२७५ रावणादिवरप्राप्तौ

भागसूचना

पञ्चसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखाकी उत्पत्ति, तपस्या और वरप्राप्ति तथा कुबेरका रावणको शाप देना

मूलम् (वचनम्)

मार्कण्डेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुलस्त्यस्य तु यः क्रोधादर्धदेहोऽभवन्मुनिः।
विश्रवा नाम सक्रोधः स वैश्रवणमैक्षत ॥ १ ॥

मूलम्

पुलस्त्यस्य तु यः क्रोधादर्धदेहोऽभवन्मुनिः।
विश्रवा नाम सक्रोधः स वैश्रवणमैक्षत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्कण्डेयजी कहते हैं— राजन्! पुलस्त्यके क्रोधसे उनके आधे शरीरसे जो ‘विश्रवा’ नामक मुनि प्रकट हुए थे, वे कुबेरको कुपित दृष्टिसे देखने लगे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुबुधे तं तु सक्रोधं पितरं राक्षसेश्वरः।
कुबेरस्तत्प्रसादार्थं यतते स्म सदा नृप ॥ २ ॥

मूलम्

बुबुधे तं तु सक्रोधं पितरं राक्षसेश्वरः।
कुबेरस्तत्प्रसादार्थं यतते स्म सदा नृप ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! राक्षसोंके स्वामी कुबेरको जब यह बात मालूम हो गयी कि मेरे पिता मुझपर रुष्ट रहते हैं, तब वे उन्हें प्रसन्न रखनेका यत्न करने लगे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राजराजो लङ्कायां न्यवसन्नरवाहनः।
राक्षसीः प्रददौ तिस्रः पितुर्वै परिचारिकाः ॥ ३ ॥

मूलम्

स राजराजो लङ्कायां न्यवसन्नरवाहनः।
राक्षसीः प्रददौ तिस्रः पितुर्वै परिचारिकाः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजराज कुबेर स्वयं लंकामें ही रहते थे। वे मनुष्योंद्वारा ढोई जानेवाली पालकी आदिकी सवारीपर चलते थे, इसलिये नरवाहन कहलाते थे। उन्होंने अपने पिता विश्रवाकी सेवाके लिये तीन राक्षसकन्याओंको परिचारिकाओंके रूपमें नियुक्त कर दिया था॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताः सदा तं महात्मानं संतोषयितुमुद्यताः।
ऋषिं भरतशार्दूल नृत्यगीतविशारदाः ॥ ४ ॥

मूलम्

ताः सदा तं महात्मानं संतोषयितुमुद्यताः।
ऋषिं भरतशार्दूल नृत्यगीतविशारदाः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! वे तीनों ही नाचने और गानेकी कलामें निपुण थीं तथा सदा ही उन महात्मा महर्षिको संतुष्ट रखनेके लिये सचेष्ट रहती थीं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्पोत्कटा च राका च मालिनी च विशाम्पते।
अन्योन्यस्पर्धया राजन् श्रेयस्कामाः सुमध्यमाः ॥ ५ ॥

मूलम्

पुष्पोत्कटा च राका च मालिनी च विशाम्पते।
अन्योन्यस्पर्धया राजन् श्रेयस्कामाः सुमध्यमाः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उनके नाम थे—पुष्पोत्कटा, राका तथा मालिनी। वे तीनों सुन्दरियाँ अपना भला चाहती थीं। इसलिये एक-दूसरीसे स्पर्धा रखकर मुनिकी सेवा करती थीं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तासां भगवांस्तुष्टो महात्मा प्रददौ वरान्।
लोकपालोपमान् पुत्रानेकैकस्या यथेप्सितान् ॥ ६ ॥

मूलम्

स तासां भगवांस्तुष्टो महात्मा प्रददौ वरान्।
लोकपालोपमान् पुत्रानेकैकस्या यथेप्सितान् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे ऐश्वर्यशाली महात्मा उनकी सेवाओंसे प्रसन्न हो गये और उनमेंसे प्रत्येकको उनकी इच्छाके अनुसार लोकपालोंके समान पराक्रमी पुत्र होनेका वरदान दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्पोत्कटायां जज्ञाते द्वौ पुत्रौ राक्षसेश्वरौ।
कुम्भकर्णदशग्रीवौ बलेनाप्रतिमौ भुवि ॥ ७ ॥

