भागसूचना
(जयद्रथविमोक्षणपर्व)
द्विसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भीमद्वारा बंदी होकर जयद्रथका युधिष्ठिरके सामने उपस्थित होना, उनकी आज्ञासे छूटकर उसका गंगाद्वारमें तप करके भगवान् शिवसे वरदान पाना तथा भगवान् शिवद्वारा अर्जुनके सहायक भगवान् श्रीकृष्णकी महिमाका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयद्रथस्तु सम्प्रेक्ष्य भ्रातरावुद्यतावुभौ ।
प्राधावत् तूर्णमव्यग्रो जीवितेप्सुः सुदुःखितः ॥ १ ॥
मूलम्
जयद्रथस्तु सम्प्रेक्ष्य भ्रातरावुद्यतावुभौ ।
प्राधावत् तूर्णमव्यग्रो जीवितेप्सुः सुदुःखितः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! भीम और अर्जुन दोनों भाइयोंको अपने बधके लिये तुले हुए देख जयद्रथ बहुत दुःखी हुआ और घबराहट छोड़कर प्राण बचानेकी इच्छासे तुरंत तीव्र गतिसे भागने लगा॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं भीमसेनो धावन्तमवतीर्य रथाद् बली।
अभिद्रुत्य निजग्राह केशपक्षे ह्यमर्षणः ॥ २ ॥
मूलम्
तं भीमसेनो धावन्तमवतीर्य रथाद् बली।
अभिद्रुत्य निजग्राह केशपक्षे ह्यमर्षणः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे भागता देख अमर्षमें भरे हुए महाबली भीम भी रथसे उतर गये और बड़े वेगसे दौड़कर उन्होंने उसके केश पकड़ लिये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समुद्यम्य च तं भीमो निष्पिपेष महीतले।
शिरो गृहीत्वा राजानं ताडयामास चैव ह ॥ ३ ॥
मूलम्
समुद्यम्य च तं भीमो निष्पिपेष महीतले।
शिरो गृहीत्वा राजानं ताडयामास चैव ह ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् भीमने उसे ऊपर उठाकर धरतीपर पटक दिया और उसे रौंदने लगे। फिर उन्होंने राजा जयद्रथका सिर पकड़कर उसे कई थप्पड़ लगाये॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनः संजीवमानस्य तस्योत्पतितुमिच्छतः ।
पदा मूर्ध्नि महाबाहुः प्राहरद् विलपिष्यतः ॥ ४ ॥
तस्य जानू ददौ भीमो जघ्ने चैनमरत्निना।
स मोहमगमद् राजा प्रहारवरपीडितः ॥ ५ ॥
मूलम्
पुनः संजीवमानस्य तस्योत्पतितुमिच्छतः ।
पदा मूर्ध्नि महाबाहुः प्राहरद् विलपिष्यतः ॥ ४ ॥
तस्य जानू ददौ भीमो जघ्ने चैनमरत्निना।
स मोहमगमद् राजा प्रहारवरपीडितः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनी मार खाकर भी वह अभी जीवित ही था और उठनेकी इच्छा कर रहा था। इसी समय महाबाहु भीमने उसके मस्तकपर एक लात मारी। इससे वह रोने-चिल्लाने लगा, तो भी भीमसेनने उसे गिराकर उसके शरीरपर अपने दोनों घुटने रख दिये और उसे घूँसोंसे मारने लगे। इस प्रकार बड़े जोरकी मार पड़नेसे पीड़ाके मारे राजा जयद्रथ मूर्छित हो गया॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरोषं भीमसेनं तु वारयामास फाल्गुनः।
दुःशलायाः कृते राजा यत् तदाहेति कौरव ॥ ६ ॥
मूलम्
सरोषं भीमसेनं तु वारयामास फाल्गुनः।
दुःशलायाः कृते राजा यत् तदाहेति कौरव ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेपर भी भीमसेनका क्रोध कम नहीं हुआ। यह देख अर्जुनने उन्हें रोका और कहा—‘कुरुनन्दन! दुःशलाके वैधव्यका खयाल करके महाराजने जो आज्ञा दी थी, उसका भी तो विचार कीजिये’॥६॥
मूलम् (वचनम्)
भीमसेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नायं पापसमाचारो मत्तो जीवितुमर्हति।
कृष्णायास्तदनर्हायाः परिक्लेष्टा नराधमः ॥ ७ ॥
मूलम्
नायं पापसमाचारो मत्तो जीवितुमर्हति।
