भागसूचना
अष्टसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
मृगरूपधारी मारीचका वध तथा सीताका अपहरण
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारीचस्त्वथ सम्भ्रान्तो दृष्ट्वा रावणमागतम्।
पूजयामास सत्कारैः फलमूलादिभिस्ततः ॥ १ ॥
मूलम्
मारीचस्त्वथ सम्भ्रान्तो दृष्ट्वा रावणमागतम्।
पूजयामास सत्कारैः फलमूलादिभिस्ततः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजी कहते हैं— युधिष्ठिर! रावणको आया देख मारीच सहसा उठकर खड़ा हो गया और उसने फल-मूल आदि अतिथिसत्कारकी सामग्रियोंद्वारा उसका विधिवत् पूजन किया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्रान्तं चैनमासीनमन्वासीनः स राक्षसः।
उवाच प्रश्रितं वाक्यं वाक्यज्ञो वाक्यकोविदम् ॥ २ ॥
मूलम्
विश्रान्तं चैनमासीनमन्वासीनः स राक्षसः।
उवाच प्रश्रितं वाक्यं वाक्यज्ञो वाक्यकोविदम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब रावण बैठकर विश्राम कर चुका, तब उसके पास बैठकर बातचीत करनेमें कुशल राक्षस मारीचने वाक्यका मर्म समझनेमें निपुण रावणसे विनयपूर्वक कहा—॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ते प्रकृतिमान् वर्णः कच्चित् क्षेमं पुरे तव।
कच्चित् प्रकृतयः सर्वा भजन्ते त्वां यथा पुरा ॥ ३ ॥
मूलम्
न ते प्रकृतिमान् वर्णः कच्चित् क्षेमं पुरे तव।
कच्चित् प्रकृतयः सर्वा भजन्ते त्वां यथा पुरा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लंकेश्वर! तुम्हारे शरीरका रंग ठीक हालतमें नहीं है। तुम उदास दिखायी देते हो। तुम्हारे नगरमें कुशल तो है न? समस्त प्रजा और मन्त्री आदि पहलेकी भाँति तुम्हारी सेवा करते हैं न?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमिहागमने चापि कार्यं ते राक्षसेश्वर।
कृतमित्येव तद् विद्धि यद्यपि स्यात् सुदुष्करम् ॥ ४ ॥
मूलम्
किमिहागमने चापि कार्यं ते राक्षसेश्वर।
कृतमित्येव तद् विद्धि यद्यपि स्यात् सुदुष्करम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राक्षसराज! कौन-सा ऐसा कार्य आ गया है, जिसके लिये तुम्हें यहाँतक आना पड़ा? यदि वह मेरेद्वारा साध्य है तो कितना ही कठिन क्यों न हो, उसे किया हुआ ही समझो’॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शशंस रावणस्तस्मै तत् सर्वं रामचेष्टितम्।
समासेनैव कार्याणि क्रोधामर्षसमन्वितः ॥ ५ ॥
मूलम्
शशंस रावणस्तस्मै तत् सर्वं रामचेष्टितम्।
समासेनैव कार्याणि क्रोधामर्षसमन्वितः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावण क्रोध और अमर्षमें भरा हुआ था। उसने एक-एक करके रामद्वारा किये हुए सब कार्य संक्षेपसे कह सुनाये॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारीचस्त्वब्रवीच्छ्रुत्वा समासेनैव रावणम् ।
अलं ते राममासाद्य वीर्यज्ञो ह्यस्मि तस्य वै ॥ ६ ॥
मूलम्
मारीचस्त्वब्रवीच्छ्रुत्वा समासेनैव रावणम् ।
