भागसूचना
एकोनाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
रावणद्वारा जटायुका वध, श्रीरामद्वारा उसका अन्त्येष्टि-संस्कार, कबन्धका वध तथा उसके दिव्य स्वरूपसे वार्तालाप
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखा दशरथस्यासीज्जटायुररुणात्मजः ।
गृध्रराजो महावीरः सम्पातिर्यस्य सोदरः ॥ १ ॥
मूलम्
सखा दशरथस्यासीज्जटायुररुणात्मजः ।
गृध्रराजो महावीरः सम्पातिर्यस्य सोदरः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजी कहते हैं— युधिष्ठिर! महावीर गृध्रराज जटायु (सूर्यके सारथि) अरुणके पुत्र थे। उनके बड़े भाईका नाम सम्पाति था। राजा दशरथके साथ उनकी बड़ी मित्रता थी॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स ददर्श तदा सीतां रावणाङ्कगतां स्नुषाम्।
सक्रोधोऽभ्यद्रवत् पक्षी रावणं राक्षसेश्वरम् ॥ २ ॥
मूलम्
स ददर्श तदा सीतां रावणाङ्कगतां स्नुषाम्।
सक्रोधोऽभ्यद्रवत् पक्षी रावणं राक्षसेश्वरम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी नाते सीताको वे अपनी पुत्रवधू मानते थे। जब जटायुने उन्हें रावणकी गोदमें पराधीन होकर पड़ी हुई देखा तब उनके क्रोधकी सीमा न रही। वे राक्षसराज रावणपर टूट पड़े॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथैनमब्रवीद् गृध्रो मुञ्च मुञ्चेति मैथिलीम्।
ध्रियमाणे मयि कथं हरिष्यसि निशाचर ॥ ३ ॥
मूलम्
अथैनमब्रवीद् गृध्रो मुञ्च मुञ्चेति मैथिलीम्।
ध्रियमाणे मयि कथं हरिष्यसि निशाचर ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार और वे बोले—‘निशाचर! मिथिलेश-कुमारीको छोड़ दे, छोड़ दे। मेरे जीते-जी तू इन्हें कैसे हर ले जायगा?’॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि मे मोक्ष्यसे जीवन् यदि नोत्सृजसे वधूम्।
उक्त्वैवं राक्षसेन्द्रं तं चकर्त नखरैर्भृशम् ॥ ४ ॥
मूलम्
न हि मे मोक्ष्यसे जीवन् यदि नोत्सृजसे वधूम्।
उक्त्वैवं राक्षसेन्द्रं तं चकर्त नखरैर्भृशम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि मेरी पुत्रवधू सीताको तू नहीं छोड़ेगा तो मेरे हाथसे जीवित नहीं बच सकेगा।’ ऐसा कहकर जटायुने अपने नखोंसे राक्षसराज रावणको बहुत घायल कर दिया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पक्षतुण्डप्रहारैश्च शतशो जर्जरीकृतम् ।
चक्षार रुधिरं भूरि गिरिः प्रस्रवणैरिव ॥ ५ ॥
मूलम्
पक्षतुण्डप्रहारैश्च शतशो जर्जरीकृतम् ।
चक्षार रुधिरं भूरि गिरिः प्रस्रवणैरिव ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने पंखों और चोंचसे मार-मारकर उसके सैकड़ों घाव कर दिये। रावणका सारा शरीर जर्जर हो गया तथा देहसे रक्तकी धाराएँ बह चलीं, मानो पर्वत अनेक झरनोंसे आर्द्र हो रहा हो॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वध्यमानो गृध्रेण रामप्रियहितैषिणा।
खड्गमादाय चिच्छेद भुजौ तस्य पतत्त्रिणः ॥ ६ ॥
मूलम्
स वध्यमानो गृध्रेण रामप्रियहितैषिणा।
खड्गमादाय चिच्छेद भुजौ तस्य पतत्त्रिणः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीका प्रिय एवं हित चाहनेवाले जटायुको इस प्रकार चोट करते देख रावणने तलवार लेकर उन पक्षिराजके दोनों पंख काट डाले॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहत्य गृध्रराजं स भिन्नाभ्रशिखरोपमम्।
ऊर्ध्वमाचक्रमे सीतां गृहीत्वाङ्केन राक्षसः ॥ ७ ॥
मूलम्
निहत्य गृध्रराजं स भिन्नाभ्रशिखरोपमम्।