मूलम्

पुष्पोत्कटायां जज्ञाते द्वौ पुत्रौ राक्षसेश्वरौ।
कुम्भकर्णदशग्रीवौ बलेनाप्रतिमौ भुवि ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुष्पोत्कटाके दो पुत्र हुए—रावण और कुम्भकर्ण। ये दोनों ही राक्षसोंके अधिपति थे। भूमण्डलमें इनके समान बलवान् दूसरा कोई नहीं था॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मालिनी जनयामास पुत्रमेकं विभीषणम्।
राकायां मिथुनं जज्ञे खरः शूर्पणखा तथा ॥ ८ ॥

मूलम्

मालिनी जनयामास पुत्रमेकं विभीषणम्।
राकायां मिथुनं जज्ञे खरः शूर्पणखा तथा ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मालिनीने एक ही पुत्र विभीषणको जन्म दिया। राकाके गर्भसे एक पुत्र और एक पुत्री हुई। पुत्रका नाम खर था और पुत्रीका शूर्पणखा॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विभीषणस्तु रूपेण सर्वेभ्योऽभ्यधिकोऽभवत् ।
स बभूव महाभागो धर्मगोप्ता क्रियारतिः ॥ ९ ॥

मूलम्

विभीषणस्तु रूपेण सर्वेभ्योऽभ्यधिकोऽभवत् ।
स बभूव महाभागो धर्मगोप्ता क्रियारतिः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन सब बालकोंमें विभीषण ही सबसे अधिक रूपवान्, सौभाग्यशाली, धर्मरक्षक तथा कर्तव्यपरायण थे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशग्रीवस्तु सर्वेषां श्रेष्ठो राक्षसपुङ्गवः।
महोत्साहो महावीर्यो महासत्त्वपराक्रमः ॥ १० ॥

मूलम्

दशग्रीवस्तु सर्वेषां श्रेष्ठो राक्षसपुङ्गवः।
महोत्साहो महावीर्यो महासत्त्वपराक्रमः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणके दस मस्तक थे। वही सबमें ज्येष्ठ तथा राक्षसोंका स्वामी था। उत्साह, बल, धैर्य और पराक्रममें भी वह महान् था॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुम्भकर्णो बलेनासीत् सर्वेभ्योऽभ्यधिको युधि।
मायावी रणशौण्डश्च रौद्रश्च रजनीचरः ॥ ११ ॥

मूलम्

कुम्भकर्णो बलेनासीत् सर्वेभ्योऽभ्यधिको युधि।
मायावी रणशौण्डश्च रौद्रश्च रजनीचरः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुम्भकर्ण शारीरिक बलमें सबसे बढ़ा-चढ़ा था। युद्धमें भी वह सबसे बढ़कर था। मायावी और रणकुशल तो था ही, वह निशाचर बड़ा भयंकर भी था॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

खरो धनुषि विक्रान्तो ब्रह्मद्विट् पिशिताशनः।
सिद्धविघ्नकरी चापि रौद्री शूर्पणखा तथा ॥ १२ ॥

मूलम्

खरो धनुषि विक्रान्तो ब्रह्मद्विट् पिशिताशनः।
सिद्धविघ्नकरी चापि रौद्री शूर्पणखा तथा ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

खर धनुर्विद्यामें विशेष पराक्रमी था। वह ब्राह्मणोंसे द्वेष रखनेवाला तथा मांसाहारी था। शूर्पणखाकी आकृति बड़ी भयानक थी। वह सिद्ध ऋषि-मुनियोंकी तपस्यामें विघ्न डाला करती थी॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे वेदविदः शूराः सर्वे सुचरितव्रताः।
ऊषुः पित्रा सह रता गन्धमादनपर्वते ॥ १३ ॥

मूलम्

सर्वे वेदविदः शूराः सर्वे सुचरितव्रताः।
ऊषुः पित्रा सह रता गन्धमादनपर्वते ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सभी बालक वेदवेत्ता, शूरवीर तथा ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करनेवाले थे और अपने पिताके साथ गन्धमादन पर्वतपर सुखपूर्वक रहते थे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वैश्रवणं तत्र ददृशुर्नरवाहनम्।
पित्रा सार्धं समासीनमृद्ध्या परमया युतम् ॥ १४ ॥