अलं ते राममासाद्य वीर्यज्ञो ह्यस्मि तस्य वै ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मारीचने सारी बातें सुनकर थोड़ेमें ही रावणको समझाते हुए कहा—‘दशानन! तुम श्रीरामसे भिड़नेका साहस न करो। मैं उनके पराक्रमको जानता हूँ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाणवेगं हि कस्तस्य शक्तः सोढ़ं महात्मनः।
प्रव्रज्यायां हि मे हेतुः स एव पुरुषर्षभः ॥ ७ ॥
विनाशमुखमेतत् ते केनाख्यातं दुरात्मना।
मूलम्
बाणवेगं हि कस्तस्य शक्तः सोढ़ं महात्मनः।
प्रव्रज्यायां हि मे हेतुः स एव पुरुषर्षभः ॥ ७ ॥
विनाशमुखमेतत् ते केनाख्यातं दुरात्मना।
अनुवाद (हिन्दी)
‘भला! इस जगत्में कौन ऐसा वीर है, जो परमात्मा श्रीरामके बाणोंका वेग सह सके? मैं जो यहाँ संन्यासी बना बैठा हूँ, इसमें भी वे पुरुषरत्न श्रीराम ही कारण हैं। श्रीरामसे वैर मोल लेना विनाशके मुखमें जाना है, किस दुरात्माने तुम्हें ऐसी सलाह दी है?’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुवाचाथ सक्रोधो रावणः परिभर्त्सयन् ॥ ८ ॥
अकुर्वतोऽस्मद्वचनं स्यान्मृत्युरपि ते ध्रुवम्।
मूलम्
तमुवाचाथ सक्रोधो रावणः परिभर्त्सयन् ॥ ८ ॥
अकुर्वतोऽस्मद्वचनं स्यान्मृत्युरपि ते ध्रुवम्।
अनुवाद (हिन्दी)
मारीचकी बात सुनकर रावण और भी कुपित हो उठा और उसे डाँटते हुए बोला—‘मारीच! यदि तू मेरी बात नहीं मानेगा तो भी तेरी मृत्यु निश्चित ही है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारीचश्चिन्तयामास विशिष्टान्मरणं वरम् ॥ ९ ॥
अवश्यं मरणे प्राप्ते करिष्याम्यस्य यन्मतम्।
मूलम्
मारीचश्चिन्तयामास विशिष्टान्मरणं वरम् ॥ ९ ॥
अवश्यं मरणे प्राप्ते करिष्याम्यस्य यन्मतम्।
अनुवाद (हिन्दी)
मारीचने सोचा, ‘यदि मृत्यु निश्चित ही है तो श्रेष्ठ पुरुषके हाथसे ही मरना अच्छा होगा; अतः रावणका जो अभीष्ट कार्य है, उसे अवश्य करूँगा’॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तं प्रत्युवाचाथ मारीचो रक्षसां वरम् ॥ १० ॥
किं ते साह्यं मया कार्यं करिष्याम्यवशोऽपि तत्।
मूलम्
ततस्तं प्रत्युवाचाथ मारीचो रक्षसां वरम् ॥ १० ॥
किं ते साह्यं मया कार्यं करिष्याम्यवशोऽपि तत्।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उसने राक्षसराज रावणसे कहा—‘अच्छा; बताओ, मुझे तुम्हारी क्या सहायता करनी होगी? इच्छा, न होनेपर भी मैं विवश होकर उसे करूँगा’॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमब्रवीद् दशग्रीवो गच्छ सीतां प्रलोभय ॥ ११ ॥
रत्नशृङ्गो मृगो भूत्वा रत्नचित्रतनूरुहः।
ध्रुवं सीता समालक्ष्य त्वां रामं चोदयिष्यति ॥ १२ ॥
मूलम्
तमब्रवीद् दशग्रीवो गच्छ सीतां प्रलोभय ॥ ११ ॥
रत्नशृङ्गो मृगो भूत्वा रत्नचित्रतनूरुहः।
ध्रुवं सीता समालक्ष्य त्वां रामं चोदयिष्यति ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब दशाननने उससे कहा—‘तुम एक ऐसे मनोहर मृगका रूप धारण करो जिसके सींग रत्नमय प्रतीत हों और शरीरके रोएँ भी रत्नोंके ही समान चित्र-विचित्र दिखायी दें। फिर रामके आश्रमपर जाओ और सीताको लुभाओ। सीता तुम्हें देख लेनेपर निश्चय ही रामसे यह अनुरोध करेगी कि ‘आप इस मृगको पकड़ लाइये’॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपक्रान्ते च काकुत्स्थे सीता वश्या भविष्यति।