ऊर्ध्वमाचक्रमे सीतां गृहीत्वाङ्केन राक्षसः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बादलोंको भेदनेवाले पर्वतशिखरके समान गृध्रराज जटायुको घायल करके रावण पुनः सीताको गोदमें लिये हुए आकाशमार्गसे चल दिया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र यत्र तु वैदेही पश्यत्याश्रममण्डलम्।
सरो वा सरितो वापि तत्र मुञ्चति भूषणम् ॥ ८ ॥
मूलम्
यत्र यत्र तु वैदेही पश्यत्याश्रममण्डलम्।
सरो वा सरितो वापि तत्र मुञ्चति भूषणम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदेहकुमारी सीता जहाँ-जहाँ कोई आश्रम, सरोवर या नदी देखतीं, वहाँ-वहाँ अपना कोई-न-कोई आभूषण गिरा देती थीं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा ददर्श गिरिप्रस्थे पञ्च वानरपुङ्गवान्।
तत्र वासो महद्दिव्यमुत्ससर्ज मनस्विनी ॥ ९ ॥
मूलम्
सा ददर्श गिरिप्रस्थे पञ्च वानरपुङ्गवान्।
तत्र वासो महद्दिव्यमुत्ससर्ज मनस्विनी ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आगे जानेपर उन्होंने एक पर्वतके शिखरपर बैठे हुए पाँच श्रेष्ठ वानरोंको देखा। वहाँ उन बुद्धिमती देवीने अपना एक अत्यन्त दिव्य वस्त्र गिरा दिया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् तेषां वानरेन्द्राणां पपात पवनोद्धुतम्।
मध्ये सुपीतं पञ्चानां विद्युन्मेघान्तरे यथा ॥ १० ॥
मूलम्
तत् तेषां वानरेन्द्राणां पपात पवनोद्धुतम्।
मध्ये सुपीतं पञ्चानां विद्युन्मेघान्तरे यथा ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह सुन्दर पीले रंगका वस्त्र आकाशमें उड़ता हुआ उन पाँचों वानरोंके मध्यभागमें जा गिरा, मानो मेघोंके बीचमें विद्युत् प्रकट हो गयी हो॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अचिरेणातिचक्राम खेचरः खे चरन्निव।
ददर्शाथ पुरीं रम्यां बहुद्वारां मनोरमाम् ॥ ११ ॥
मूलम्
अचिरेणातिचक्राम खेचरः खे चरन्निव।
ददर्शाथ पुरीं रम्यां बहुद्वारां मनोरमाम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आकाशचारी पक्षीकी भाँति आकाशगामी रावण थोड़े ही समयमें अपना मार्ग तय करके लंकाके निकट जा पहुँचा। उसने दूरसे ही अपनी रमणीय एवं मनोहर पुरीको देखा, जो अनेक दरवाजोंसे सुशोभित हो रही थी॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राकारवप्रसम्बाधां निर्मितां विश्वकर्मणा ।
प्रविवेश पुरीं लङ्कां ससीतो राक्षसेश्वरः ॥ १२ ॥
मूलम्
प्राकारवप्रसम्बाधां निर्मितां विश्वकर्मणा ।
प्रविवेश पुरीं लङ्कां ससीतो राक्षसेश्वरः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साक्षात् विश्वकर्माने उस पुरीका निर्माण किया था। वह सब ओरसे चहारदीवारी तथा खाइयोंद्वारा घिरी हुई थी। राक्षसराज रावणने सीताके साथ उसी लंकापुरीमें प्रवेश किया॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं हृतायां वैदेह्यां रामो हत्वा महामृगम्।
निवृत्तो ददृशे धीमान् भ्रातरं लक्ष्मणं तथा ॥ १३ ॥
मूलम्
एवं हृतायां वैदेह्यां रामो हत्वा महामृगम्।
निवृत्तो ददृशे धीमान् भ्रातरं लक्ष्मणं तथा ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सीताका अपहरण हो जानेपर बुद्धिमान् श्रीरामचन्द्रजी उस महामृगरूप मारीचको मारकर लौटे; उस समय मार्गमें उन्हें लक्ष्मण दिखायी दिये॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथमुत्सृज्य वैदेहीं वने राक्षससेविते।
इति तं भ्रातरं दृष्ट्वा प्राप्तोऽसीति व्यगर्हयत् ॥ १४ ॥
मूलम्
कथमुत्सृज्य वैदेहीं वने राक्षससेविते।
