२७३ युधिष्ठिरप्रश्ने

भागसूचना

(रामोपाख्यानपर्व)
त्रिसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अपनी दुरवस्थासे दुःखी हुए युधिष्ठिरका मार्कण्डेय मुनिसे प्रश्न करना

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं हृतायां कृष्णायां प्राप्य क्लेशमनुत्तमम्।
अत ऊर्ध्वं नरव्याघ्राः किमकुर्वत पाण्डवाः ॥ १ ॥

मूलम्

एवं हृतायां कृष्णायां प्राप्य क्लेशमनुत्तमम्।
अत ऊर्ध्वं नरव्याघ्राः किमकुर्वत पाण्डवाः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजयने पूछा— इस प्रकार द्रौपदीका अपहरण होनेपर महान् क्लेश उठानेके पश्चात् मनुष्योंमें सिंहके समान पराक्रमी पाण्डवोंने कौन-सा कार्य किया?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं कृष्णां मोक्षयित्वा विनिर्जित्य जयद्रथम्।
आसांचक्रे मुनिगणैर्धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ २ ॥

मूलम्

एवं कृष्णां मोक्षयित्वा विनिर्जित्य जयद्रथम्।
आसांचक्रे मुनिगणैर्धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी बोले— जनमेजय! इस प्रकार जयद्रथको जीतकर द्रौपदीको छुड़ा लेनेके पश्चात् धर्मराज युधिष्ठिर मुनिमण्डलीके साथ बैठे हुए थे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां मध्ये महर्षीणां शृण्वतामनुशोचताम्।
मार्कण्डेयमिदं वाक्यमब्रवीत् पाण्डुनन्दनः ॥ ३ ॥

मूलम्

तेषां मध्ये महर्षीणां शृण्वतामनुशोचताम्।
मार्कण्डेयमिदं वाक्यमब्रवीत् पाण्डुनन्दनः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षिलोग भी पाण्डवोंपर आये हुए संकटको सुनते और उसके लिये बारंबार शोक प्रकट करते थे। उन्हींमेंसे मार्कण्डेयजीको लक्ष्य करके पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरने इस प्रकार कहा॥३॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् देवर्षीणां त्वं ख्यातो भूतभविष्यवित्।
संशयं परिपृच्छामि छिन्धि मे हृदि संस्थितम् ॥ ४ ॥

मूलम्

भगवन् देवर्षीणां त्वं ख्यातो भूतभविष्यवित्।
संशयं परिपृच्छामि छिन्धि मे हृदि संस्थितम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— भगवन्! आप भूत, भविष्य और वर्तमान—तीनों कालोंके ज्ञाता हैं। देवर्षियोंमें भी आपका नाम विख्यात है। अतः आपसे मैं अपने हृदयका एक संदेह पूछता हूँ, उसका निवारण कीजिये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रुपदस्य सुता ह्येषा वेदिमध्यात् समुत्थिता।
अयोनिजा महाभागा स्नुषा पाण्डोर्महात्मनः ॥ ५ ॥

मूलम्

द्रुपदस्य सुता ह्येषा वेदिमध्यात् समुत्थिता।
अयोनिजा महाभागा स्नुषा पाण्डोर्महात्मनः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह परम सौभाग्यशालिनी द्रुपदकुमारी यज्ञकी वेदीसे प्रकट हुई है; अतः अयोनिजा है (इसे गर्भवासका कष्ट नहीं सहन करना पड़ा है)। इसे महात्मा पाण्डुकी पुत्रवधू होनेका गौरव भी मिला है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्ये कालश्च भगवान् दैवं च विधिनिर्मितम्।
भवितव्यं च भूतानां यस्य नास्ति व्यतिक्रमः ॥ ६ ॥

मूलम्

मन्ये कालश्च भगवान् दैवं च विधिनिर्मितम्।
भवितव्यं च भूतानां यस्य नास्ति व्यतिक्रमः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी समझमें भगवान् काल, विधिनिर्मित दैव और समस्त प्राणियोंकी भवितव्यता अर्थात् उनके लिये होनेवाली घटना—ये तीनों ही प्रबल हैं; इनको कोई टाल नहीं सकता॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमां हि पत्नीमस्माकं धर्मज्ञां धर्मचारिणीम्।
संस्पृशेदीदृशो भावः शुचिं स्तैन्यमिवानृतम् ॥ ७ ॥

