भागसूचना
सप्तसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
श्रीरामके राज्याभिषेककी तैयारी, रामवनगमन, भरतकी चित्रकूटयात्रा, रामके द्वारा खर-दूषण आदि राक्षसोंका नाश तथा रावणका मारीचके पास जाना
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उक्तं भगवता जन्म रामादीनां पृथक् पृथक्।
प्रस्थानकारणं ब्रह्मन् श्रोतुमिच्छामि कथ्यताम् ॥ १ ॥
कथं दाशरथी वीरौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।
सम्प्रस्थितौ वने ब्रह्मन् मैथिली च यशस्विनी ॥ २ ॥
मूलम्
उक्तं भगवता जन्म रामादीनां पृथक् पृथक्।
प्रस्थानकारणं ब्रह्मन् श्रोतुमिच्छामि कथ्यताम् ॥ १ ॥
कथं दाशरथी वीरौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।
सम्प्रस्थितौ वने ब्रह्मन् मैथिली च यशस्विनी ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— ब्रह्मन्! आपने श्रीरामचन्द्रजी आदि सभी भाइयोंके जन्मकी कथा तो पृथक्-पृथक् सुना दी, अब मैं उनके वनवासका कारण सुनना चाहता हूँ; उसे कहिये। दशरथजीके वीर पुत्र दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण तथा मिथिलेशकुमारी यशस्विनी सीताको वनमें क्यों जाना पड़ा?॥१-२॥
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातपुत्रो दशरथः प्रीतिमानभवन्नृप ।
क्रियारतिर्धर्मरतः सततं वृद्धसेविता ॥ ३ ॥
मूलम्
जातपुत्रो दशरथः प्रीतिमानभवन्नृप ।
क्रियारतिर्धर्मरतः सततं वृद्धसेविता ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजीने कहा— राजन्! अपने पुत्रोंके जन्मसे महाराज दशरथको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे सदा सत्कर्ममें तत्पर रहनेवाले, धर्मपरायण तथा बड़े-बूढ़ोंके सेवक थे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रमेण चास्य ते पुत्रा व्यवर्धन्त महौजसः।
वेदेषु सरहस्येषु धनुर्वेदेषु पारगाः ॥ ४ ॥
चरितब्रह्मचर्यास्ते कृतदाराश्च पार्थिव ।
यदा तदा दशरथः प्रीतिमानभवत् सुखी ॥ ५ ॥
मूलम्
क्रमेण चास्य ते पुत्रा व्यवर्धन्त महौजसः।
वेदेषु सरहस्येषु धनुर्वेदेषु पारगाः ॥ ४ ॥
चरितब्रह्मचर्यास्ते कृतदाराश्च पार्थिव ।
यदा तदा दशरथः प्रीतिमानभवत् सुखी ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाके वे महातेजस्वी पुत्र क्रमशः बढ़ने लगे। उन्होंने (उपनयनके पश्चात्) विधिवत् ब्रह्मचर्यका पालन किया और वेदों तथा रहस्यसहित धनुर्वेदके पारंगत विद्वान् हुए। समयानुसार जब उनका विवाह हो गया, तब राजा दशरथ बड़े प्रसन्न तथा सुखी हुए॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्येष्ठो रामोऽभवत् तेषां रमयामास हि प्रजाः।
मनोहरतया धीमान् पितुर्हृदयनन्दनः ॥ ६ ॥
मूलम्
ज्येष्ठो रामोऽभवत् तेषां रमयामास हि प्रजाः।
मनोहरतया धीमान् पितुर्हृदयनन्दनः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चारों पुत्रोंमें बुद्धिमान् श्रीराम सबसे बड़े थे। वे अपने मनोहर रूप एवं सुन्दर स्वभावसे समस्त प्रजाको आनन्दित करते थे—सबका मन उन्हींमें रमता था। इसके सिवा वे पिताके मनमें भी आनन्द बढ़ानेवाले थे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स राजा मतिमान् मत्वाऽऽत्मानं वयोऽधिकम्।
मन्त्रयामास सचिवैर्धर्मज्ञैश्च पुरोहितैः ॥ ७ ॥
अभिषेकाय रामस्य यौवराज्येन भारत।
मूलम्
ततः स राजा मतिमान् मत्वाऽऽत्मानं वयोऽधिकम्।
मन्त्रयामास सचिवैर्धर्मज्ञैश्च पुरोहितैः ॥ ७ ॥