कृष्णायास्तदनर्हायाः परिक्लेष्टा नराधमः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनने कहा— इस नराधमने क्लेश पानेके अयोग्य द्रौपदीको कष्ट पहुँचाया है; अतः अब मेरे हाथसे इस पापाचारी जयद्रथका जीवित रहना ठीक नहीं है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं नु शक्यं मया कर्तुं यद् राजा सततं घृणी।
त्वं च बालिशया बुद्ध्या सदैवास्मान् प्रबाधसे ॥ ८ ॥
मूलम्
किं नु शक्यं मया कर्तुं यद् राजा सततं घृणी।
त्वं च बालिशया बुद्ध्या सदैवास्मान् प्रबाधसे ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु मैं क्या कर सकता हूँ? राजा युधिष्ठिर सदा दयालु ही बने रहते हैं और तुम भी अपनी बालबुद्धिके कारण मेरे ऐसे कामोंमें सदा बाधा पहुँचाया करते हो॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा सटास्तस्य पञ्च चक्रे वृकोदरः।
अर्धचन्द्रेण बाणेन किंचिदब्रुवतस्तदा ॥ ९ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा सटास्तस्य पञ्च चक्रे वृकोदरः।
अर्धचन्द्रेण बाणेन किंचिदब्रुवतस्तदा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर भीमने जयद्रथके लम्बे-लम्बे बालोंको अर्द्धचन्द्राकार बाणसे मूँड़कर पाँच चोटियाँ रख दीं। उस समय वह भयके मारे कुछ भी बोल नहीं पाता था॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विकत्थयित्वा राजानं ततः प्राह वृकोदरः।
जीवितुं चेच्छसे मूढ हेतुं मे गदतः शृणु ॥ १० ॥
मूलम्
विकत्थयित्वा राजानं ततः प्राह वृकोदरः।
जीवितुं चेच्छसे मूढ हेतुं मे गदतः शृणु ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर कटुवचनोंसे सिन्धुराजका तिरस्कार करते हुए भीमने उससे कहा—‘अरे मूढ़! यदि तू जीवित रहना चाहता है तो जीवनरक्षाका हेतुभूत मेरा यह वचन सुन—॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दासोऽस्मीति तथा वाच्यं संसत्सु च सभासु च।
एवं ते जीवितं दद्यामेष युद्धजितो विधिः ॥ ११ ॥
मूलम्
दासोऽस्मीति तथा वाच्यं संसत्सु च सभासु च।
एवं ते जीवितं दद्यामेष युद्धजितो विधिः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तू राजाओंकी सभा-समितियोंमें जाकर सदा अपनेको (महाराज युधिष्ठिरका) दास बताया कर। यह शर्त स्वीकार हो, तो तुझे जीवन-दान दे सकता हूँ। युद्धमें विजयी पुरुषकी ओरसे हारे हुएके लिये ऐसा ही विधान है’॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमस्त्विति तं राजा कृष्यमाणो जयद्रथः।
प्रोवाच पुरुषव्याघ्रं भीममाहवशोभिनम् ॥ १२ ॥
मूलम्
एवमस्त्विति तं राजा कृष्यमाणो जयद्रथः।
प्रोवाच पुरुषव्याघ्रं भीममाहवशोभिनम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सिन्धुराज जयद्रथ धरतीपर घसीटा जा रहा था। उसने उपर्युक्त शर्त स्वीकार कर ली और युद्धमें शोभा पानेवाले पुरुषसिंह भीमसेनसे अपनी स्वीकृति स्पष्ट बता दी॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत एनं विचेष्टन्तं बद्ध्वा पार्थो वृकोदरः।
रथमारोपयामास विसंज्ञं पांसुगुण्ठितम् ॥ १३ ॥
मूलम्
तत एनं विचेष्टन्तं बद्ध्वा पार्थो वृकोदरः।
रथमारोपयामास विसंज्ञं पांसुगुण्ठितम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वह उठनेकी चेष्टा करने लगा। तब कुन्तीकुमार वृकोदरने उसे बाँधकर रथपर डाल दिया। वह बेचारा धूलसे लथपथ और अचेत हो रहा था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तं रथमास्थाय भीमः पार्थानुगस्तदा।
अभ्येत्याश्रममध्यस्थमभ्यगच्छद् युधिष्ठिरम् ॥ १४ ॥
मूलम्