तामादायापनेष्यामि ततः स न भविष्यति ॥ १३ ॥
भार्यावियोगाद् दुर्बुद्धिरेतत् साह्यं कुरुष्व मे।
मूलम्
अपक्रान्ते च काकुत्स्थे सीता वश्या भविष्यति।
तामादायापनेष्यामि ततः स न भविष्यति ॥ १३ ॥
भार्यावियोगाद् दुर्बुद्धिरेतत् साह्यं कुरुष्व मे।
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम्हारे पीछे रामके अपने आश्रमसे दूर निकल जानेपर सीताको वशमें लाना सहज हो जायगा। मैं उसे आश्रमसे हरकर ले जाऊँगा और दुर्बुद्धि राम अपनी प्यारी पत्नीके वियोगसे व्याकुल होकर प्राण दे देगा। बस, मेरी इतनी ही सहायता कर दो’॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवमुक्तो मारीचः कृत्वोदकमथात्मनः ॥ १४ ॥
रावणं पुरतो यान्तमन्वगच्छत् सुदुःखितः।
मूलम्
इत्येवमुक्तो मारीचः कृत्वोदकमथात्मनः ॥ १४ ॥
रावणं पुरतो यान्तमन्वगच्छत् सुदुःखितः।
अनुवाद (हिन्दी)
रावणके ऐसा कहनेपर मारीच स्वयं ही अपना श्राद्ध-तर्पण करके अत्यन्त दुःखी होकर आगे जाते हुए रावणके पीछे-पीछे चला॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तस्याश्रमं गत्वा रामस्याक्लिष्टकर्मणः ॥ १५ ॥
चक्रतुस्तत् तथा सर्वमुभौ यत् पूर्वमन्त्रितम्।
मूलम्
ततस्तस्याश्रमं गत्वा रामस्याक्लिष्टकर्मणः ॥ १५ ॥
चक्रतुस्तत् तथा सर्वमुभौ यत् पूर्वमन्त्रितम्।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर अनायास ही महान् कर्म करनेवाले श्रीरामचन्द्रजीके आश्रमके समीप जाकर उन दोनोंने पहले जैसी सलाह कर रखी थी, उसके अनुसार सब कार्य किया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणस्तु यतिर्भूत्वा मुण्डः कुण्डी त्रिदण्डधृक् ॥ १६ ॥
मृगश्च भूत्वा मारीचस्तं देशमुपजग्मतुः।
दर्शयामास मारीचो वैदेहीं मृगरूपधृक् ॥ १७ ॥
मूलम्
रावणस्तु यतिर्भूत्वा मुण्डः कुण्डी त्रिदण्डधृक् ॥ १६ ॥
मृगश्च भूत्वा मारीचस्तं देशमुपजग्मतुः।
दर्शयामास मारीचो वैदेहीं मृगरूपधृक् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावण मूँड़ मुड़ाने, भिक्षापात्र हाथमें लिये एवं त्रिदण्डधारी संन्यासीका रूप धारण करके और मारीच मृग बनकर—दोनों उस स्थानपर गये। मारीचने विदेहनन्दिनी सीताके समक्ष अपना मृगरूप प्रकट किया॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चोदयामास तस्यार्थे सा रामं विधिचोदिता।
रामस्तस्याः प्रियं कुर्वन् धनुरादाय सत्वरः ॥ १८ ॥
रक्षार्थे लक्ष्मणं न्यस्य प्रययौ मृगलिप्सया।
मूलम्
चोदयामास तस्यार्थे सा रामं विधिचोदिता।
रामस्तस्याः प्रियं कुर्वन् धनुरादाय सत्वरः ॥ १८ ॥
रक्षार्थे लक्ष्मणं न्यस्य प्रययौ मृगलिप्सया।
अनुवाद (हिन्दी)
विधिके विधानसे प्रेरित होकर सीताने उस मृगको लानेके लिये श्रीरामचन्द्रजीको भेजा। श्रीरामचन्द्रजी सीताका प्रिय करनेके लिये धनुष हाथमें ले लक्ष्मणको सीताकी रक्षाका भार सौंपकर मृगको लानेकी इच्छासे तुरंत चल दिये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स धन्वी बद्धतुणीरः खड्गगोधाङ्गुलित्रवान् ॥ १९ ॥
