामबलात्कृतः।
सीतां निवेशयामास भवने नन्दनोपमे ॥ ४१ ॥
अशोकवनिकाभ्याशे तापसाश्रमसंनिभे ।
भर्तृस्मरणतन्वङ्गी तापसीवेषधारिणी ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर कामके वशीभूत हुए रावणने भी लंकापुरीमें पहुँचकर सीताको अशोकवाटिकाके निकट तपस्वी मुनियोंके आश्रमकी भाँति शान्तिपूर्ण तथा नन्दनवनके समान रमणीय भवनमें ठहराया। पतिका निरन्तर चिन्तन करते-करते सीताका शरीर दुर्बल हो गया था। वे तपस्विनीवेषमें वहाँ रहती थीं॥४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपवासतपःशीला तत्रास पृथुलेक्षणा ।
उवास दुःखवसतिं फलमूलकृताशना ॥ ४३ ॥

मूलम्

उपवासतपःशीला तत्रास पृथुलेक्षणा ।
उवास दुःखवसतिं फलमूलकृताशना ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उपवास और तपस्या करनेका उनका स्वभाव-सा बन गया था। विशाल नेत्रोंवाली जानकी वहाँ फल-मूल खाकर बड़े दुःखसे दिन बिताती थीं॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिदेश राक्षसीस्तत्र रक्षणे राक्षसाधिपः।
प्रासासिशूलपरशुमुद्‌गरालातधारिणीः ॥ ४४ ॥

मूलम्

दिदेश राक्षसीस्तत्र रक्षणे राक्षसाधिपः।
प्रासासिशूलपरशुमुद्‌गरालातधारिणीः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राक्षसराज रावणने सीताकी रक्षाके लिये कुछ राक्षसियोंको नियुक्त कर दिया था, जो भाला, तलवार, त्रिशूल, फरसा, मुद्‌गर और जलती हुई लुआठी लिये वहाँ पहरा देती थीं॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्व्यक्षीं त्र्यक्षीं ललाटाक्षीं दीर्घजिह्वामजिह्विकाम्।
त्रिस्तनीमेकपादां च त्रिजटामेकलोचनाम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

द्व्यक्षीं त्र्यक्षीं ललाटाक्षीं दीर्घजिह्वामजिह्विकाम्।
त्रिस्तनीमेकपादां च त्रिजटामेकलोचनाम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनमेंसे किसीके दो आँखें थीं, किसीके तीन। किसीके ललाटमें ही आँखें थीं, किसीके बहुत बड़ी जिह्वा थी, तो किसीके जीभ थी ही नहीं। किसीके तीन स्तन थे तो किसीका एक पैर। कोई अपने सिरपर तीन जटाएँ रखती थी तो किसीके एक ही आँख थी॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एताश्चान्याश्च दीप्ताक्ष्यः करभोत्कटमूर्द्धजाः ।
परिवार्यासते सीतां दिवारात्रमतन्द्रिताः ॥ ४६ ॥

मूलम्

एताश्चान्याश्च दीप्ताक्ष्यः करभोत्कटमूर्द्धजाः ।
परिवार्यासते सीतां दिवारात्रमतन्द्रिताः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये तथा दूसरी बहुत-सी राक्षसियाँ निद्रा और आलस्यको छोड़कर दिन-रात सीताको घेरे रहती थीं। उनकी आँखें आगकी तरह प्रज्वलित होती थीं और सिरके बाल ऊँटोंके समान रूखे तथा भूरे थे॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तास्तु तामायतापाङ्गीं पिशाच्यो दारुणस्वराः।
तर्जयन्ति सदा रौद्राः परुषव्यञ्जनस्वराः ॥ ४७ ॥

मूलम्

तास्तु तामायतापाङ्गीं पिशाच्यो दारुणस्वराः।
तर्जयन्ति सदा रौद्राः परुषव्यञ्जनस्वराः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे पिशाची स्त्रियाँ देखनेमें बड़ी भयंकर थीं। उनका स्वर अत्यन्त दारुण था। उनके मुखसे जो स्वर और व्यंजन निकलते थे, वे बड़े कठोर होते थे। वे राक्षसियाँ निम्नांकित बातें कहकर विशाल नेत्रोंवाली सीताको सदा डाँटती-फटकारती रहती थीं—॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