ततस्तं रथमास्थाय भीमः पार्थानुगस्तदा।
अभ्येत्याश्रममध्यस्थमभ्यगच्छद् युधिष्ठिरम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे रथपर चढ़ाकर आगे-आगे भीम चले और पीछे-पीछे अर्जुन। आश्रमपर आकर भीमसेन वहाँ मध्यभागमें बैठे हुए राजा युधिष्ठिरके पास गये॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दर्शयामास भीमस्तु तदवस्थं जयद्रथम्।
तं राजा प्राहसद् दृष्ट्वा मुच्यतामिति चाब्रवीत् ॥ १५ ॥
मूलम्
दर्शयामास भीमस्तु तदवस्थं जयद्रथम्।
तं राजा प्राहसद् दृष्ट्वा मुच्यतामिति चाब्रवीत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमने उसी अवस्थामें जयद्रथको महाराजके सामने उपस्थित किया। उसे देखकर राजा युधिष्ठिर जोर-जोरसे हँसने लगे और बोले—‘अब इसे छोड़ दो’॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजानं चाब्रवीद् भीमो द्रौपद्याः कथ्यतामिति।
दासभावगतो ह्येष पाण्डूनां पापचेतनः ॥ १६ ॥
मूलम्
राजानं चाब्रवीद् भीमो द्रौपद्याः कथ्यतामिति।
दासभावगतो ह्येष पाण्डूनां पापचेतनः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब भीमसेनने भी राजासे कहा—‘आप द्रौपदीको यह सूचित कर दीजिये कि यह पापात्मा जयद्रथ पाण्डवोंका दास हो चुका है’॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुवाच ततो ज्येष्ठो भ्राता सप्रणयं वचः।
मुञ्चैनमधमाचारं प्रमाणा यदि ते वयम् ॥ १७ ॥
मूलम्
तमुवाच ततो ज्येष्ठो भ्राता सप्रणयं वचः।
मुञ्चैनमधमाचारं प्रमाणा यदि ते वयम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब बड़े भाई युधिष्ठिरने प्रेमपूर्वक भीमसेनसे कहा—‘यदि तुम मेरी बात मानते हो तो इस पापाचारीको छोड़ दो’॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौपदी चाब्रवीद् भीममभिप्रेक्ष्य युधिष्ठिरम्।
दासोऽयं मुच्यतां राज्ञस्त्वया पञ्चसटः कृतः ॥ १८ ॥
मूलम्
द्रौपदी चाब्रवीद् भीममभिप्रेक्ष्य युधिष्ठिरम्।
दासोऽयं मुच्यतां राज्ञस्त्वया पञ्चसटः कृतः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय द्रौपदीने भी युधिष्ठिरकी ओर देखकर भीमसेनसे कहा—‘आपने इसका सिर मूँड़कर पाँच चोटियाँ रख दी हैं तथा यह महाराजका दास हो गया है; अतः अब इसे छोड़ दीजिये’॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मुक्तोऽभ्येत्य राजानमभिवाद्य युधिष्ठिरम्।
ववन्दे विह्वलो राजंस्तांश्च दृष्ट्वा मुनींस्तदा ॥ १९ ॥
मूलम्
स मुक्तोऽभ्येत्य राजानमभिवाद्य युधिष्ठिरम्।
ववन्दे विह्वलो राजंस्तांश्च दृष्ट्वा मुनींस्तदा ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तब जयद्रथ बन्धनसे मुक्त कर दिया गया। उसने विह्वल होकर राजा युधिष्ठिरके पास जा उन्हें प्रणाम करनेके पश्चात् वहाँ बैठे हुए अन्यान्य मुनियोंको भी देखकर उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुवाच घृणी राजा धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।
तथा जयद्रथं दृष्ट्वा गृहीतं सव्यसाचिना ॥ २० ॥
मूलम्
तमुवाच घृणी राजा धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।
तथा जयद्रथं दृष्ट्वा गृहीतं सव्यसाचिना ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय (आदर देते हुए) अर्जुनने जयद्रथका हाथ थाम लिया। तब दयालु राजा धर्मपुत्र युधिष्ठिरने जयद्रथकी ओर देखकर कहा—॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदासो गच्छ मुक्तोऽसि मैवं कार्षीः पुनः क्वचित्।