इति तं भ्रातरं दृष्ट्वा प्राप्तोऽसीति व्यगर्हयत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भाईको देखकर श्रीरामने उन्हें कोसते हुए कहा—‘लक्ष्मण! राक्षसोंसे भरे हुए इस घोर जंगलमें जानकीको अकेली छोड़कर तुम यहाँ कैसे चले आये?’॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृगरूपधरेणाथ रक्षसा सोऽपकर्षणम् ।
भ्रातुरागमनं चैव चिन्तयन् पर्यतप्यत ॥ १५ ॥
मूलम्
मृगरूपधरेणाथ रक्षसा सोऽपकर्षणम् ।
भ्रातुरागमनं चैव चिन्तयन् पर्यतप्यत ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मृगरूपधारी राक्षस मुझे आश्रमसे दूर खींच लाया और भाई भी आश्रमको अरक्षित छोड़कर मेरे पास आ गया’, यह सोचते हुए श्रीरामचन्द्रजी मन-ही-मन संतप्त हो उठे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गर्हयन्नेव रामस्तु त्वरितस्तं समासदत्।
अपि जीवति वैदेही नेति पश्यामि लक्ष्मण ॥ १६ ॥
मूलम्
गर्हयन्नेव रामस्तु त्वरितस्तं समासदत्।
अपि जीवति वैदेही नेति पश्यामि लक्ष्मण ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपर्युक्तरूपसे लक्ष्मणकी निन्दा करते हुए श्रीरामचन्द्रजी तुरंत उनके पास आ गये और कहने लगे—‘लक्ष्मण! मैं देखता हूँ, सीता जीवित भी है या नहीं’॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तत् सर्वमाचख्यौ सीताया लक्ष्मणो वचः।
यदुक्तवत्यसदृशं वैदेही पश्चिमं वचः ॥ १७ ॥
मूलम्
तस्य तत् सर्वमाचख्यौ सीताया लक्ष्मणो वचः।
यदुक्तवत्यसदृशं वैदेही पश्चिमं वचः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब लक्ष्मणने सीताकी वे सारी अनुचित एवं आक्षेपपूर्ण बातें, जिन्हें उन्होंने अन्तमें कहा था, कह सुनायीं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दह्यमानेन तु हृदा रामोऽभ्यपतदाश्रमम्।
स ददर्श तदा गृध्रं निहतं पर्वतोपमम् ॥ १८ ॥
मूलम्
दह्यमानेन तु हृदा रामोऽभ्यपतदाश्रमम्।
स ददर्श तदा गृध्रं निहतं पर्वतोपमम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीका हृदय शोकाग्निसे दग्ध हो रहा था। वे शीघ्रतापूर्वक आश्रमकी ओर बढ़े। मार्गमें उन्हें पर्वताकार गृध्रराज जटायु दिखायी दिये, जो रावणके हाथसे घायल हुए पड़े थे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राक्षसं शङ्कमानस्तं विकृष्य बलवद् धनुः।
अभ्यधावत काकुत्स्थस्ततस्तं सहलक्ष्मणः ॥ १९ ॥
मूलम्
राक्षसं शङ्कमानस्तं विकृष्य बलवद् धनुः।
अभ्यधावत काकुत्स्थस्ततस्तं सहलक्ष्मणः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लक्ष्मणसहित श्रीरामने उन्हें राक्षस समझकर अपने प्रबल धनुषको खींचा और उनपर धावा कर दिया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तावुवाच तेजस्वी सहितौ रामलक्ष्मणौ।
गृध्रराजोऽस्मि भद्रं वां सखा दशरथस्य वै ॥ २० ॥
मूलम्
स तावुवाच तेजस्वी सहितौ रामलक्ष्मणौ।
गृध्रराजोऽस्मि भद्रं वां सखा दशरथस्य वै ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब तेजस्वी जटायुने साथ आये हुए श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाइयोंसे कहा—‘आप दोनोंका भला हो। मैं राजा दशरथका मित्र गृध्रराज जटायु हूँ’॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा संगृह्य धनुषी शुभे।
कोऽयं पितरमस्माकं नाम्नाऽऽहेत्यूचतुश्च तौ ॥ २१ ॥
मूलम्
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा संगृह्य धनुषी शुभे।