अन्वधावन्मृगं रामो रुद्रस्तारामृगं यथा।
मूलम्
स धन्वी बद्धतुणीरः खड्गगोधाङ्गुलित्रवान् ॥ १९ ॥
अन्वधावन्मृगं रामो रुद्रस्तारामृगं यथा।
अनुवाद (हिन्दी)
वे धनुष-बाण ले, पीठपर तरकस बाँधकर, कटिमें कृपाण लटकाये तथा हाथोंमें दस्ताने पहने उस मृगके पीछे उसी प्रकार दौड़े, जैसे मृगशिरा नक्षत्रके पीछे भगवान् रुद्र दौड़े थे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽन्तर्हितः पुनस्तस्य दर्शनं राक्षसो व्रजन् ॥ २० ॥
चकर्ष महदध्वानं रामस्तं बुबुधे ततः।
निशाचरं विदित्वा तं राधवः प्रतिभानवान् ॥ २१ ॥
अमोघं शरमादाय जघान मृगरूपिणम्।
मूलम्
सोऽन्तर्हितः पुनस्तस्य दर्शनं राक्षसो व्रजन् ॥ २० ॥
चकर्ष महदध्वानं रामस्तं बुबुधे ततः।
निशाचरं विदित्वा तं राधवः प्रतिभानवान् ॥ २१ ॥
अमोघं शरमादाय जघान मृगरूपिणम्।
अनुवाद (हिन्दी)
मायावी राक्षस मारीच कभी छिप जाता और कभी नेत्रोंके समक्ष प्रकट हो जाता था। इस प्रकार वह श्रीरामचन्द्रजीको आश्रमसे बहुत दूर खींच ले गया। तब श्रीरामचन्द्रजी यह ताड़ गये कि यह कोई मायावी राक्षस है। यह बात ध्यानमें आते ही प्रतिभाशाली श्रीरघुनाथजीने एक अमोघ बाण लेकर उस मृगरूपधारी निशाचरको मार डाला॥२०-२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स रामबाणाभिहतः कृत्वा रामस्वरं तदा ॥ २२ ॥
हा सीते लक्ष्मणेत्येवं चुक्रोशार्तस्वरेण ह।
मूलम्
स रामबाणाभिहतः कृत्वा रामस्वरं तदा ॥ २२ ॥
हा सीते लक्ष्मणेत्येवं चुक्रोशार्तस्वरेण ह।
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीके बाणसे आहत हो मरते समय मारीचने उनके ही स्वरमें ‘हा सीते, हा लक्ष्मण’ कहकर आर्तनाद किया॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुश्राव तस्य वैदेही ततस्तां करुणां गिरम् ॥ २३ ॥
सा प्राद्रवद् यतः शब्दस्तामुवाचाथ लक्ष्मणः।
अलं ते शङ्कया भीरु को रामं प्रहरिष्यति ॥ २४ ॥
मुहूर्ताद् द्रक्ष्यसे रामं भर्तारं त्वं शुचिस्मिते।
मूलम्
शुश्राव तस्य वैदेही ततस्तां करुणां गिरम् ॥ २३ ॥
सा प्राद्रवद् यतः शब्दस्तामुवाचाथ लक्ष्मणः।
अलं ते शङ्कया भीरु को रामं प्रहरिष्यति ॥ २४ ॥
मुहूर्ताद् द्रक्ष्यसे रामं भर्तारं त्वं शुचिस्मिते।
अनुवाद (हिन्दी)
विदेहनन्दिनी सीताने भी उसकी वह करुणाभरी पुकार सुनी। उसकी पुकार सुनते ही जिस ओरसे वह आवाज आयी थी, उसी ओर वे दौड़ पड़ीं। तब लक्ष्मणने उनसे कहा—‘भीरु! डरनेकी कोई बात नहीं है। भला, कौन ऐसा है, जो भगवान् रामको मार सकेगा? शुचिस्मिते! तुम दो ही घड़ीमें अपने पति भगवान् श्रीरामको यहाँ उपस्थित देखोगी॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्ता सा प्ररुदती पर्यशङ्कत लक्ष्मणम् ॥ २५ ॥
हता वै स्त्रीस्वभावेन शुक्लचारित्रभूषणा।
सा तं परुषमारब्धा वक्तुं साध्वी पतिव्रता ॥ २६ ॥
मूलम्
इत्युक्ता सा प्ररुदती पर्यशङ्कत लक्ष्मणम् ॥ २५ ॥
हता वै स्त्रीस्वभावेन शुक्लचारित्रभूषणा।