स्त्रीकामं वा धिगस्तु त्वां क्षुद्रः क्षुद्रसहायवान् ॥ २१ ॥
एवंविधं हि कः कुर्यात् त्वदन्यः पुरुषाधमः।
(कर्म धर्मविरुद्धं वै लोकदुष्टं च कर्म ते।)
मूलम्
अदासो गच्छ मुक्तोऽसि मैवं कार्षीः पुनः क्वचित्।
स्त्रीकामं वा धिगस्तु त्वां क्षुद्रः क्षुद्रसहायवान् ॥ २१ ॥
एवंविधं हि कः कुर्यात् त्वदन्यः पुरुषाधमः।
(कर्म धर्मविरुद्धं वै लोकदुष्टं च कर्म ते।)
अनुवाद (हिन्दी)
‘सिंधुराज! अब तू दास नहीं रहा, जा, तूझे छोड़ दिया गया है। फिर कभी ऐसा काम न करना। अरे! तू परायी स्त्रीकी इच्छा करता है, तुझे धिक्कार है! तू स्वयं तो नीच है ही तेरे सहायक भी अधम हैं। तेरे सिवा दूसरा कौन ऐसा नराधम है जो ऐसा धर्मविरुद्ध कार्य कर सके? तेरा यह कर्म सम्पूर्ण लोकमें निन्दित है’॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गतसत्त्वमिव ज्ञात्वा कर्तारमशुभस्य तम् ॥ २२ ॥
सम्प्रेक्ष्य भरतश्रेष्ठः कृपां चक्रे नराधिपः।
धर्मे ते वर्धतां बुद्धिर्मा चाधर्मे मनः कृथाः ॥ २३ ॥
साश्वः सरथपादातः स्वस्ति गच्छ जयद्रथ।
मूलम्
गतसत्त्वमिव ज्ञात्वा कर्तारमशुभस्य तम् ॥ २२ ॥
सम्प्रेक्ष्य भरतश्रेष्ठः कृपां चक्रे नराधिपः।
धर्मे ते वर्धतां बुद्धिर्मा चाधर्मे मनः कृथाः ॥ २३ ॥
साश्वः सरथपादातः स्वस्ति गच्छ जयद्रथ।
अनुवाद (हिन्दी)
वह अशुभ कर्म करनेवाला जयद्रथ मृतप्राय-सा हो गया है, यह देख और समझकर भरतश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिरने उसपर कृपा की और कहा—‘तेरी बुद्धि धर्ममें उत्तरोत्तर बढ़ती रहे, तू कभी अधर्ममें मन न लगाना। जयद्रथ! अपने रथ, घोड़े और पैदल सबको साथ लिये कुशलपूर्वक चला जा’॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु सव्रीडं तूष्णीं किंचिदवाङ्मुखः ॥ २४ ॥
जगाम राजन् दुःखार्तो गङ्गाद्वाराय भारत।
स देवं शरणं गत्वा विरूपाक्षमुमापतिम् ॥ २५ ॥
तपश्चचार विपुलं तस्य प्रीतो वृषध्वजः।
बलिं स्वयं प्रत्यगृह्णात् प्रीयमाणस्त्रिलोचनः ॥ २६ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु सव्रीडं तूष्णीं किंचिदवाङ्मुखः ॥ २४ ॥
जगाम राजन् दुःखार्तो गङ्गाद्वाराय भारत।
स देवं शरणं गत्वा विरूपाक्षमुमापतिम् ॥ २५ ॥
तपश्चचार विपुलं तस्य प्रीतो वृषध्वजः।
बलिं स्वयं प्रत्यगृह्णात् प्रीयमाणस्त्रिलोचनः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर जयद्रथ बहुत लज्जित हुआ और नीचा मुँह किये वहाँसे चुपचाप चला गया। जनमेजय! वह पराजित होनेके महान् दुःखसे पीड़ित था; अतः वहाँसे घर न जाकर गंगाद्वार (हरिद्वार)-को चल दिया। वहाँ पहुँचकर उसने तीन नेत्रोंवाले भगवान् उमापतिकी शरण ले बड़ी भारी तपस्या की। इससे भगवान् शंकर प्रसन्न हो गये। त्रिनेत्रधारी महादेवने प्रसन्नतापूर्वक स्वयं दर्शन देकर उसकी पूजा ग्रहण की॥२४—२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरं चास्मै ददौ देवः स जग्राह च तच्छृणु।
समस्तान् सरथान् पञ्च जयेयं युधि पाण्डवान् ॥ २७ ॥
इति राजाब्रवीद् देवं नेति देवस्तमब्रवीत्।
अजय्यांश्चाप्यवध्यांश्च वारयिष्यसि तान् युधि ॥ २८ ॥
ऋतेऽर्जुनं महाबाहुं नरं नाम सुरेश्वरम्।
बदर्यां तप्ततपसं नारायणसहायकम् ॥ २९ ॥
मूलम्
वरं चास्मै ददौ देवः स जग्राह च तच्छृणु।
समस्तान् सरथान् पञ्च जयेयं युधि पाण्डवान् ॥ २७ ॥
इति राजाब्रवीद् देवं नेति देवस्तमब्रवीत्।
अजय्यांश्चाप्यवध्यांश्च वारयिष्यसि तान् युधि ॥ २८ ॥
ऋतेऽर्जुनं महाबाहुं नरं नाम सुरेश्वरम्।