अभिषेकाय रामस्य यौवराज्येन भारत।
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! राजा दशरथ बड़े बुद्धिमान् थे। उन्होंने यह सोचकर कि अब मेरी अवस्था बहुत अधिक हो गयी; अतः श्रीरामको युवराजपदपर अभिषिक्त कर देना चाहिये; इस विषयमें अपने मन्त्री और धर्मज्ञ पुरोहितोंसे सलाह ली॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्तकालं च ते सर्वे मेनिरे मन्त्रिसत्तमाः ॥ ८ ॥
लोहिताक्षं महाबाहुं मत्तमातङ्गगामिनम् ।
कम्बुग्रीवं महोरस्कं नीलकुञ्चितमूर्धजम् ॥ ९ ॥
दीप्यमानं श्रिया वीरं शक्रादनवरं रणे।
पारगं सर्वधर्माणां बृहस्पतिसमं मतौ ॥ १० ॥
सर्वानुरक्तप्रकृतिं सर्वविद्याविशारदम् ।
जितेन्द्रियममित्राणामपि दृष्टिमनोहरम् ॥ ११ ॥
नियन्तारमसाधूनां गोप्तारं धर्मचारिणाम् ।
धृतिमन्तमनाधृष्यं जेतारमपराजितम् ॥ १२ ॥
पुत्रं राजा दशरथः कौसल्यानन्दवर्धनम्।
संदृश्य परमां प्रीतिमगच्छत् कुरुनन्दन ॥ १३ ॥
मूलम्
प्राप्तकालं च ते सर्वे मेनिरे मन्त्रिसत्तमाः ॥ ८ ॥
लोहिताक्षं महाबाहुं मत्तमातङ्गगामिनम् ।
कम्बुग्रीवं महोरस्कं नीलकुञ्चितमूर्धजम् ॥ ९ ॥
दीप्यमानं श्रिया वीरं शक्रादनवरं रणे।
पारगं सर्वधर्माणां बृहस्पतिसमं मतौ ॥ १० ॥
सर्वानुरक्तप्रकृतिं सर्वविद्याविशारदम् ।
जितेन्द्रियममित्राणामपि दृष्टिमनोहरम् ॥ ११ ॥
नियन्तारमसाधूनां गोप्तारं धर्मचारिणाम् ।
धृतिमन्तमनाधृष्यं जेतारमपराजितम् ॥ १२ ॥
पुत्रं राजा दशरथः कौसल्यानन्दवर्धनम्।
संदृश्य परमां प्रीतिमगच्छत् कुरुनन्दन ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन सभी श्रेष्ठ मन्त्रियोंने राजाके इस समयोचित प्रस्तावका अनुमोदन किया। श्रीरामचन्द्रजीके सुन्दर नेत्र कुछ-कुछ लाल थे और भुजाएँ बड़ी एवं घुटनों तक लंबी थीं। वे मतवाले हाथीके समान मस्तानी चालसे चलते थे। उनकी ग्रीवा शंखके समान सुन्दर थी, उनकी छाती चौड़ी थी और उनके सिरपर काले-काले घुँघराले बाल थे। उनकी देह दिव्य दीप्तिसे दमकती रहती थी। युद्धमें उनका पराक्रम देवराज इन्द्रसे कम नहीं था। वे समस्त धर्मोंके पारंगत विद्वान् और बृहस्पतिके समान बुद्धिमान् थे। सम्पूर्ण प्रजाका उनमें अनुराग था। वे सभी विद्याओंमें प्रवीण तथा जितेन्द्रिय थे। उनका अद्भुत रूप देखकर शत्रुओंके भी नेत्र और मन लुभा जाते थे। वे दुष्टोंका दमन करनेमें समर्थ, साधुओंके संरक्षक, धर्मात्मा, धैर्यवान, दुर्धर्ष, विजयी तथा किसीसे भी परास्त न होनेवाले थे। कुरुनन्दन! कौसल्याका आनन्द बढ़ानेवाले अपने पुत्र श्रीरामको देख-देखकर राजा दशरथको बड़ी प्रसन्नता होती थी॥८—१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिन्तयंश्च महातेजा गुणान् रामस्य वीर्यवान्।
अभ्यभाषत भद्रं ते प्रीयमाणः पुरोहितम् ॥ १४ ॥
अद्य पुष्यो निशि ब्रह्मन् पुण्यं योगमुपैष्यति।
सम्भाराः सम्भ्रियन्तां मे रामश्चोपनिमन्त्र्यताम् ॥ १५ ॥
मूलम्
चिन्तयंश्च महातेजा गुणान् रामस्य वीर्यवान्।
अभ्यभाषत भद्रं ते प्रीयमाणः पुरोहितम् ॥ १४ ॥
अद्य पुष्यो निशि ब्रह्मन् पुण्यं योगमुपैष्यति।
सम्भाराः सम्भ्रियन्तां मे रामश्चोपनिमन्त्र्यताम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तुम्हारा भला हो। महातेजस्वी तथा परम पराक्रमी राजा दशरथ श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंका स्मरण करते हुए बड़ी प्रसन्नताके साथ पुरोहितसे बोले—‘ब्रह्मन्! आज पुष्य नक्षत्र है। रातमें इसे परम पवित्र योग प्राप्त होनेवाला है। आप राज्याभिषेककी सामग्री तैयार कीजिये और श्रीरामको भी इसकी सूचना दे दीजिये’॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति तद् राजवचनं प्रतिश्रुत्याथ मन्थरा।