सा तं परुषमारब्धा वक्तुं साध्वी पतिव्रता ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लक्ष्मणकी यह बात सुनकर रोती हुई सीताने उन्हें संदेहकी दृष्टिसे देखा। यद्यपि शुद्ध सदाचार ही उनका आभूषण था। वे साध्वी और पतिव्रता थीं; तथापि स्त्री स्वभाववश उस समय उनकी बुद्धि मारी गयी। उन्होंने लक्ष्मणको कठोर बातें सुनानी आरम्भ कीं—॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैष कामो भवेन्मूढ यं त्वं प्रार्थयसे हृदा।
अप्यहं शस्त्रमादाय हन्यामात्मानमात्मना ॥ २७ ॥
पतेयं गिरिशृङ्गाद् वा विशेयं वा हुताशनम्।
रामं भर्तारमुत्सृज्य न त्वहं त्वां कथंचन ॥ २८ ॥
निहीनमुपतिष्ठेयं शार्दूली क्रोष्टुकं यथा।
मूलम्
नैष कामो भवेन्मूढ यं त्वं प्रार्थयसे हृदा।
अप्यहं शस्त्रमादाय हन्यामात्मानमात्मना ॥ २७ ॥
पतेयं गिरिशृङ्गाद् वा विशेयं वा हुताशनम्।
रामं भर्तारमुत्सृज्य न त्वहं त्वां कथंचन ॥ २८ ॥
निहीनमुपतिष्ठेयं शार्दूली क्रोष्टुकं यथा।
अनुवाद (हिन्दी)
‘ओ मूढ़! तुम मन-ही-मन जिस वस्तुको पाना चाहते हो, तुम्हारा वह मनोरथ कभी पूर्ण न होगा। मैं स्वयं तलवार लेकर अपना गला काट लूँगी, पर्वतके शिखरसे कूद पड़ूँगी अथवा जलती हुई आगमें समा जाऊँगी; परंतु’ राम-जैसे स्वामीको छोड़कर तुम-जैसे नीच पुरुषका कदापि वरण न करूँगी। जैसे सिंहिनी सियारको नहीं स्वीकार कर सकती, उसी प्रकार मैं तुम्हें नहीं ग्रहण करूँगी’॥२७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतादृशं वचः श्रुत्वा लक्ष्मणः प्रियराघवः ॥ २९ ॥
पिधाय कर्णौ सद्वृत्तः प्रस्थितो येन राघवः।
स रामस्य पदं गृह्य प्रससार धनुर्धरः ॥ ३० ॥
अवीक्षमाणो बिम्बोष्ठीं प्रययौ लक्ष्मणस्तदा।
मूलम्
एतादृशं वचः श्रुत्वा लक्ष्मणः प्रियराघवः ॥ २९ ॥
पिधाय कर्णौ सद्वृत्तः प्रस्थितो येन राघवः।
स रामस्य पदं गृह्य प्रससार धनुर्धरः ॥ ३० ॥
अवीक्षमाणो बिम्बोष्ठीं प्रययौ लक्ष्मणस्तदा।
अनुवाद (हिन्दी)
लक्ष्मण सदाचारी तथा श्रीरामचन्द्रजीके प्रेमी थे। उन्होंने सीताके ये कठोर वचन सुनकर अपने दोनों कान बंद कर लिये और उसी मार्गसे चल दिये, जिससे श्रीरामचन्द्रजी गये थे। उस समय लक्ष्मणके हाथमें धनुष था। उन्होंने बिम्बफलके समान अरुण अधरोंवाली सीताकी ओर आँख उठाकर देखातक नहीं। श्रीरामके पदचिह्नोंका अनुसरण करते हुए उन्होंने वहाँसे प्रस्थान कर दिया॥२९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नन्तरे रक्षो रावणः प्रत्यदृश्यत ॥ ३१ ॥
अभव्यो भव्यरूपेण भस्मच्छन्न इवानलः।
यतिवेषप्रतिच्छन्नो जिहीर्षुस्तामनिन्दिताम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
एतस्मिन्नन्तरे रक्षो रावणः प्रत्यदृश्यत ॥ ३१ ॥
अभव्यो भव्यरूपेण भस्मच्छन्न इवानलः।
यतिवेषप्रतिच्छन्नो जिहीर्षुस्तामनिन्दिताम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय अवसर पाकर राक्षस रावण साध्वी सीताको हर ले जानेकी इच्छासे वहाँ दिखायी दिया। वह भयानक निशाचर सुन्दर रूप धारण करके राखमें छिपी हुई आगके समान संन्यासीके वेषमें अपने यथार्थ रूपको छिपाये हुए था॥३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तमालक्ष्य सम्प्राप्तं धर्मज्ञा जनकात्मजा।