बदर्यां तप्ततपसं नारायणसहायकम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! भगवान्ने उसे वर दिया और जयद्रथने उसको ग्रहण किया। वह वर क्या था? यह बताता हूँ, सुनो—‘मैं रथसहित पाँचों पाण्डवोंको युद्धमें जीत लूँ’, यही वर सिन्धुराजने महादेवजीसे माँगा। परंतु महादेवजीने उससे कहा—‘ऐसा नहीं हो सकता। पाण्डव अजेय और अवध्य हैं। तुम केवल एक दिन युद्धमें महाबाहु अर्जुनको छोड़कर अन्य चार पाण्डवोंको आगे बढ़नेसे रोक सकते हो। देवेश्वर नर, जो बदरिकाश्रममें भगवान् नारायणके साथ रहकर तपस्या करते हैं, वे ही अर्जुन हैं॥२७—२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजितं सर्वलोकानां देवैरपि दुरासदम्।
मया दत्तं पाशुपतं दिव्यमप्रतिमं शरम्।
अवाप लोकपालेभ्यो वज्रादीन् स महाशरान् ॥ ३० ॥
मूलम्
अजितं सर्वलोकानां देवैरपि दुरासदम्।
मया दत्तं पाशुपतं दिव्यमप्रतिमं शरम्।
अवाप लोकपालेभ्यो वज्रादीन् स महाशरान् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन्हें तुम तो क्या, सम्पूर्ण लोक मिलकर भी जीत नहीं सकते। उनका सामना करना तो देवताओंके लिये भी कठिन है। मैंने उन्हें पाशुपत नामक दिव्य अस्त्र प्रदान किया है, जिसके जोड़का दूसरा कोई अस्त्र ही नहीं है। इसके सिवा अन्यान्य लोकपालोंसे भी उन्होंने वज्र आदि महान् अस्त्र प्राप्त किये हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवदेवो ह्यनन्तात्मा विष्णुः सुरगुरुः प्रभुः।
प्रधानपुरुषोऽव्यक्तो विश्वात्मा विश्वमूर्तिमान् ॥ ३१ ॥
मूलम्
देवदेवो ह्यनन्तात्मा विष्णुः सुरगुरुः प्रभुः।
प्रधानपुरुषोऽव्यक्तो विश्वात्मा विश्वमूर्तिमान् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
[‘अब मैं तुम्हें नरस्वरूप अर्जुनके सहायक भगवान् नारायणकी महिमा बताता हूँ, सूनो] भगवान् नारायण देवताओंके भी देवता, अनन्तस्वरूप, सर्वव्यापी, देवगुरु, सर्वसमर्थ, प्रकृति-पुरुषरूप, अव्यक्त, विश्वात्मा एवं विश्वरूप हैं॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युगान्तकाले सम्प्राप्ते कालाग्निर्दहते जगत्।
सपर्वतार्णवद्वीपं सशैलवनकाननम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
युगान्तकाले सम्प्राप्ते कालाग्निर्दहते जगत्।
सपर्वतार्णवद्वीपं सशैलवनकाननम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रलयकाल उपस्थित होनेपर वे भगवान् विष्णु ही कालाग्निरूपसे प्रकट हो पर्वत, समुद्र, द्वीप, शैल, वन और काननोंसहित सम्पूर्ण जगत्को दग्ध कर देते हैं॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्दहन् नागलोकांश्च पातालतलचारिणः ।
अथान्तरिक्षे सुमहन्नानावर्णाः पयोधराः ॥ ३३ ॥
मूलम्
निर्दहन् नागलोकांश्च पातालतलचारिणः ।
अथान्तरिक्षे सुमहन्नानावर्णाः पयोधराः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘फिर पातालतलमें विचरण करनेवाले नागलोकोंको भी वे भस्म कर डालते हैं। कालाग्निद्वारा सब कुछ भस्म हो जानेपर आकाशमें अनेक रंगके महान् मेघोंकी घोर घटा घिर आती है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घोरस्वरा विनदिनस्तडिन्मालावलम्बिनः ।
समुत्तिष्ठन् दिशः सर्वा विवर्षन्तः समन्ततः ॥ ३४ ॥
मूलम्
घोरस्वरा विनदिनस्तडिन्मालावलम्बिनः ।
समुत्तिष्ठन् दिशः सर्वा विवर्षन्तः समन्ततः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भयंकर स्वरसे गर्जना करते हुए वे बादल बिजलियोंकी मालाओंसे प्रकाशित हो सम्पूर्ण दिशाओंमें फैल जाते और सब ओर वर्षा करने लग जाते हैं॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽग्निं नाशयामासुः संवर्ताग्निनियामकाः ।