कैकेयीमभिगम्येदं काले वचनमब्रवीत् ॥ १६ ॥
मूलम्
इति तद् राजवचनं प्रतिश्रुत्याथ मन्थरा।
कैकेयीमभिगम्येदं काले वचनमब्रवीत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाकी यह बात मन्थराने भी सुन ली। वह ठीक समयपर कैकेयीके पास जाकर यों बोली—॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य कैकेयि दौर्भाग्यं राज्ञा ते ख्यापितं महत्।
आशीविषस्त्वां संक्रुद्धश्चण्डो दशतु दुर्भगे ॥ १७ ॥
मूलम्
अद्य कैकेयि दौर्भाग्यं राज्ञा ते ख्यापितं महत्।
आशीविषस्त्वां संक्रुद्धश्चण्डो दशतु दुर्भगे ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘केकयनन्दिनि! आज राजाने तुम्हारे लिये महान् दुर्भाग्यकी घोषणा की है। खोटे भाग्यवाली रानी! इससे अच्छा तो यह होता कि तुम्हें क्रोधमें भरा हुआ प्रचण्ड विषधर सर्प डँस लेता॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुभगा खलु कौसल्या यस्याःपुत्रोऽभिषेक्ष्यते।
कुतो हि तव सौभाग्यं यस्याः पुत्रो न राज्यभाक्॥१८॥
मूलम्
सुभगा खलु कौसल्या यस्याःपुत्रोऽभिषेक्ष्यते।
कुतो हि तव सौभाग्यं यस्याः पुत्रो न राज्यभाक्॥१८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रानी कौसल्याका भाग्य अवश्य अच्छा है, जिनके पुत्रका राज्याभिषेक होगा। तुम्हारा ऐसा सौभाग्य कहाँ? जिसका पुत्र राज्यका अधिकारी ही नहीं है’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तद्वचनमाज्ञाय सर्वाभरणभूषिता ।
देवी विलग्नमध्येव बिभ्रती रूपमुत्तमम् ॥ १९ ॥
विविक्ते पतिमासाद्य हसन्तीव शुचिस्मिता।
प्रणयं व्यञ्जयन्तीव मधुरं वाक्यमब्रवीत् ॥ २० ॥
मूलम्
सा तद्वचनमाज्ञाय सर्वाभरणभूषिता ।
देवी विलग्नमध्येव बिभ्रती रूपमुत्तमम् ॥ १९ ॥
विविक्ते पतिमासाद्य हसन्तीव शुचिस्मिता।
प्रणयं व्यञ्जयन्तीव मधुरं वाक्यमब्रवीत् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मन्थराकी यह बात सुनकर सूक्ष्म कटिप्रदेशवाली देवी कैकेयी समस्त आभूषणोंसे विभूषित हो परम सुन्दर रूप बनाकर एकान्तमें अपने पतिके पास गयी। उसकी मुसकराहटसे उसके शुद्ध भावकी सूचना मिल रही थी। वह हँसती और प्रेम जताती हुई-सी मधुर वाणीमें बोली—॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यप्रतिज्ञ यन्मे त्वं काममेकं निसृष्टवान्।
उपाकुरुष्व तद् राजंस्तस्मान्मुच्यस्व संकटात् ॥ २१ ॥
मूलम्
सत्यप्रतिज्ञ यन्मे त्वं काममेकं निसृष्टवान्।
उपाकुरुष्व तद् राजंस्तस्मान्मुच्यस्व संकटात् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सच्ची प्रतिज्ञा करनेवाले महाराज! आपने पहले जो ‘तेरा मनोरथ सफल करूँगा’ ऐसा वर दिया था, उसे आज पूर्ण कीजिये और उस संकटसे मुक्त हो जाइये’॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरं ददानि ते हन्त तद् गृहाण यदिच्छसि।
अवध्यो वध्यतां कोऽद्य वध्यः कोऽद्य विमुच्यताम् ॥ २२ ॥
धनं ददानि कस्याद्य ह्रियतां कस्य वा पुनः।
ब्राह्मणस्वादिहान्यत्र यत् किंचिद् वित्तमस्ति मे ॥ २३ ॥
मूलम्
वरं ददानि ते हन्त तद् गृहाण यदिच्छसि।
अवध्यो वध्यतां कोऽद्य वध्यः कोऽद्य विमुच्यताम् ॥ २२ ॥