मूलम्

ततो वैश्रवणं तत्र ददृशुर्नरवाहनम्।
पित्रा सार्धं समासीनमृद्ध्या परमया युतम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन नरवाहन कुबेर अपने महान् ऐश्वर्यसे युक्त होकर पिताके साथ बैठे थे। उसी अवस्थामें रावण आदिने उनको देखा॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जातामर्षास्ततस्ते तु तपसे धृतनिश्चयाः।
ब्रह्माणं तोषयामासुर्घोरेण तपसा तदा ॥ १५ ॥

मूलम्

जातामर्षास्ततस्ते तु तपसे धृतनिश्चयाः।
ब्रह्माणं तोषयामासुर्घोरेण तपसा तदा ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका वैभव देखकर इन बालकोंके हृदयमें डाह पैदा हो गयी। अतः उन्होंने मन-ही-मन तपस्या करनेका निश्चय किया और घोर तपस्याके द्वारा उन्होंने ब्रह्माजीको संतुष्ट कर लिया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिष्ठदेकपादेन सहस्रं परिवत्सरान् ।
वायुभक्षो दशग्रीवः पञ्चाग्निः सुसमाहितः ॥ १६ ॥

मूलम्

अतिष्ठदेकपादेन सहस्रं परिवत्सरान् ।
वायुभक्षो दशग्रीवः पञ्चाग्निः सुसमाहितः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावण सहस्रों वर्षोंतक एक पैरसे खड़ा रहा। वह चित्तको एकाग्र रखकर पंचाग्निसेवन करता और वायु पीकर रहता था॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधःशायी कुम्भकर्णो यताहारो यतव्रतः।
विभीषणः शीर्णपर्णमेकमभ्यवहारयन् ॥ १७ ॥

मूलम्

अधःशायी कुम्भकर्णो यताहारो यतव्रतः।
विभीषणः शीर्णपर्णमेकमभ्यवहारयन् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुम्भकर्णने भी आहारका संयम किया। वह भूमिपर सोता और कठोर नियमोंका पालन करता था। विभीषण केवल एक सूखा पत्ता खाकर रहते थे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपवासरतिर्धीमान् सदा जप्यपरायणः ।
तमेव कालमातिष्ठत् तीव्रं तप उदारधीः ॥ १८ ॥

मूलम्

उपवासरतिर्धीमान् सदा जप्यपरायणः ।
तमेव कालमातिष्ठत् तीव्रं तप उदारधीः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका भी उपवासमें ही प्रेम था। बुद्धिमान् एवं उदारबुद्धि विभीषण सदा जप किया करते थे। उन्होंने भी उतने समयतक तीव्र तपस्या की॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

खरः शूर्पणखा चैव तेषां वै तप्यतां तपः।
परिचर्यां च रक्षां च चक्रतुर्हृष्टमानसौ ॥ १९ ॥

मूलम्

खरः शूर्पणखा चैव तेषां वै तप्यतां तपः।
परिचर्यां च रक्षां च चक्रतुर्हृष्टमानसौ ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

खर और शूर्पणखा ये दोनों प्रसन्नमनसे तपस्यामें लगे हुए अपने भाइयोंकी परिचर्या तथा रक्षा करते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्णे वर्षसहस्रे तु शिरश्छित्त्वा दशाननः।
जुहोत्यग्नौ दुराधर्षस्तेनातुष्यज्जगत्प्रभुः ॥ २० ॥

मूलम्

पूर्णे वर्षसहस्रे तु शिरश्छित्त्वा दशाननः।
जुहोत्यग्नौ दुराधर्षस्तेनातुष्यज्जगत्प्रभुः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक हजार वर्ष पूर्ण होनेपर दुर्धर्ष दशाननने अपना मस्तक काटकर अग्निमें उसकी आहुति दे दी। उसके इस अद्‌भुत कर्मसे लोकेश्वर ब्रह्माजी बहुत संतुष्ट हुए॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो ब्रह्मा स्वयं गत्वा तपसस्तान् न्यवारयत्।
प्रलोभ्य वरदानेन सर्वानेव पृथक् पृथक् ॥ २१ ॥