अक्षमात्रैश्च धाराभिस्तिष्ठन्त्यापूर्य सर्वशः ॥ ३५ ॥
मूलम्
ततोऽग्निं नाशयामासुः संवर्ताग्निनियामकाः ।
अक्षमात्रैश्च धाराभिस्तिष्ठन्त्यापूर्य सर्वशः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इससे प्रलयकालीन अग्नि बुझ जाती है। संवर्तक अग्निका नियन्त्रण करनेवाले वे महामेघ लंबे सर्पोंके समान मोटी धाराओंसे जल गिराते हुए सबको डुबो देते हैं॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकार्णवे तदा तस्मिन्नुपशान्तचराचरे ।
नष्टचन्द्रार्कपवने ग्रहनक्षत्रवर्जिते ॥ ३६ ॥
मूलम्
एकार्णवे तदा तस्मिन्नुपशान्तचराचरे ।
नष्टचन्द्रार्कपवने ग्रहनक्षत्रवर्जिते ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उस समय सम्पूर्ण दिशाओंमें पानी भर जानेसे चारों ओर एकाकार जलमय समुद्र ही दृष्टिगोचर होता है। उस एकार्णवके जलमें समस्त चराचर जगत् नष्ट हो जाता है। चन्द्रमा, सूर्य और वायु भी विलीन हो जाते हैं। ग्रह और नक्षत्रोंका अभाव हो जाता है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्युगसहस्रान्ते सलिलेनाप्लुता मही ।
ततो नारायणाख्यस्तु सहस्राक्षः सहस्रपात् ॥ ३७ ॥
सहस्रशीर्षा पुरुषः स्वप्तुकामस्त्वतीन्द्रियः ।
फटासहस्रविकटं शेषं पर्यङ्कभाजनम् ॥ ३८ ॥
सहस्रमिव तिग्मांशुसंघातममितद्युतिम् ।
कुन्देन्दुहारगोक्षीरमृणालकुमुदप्रभम् ॥ ३९ ॥
तत्रासौ भगवान् देवः स्वपञ्जलनिधौ तदा।
नैशेन तमसा व्याप्तां स्वां रात्रिं कुरुते विभुः ॥ ४० ॥
मूलम्
चतुर्युगसहस्रान्ते सलिलेनाप्लुता मही ।
ततो नारायणाख्यस्तु सहस्राक्षः सहस्रपात् ॥ ३७ ॥
सहस्रशीर्षा पुरुषः स्वप्तुकामस्त्वतीन्द्रियः ।
फटासहस्रविकटं शेषं पर्यङ्कभाजनम् ॥ ३८ ॥
सहस्रमिव तिग्मांशुसंघातममितद्युतिम् ।
कुन्देन्दुहारगोक्षीरमृणालकुमुदप्रभम् ॥ ३९ ॥
तत्रासौ भगवान् देवः स्वपञ्जलनिधौ तदा।
नैशेन तमसा व्याप्तां स्वां रात्रिं कुरुते विभुः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘एक हजार चतुर्युगी समाप्त होनेपर उपर्युक्त एकार्णवके जलमें यह पृथ्वी डूब जाती है। तत्पश्चात् नारायण नामसे प्रसिद्ध भगवान् श्रीहरि उस एकार्णवके जलमें शयन करनेके हेतु अपने लिये निशाकालोचित अन्धकार (तमोगुण)-से व्याप्त महारात्रिका निर्माण करते हैं। उन भगवान्के सहस्रों नेत्र, सहस्रों चरण और सहस्रों मस्तक हैं। वे अन्तर्यामी पुरुष हैं और इन्द्रियातीत होनेपर भी शयन करनेकी इच्छासे उन शेषनागको अपना पर्यंक बनाते हैं जो सहस्रों फणोंसे विकटाकार दिखायी देते हैं। वे शेषनाग एक सहस्र प्रचण्ड सूर्योंके समूहकी भाँति अनन्त एवं असीम प्रभा धारण करते हैं। उनकी कान्ति कुन्द-पुष्प, चन्द्रमा, मुक्ताहार, गोदुग्ध, कमलनाल तथा कुमुद-कुसुमके समान उज्ज्वल है। उन्हींकी शय्या बनाकर भगवान् श्रीहरि शयन करते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वोद्रेकात् प्रबुद्धस्तु शून्यं लोकमपश्यत।
इमं चोदाहरन्त्यत्र श्लोकं नारायणं प्रति ॥ ४१ ॥
मूलम्
सत्त्वोद्रेकात् प्रबुद्धस्तु शून्यं लोकमपश्यत।
इमं चोदाहरन्त्यत्र श्लोकं नारायणं प्रति ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तत्पश्चात् सृष्टिकालमें सत्त्वगुणके आधिक्यसे भगवान् योगनिद्रासे जाग उठे। जागनेपर उन्हें यह समस्त लोक सूना दिखायी दिया। महर्षिगण भगवान् नारायणके सम्बन्धमें यहाँ इस श्लोकका उदाहरण दिया करते हैं—॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपो नारास्तत्तनव इत्यपां नाम शुश्रुम।