खादाम पाटयामैनां तिलशः प्रविभज्य ताम्।
येयं भर्तारमस्माकमवमन्येह जीवति ॥ ४८ ॥

मूलम्

खादाम पाटयामैनां तिलशः प्रविभज्य ताम्।
येयं भर्तारमस्माकमवमन्येह जीवति ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अरी! यह हमारे स्वामीकी अवहेलना करके अबतक यहाँ जीवित कैसे है? हम इसे चीर डालें। इसे तिल-तिल काटकर खा जायँ’॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवं परिभर्त्सन्तीस्त्रास्यमाना पुनः पुनः।
भर्तृशोकसमाविष्टा निःश्वस्येदमुवाच ताः ॥ ४९ ॥

मूलम्

इत्येवं परिभर्त्सन्तीस्त्रास्यमाना पुनः पुनः।
भर्तृशोकसमाविष्टा निःश्वस्येदमुवाच ताः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस तरह कठोर वचनोंद्वारा डराने-धमकानेवाली उन राक्षसियोंसे बार-बार डरायी जाती हुई सीता पतिवियोगके शोकसे संतप्त हो लंबी साँसें खींचती हुई बोलीं—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्याः खादत मां शीघ्रं न मे लोभोऽस्ति जीविते।
विना तं पुण्डरीकाक्षं नीलकुञ्चितमूर्धजम् ॥ ५० ॥
अप्येवाहं निराहारा जीवितप्रियवर्जिता ।
शोषयिष्यामि गात्राणि व्याली तालगता यथा ॥ ५१ ॥
न त्वन्यमभिगच्छेयं पुमांसं राघवादृते।
इति जानीत सत्यं मे क्रियतां यदनन्तरम् ॥ ५२ ॥

मूलम्

आर्याः खादत मां शीघ्रं न मे लोभोऽस्ति जीविते।
विना तं पुण्डरीकाक्षं नीलकुञ्चितमूर्धजम् ॥ ५० ॥
अप्येवाहं निराहारा जीवितप्रियवर्जिता ।
शोषयिष्यामि गात्राणि व्याली तालगता यथा ॥ ५१ ॥
न त्वन्यमभिगच्छेयं पुमांसं राघवादृते।
इति जानीत सत्यं मे क्रियतां यदनन्तरम् ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बहिनो! तुमलोग शीघ्र मुझे मारकर खा जाओ। अब इस जीवनके लिये मुझे तनिक भी लोभ नहीं है। मैं काले घुँघराले केश-कलापसे सुशोभित अपने स्वामी कमलनयन भगवान् श्रीरामके बिना जीना ही नहीं चाहती। प्राणवल्लभ रघुनाथजीके दर्शनसे वंचित होनेके कारण निराहार ही रहकर ताड़के पेड़पर रहनेवाली नागिनकी तरह मैं अपने शरीरको सुखा डालूँगी; परंतु श्रीरामके सिवा दूसरे किसी पुरुषका सेवन कदापि नहीं करूँगी। मेरी इस बातको सत्य समझो और इसके बाद जो कुछ करना हो, करो’॥५०—५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा राक्षस्यस्ताः खरस्वनाः।
आख्यातुं राक्षसेन्द्राय जग्मुस्तत् सर्वमादृताः ॥ ५३ ॥

मूलम्

तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा राक्षस्यस्ताः खरस्वनाः।
आख्यातुं राक्षसेन्द्राय जग्मुस्तत् सर्वमादृताः ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताकी यह बात सुनकर कठोर बोली बोलनेवाली वे राक्षसियाँ राक्षसराज रावणको आदरपूर्वक वह सब समाचार निवेदन करनेके लिये चली गयीं॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गतासु तासु सर्वासु त्रिजटा नाम राक्षसी।
सान्त्वयामास वैदेहीं धर्मज्ञा प्रियवादिनी ॥ ५४ ॥

मूलम्

गतासु तासु सर्वासु त्रिजटा नाम राक्षसी।
सान्त्वयामास वैदेहीं धर्मज्ञा प्रियवादिनी ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ केवल धर्मको जाननेवाली प्रियवादिनी त्रिजटा नामकी राक्षसी रह गयी। अन्य सब राक्षसियोंके चले जानेपर उसने सीताको सान्त्वना देते हुए कहा—॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीते वक्ष्यामि ते किंचिद् विश्वासं कुरु मे सखि।
भयं त्वं त्यज वामोरु शृणु चेदं वचो मम॥५५॥