धनं ददानि कस्याद्य ह्रियतां कस्य वा पुनः।
ब्राह्मणस्वादिहान्यत्र यत् किंचिद् वित्तमस्ति मे ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने कहा— प्रिये! यह तो बड़े हर्षकी बात है। मैं अभी तुम्हें वर देता हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, ले लो। आज मैं तुम्हारे कहनेसे किस कैद करनेके अयोग्यको कैद कर दूँ अथवा किस कैद करनेयोग्यको मुक्त कर दूँ? किसे धन दे दूँ अथवा किसका सर्वस्व हरण कर लूँ? ब्राह्मणधनके अतिरिक्त यहाँ अथवा अन्यत्र जो कुछ भी मेरे पास धन है, उसपर तुम्हारा अधिकार है॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथिव्यां राजराजोऽस्मि चातुर्वर्ण्यस्य रक्षिता।
यस्तेऽभिलषितः कामो ब्रूहि कल्याणि मा चिरम् ॥ २४ ॥
मूलम्
पृथिव्यां राजराजोऽस्मि चातुर्वर्ण्यस्य रक्षिता।
यस्तेऽभिलषितः कामो ब्रूहि कल्याणि मा चिरम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं इस समय इस भूमण्डलका राजराजेश्वर हूँ चारों वर्णोंकी रक्षा करनेवाला हूँ। कल्याणि! तुम्हारा जो भी अभिलषित मनोरथ हो, उसे बताओ, देर न करो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तद्वचनमाज्ञाय परिगृह्य नराधिपम्।
आत्मनो बलमाज्ञाय तत एनमुवाच ह ॥ २५ ॥
मूलम्
सा तद्वचनमाज्ञाय परिगृह्य नराधिपम्।
आत्मनो बलमाज्ञाय तत एनमुवाच ह ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाकी बातको समझकर और उन्हें सब प्रकारसे वचनबद्ध करके अपनी शक्तिको भी ठीक-ठीक जान लेनेके बाद कैकेयीने उनसे कहा—॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आभिषेचनिकं यत् ते रामार्थमुपकल्पितम्।
भरतस्तदवाप्नोतु वनं गच्छतु राघवः ॥ २६ ॥
मूलम्
आभिषेचनिकं यत् ते रामार्थमुपकल्पितम्।
भरतस्तदवाप्नोतु वनं गच्छतु राघवः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! आपने श्रीरामके लिये जो राज्याभिषेकका सामान तैयार कराया है, वह भरतको प्राप्त हो और राम वनमें चले जायँ’॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तद् राजा वचः श्रुत्वा विप्रियं दारुणोदयम्।
दुःखार्तो भरतश्रेष्ठ न किंचिद् व्याजहार ह ॥ २७ ॥
मूलम्
स तद् राजा वचः श्रुत्वा विप्रियं दारुणोदयम्।
दुःखार्तो भरतश्रेष्ठ न किंचिद् व्याजहार ह ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! कैकेयीका यह अप्रिय एवं भयानक परिणामवाला वचन सुनकर राजा दशरथ दुःखसे आतुर हो अपने मुँहसे कुछ भी बोल न सके॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तथोक्तं पितरं रामो विज्ञाय वीर्यवान्।
वनं प्रतस्थे धर्मात्मा राजा सत्यो भवत्विति ॥ २८ ॥
मूलम्
ततस्तथोक्तं पितरं रामो विज्ञाय वीर्यवान्।
वनं प्रतस्थे धर्मात्मा राजा सत्यो भवत्विति ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजी शक्तिशाली होनेके साथ ही बड़े धर्मात्मा थे। उन्होंने पिताके पूर्वोक्त वरदानकी बात जानकर राजाके सत्यकी रक्षा हो, इस उद्देश्यसे स्वयं ही वनको प्रस्थान किया॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमन्वगच्छल्लक्ष्मीवान् धनुष्माल्ँलक्ष्मणस्तदा ।
सीता च भार्या भद्रं ते वैदेही जनकात्मजा ॥ २९ ॥
मूलम्
तमन्वगच्छल्लक्ष्मीवान् धनुष्माल्ँलक्ष्मणस्तदा ।