मूलम्

ततो ब्रह्मा स्वयं गत्वा तपसस्तान् न्यवारयत्।
प्रलोभ्य वरदानेन सर्वानेव पृथक् पृथक् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर ब्रह्माजीने स्वयं जाकर उन सबको तपस्या करनेसे रोका और प्रत्येकको पृथक्-पृथक् वरदानका लोभ देते हुए कहा—॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीतोऽस्मि वो निवर्तध्वं वरान् वृणुत पुत्रकाः।
यद् यदिष्टमृते त्वेकममरत्वं तथास्तु तत् ॥ २२ ॥

मूलम्

प्रीतोऽस्मि वो निवर्तध्वं वरान् वृणुत पुत्रकाः।
यद् यदिष्टमृते त्वेकममरत्वं तथास्तु तत् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजी बोले— पुत्रो! मैं तुम सबपर प्रसन्न हूँ, वर माँगो और तपस्यासे निवृत्त हो जाओ। केवल अमरत्वको छोड़कर जिसकी जो-जो इच्छा हो, उसके अनुसार वह वर माँगे। उसका वह मनोरथ पूर्ण होगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् यदग्नौ हुतं सर्वं शिरस्ते महदीप्सया।
तथैव तानि ते देहे भविष्यन्ति यथेप्सया ॥ २३ ॥

मूलम्

यद् यदग्नौ हुतं सर्वं शिरस्ते महदीप्सया।
तथैव तानि ते देहे भविष्यन्ति यथेप्सया ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(तत्पश्चात् उन्होंने रावणकी ओर लक्ष्य करके कहा—) तुमने महत्त्वपूर्ण पद प्राप्त करनेकी इच्छासे अपने जिन-जिन मस्तकोंकी अग्निमें आहुति दी है, वे सब-के-सब पूर्ववत् तुम्हारे शरीरमें इच्छानुसार जुड़ जायँगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैरूप्यं च न ते देहे कामरूपधरस्तथा।
भविष्यसि रणेऽरीणां विजेता न च संशयः ॥ २४ ॥

मूलम्

वैरूप्यं च न ते देहे कामरूपधरस्तथा।
भविष्यसि रणेऽरीणां विजेता न च संशयः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारे शरीरमें किसी प्रकारकी कुरूपता नहीं होगी, तुम इच्छानुसार रूप धारण कर सकोगे तथा युद्धमें शत्रुओंपर विजयी होओगे, इसमें संशय नहीं है॥२४॥

मूलम् (वचनम्)

‌रावण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

‌गन्धर्वदेवासुरतो यक्षराक्षसतस्तथा ।
सर्पकिन्नरभूतेभ्यो न मे भूयात् पराभवः ॥ २५ ॥

मूलम्

‌गन्धर्वदेवासुरतो यक्षराक्षसतस्तथा ।
सर्पकिन्नरभूतेभ्यो न मे भूयात् पराभवः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावण बोला— भगवन्! गन्धर्व, देवता, असुर, यक्ष, राक्षस, सर्प, किन्नर तथा भूतोंसे कभी मेरी पराजय न हो॥२५॥

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एते कीर्तिताः सर्वे न तेभ्योऽस्ति भयं तव।
ऋते मनुष्याद् भद्रं ते तथा तद् विहितं मया॥२६॥

मूलम्

य एते कीर्तिताः सर्वे न तेभ्योऽस्ति भयं तव।
ऋते मनुष्याद् भद्रं ते तथा तद् विहितं मया॥२६॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने कहा— तुमने जिन लोगोंका नाम लिया है, इनमेंसे किसीसे भी तुम्हें भय नहीं होगा। केवल मनुष्यको छोड़कर तुम सबसे निर्भय रहो। तुम्हारा भला हो। तुम्हारे लिये मनुष्यसे होनेवाले भयका विधान मैंने ही किया है॥२६॥

मूलम् (वचनम्)

मार्कण्डेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तो दशग्रीवस्तुष्टः समभवत् तदा।
अवमेने हि दुर्बुद्धिर्मनुष्यान् पुरुषादकः ॥ २७ ॥

मूलम्

एवमुक्तो दशग्रीवस्तुष्टः समभवत् तदा।
अवमेने हि दुर्बुद्धिर्मनुष्यान् पुरुषादकः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्कण्डेयजी कहते हैं— राजन्! ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर दसमुख रावण बहुत प्रसन्न हुआ। वह दुर्बुद्धि नरभक्षी राक्षस मनुष्योंकी अवहेलना करता था॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुम्भकर्णमथोवाच तथैव प्रपितामहः ।
स वव्रे महतीं निद्रां तमसा ग्रस्तचेतनः ॥ २८ ॥