मूलम्

सीते वक्ष्यामि ते किंचिद् विश्वासं कुरु मे सखि।
भयं त्वं त्यज वामोरु शृणु चेदं वचो मम॥५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सखी सीते! मैं तुमसे एक बात कहूँगी। तुम मुझपर विश्वास करो। वामोरु! तुम भय छोड़ो और मेरी यह बात सुनो॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविन्ध्यो नाम मेधावी वृद्धो राक्षसपुङ्गवः।
स रामस्य हितान्वेषी त्वदर्थे हि स मावदत् ॥ ५६ ॥

मूलम्

अविन्ध्यो नाम मेधावी वृद्धो राक्षसपुङ्गवः।
स रामस्य हितान्वेषी त्वदर्थे हि स मावदत् ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यहाँ अविन्ध्य नामसे प्रसिद्ध एक बुद्धिमान्, वृद्ध और श्रेष्ठ राक्षस रहते हैं जो सदा श्रीरामचन्द्रजीके हितका चिन्तन करते रहते हैं। उन्होंने तुमसे कहनेके लिये मेरेद्वारा यह संदेश भेजा है॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीता मद्वचनाद् वाच्या समाश्वास्य प्रसाद्य च।
भर्ता ते कुशली रामो लक्ष्मणानुगतो बली ॥ ५७ ॥
सख्यं वानरराजेन शक्रप्रतिमतेजसा ।
कृतवान् राघवः श्रीमांस्त्वदर्थे च समुद्यतः ॥ ५८ ॥
मा च तेऽस्तु भयं भीरु रावणाल्लोकगर्हितात्।
नलकूबरशापेन रक्षिता ह्यसि नन्दिनि ॥ ५९ ॥
शप्तो ह्येष पुरा पापो वधूं रम्भां परामृशन्।
न शक्नोत्यवशां नारीमुपैतुमजितेन्द्रियः ॥ ६० ॥
क्षिप्रमेष्यति ते भर्ता सुग्रीवेणाभिरक्षितः।
सौमित्रिसहितो धीमांस्त्वां चेतो मोक्षयिष्यति ॥ ६१ ॥

मूलम्

सीता मद्वचनाद् वाच्या समाश्वास्य प्रसाद्य च।
भर्ता ते कुशली रामो लक्ष्मणानुगतो बली ॥ ५७ ॥
सख्यं वानरराजेन शक्रप्रतिमतेजसा ।
कृतवान् राघवः श्रीमांस्त्वदर्थे च समुद्यतः ॥ ५८ ॥
मा च तेऽस्तु भयं भीरु रावणाल्लोकगर्हितात्।
नलकूबरशापेन रक्षिता ह्यसि नन्दिनि ॥ ५९ ॥
शप्तो ह्येष पुरा पापो वधूं रम्भां परामृशन्।
न शक्नोत्यवशां नारीमुपैतुमजितेन्द्रियः ॥ ६० ॥
क्षिप्रमेष्यति ते भर्ता सुग्रीवेणाभिरक्षितः।
सौमित्रिसहितो धीमांस्त्वां चेतो मोक्षयिष्यति ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उनका कहना है कि त्रिजटे! तुम मेरी ओरसे सीताको समझा-बुझाकर संतुष्ट करके यह कहना कि—‘तुम्हारे स्वामी महाबली श्रीराम लक्ष्मणसहित सकुशल हैं। श्रीमान् रघुनाथजीने इन्द्रतुल्य तेजस्वी वानरराज सुग्रीवके साथ मैत्री की है और तुम्हें यहाँसे छुड़ानेके लिये उद्योग आस्मभ कर दिया है; अतः भीरु! अब तुम्हें लोकनिन्दित रावणसे तनिक भी भय नहीं करना चाहिये। नन्दिनी! नलकूबरने रावणको जो शाप दे रखा है, उसीसे तुम सदा सुरक्षित रहोगी। कुछ समय पहलेकी बात है, इस पापी रावणने नलकूबरकी पत्नी एवं अपनी पुत्रवधूके तुल्य रम्भाका स्पर्श किया था, इसीसे उसको शाप प्राप्त हुआ है। यद्यपि यह रावण जितेन्द्रिय नहीं है, तो भी किसी अवशा—स्वतन्त्रतापूर्वक उसे न चाहनेवाली नारीके पास नहीं जा सकता है। सुग्रीवद्वारा सुरक्षित तुम्हारे स्वामी बुद्धिमान् भगवान् श्रीराम अपने भाई लक्ष्मणके साथ शीघ्र ही यहाँ आयेंगे और तुम्हें यहाँसे छुड़ा ले जायँगे’॥५७—६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वप्ना हि सुमहाघोरा दृष्टा मेऽनिष्टदर्शनाः।
विनाशायास्य दुर्बुद्धेः पौलस्त्यकुलघातिनः ॥ ६२ ॥