सीता च भार्या भद्रं ते वैदेही जनकात्मजा ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तुम्हारा कल्याण हो। श्रीरामचन्द्रजीके वन जाते समय उत्तम शोभासे सम्पन्न उनके भाई बुनर्धर लक्ष्मणने तथा उनकी पत्नी विदेहराजकुमारी जनकनन्दिनी सीताने भी उनका अनुसरण किया॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वनं गते रामे राजा दशरथस्तदा।
समयुज्यत देहस्य कालपर्यायधर्मणा ॥ ३० ॥
मूलम्
ततो वनं गते रामे राजा दशरथस्तदा।
समयुज्यत देहस्य कालपर्यायधर्मणा ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीके वनमें चले जानेपर (उनके वियोगमें) राजा दशरथने शरीर त्याग दिया॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामं तु गतमाज्ञाय राजानं च तथागतम्।
आनाय्य भरतं देवी कैकेयी वाक्यमब्रवीत् ॥ ३१ ॥
मूलम्
रामं तु गतमाज्ञाय राजानं च तथागतम्।
आनाय्य भरतं देवी कैकेयी वाक्यमब्रवीत् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजी वनमें चले गये तथा राजा परलोकवासी हो गये, यह देखकर कैकेयीने भरतको ननिहालसे बुलवाया और इस प्रकार कहा—॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गतो दशरथः स्वर्गं वनस्थौ रामलक्ष्मणौ।
गृहाण राज्यं विपुलं क्षेमं निहतकण्टकम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
गतो दशरथः स्वर्गं वनस्थौ रामलक्ष्मणौ।
गृहाण राज्यं विपुलं क्षेमं निहतकण्टकम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा! तुम्हारे पिता महाराज दशरथ स्वर्गलोकको सिधार गये तथा श्रीराम और लक्ष्मण वनमें निवास करते हैं। अब यह विशाल राज्य सब प्रकारसे सुखद और निष्कण्टक हो गया है। तुम इसे ग्रहण करो’॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामुवाच स धर्मात्मा नृशंसं बत ते कृतम्।
पतिं हत्वा कुलं चेदमुत्साद्य धनलुब्धया ॥ ३३ ॥
अयशः पातयित्वा मे मूर्ध्नि त्वं कुलपांसने।
सकामा भव मे मातरित्युक्त्वा प्ररुरोद ह ॥ ३४ ॥
मूलम्
तामुवाच स धर्मात्मा नृशंसं बत ते कृतम्।
पतिं हत्वा कुलं चेदमुत्साद्य धनलुब्धया ॥ ३३ ॥
अयशः पातयित्वा मे मूर्ध्नि त्वं कुलपांसने।
सकामा भव मे मातरित्युक्त्वा प्ररुरोद ह ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरत बड़े धर्मात्मा थे। वे माताकी बात सुनकर उससे बोले—‘कुलकलंकिनी जननी! तूने धनके लोभमें पड़कर यह कितनी बड़ी क्रूरताका काम किया है? पतिकी हत्या की और इस कुलका विनाश कर डाला। ‘मेरे मस्तकपर कलंकका टीका लगाकर तू अपना मनोरथ पूर्ण कर ले।’ ऐसा कहकर भरत फूट-फूटकर रोने लगे॥३३-३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चारित्रं विशोध्याथ सर्वप्रकृतिसंनिधौ।
अन्वयाद् भ्रातरं रामं विनिवर्तनलालसः ॥ ३५ ॥
मूलम्
स चारित्रं विशोध्याथ सर्वप्रकृतिसंनिधौ।
अन्वयाद् भ्रातरं रामं विनिवर्तनलालसः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने सारी प्रजा और मन्त्रियों आदिके निकट अपनी सफाई दी तथा भाई श्रीरामको वनसे लौटा लानेकी लालसासे उन्हींके पथका अनुसरण किया॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौसल्यां च सुमित्रां च कैकेयीं च सुदुःखितः।
अग्रे प्रस्थाप्य यानैः स शत्रुघ्नसहितो ययौ ॥ ३६ ॥
मूलम्
कौसल्यां च सुमित्रां च कैकेयीं च सुदुःखितः।
अग्रे प्रस्थाप्य यानैः स शत्रुघ्नसहितो ययौ ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे कौसल्या, सुमित्रा तथा कैकेयीको सवारियोंद्वारा आगे भेजकर स्वयं अत्यन्त दुःखी हो शत्रुघ्नके साथ (पैदल ही) वनको चले॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसिष्ठवामदेवाभ्यां विप्रैश्चान्यैः सहस्रशः ।