मूलम्

कुम्भकर्णमथोवाच तथैव प्रपितामहः ।
स वव्रे महतीं निद्रां तमसा ग्रस्तचेतनः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् ब्रह्माजीने कुम्भकर्णसे वर माँगनेको कहा। परंतु उसकी बुद्धि तमोगुणसे ग्रस्त थी; अतः उसने अधिक कालतक नींद लेनेका वर माँगा॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा भविष्यतीत्युक्त्वा विभीषणमुवाच ह।
वरं वृष्णीष्व पुत्र त्वं प्रीतोऽस्मीति पुनः पुनः ॥ २९ ॥

मूलम्

तथा भविष्यतीत्युक्त्वा विभीषणमुवाच ह।
वरं वृष्णीष्व पुत्र त्वं प्रीतोऽस्मीति पुनः पुनः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे ‘ऐसा ही होगा’ यों कहकर ब्रह्माजी विभीषणके पास गये और इस प्रकार बोले—‘बेटा! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ, अतः तुम भी वर माँगो।’ ब्रह्माजीने यह बात बार-बार दुहरायी॥२९॥

मूलम् (वचनम्)

विभीषण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

परमापद्‌गतस्यापि नाधर्मे मे मतिर्भवेत्।
अशिक्षितं च भगवन् ब्रह्मास्त्रं प्रतिभातु मे ॥ ३० ॥

मूलम्

परमापद्‌गतस्यापि नाधर्मे मे मतिर्भवेत्।
अशिक्षितं च भगवन् ब्रह्मास्त्रं प्रतिभातु मे ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विभीषण बोले— भगवन्! बहुत बड़ा संकट आनेपर भी मेरे मनमें कभी पापका विचार न उठे तथा बिना सीखे ही मेरे हृदयमें ब्रह्मास्त्रके प्रयोग और उपसंहारकी विधि स्फुरित हो जाय॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्माद् राक्षसयोनौ ते जातस्यामित्रकर्शन।
नाधर्मे धीयते बुद्धिरमरत्वं ददानि ते ॥ ३१ ॥

मूलम्

यस्माद् राक्षसयोनौ ते जातस्यामित्रकर्शन।
नाधर्मे धीयते बुद्धिरमरत्वं ददानि ते ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने कहा— शत्रुनाशन! राक्षसयोनिमें जन्म लेकर भी तुम्हारी बुद्धि अधर्ममें नहीं लगती; इसलिये (तुम्हारे माँगे हुए वरके अतिरिक्त) मैं तुम्हें अमरत्व भी देता हूँ॥३१॥

मूलम् (वचनम्)

मार्कण्डेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राक्षसस्तु वरं लब्ध्वा दशग्रीवो विशाम्पते।
लङ्कायाश्च्यावयामास युधि जित्वा धनेश्वरम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

राक्षसस्तु वरं लब्ध्वा दशग्रीवो विशाम्पते।
लङ्कायाश्च्यावयामास युधि जित्वा धनेश्वरम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्कण्डेयजी कहते हैं— राजन्! राक्षस दशाननने वर प्राप्त कर लेनेपर सबसे पहले अपने भाई कुबेरको युद्धमें परास्त किया और उन्हें लंकाके राज्यसे बहिष्कृत कर दिया॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हित्वा स भगवाल्ँलङ्कामाविशद् गन्धमादनम्।
गन्धर्वयक्षानुगतो रक्षःकिम्पुरुषैः सह ॥ ३३ ॥

मूलम्

हित्वा स भगवाल्ँलङ्कामाविशद् गन्धमादनम्।
गन्धर्वयक्षानुगतो रक्षःकिम्पुरुषैः सह ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् कुबेर लंका छोड़कर गन्धर्व, यक्ष, राक्षस तथा किम्पुरुषोंके साथ गन्धमादन पर्वतपर आकर रहने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमानं पुष्पकं तस्य जहाराक्रम्य रावणः।
शशाप तं वैश्रवणो न त्वामेतद् वहिष्यति ॥ ३४ ॥
यस्तु त्वां समरे हन्ता तमेवैतद् वहिष्यति।
अवमन्य गुरुं मां च क्षिप्रं त्वं न भविष्यसि॥३५॥