कोऽयं पितरमस्माकं नाम्नाऽऽहेत्यूचतुश्च तौ ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी ये बातें सुनकर उन्होंने अपने सुन्दर धनुष उतारकर हाथमें ले लिये और परस्पर पूछने लगे कि ‘यह कौन है जो हमारे पिताका नाम लेकर परिचय दे रहा है’॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो ददृशतुस्तौ तं छिन्नपक्षद्वयं खगम्।
तयोः शशंस गृध्रस्तु सीतार्थे रावणाद् वधम् ॥ २२ ॥
मूलम्
ततो ददृशतुस्तौ तं छिन्नपक्षद्वयं खगम्।
तयोः शशंस गृध्रस्तु सीतार्थे रावणाद् वधम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उन्होंने पास आकर देखा—जटायुके दोनों पंख कटे हुए हैं। गृध्रने बताया कि ‘सीताको छुड़ानेके लिये युद्ध करते समय मैं रावणके हाथसे अत्यन्त घायल कर दिया गया हूँ’॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपृच्छद् राघवो गृध्रं रावणः कां दिशं गतः।
तस्य गृध्रः शिरःकम्पैराचचक्षे ममार च ॥ २३ ॥
मूलम्
अपृच्छद् राघवो गृध्रं रावणः कां दिशं गतः।
तस्य गृध्रः शिरःकम्पैराचचक्षे ममार च ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीने जटायुसे पूछा—‘रावण किस दिशाकी ओर गया है?’ गृध्रने सिर हिलाकर संकेतसे दक्षिण दिशा बतायी और अपने प्राण त्याग दिये॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दक्षिणामिति काकुत्स्थो विदित्वास्य तदिङ्गितम्।
संस्कारं लम्भयामास सखायं पूजयन् पितुः ॥ २४ ॥
मूलम्
दक्षिणामिति काकुत्स्थो विदित्वास्य तदिङ्गितम्।
संस्कारं लम्भयामास सखायं पूजयन् पितुः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके संकेतके अनुसार दक्षिण दिशा समझ लेनेके पश्चात् श्रीरामचन्द्रजीने पिताके मित्र होनेके नाते जटायुको आदर देते हुए उनका विधिपूर्वक अन्त्येष्टि-संस्कार किया॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दृष्ट्वाऽऽश्रमपदं व्यपविद्धबृसीमठम् ।
विध्वस्तकलशं शून्यं गोमायुशतसंकुलम् ॥ २५ ॥
मूलम्
ततो दृष्ट्वाऽऽश्रमपदं व्यपविद्धबृसीमठम् ।
विध्वस्तकलशं शून्यं गोमायुशतसंकुलम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर आश्रमपर पहुँचकर उन्होंने देखा, कुशकी चटाई बाहर फेंकी हुई है, कुटी उजाड़ हो गयी है, घर सूना पड़ा है, कलश फूटे पड़े हैं और सारे आश्रममें सैकड़ों गीदड़ भरे हुए हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुःखशोकसमाविष्टौ वैदेहीहरणार्दितौ ।
जग्मतुर्दण्डकारण्यं दक्षिणेन परंतपौ ॥ २६ ॥
मूलम्
दुःखशोकसमाविष्टौ वैदेहीहरणार्दितौ ।
जग्मतुर्दण्डकारण्यं दक्षिणेन परंतपौ ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सीताका अपहरण हो जानेसे दोनों भाइयोंको बड़ी वेदना हुई। वे दुःख और शोकमें डूब गये। फिर शत्रुओंको संताप देनेवाले श्रीराम और लक्ष्मण दण्डकारण्यसे दक्षिण दिशाकी ओर चल दिये॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वने महति तस्मिंस्तु रामः सौमित्रिणा सह।
ददर्श मृगयूथानि द्रवमाणानि सर्वशः ॥ २७ ॥
मूलम्
वने महति तस्मिंस्तु रामः सौमित्रिणा सह।
ददर्श मृगयूथानि द्रवमाणानि सर्वशः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस विशाल वनमें लक्ष्मणसहित श्रीरामने देखा कि मृगोंके झुंड सब ओर भाग रहे हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शब्दं च घोरं सत्त्वानां दावाग्नेरिव वर्धतः।
अपश्येतां मुहूर्ताच्च कबन्धं घोरदर्शनम् ॥ २८ ॥
मूलम्
शब्दं च घोरं सत्त्वानां दावाग्नेरिव वर्धतः।