पौरजानपदैः सार्धं रामानयनकाङ्क्षया ॥ ३७ ॥
मूलम्
वसिष्ठवामदेवाभ्यां विप्रैश्चान्यैः सहस्रशः ।
पौरजानपदैः सार्धं रामानयनकाङ्क्षया ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीको लौटा लानेकी अभिलाषासे उन्होंने वसिष्ठ, वामदेव और दूसरे सहस्रों ब्राह्मणों तथा नगर एवं जनपदके लोगोंको साथ लेकर यात्रा की॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददर्श चित्रकूटस्थं स रामं सहलक्ष्मणम्।
तापसानामलंकारं धारयन्तं धनुर्धरम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
ददर्श चित्रकूटस्थं स रामं सहलक्ष्मणम्।
तापसानामलंकारं धारयन्तं धनुर्धरम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चित्रकूट पहुँचकर भरतने लक्ष्मणसहित श्रीरामको धनुष हाथमें लिये तपस्वीजनोंकी वेष-भूषा धारण किये देखा॥३८॥
मूलम् (वचनम्)
(श्रीराम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ तात प्रजा रक्ष्याः सत्यं रक्षाम्यहं पितुः।)
विसर्जितः स रामेण पितुर्वचनकारिणा।
नन्दिग्रामेऽकरोद् राज्यं पुरस्कृत्यास्य पादुके ॥ ३९ ॥
मूलम्
गच्छ तात प्रजा रक्ष्याः सत्यं रक्षाम्यहं पितुः।)
विसर्जितः स रामेण पितुर्वचनकारिणा।
नन्दिग्रामेऽकरोद् राज्यं पुरस्कृत्यास्य पादुके ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय श्रीरामचन्द्रजीने कहा— तात भरत! अयोध्याको लौट जाओ। तुम्हें प्रजाकी रक्षा करनी चाहिये और मैं पिताके सत्यकी रक्षा कर रहा हूँ, ऐसा कहकर पिताकी आज्ञा पालन करनेवाले श्रीरामचन्द्रजीने (समझा-बुझाकर) उन्हें विदा कर दिया। तब वे (लौटकर) बड़े भाईकी चरणपादुकाओंको आगे रखकर नन्दिग्राममें ठहर गये और वहींसे राज्यकी देख-भाल करने लगे॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामस्तु पुनराशङ्क्य पौरजानपदागमम् ।
प्रविवेश महारण्यं शरभङ्गाश्रमं प्रति ॥ ४० ॥
मूलम्
रामस्तु पुनराशङ्क्य पौरजानपदागमम् ।
प्रविवेश महारण्यं शरभङ्गाश्रमं प्रति ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीने वहाँ नगर और जनपदके लोगोंके बराबर आने-जानेकी आशंकासे शरभंग मुनिके आश्रमके पास विशाल वनमें प्रवेश किया॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्कृत्य शरभङ्गं स दण्डकारण्यमाश्रितः।
नदीं गोदावरीं रम्यामाश्रित्य न्यवसत् तदा ॥ ४१ ॥
मूलम्
सत्कृत्य शरभङ्गं स दण्डकारण्यमाश्रितः।
नदीं गोदावरीं रम्यामाश्रित्य न्यवसत् तदा ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ शरभंग मुनिका सत्कार करके वे दण्डकारण्यमें चले गये और वहाँ सुरम्य गोदावरी नदीके तटका आश्रय लेकर रहने लगे॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसतस्तस्य रामस्य ततः शूर्पणखाकृतम्।
खरेणासीन्महद् वैरं जनस्थाननिवासिना ॥ ४२ ॥
मूलम्
वसतस्तस्य रामस्य ततः शूर्पणखाकृतम्।
खरेणासीन्महद् वैरं जनस्थाननिवासिना ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ रहते समय शूर्पणखाके (नाक, कान और ओंठ काटनेके) कारण श्रीरामचन्द्रजीका जनस्थान-निवासी खर नामक राक्षसके साथ महान् वैर हो गया॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्षार्थं तापसानां तु राघवो धर्मवत्सलः।
चतुर्दश सहस्राणि जघान भुवि रक्षसाम् ॥ ४३ ॥