मूलम्

विमानं पुष्पकं तस्य जहाराक्रम्य रावणः।
शशाप तं वैश्रवणो न त्वामेतद् वहिष्यति ॥ ३४ ॥
यस्तु त्वां समरे हन्ता तमेवैतद् वहिष्यति।
अवमन्य गुरुं मां च क्षिप्रं त्वं न भविष्यसि॥३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणने आक्रमण करके उनका पुष्पक विमान भी छीन लिया। तब कुबेरने कुपित होकर उसे शाप दिया—‘अरे! यह विमान तेरी सवारीमें नहीं आ सकेगा। जो युद्धमें तुझे मार डालेगा, उसीका यह वाहन होगा। मैं तेरा बड़ा भाई होनेके कारण मान्य था, परंतु तूने मेरा अपमान किया है। इससे बहुत शीघ्र तेरा नाश हो जायगा’॥३४-३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विभीषणस्तु धर्मात्मा सतां मार्गमनुस्मरन्।
अन्वगच्छन्महाराज श्रिया परमया युतः ॥ ३६ ॥

मूलम्

विभीषणस्तु धर्मात्मा सतां मार्गमनुस्मरन्।
अन्वगच्छन्महाराज श्रिया परमया युतः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! विभीषण धर्मात्मा थे। उन्होंने सत्पुरुषोंके मार्गका ध्यान रखकर सदा अपने भाई कुबेरका अनुसरण किया; अतः वे उत्तम लक्ष्मीसे सम्पन्न हुए॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मै स भगवांस्तुष्टो भ्राता भ्रात्रे धनेश्वरः।
सैनापत्यं ददौ धीमान् यक्षराक्षससेनयोः ॥ ३७ ॥

मूलम्

तस्मै स भगवांस्तुष्टो भ्राता भ्रात्रे धनेश्वरः।
सैनापत्यं ददौ धीमान् यक्षराक्षससेनयोः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े भाई बुद्धिमान् भगवान् कुबेरने संतुष्ट होकर छोटे भाई विभीषणको यक्ष तथा राक्षसोंकी सेनाका सेनापति बना दिया॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राक्षसाः पुरुषादाश्च पिशाचाश्च महाबलाः।
सर्वे समेत्य राजानमभ्यषिञ्चन् दशाननम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

राक्षसाः पुरुषादाश्च पिशाचाश्च महाबलाः।
सर्वे समेत्य राजानमभ्यषिञ्चन् दशाननम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरभक्षी राक्षस तथा महाबली पिशाच—सबने मिलकर दशमुख रावणको राक्षसराजके पदपर अभिषिक्त किया॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशग्रीवश्च दैत्यानां देवानां च बलोत्कटः।
आक्रम्य रत्नान्यहरत् कामरूपी विहङ्गमः ॥ ३९ ॥

मूलम्

दशग्रीवश्च दैत्यानां देवानां च बलोत्कटः।
आक्रम्य रत्नान्यहरत् कामरूपी विहङ्गमः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलोन्मत्त रावण इच्छानुसार रूप धारण करने और आकाशमें भी चलनेमें समर्थ था। उसने दैत्यों और देवताओंपर आक्रमण करके उनके पास जो रत्न या रत्नभूत वस्तुएँ थीं, उन सबका अपहरण कर लिया॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावयामास लोकान् यत् तस्माद्‌रावण उच्यते।
दशग्रीवः कामबलो देवानां भयमादधत् ॥ ४० ॥

मूलम्

रावयामास लोकान् यत् तस्माद्‌रावण उच्यते।
दशग्रीवः कामबलो देवानां भयमादधत् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने सम्पूर्ण लोकोंको रुला दिया था; इसलिये वह रावण कहलाता है। दशाननका बल उसके इच्छानुसार बढ़ जाता था; अतः वह सदा देवताओंको भयभीत किये रहता था॥४०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि रामोपाख्यानपर्वणि रावणादिवरप्राप्तौ पञ्चसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २७५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत रामोपाख्यानपर्वमें रावण आदिको वरप्राप्तिविषयक दो सौ पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२७५॥