अपश्येतां मुहूर्ताच्च कबन्धं घोरदर्शनम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वन-जन्तुओंका भयंकर शब्द ऐसा जान पड़ता था मानो वहाँ सब ओर दावानल फैल रहा हो और उससे भयभीत हुए प्राणी आर्तनाद कर रहे हों। दो ही घड़ीमें उन दोनों भाइयोंने देखा, सामने एक ‘कबन्ध’ (धड़) प्रकट हुआ है, जो देखनेमें अत्यन्त भयंकर है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेघपर्वतसंकाशं शालस्कन्धं महाभुजम् ।
उरोगतविशालाक्षं महोदरमहामुखम् ॥ २९ ॥
मूलम्
मेघपर्वतसंकाशं शालस्कन्धं महाभुजम् ।
उरोगतविशालाक्षं महोदरमहामुखम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह मेघके समान काला और पर्वतके समान विशालकाय था। साखूकी शाखाके समान उसके कंधे और बड़ी-बड़ी भुजाएँ थीं। उसकी चौड़ी छातीमें दो बड़ी-बड़ी आँखें चमक रहीं थीं और लंबे-से पेटमें बहुत बड़ा मुख दिखायी दे रहा था॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदृच्छयाथ तद् रक्षः करे जग्राह लक्ष्मणम्।
विषादमगमत् सद्यः सौमित्रिरथ भारत ॥ ३० ॥
मूलम्
यदृच्छयाथ तद् रक्षः करे जग्राह लक्ष्मणम्।
विषादमगमत् सद्यः सौमित्रिरथ भारत ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह एक राक्षस था। उसने सहसा आकर लक्ष्मणका एक हाथ पकड़ लिया। भारत! यह देख सुमित्रानन्दन लक्ष्मण तत्काल बहुत दुःखी हो गये॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स राममभिसम्प्रेक्ष्य कृष्यते येन तन्मुखम्।
विषण्णश्चाब्रवीद् रामं पश्यावस्थामिमां मम ॥ ३१ ॥
मूलम्
स राममभिसम्प्रेक्ष्य कृष्यते येन तन्मुखम्।
विषण्णश्चाब्रवीद् रामं पश्यावस्थामिमां मम ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस ओर उस राक्षसका मुख था, उसी ओर वे खिंचे चले जा रहे थे। तब श्रीरामकी ओर देखकर वे अत्यन्त विषादग्रस्त होकर बोले—‘भैया! देखिये, मेरी यह क्या अवस्था हो रही है?॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरणं चैव वैदेह्या मम चायमुपप्लवः।
राज्यभ्रंशश्च भवतस्तातस्य मरणं तथा ॥ ३२ ॥
मूलम्
हरणं चैव वैदेह्या मम चायमुपप्लवः।
राज्यभ्रंशश्च भवतस्तातस्य मरणं तथा ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विदेहकुमारीका अपहरण, मेरा इस प्रकार असमयमें विपत्तिग्रस्त होना, आपका राज्यसे निर्वासन तथा पिताजीकी मृत्यु—(इस प्रकार संकटपर संकट आता जा रहा है)॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं त्वां सह वैदेह्या समेतं कोसलागतम्।
द्रक्ष्यामि पृथिवीराज्ये पितृपैतामहे स्थितम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
नाहं त्वां सह वैदेह्या समेतं कोसलागतम्।
द्रक्ष्यामि पृथिवीराज्ये पितृपैतामहे स्थितम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जान पड़ता है, जब आप सीताके साथ अयोध्यामें लौटकर पिता-पितामहोंकी परम्परासे प्राप्त हुए इस भूमण्डलके राज्यपर प्रतिष्ठित होंगे, उस समय मैं आपका दर्शन न कर सकूँगा॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रक्ष्यन्त्यार्यस्य धन्या ये कुशलाजशमीदलैः।
अभिषिक्तस्य वदनं सोमं शान्तघनं यथा ॥ ३४ ॥
मूलम्
द्रक्ष्यन्त्यार्यस्य धन्या ये कुशलाजशमीदलैः।
अभिषिक्तस्य वदनं सोमं शान्तघनं यथा ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो लोग कुश, लाजा और शमीपत्र आदिके द्वारा राज्यपर अभिषिक्त हुए आप आर्यके मेघोंके आवरणसे रहित शरत्कालीन चन्द्रमाके समान मनोहर मुखका दर्शन करेंगे, वे धन्य हैं’॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं बहुविधं धीमान् विललाप स लक्ष्मणः।