मूलम्

स्वप्ना हि सुमहाघोरा दृष्टा मेऽनिष्टदर्शनाः।
विनाशायास्य दुर्बुद्धेः पौलस्त्यकुलघातिनः ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अविन्ध्यका संदेश सुनाकर फिर त्रिजटाने अपनी ओरसे कहा—) ‘सखी! मैंने भी रातमें बड़े भयंकर स्वप्न देखे हैं, जो इस पुलस्त्यकुल-घातक दुर्बुद्धि रावणके विनाश एवं अनिष्टकी सूचना देनेवाले हैं॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दारुणो ह्येष दुष्टात्मा क्षुद्रकर्मा निशाचरः।
स्वभावाच्छीलदोषेण सर्वेषां भयवर्धनः ॥ ६३ ॥

मूलम्

दारुणो ह्येष दुष्टात्मा क्षुद्रकर्मा निशाचरः।
स्वभावाच्छीलदोषेण सर्वेषां भयवर्धनः ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह दारुण दुष्टात्मा तथा क्षुद्रकर्म करनेवाला निशाचर अपने स्वभाव और शीलदोषसे सब लोगोंका भय बढ़ा रहा है॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्पर्धते सर्वदेवैर्यः कालोपहतचेतनः ।
मया विनाशलिङ्गानि स्वप्ने दृष्टानि तस्य वै ॥ ६४ ॥

मूलम्

स्पर्धते सर्वदेवैर्यः कालोपहतचेतनः ।
मया विनाशलिङ्गानि स्वप्ने दृष्टानि तस्य वै ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कालसे इसकी बुद्धि मारी गयी है; अतः यह समस्त देवताओंसे ईर्ष्या रखता है। मैंने स्वप्नमें जो कुछ देखा है, वह सब इसके विनाशकी सूचना दे रहा है॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैलाभिषिक्तो विकचो मज्जन् पङ्के दशाननः।
असकृत् खरयुक्ते तु रथे नृत्यन्निव स्थितः ॥ ६५ ॥

मूलम्

तैलाभिषिक्तो विकचो मज्जन् पङ्के दशाननः।
असकृत् खरयुक्ते तु रथे नृत्यन्निव स्थितः ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सपनेमें मैंने देखा है कि रावण तेलसे नहाये, मूँड़ मुँड़ाये, कीचड़में डूब रहा है। फिर कई बार देखनेमें आया कि वह गदहोंसे जुते हुए रथपर खड़ा होकर नृत्य-सा कर रहा है॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुम्भकर्णादयश्चेमे नग्नाः पतितमूर्धजाः ।
गच्छन्ति दक्षिणामाशां रक्तमाल्यानुलेपनाः ॥ ६६ ॥

मूलम्

कुम्भकर्णादयश्चेमे नग्नाः पतितमूर्धजाः ।
गच्छन्ति दक्षिणामाशां रक्तमाल्यानुलेपनाः ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उसके साथ ही ये कुम्भकर्ण आदि राक्षस भी मूँड़ मुड़ाये, लाल चन्दन लगाये, लाल फूलोंकी माला पहने, नंगे होकर दक्षिण दिशाकी ओर जा रहे हैं॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वेतातपत्रः सोष्णीषः शुक्लमाल्यानुलेपनः ।
श्वेतपर्वतमारूढ एक एव विभीषणः ॥ ६७ ॥

मूलम्

श्वेतातपत्रः सोष्णीषः शुक्लमाल्यानुलेपनः ।
श्वेतपर्वतमारूढ एक एव विभीषणः ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘केवल विभीषण ही श्वेत छत्र धारण किये, सफेद पगड़ी पहने एवं श्वेत पुष्पोंकी मालासे अलंकृत हो श्वेत चन्दन लगाये श्वेतपर्वतपर आरूढ दिखायी दिये॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचिवाश्चास्य चत्वारः शुक्लमाल्यानुलेपनाः ।
श्वेतपर्वतमारूढा मोक्ष्यन्तेऽस्मान्महाभयात् ॥ ६८ ॥

मूलम्

सचिवाश्चास्य चत्वारः शुक्लमाल्यानुलेपनाः ।
श्वेतपर्वतमारूढा मोक्ष्यन्तेऽस्मान्महाभयात् ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इनके चारों मन्त्री भी श्वेत पुष्पमाला और चन्दनसे चर्चित हो श्वेतपर्वतके शिखरपर बैठे थे; अतः विभीषणके साथ वे भी आनेवाले महान् भयसे मुक्त हो जायँगे’॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामस्यास्त्रेण पृथिवी परिक्षिप्ता ससागरा।
यशसा पृथिवीं कृत्स्नां पूरयिष्यति ते पतिः ॥ ६९ ॥