दूषणं च खरं चैव निहत्य सुमहाबलौ।
चक्रे क्षेमं पुनर्धीमान् धर्मारण्यं स राघवः ॥ ४४ ॥
मूलम्
रक्षार्थं तापसानां तु राघवो धर्मवत्सलः।
चतुर्दश सहस्राणि जघान भुवि रक्षसाम् ॥ ४३ ॥
दूषणं च खरं चैव निहत्य सुमहाबलौ।
चक्रे क्षेमं पुनर्धीमान् धर्मारण्यं स राघवः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मवत्सल श्रीरामचन्द्रजीने तपस्वी मुनियोंकी रक्षाके लिये महाबली खर और दूषणको मारकर वहाँके चौदह हजार राक्षसोंका संहार कर डाला तथा उन बुद्धिमान् रघुनाथजीने पुनः उस वनको क्षेमकारक धर्मारण्य बना दिया॥४३-४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतेषु तेषु रक्षःसु ततः शूर्पणखा पुनः।
ययौ निकृत्तनासोष्ठी लङ्कां भ्रातुर्निवेशनम् ॥ ४५ ॥
मूलम्
हतेषु तेषु रक्षःसु ततः शूर्पणखा पुनः।
ययौ निकृत्तनासोष्ठी लङ्कां भ्रातुर्निवेशनम् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन राक्षसोंके मारे जानेपर शूर्पणखा, जिसकी नाक और ओंठ काट लिये गये थे, पुनः लंकामें अपने भाई रावणके घर गयी॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रावणमभ्येत्य राक्षसी दुःखमूर्च्छिता।
पपात पादयोर्भ्रातुः संशुष्करुधिरानना ॥ ४६ ॥
मूलम्
ततो रावणमभ्येत्य राक्षसी दुःखमूर्च्छिता।
पपात पादयोर्भ्रातुः संशुष्करुधिरानना ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणके पास पहुँचकर वह राक्षसी दुःखसे मूर्च्छित हो भाईके चरणोंमें गिर पड़ी। उसके मुखपर रक्त बहकर सूख गया था॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां तथा विकृतां दृष्ट्वा रावणः क्रोधमूर्च्छितः।
उत्पपातासनात् क्रुद्धो दन्तैर्दन्तानुपस्पृशन् ॥ ४७ ॥
मूलम्
तां तथा विकृतां दृष्ट्वा रावणः क्रोधमूर्च्छितः।
उत्पपातासनात् क्रुद्धो दन्तैर्दन्तानुपस्पृशन् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहिनका रूप इस प्रकार विकृत हुआ देखकर रावण क्रोधसे मूर्च्छित हो उठा और दाँतोंसे दाँत पीसता हुआ रोषपूर्वक आसनसे उठकर खड़ा हो गया॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वानमात्यान् विसृज्याथ विविक्ते तामुवाच सः।
केनास्येवं कृता भद्रे मामचिन्त्यावमन्य च ॥ ४८ ॥
मूलम्
स्वानमात्यान् विसृज्याथ विविक्ते तामुवाच सः।
केनास्येवं कृता भद्रे मामचिन्त्यावमन्य च ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने मन्त्रियोंको विदा करके उसने एकान्तमें शूर्पणखासे पूछा—‘भद्रे! किसने मेरी परवा न करके—मेरी सर्वथा अवहेलना करके तुम्हारी ऐसी दुर्दशा की है?॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कः शूलं तीक्ष्णमासाद्य सर्वगात्रैर्निषेवते।
कः शिरस्यग्निमाधाय विश्वस्तः स्वपते सुखम् ॥ ४९ ॥
मूलम्
कः शूलं तीक्ष्णमासाद्य सर्वगात्रैर्निषेवते।
कः शिरस्यग्निमाधाय विश्वस्तः स्वपते सुखम् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कौन तीखे शूलके पास जाकर उसे अपने सारे अंगोंमें चुभोना चाहता है? कौन मूर्ख अपने सिरपर आग रखकर बेखटके सुखकी नींद सो रहा है?॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आशीविषं घोरतरं पादेन स्पृशतीह कः।
सिंहं केसरिणं कश्च दंष्ट्रायां स्पृश्य तिष्ठति ॥ ५० ॥
मूलम्
आशीविषं घोरतरं पादेन स्पृशतीह कः।