तमुवाचाथ काकुत्स्थः सम्भ्रमेष्वप्यसम्भ्रमः ॥ ३५ ॥
मूलम्
एवं बहुविधं धीमान् विललाप स लक्ष्मणः।
तमुवाचाथ काकुत्स्थः सम्भ्रमेष्वप्यसम्भ्रमः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमान् लक्ष्मण इस प्रकार भाँति-भाँतिसे विलाप करने लगे। भगवान् श्रीराम घबराहटके समय भी घबराते नहीं थे। उन्होंने लक्ष्मणसे कहा—॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा विषीद नरव्याघ्र नैष कश्चिन्मयि स्थिते।
छिन्ध्यस्य दक्षिणं बाहुं छिन्नः सव्यो मया भुजः ॥ ३६ ॥
मूलम्
मा विषीद नरव्याघ्र नैष कश्चिन्मयि स्थिते।
छिन्ध्यस्य दक्षिणं बाहुं छिन्नः सव्यो मया भुजः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरश्रेष्ठ! तुम खेद न करो। मेरे रहते यह राक्षस कोई चीज नहीं है; इससे तुम्हें कोई हानि नहीं पहुँच सकती। तुम इसकी दाहिनी बाँह काट डालो। मैं बायीं भुजा काट रहा हूँ’॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवं वदता तस्य भुजो रामेण पातितः।
खड्गेन भृशतीक्ष्णेन निकृत्तस्तिलकाण्डवत् ॥ ३७ ॥
मूलम्
इत्येवं वदता तस्य भुजो रामेण पातितः।
खड्गेन भृशतीक्ष्णेन निकृत्तस्तिलकाण्डवत् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार कहते हुए श्रीरामचन्द्रजीने अत्यन्त तीखी तलवारसे उस राक्षसकी एक बाँह तिलके पौधेकी तरह काट गिरायी॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽस्य दक्षिणं बाहु खड्गेनाजघ्निवान् बली।
सौमित्रिरपि सम्प्रेक्ष्य भ्रातरं राघवं स्थितम् ॥ ३८ ॥
पुनर्जघान पार्श्वे वै तद् रक्षो लक्ष्मणो भृशम्।
गतासुरपतद् भूमौ कबन्धः सुमहांस्ततः ॥ ३९ ॥
मूलम्
ततोऽस्य दक्षिणं बाहु खड्गेनाजघ्निवान् बली।
सौमित्रिरपि सम्प्रेक्ष्य भ्रातरं राघवं स्थितम् ॥ ३८ ॥
पुनर्जघान पार्श्वे वै तद् रक्षो लक्ष्मणो भृशम्।
गतासुरपतद् भूमौ कबन्धः सुमहांस्ततः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर बलवान् सुमित्रानन्दन लक्ष्मणने भी अपने खड्गसे उसकी दाहिनी बाँह काट डाली और अपने भाई श्रीरामको खड़ा देखकर उन्होंने उसकी पसलीपर भी बड़े जोरसे प्रहार किया। फिर तो वह महान् राक्षस कबन्ध प्राणशून्य होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा॥३८-३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य देहाद् विनिःसृत्य पुरुषो दिव्यदर्शनः।
ददृशे दिवमास्थाय दिवि सूर्य इव ज्वलन् ॥ ४० ॥
मूलम्
तस्य देहाद् विनिःसृत्य पुरुषो दिव्यदर्शनः।
ददृशे दिवमास्थाय दिवि सूर्य इव ज्वलन् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी देहसे एक दिव्यरूपधारी पुरुष निकलकर आकाशमें खड़ा दिखायी दिया। वह सूर्यके समान देदीप्यमान हो रहा था॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पप्रच्छ रामस्तं वाग्मी कस्त्वं प्रब्रूहि पृच्छतः।
कामया किमिदं चित्रमाश्चर्यं प्रतिभाति मे ॥ ४१ ॥
मूलम्
पप्रच्छ रामस्तं वाग्मी कस्त्वं प्रब्रूहि पृच्छतः।
कामया किमिदं चित्रमाश्चर्यं प्रतिभाति मे ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब कुशल वक्ता भगवान् श्रीरामने उससे पूछा—‘तुम कौन हो? अपना परिचय दो। मेरे पूछनेपर अपनी इच्छाके अनुसार बताओ, यह कैसी अद्भुत एवं आश्चर्यमयी घटना प्रतीत हो रही है?’॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याचचक्षे गन्धर्वो विश्वावसुरहं नृप।