मूलम्

इमां हि पत्नीमस्माकं धर्मज्ञां धर्मचारिणीम्।
संस्पृशेदीदृशो भावः शुचिं स्तैन्यमिवानृतम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्यथा हमारी इस पत्नीको, जो धर्मको जाननेवाली तथा धर्मके पालनमें तत्पर रहनेवाली है, ऐसा भाव (अपहृत होनेका लांछन) कैसे स्पर्श कर सकता था? यह तो ठीक वैसा ही है, जैसे किसी शुद्ध आचार-विचारवाले मनुष्यपर झूठे ही चोरीका कलंक लग जाय॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि पापं कृतं किंचित् कर्म वा निन्दितं क्वचित्।
द्रौपद्या ब्राह्मणेष्वेव धर्मः सुचरितो महान् ॥ ८ ॥

मूलम्

न हि पापं कृतं किंचित् कर्म वा निन्दितं क्वचित्।
द्रौपद्या ब्राह्मणेष्वेव धर्मः सुचरितो महान् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसने कभी कोई पाप या निन्दित कर्म नहीं किया है। द्रौपदीने ब्राह्मणोंके प्रति सेवा-सत्कार आदिके रूपमें महान् धर्मका आचरण किया है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां जहार बलाद् राजा मूढबुद्धिर्जयद्रथः।
तस्याः संहरणात् पापः शिरसः केशपातनम् ॥ ९ ॥
पराजयं च संग्रामे ससहायः समाप्तवान्।
प्रत्याहृता तथा स्माभिर्हत्वा तत् सैन्धवं बलम् ॥ १० ॥

मूलम्

तां जहार बलाद् राजा मूढबुद्धिर्जयद्रथः।
तस्याः संहरणात् पापः शिरसः केशपातनम् ॥ ९ ॥
पराजयं च संग्रामे ससहायः समाप्तवान्।
प्रत्याहृता तथा स्माभिर्हत्वा तत् सैन्धवं बलम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसी स्त्रीका भी मूढ़बुद्धि पापी राजा जयद्रथने बलपूर्वक अपहरण किया। इस अपहरणके ही कारण उसका सिर मूँड़ा गया, वह अपने सहायकों-सहित युद्धमें पराजित हुआ तथा हमलोग सिन्धु-देशकी सेनाका संहार करके पुनः द्रौपदीको लौटा लाये हैं॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् दारहरणं प्राप्तमस्माभिरवितर्कितम् ।
ज्ञातिभिर्विप्रवासश्च मिथ्याव्यवसितैरियम् ॥ ११ ॥

मूलम्

तद् दारहरणं प्राप्तमस्माभिरवितर्कितम् ।
ज्ञातिभिर्विप्रवासश्च मिथ्याव्यवसितैरियम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार हमने जिसे कभी सोचातक न था, वह अपनी पत्नीका अपहरणरूप अपमान हमें प्राप्त हुआ और मिथ्या व्यवसायमें लगे हुए बान्धवोंने हमें देशसे निर्वासित कर दिया है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्ति नूनं मया कश्चिदल्पभाग्यतरो नरः।
भवता दृष्टपूर्वो वा श्रुतपूर्वोऽपि वा भवेत् ॥ १२ ॥

मूलम्

अस्ति नूनं मया कश्चिदल्पभाग्यतरो नरः।
भवता दृष्टपूर्वो वा श्रुतपूर्वोऽपि वा भवेत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः मैं पूछता हूँ, क्या संसारमें मेरे-जैसा मन्दभाग्य मनुष्य कोई और भी है अथवा आपने पहले कभी मुझ-जैसे भाग्यहीनको कहीं देखा या सुना है?॥१२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि रामोपाख्यानपर्वणि युधिष्ठिरप्रश्ने त्रिसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २७३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत रामोपाख्यानपर्वमें युधिष्ठिरप्रश्नविषयक दो सौ तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२७३॥