अयनं तेन चैवास्ते तेन नारायणः स्मृतः ॥ ४२ ॥
मूलम्
आपो नारास्तत्तनव इत्यपां नाम शुश्रुम।
अयनं तेन चैवास्ते तेन नारायणः स्मृतः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जल भगवान्का शरीर है, इसीलिये उनका नाम ‘नार’ सुनते आये हैं। वह नार ही उनका अयन (गृह) है अथवा उसके साथ एक होकर वे रहते हैं, इसीलिये उन भगवान्को नारायण कहा गया है’॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रध्यानसमकालं तु प्रजाहेतोः सनातनः।
ध्यातमात्रे तु भगवन्नाभ्यां पद्मः समुत्थितः ॥ ४३ ॥
मूलम्
प्रध्यानसमकालं तु प्रजाहेतोः सनातनः।
ध्यातमात्रे तु भगवन्नाभ्यां पद्मः समुत्थितः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तत्पश्चात् प्रजाकी सृष्टिके लिये भगवान्ने चिन्तन किया। इस चिन्तनके साथ ही भगवान्की नाभिसे सनातन कमल प्रकट हुआ॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्चतुर्मुखो ब्रह्मा नाभिपद्माद् विनिःसृतः।
तत्रोपविष्टः सहसा पद्मे लोकपितामहः ॥ ४४ ॥
शून्यं दृष्ट्वा जगत् कृत्स्नं मानसानात्मनः समान्।
ततो मरीचिप्रमुखान् महर्षीनसृजन्नव ॥ ४५ ॥
मूलम्
ततश्चतुर्मुखो ब्रह्मा नाभिपद्माद् विनिःसृतः।
तत्रोपविष्टः सहसा पद्मे लोकपितामहः ॥ ४४ ॥
शून्यं दृष्ट्वा जगत् कृत्स्नं मानसानात्मनः समान्।
ततो मरीचिप्रमुखान् महर्षीनसृजन्नव ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उस नाभिकमलसे चतुर्मुख ब्रह्माजीका प्रादुर्भाव हुआ। उस कमलपर बैठे हुए लोकपितामह ब्रह्माजीने सहसा सम्पूर्ण जगत्को शून्य देखकर अपने मानसपुत्रके रूपमें अपने ही-जैसे प्रभावशाली मरीचि आदि नौ महर्षियोंको उत्पन्न किया॥४४-४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेऽसृजन् सर्वभूतानि त्रसानि स्थावराणि च।
यक्षराक्षसभूतानि पिशाचोरगमानुषान् ॥ ४६ ॥
मूलम्
तेऽसृजन् सर्वभूतानि त्रसानि स्थावराणि च।
यक्षराक्षसभूतानि पिशाचोरगमानुषान् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन महर्षियोंने स्थावर-जंगमरूप सम्पूर्ण भूतोंकी तथा यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाच, नाग और मनुष्योंकी सृष्टि की॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सृज्यते ब्रह्ममूर्तिस्तु रक्षते पौरुषी तनुः।
रौद्रीभावेन शमयेत् तिस्रोऽवस्थाः प्रजापतेः ॥ ४७ ॥
मूलम्
सृज्यते ब्रह्ममूर्तिस्तु रक्षते पौरुषी तनुः।
रौद्रीभावेन शमयेत् तिस्रोऽवस्थाः प्रजापतेः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्माजीके रूपसे भगवान् सृष्टि करते हैं। परमपुरुष नारायणरूपसे इसकी रक्षा करते हैं तथा रुद्रस्वरूपसे सबका संहार करते हैं। इस प्रकार प्रजापालक भगवान्की ये तीन अवस्थाएँ हैं॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न श्रुतं ते सिन्धुपते विष्णोरद्भुतकर्मणः।
कथ्यमानानि मुनिभिर्ब्राह्मणैर्वेदपारगैः ॥ ४८ ॥
मूलम्
न श्रुतं ते सिन्धुपते विष्णोरद्भुतकर्मणः।
कथ्यमानानि मुनिभिर्ब्राह्मणैर्वेदपारगैः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सिन्धुराज! क्या तुमने वेदोंके पारंगत ब्रह्मर्षियोंके मुखसे अद्भुतकर्मा भगवान् विष्णुका चरित्र नहीं सुना है?॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जलेन समनुप्राप्ते सर्वतः पृथिवीतले।
तदा चैकार्णवे तस्मिन्नेकाकाशे प्रभुश्चरन् ॥ ४९ ॥