प्राप्तो ब्राह्मणशापेन योनिं राक्षससेविताम् ॥ ४२ ॥
रावणेन हृता सीता राज्ञा लङ्काधिवासिना।
सुग्रीवमभिगच्छस्व स ते साह्यं करिष्यति ॥ ४३ ॥
मूलम्
तस्याचचक्षे गन्धर्वो विश्वावसुरहं नृप।
प्राप्तो ब्राह्मणशापेन योनिं राक्षससेविताम् ॥ ४२ ॥
रावणेन हृता सीता राज्ञा लङ्काधिवासिना।
सुग्रीवमभिगच्छस्व स ते साह्यं करिष्यति ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने कहा—‘राजन्! मैं विश्वावसु नामक गन्धर्व हूँ। एक ब्राह्मणके शापसे इस राक्षसयोनिमें आ गया था—लंकावासी राक्षसराज रावणने आपकी पत्नी सीताका अपहरण किया है। आप वानरराज सुग्रीवसे मिलिये। वे आपकी सहायता करेंगे’॥४२-४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषा पम्पा शिवजला हंसकारण्डवायुता।
ऋष्यमूकस्य शैलस्य संनिकर्षे तटाकिनी ॥ ४४ ॥
मूलम्
एषा पम्पा शिवजला हंसकारण्डवायुता।
ऋष्यमूकस्य शैलस्य संनिकर्षे तटाकिनी ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह थोड़ी ही दूरपर पवित्र जलसे भरा हुआ पम्पासरोवर है, जिसमें हंस और कारण्डव आदि पक्षी चहक रहे हैं। वह सरोवर ऋष्यमूक पर्वतसे सटा हुआ है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसते तत्र सुग्रीवश्चतुर्भिः सचिवैः सह।
भ्राता वानरराजस्य वालिनो हेममालिनः ॥ ४५ ॥
मूलम्
वसते तत्र सुग्रीवश्चतुर्भिः सचिवैः सह।
भ्राता वानरराजस्य वालिनो हेममालिनः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वहीं अपने चार मन्त्रियोंके साथ सुवर्णमालाधारी वानरराज वालीके भाई सुग्रीव निवास करते हैं॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन त्वं सह संगम्य दुःखमूलं निवेदय।
समानशीलो भवतः साहाय्यं स करिष्यति ॥ ४६ ॥
मूलम्
तेन त्वं सह संगम्य दुःखमूलं निवेदय।
समानशीलो भवतः साहाय्यं स करिष्यति ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उनसे मिलकर आप अपने दुःखका कारण बताइये। उनका शील-स्वभाव आपके ही समान है। वे निश्चय ही आपकी सहायता करेंगे॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावच्छक्यमस्माभिर्वक्तुं द्रष्टासि जानकीम् ।
ध्रुवं वानरराजस्य विदितो रावणालयः ॥ ४७ ॥
मूलम्
एतावच्छक्यमस्माभिर्वक्तुं द्रष्टासि जानकीम् ।
ध्रुवं वानरराजस्य विदितो रावणालयः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं तो इतना ही कह सकता हूँ कि आपकी जनकनन्दिनी सीतासे अवश्य भेंट होगी। वानरराज सुग्रीवको रावणके घरका पता निश्चय ही ज्ञात है’॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वान्तर्हितो दिव्यः पुरुषः स महाप्रभः।
विस्मयं जग्मतुश्चोभौ प्रवीरौ रामलक्ष्मणौ ॥ ४८ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वान्तर्हितो दिव्यः पुरुषः स महाप्रभः।
विस्मयं जग्मतुश्चोभौ प्रवीरौ रामलक्ष्मणौ ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर वह महातेजस्वी दिव्य पुरुष वहीं अन्तर्हित हो गया। वीरवर श्रीराम और लक्ष्मण दोनोंको उसके दर्शन और वार्तालापसे बड़ा विस्मय हुआ॥४८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि रामोपाख्यानपर्वणि कबन्धहनने एकोनाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २७९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत रामोपाख्यानपर्वमें कबन्धवधविषयक दो सौ उन्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२७९॥