सिंहं केसरिणं कश्च दंष्ट्रायां स्पृश्य तिष्ठति ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कौन अत्यन्त भयंकर विषधर सर्पको पैरसे कुचल रहा है? तथा कौन केसरी सिंहकी दाढ़ोंमें हाथ डालकर निश्चिन्त खड़ा है?’॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवं ब्रुवतस्तस्य स्रोतोभ्यस्तेजसोऽर्चिषः ।
निश्चेरुर्दह्यतो रात्रौ वृक्षस्येव स्वरन्ध्रतः ॥ ५१ ॥
मूलम्
इत्येवं ब्रुवतस्तस्य स्रोतोभ्यस्तेजसोऽर्चिषः ।
निश्चेरुर्दह्यतो रात्रौ वृक्षस्येव स्वरन्ध्रतः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार बोलते हुए रावणके कान, नाक एवं आँख आदि छिद्रोंसे उसी प्रकार आगकी चिनगारियाँ निकलने लगीं, जिस प्रकार रातको जलते हुए वृक्षके छेदोंसे आगकी लपटें निकलती हैं॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तत् सर्वमाचख्यौ भगिनी रामविक्रमम्।
खरदूषणसंयुक्तं राक्षसानां पराभवम् ॥ ५२ ॥
मूलम्
तस्य तत् सर्वमाचख्यौ भगिनी रामविक्रमम्।
खरदूषणसंयुक्तं राक्षसानां पराभवम् ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब रावणकी बहिन शूर्पणखाने श्रीरामके उस पराक्रम और खर-दूषणसहित समस्त राक्षसोंके संहारका (सारा) वृत्तान्त कह सुनाया॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स निश्चित्य ततः कृत्यं स्वसारमुपसान्त्व्य च।
ऊर्ध्वमाचक्रमे राजा विधाय नगरे विधिम् ॥ ५३ ॥
मूलम्
स निश्चित्य ततः कृत्यं स्वसारमुपसान्त्व्य च।
ऊर्ध्वमाचक्रमे राजा विधाय नगरे विधिम् ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर रावणने अपने कर्तव्यका निश्चय किया और अपनी बहिनको सान्त्वना देकर नगर आदिकी रक्षाका प्रबन्ध करके वह आकाशमार्गसे उड़ चला॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिकूटं समतिक्रम्य कालपर्वतमेव च।
ददर्श मकरावासं गम्भीरोदं महोदधिम् ॥ ५४ ॥
मूलम्
त्रिकूटं समतिक्रम्य कालपर्वतमेव च।
ददर्श मकरावासं गम्भीरोदं महोदधिम् ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
त्रिकूट और कालपर्वतको लाँघकर उसने मगरोंके निवासस्थान गहरे महासागरको देखा॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमतीत्याथ गोकर्णमभ्यगच्छद् दशाननः ।
दयितं स्थानमव्यग्रं शूलपाणेर्महात्मनः ॥ ५५ ॥
मूलम्
तमतीत्याथ गोकर्णमभ्यगच्छद् दशाननः ।
दयितं स्थानमव्यग्रं शूलपाणेर्महात्मनः ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे ऊपर-ही-ऊपर लाँघकर दशमुख रावण गोकर्णतीर्थमें गया, जो परमात्मा शूलपाणि शिवका प्रिय एवं अविचल स्थान है॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राभ्यगच्छन्मारीचं पूर्वामात्यं दशाननः ।
पुरा रामभयादेव तापस्यं समुपाश्रितम् ॥ ५६ ॥
मूलम्
तत्राभ्यगच्छन्मारीचं पूर्वामात्यं दशाननः ।
पुरा रामभयादेव तापस्यं समुपाश्रितम् ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ रावण अपने भूतपूर्व मन्त्री मारीचसे मिला, जो श्रीरामचन्द्रजीके भयसे ही पहलेसे उस स्थानमें आकर तपस्या करता था॥५६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि रामोपाख्यानपर्वणि रामवनाभिगमने सप्तसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २७७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत रामोपाख्यानपर्वमें श्रीरामवनगमनविषयक दो सौ सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२७७॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ५६ श्लोक हैं)