निमन्त्रयामास तदा फलमूलाशनादिभिः ॥ ३३ ॥
मूलम्
सा तमालक्ष्य सम्प्राप्तं धर्मज्ञा जनकात्मजा।
निमन्त्रयामास तदा फलमूलाशनादिभिः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय यतिको अपने आश्रमपर आया हुआ देख धर्मको जाननेवाली जनकनन्दिनी सीता फल-मूलके भोजन आदिके अतिथिसत्कारके लिये उसे निमन्त्रित किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवमन्य ततः सर्वं स्वरूपं प्रत्यपद्यत।
सान्त्वयामास वैदेहीमिति राक्षसपुङ्गवः ॥ ३४ ॥
मूलम्
अवमन्य ततः सर्वं स्वरूपं प्रत्यपद्यत।
सान्त्वयामास वैदेहीमिति राक्षसपुङ्गवः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसराज रावण सीताकी दी हुई उन सभी वस्तुओंकी अवहेलना करके अपने असली रूपमें प्रकट हो गया और विदेहराजकुमारीको इस प्रकार सान्त्वना देने लगा—॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीते राक्षसराजोऽहं रावणो नाम विश्रुतः।
मम लङ्कापुरी नाम्ना रम्या पारे महोदधेः ॥ ३५ ॥
मूलम्
सीते राक्षसराजोऽहं रावणो नाम विश्रुतः।
मम लङ्कापुरी नाम्ना रम्या पारे महोदधेः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सीते! मैं राक्षसोंका राजा हूँ। मेरा ‘रावण’ नाम सर्वत्र विख्यात है। समुद्रके पार बसी हुई रमणीय लंकापुरी मेरी राजधानी है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र त्वं नरनारीषु शोभिष्यसि मया सह।
भार्या मे भव सुश्रोणि तापसं त्यज राघवम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
तत्र त्वं नरनारीषु शोभिष्यसि मया सह।
भार्या मे भव सुश्रोणि तापसं त्यज राघवम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वहाँ नर-नारियोंके बीच मेरे साथ रहकर तुम बड़ी शोभा पाओगी। अतः सुन्दरी! तुम मेरी पत्नी हो जाओ और इस तपस्वी रामको छोड़ दो’॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमादीनि वाक्यानि श्रुत्वा तस्याथ जानकी।
पिधाय कर्णौ सुश्रोणी मैवमित्यब्रवीद् वचः ॥ ३७ ॥
प्रपतेद् द्यौः सनक्षत्रा पृथिवी शकलीभवेत्।
शैत्यमग्निरियान्नाहं त्यजेयं रघुनन्दनम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
एवमादीनि वाक्यानि श्रुत्वा तस्याथ जानकी।
पिधाय कर्णौ सुश्रोणी मैवमित्यब्रवीद् वचः ॥ ३७ ॥
प्रपतेद् द्यौः सनक्षत्रा पृथिवी शकलीभवेत्।
शैत्यमग्निरियान्नाहं त्यजेयं रघुनन्दनम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणके ऐसे वचन सुनकर सुन्दरी जनककिशोरीने अपने दोनों कान बंद कर लिये और उससे इस प्रकार कहा—‘बस, अब ऐसी बातें मुँहसे न निकाल। नक्षत्रोंसहित आकाश फट पड़े, पृथ्वी टूक-टूक हो जाय और अग्नि अपनी उष्णताका त्याग करके शीतल हो जाय, परंतु मैं रघुकुलनन्दन श्रीरामचन्द्रजीको नहीं छोड़ सकती॥३७-३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं हि भिन्नकरटं पद्मिनं वनगोचरम्।