मूलम्

रामस्यास्त्रेण पृथिवी परिक्षिप्ता ससागरा।
यशसा पृथिवीं कृत्स्नां पूरयिष्यति ते पतिः ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘स्वप्नमें मुझे यह भी दिखायी दिया है कि भगवान् श्रीरामके बाणोंसे समुद्रसहित सारी पृथ्वी आच्छादित हो गयी है; अतः यह निश्चित है कि तुम्हारे पतिदेव अपने सुयशसे समस्त भूमण्डलको परिपूर्ण कर देंगे॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्थिसंचयमारूढो भुञ्जानो मधुपायसम् ।
लक्ष्मणश्च मया दृष्टो दिधक्षुः सर्वतो दिशम् ॥ ७० ॥

मूलम्

अस्थिसंचयमारूढो भुञ्जानो मधुपायसम् ।
लक्ष्मणश्च मया दृष्टो दिधक्षुः सर्वतो दिशम् ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसी तरह मैंने लक्ष्मणको भी देखा है। वे हड्डियोंके ढेरपर बैठे हुए मधुमिश्रित खीर खा रहे थे और ऐसा जान पड़ता था मानो वे समस्त दिशाओंको दग्ध कर देना चाहते हैं॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुदती रुधिरार्द्राङ्गी व्याघ्रेण परिरक्षिता।
असकृत् त्वं मया दृष्टा गच्छन्ती दिशमुत्तराम् ॥ ७१ ॥

मूलम्

रुदती रुधिरार्द्राङ्गी व्याघ्रेण परिरक्षिता।
असकृत् त्वं मया दृष्टा गच्छन्ती दिशमुत्तराम् ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सपनेमें मैंने तुमको भी कई बार देखा। तुम्हारे सारे अंग खूनसे तर हो रहे थे। तुम रोती हुई उत्तर दिशाकी ओर जा रही थीं और एक व्याघ्र तुम्हारी रक्षा कर रहा था॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हर्षमेष्यसि वैदेहि क्षिप्रं भर्त्रा समन्विता।
राघवेण सह भ्रात्रा सीते त्वमचिरादिव ॥ ७२ ॥

मूलम्

हर्षमेष्यसि वैदेहि क्षिप्रं भर्त्रा समन्विता।
राघवेण सह भ्रात्रा सीते त्वमचिरादिव ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विदेहनन्दिनी सीते! इस सपनेसे यही प्रतीत होता है कि तुम शीघ्र ही अपने स्वामीसे मिलकर हर्षका अनुभव करोगी। भाई लक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्रजीसे तुम्हारी अवश्य भेंट होगी; इसमें अब अधिक विलम्ब नहीं है’॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येतन्मृगशावाक्षी तच्छ्रुत्वा त्रिजटावचः ।
बभूवाशावती बाला पुनर्भर्तृसमागमे ॥ ७३ ॥

मूलम्

इत्येतन्मृगशावाक्षी तच्छ्रुत्वा त्रिजटावचः ।
बभूवाशावती बाला पुनर्भर्तृसमागमे ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्रिजटाकी यह बात सुनकर मृगशावक-से नेत्रोंवाली सीताको पुनः पतिदेवसे मिलनेकी आशा बँध गयी॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावदभ्यागता रौद्राः पिशाच्यस्ताः सुदारुणाः।
ददृशुस्तां त्रिजटया सहासीनां यथा पुरा ॥ ७४ ॥

मूलम्

यावदभ्यागता रौद्राः पिशाच्यस्ताः सुदारुणाः।
ददृशुस्तां त्रिजटया सहासीनां यथा पुरा ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेमें ही अत्यन्त क्रूर स्वभाववाली वे भयंकर पिशाचिनियाँ रावणके दरबारसे वहाँ लौटकर आयीं। आकर उन्होंने देखा, सीता त्रिजटाके साथ पूर्ववत् अपने स्थानपर बैठी है॥७४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि रामोपाख्यानपर्वणि त्रिजटाकृतसीतासान्त्वने अशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २८० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत रामोपाख्यानपर्वमें त्रिजटाद्वारा सीताको आश्वासनविषयक दो सौ अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२८०॥