उपस्थाय महानागं करेणुः सूकरं स्पृशेत् ॥ ३९ ॥
मूलम्
कथं हि भिन्नकरटं पद्मिनं वनगोचरम्।
उपस्थाय महानागं करेणुः सूकरं स्पृशेत् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘गण्डस्थलसे मदकी धारा बहानेवाले पद्ममाला-मण्डित वनवासी गजराजकी सेवामें उपस्थित होकर कोई हथिनी किसी शूकरको कैसे छू सकती है?॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं हि पीत्वा माध्वीकं पीत्वा च मधुमाधवीम्।
लोभं सौवीरके कुर्यान्नारी काचिदिति स्मरेत् ॥ ४० ॥
मूलम्
कथं हि पीत्वा माध्वीकं पीत्वा च मधुमाधवीम्।
लोभं सौवीरके कुर्यान्नारी काचिदिति स्मरेत् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो फूलोंके रससे बने हुए मधुर पेय तथा मधुमक्षिकाओंद्वारा तैयार किया हुआ मधु पी चुकी हो, ऐसी कोई भी नारी काँजीके रसका लोभ कैसे कर सकती है?’॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति सा तं समाभाष्य प्रविवेशाश्रमं ततः।
क्रोधात् प्रस्फुरमाणौष्ठी विधुन्वाना करौ मुहुः ॥ ४१ ॥
मूलम्
इति सा तं समाभाष्य प्रविवेशाश्रमं ततः।
क्रोधात् प्रस्फुरमाणौष्ठी विधुन्वाना करौ मुहुः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणसे इस प्रकार कहकर सीता अपने आश्रममें प्रवेश करने लगीं। उस समय क्रोधके मारे उनके ओंठ फड़क रहे थे और वे अपने दोनों हाथोंको बार-बार हिला रही थीं॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामभिद्रुत्य सुश्रोणीं रावणः प्रत्यषेधयत्।
भर्त्सयित्वा तु रूक्षेण स्वरेण गतचेतनाम् ॥ ४२ ॥
मूलम्
तामभिद्रुत्य सुश्रोणीं रावणः प्रत्यषेधयत्।
भर्त्सयित्वा तु रूक्षेण स्वरेण गतचेतनाम् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय रावणने दौड़कर उनका मार्ग रोक लिया और कठोर स्वरसे उन्हें डराना, धमकाना आरम्भ किया। इससे वे भयके मारे मूर्च्छित हो गयीं॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूर्धजेषु निजग्राह ऊर्ध्वमाचक्रमे ततः।
तां ददर्श ततो गृध्रो जटायुर्गिरिगोचरः।
रुदतीं राम रामेति ह्रियमाणां तपस्विनीम् ॥ ४३ ॥
मूलम्
मूर्धजेषु निजग्राह ऊर्ध्वमाचक्रमे ततः।
तां ददर्श ततो गृध्रो जटायुर्गिरिगोचरः।
रुदतीं राम रामेति ह्रियमाणां तपस्विनीम् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब रावणने उनके केश पकड़ लिये और आकाशमार्गसे लंकाकी ओर प्रस्थान किया। उस समय वे तपस्विनी सीता ‘हा राम-हा रामकी’ रट लगाती हुई रो रही थीं और वह राक्षस उन्हें हरकर लिये जा रहा था। इसी अवस्थामें एक पर्वतकी गुफामें रहनेवाले गृध्रराज जटायुने उन्हें देखा॥४३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि रामोपाख्यानपर्वणि मारीचवधे सीताहरणे च अष्टसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः॥२७८॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत रामोपाख्यानपर्वमें मारीचवध तथा सीताहरणविषयक दो सौ अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२७८॥