निशायामिव खद्योतः प्रावृट्काले समन्ततः।
प्रतिष्ठानाय पृथिवीं मार्गमाणस्तदाभवत् ॥ ५० ॥
मूलम्
जलेन समनुप्राप्ते सर्वतः पृथिवीतले।
तदा चैकार्णवे तस्मिन्नेकाकाशे प्रभुश्चरन् ॥ ४९ ॥
निशायामिव खद्योतः प्रावृट्काले समन्ततः।
प्रतिष्ठानाय पृथिवीं मार्गमाणस्तदाभवत् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘समस्त भूमण्डल सब ओरसे जलमें डूबा हुआ था। उस समय एकार्णवसे उपलक्षित एकमात्र आकाशमें पृथ्वीका पता लगानेके लिये भगवान् इस प्रकार विचर रहे थे, जैसे वर्षाकालकी रातमें जुगनू सब ओर उड़ता फिरता है। वे पृथ्वीको कहीं स्थिररूपसे स्थापित करनेके लिये उसकी खोज कर रहे थे॥४९-५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जले निमग्नां गां दृष्ट्वा चोद्धर्तुं मनसेच्छति।
किं नु रूपमहं कृत्वा सलिलादुद्धरे महीम् ॥ ५१ ॥
मूलम्
जले निमग्नां गां दृष्ट्वा चोद्धर्तुं मनसेच्छति।
किं नु रूपमहं कृत्वा सलिलादुद्धरे महीम् ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीको जलमें डूबी हुई देख भगवान्ने मन-ही-मन उसे बाहर निकालनेकी इच्छा की। वे सोचने लगे, ‘कौन-सा रूप धारण करके मैं इस जलसे पृथ्वीका उद्धार करूँ’॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं संचिन्त्य मनसा दृष्ट्वा दिव्येन चक्षुषा।
जलक्रीडाभिरुचितं वाराहं रूपमस्मरत् ॥ ५२ ॥
मूलम्
एवं संचिन्त्य मनसा दृष्ट्वा दिव्येन चक्षुषा।
जलक्रीडाभिरुचितं वाराहं रूपमस्मरत् ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस प्रकार मन-ही-मन चिन्तन करके उन्होंने दिव्य दृष्टिसे देखा कि जलमें क्रीड़ा करनेके योग्य तो वराहरूप है; अतः उन्होंने उसी रूपका स्मरण किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्वा वराहवपुषं वाङ्मयं वेदसम्मितम्।
दशयोजनविस्तीर्णमायतं शतयोजनम् ॥ ५३ ॥
महापर्वतवर्ष्माभं तीक्ष्णदंष्ट्रं प्रदीप्तिमत् ।
महामेघौघनिर्घोषं नीलजीमूतसंनिभम् ॥ ५४ ॥
मूलम्
कृत्वा वराहवपुषं वाङ्मयं वेदसम्मितम्।
दशयोजनविस्तीर्णमायतं शतयोजनम् ॥ ५३ ॥
महापर्वतवर्ष्माभं तीक्ष्णदंष्ट्रं प्रदीप्तिमत् ।
महामेघौघनिर्घोषं नीलजीमूतसंनिभम् ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वेदतुल्य वैदिक वाङ्मय वराहरूप धारण करके भगवान्ने जलके भीतर प्रवेश किया। उनका वह विशाल पर्वताकार शरीर सौ योजन लंबा और दस योजन चौड़ा था। उनकी दाढ़ें बड़ी तीखी थीं। उनका शरीर देदीप्यमान हो रहा था। भगवान्का कण्ठस्वर महान् मेघोंकी गर्जनाके समान गम्भीर था। उनकी अंगकान्ति नील जलधरके समान श्याम थी॥५३-५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूत्वा यज्ञवराहो वै अपः सम्प्राविशत् प्रभुः।
दंष्ट्रेणैकेन चोद्धृत्य स्वे स्थाने न्यविशन्महीम् ॥ ५५ ॥
मूलम्
भूत्वा यज्ञवराहो वै अपः सम्प्राविशत् प्रभुः।
दंष्ट्रेणैकेन चोद्धृत्य स्वे स्थाने न्यविशन्महीम् ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस प्रकार यज्ञवाराहरूप धारण करके भगवान्ने जलके भीतर प्रवेश किया और एक ही दाँतसे पृथ्वीको उठाकर उसे अपने स्थानपर स्थापित कर दिया॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनरेव महाबाहुरपूर्वां तनुमाश्रितः ।
नरस्य कृत्वार्धतनुं सिंहस्यार्धतनुं प्रभुः ॥ ५६ ॥
दैत्येन्द्रस्य सभां गत्वा पाणिं संस्पृश्य पाणिना।
दैत्यानामादिपुरुषः सुरारिर्दितिनन्दनः ॥ ५७ ॥
दृष्ट्वा चापूर्वपुरुषं क्रोधात् संरक्तलोचनः।
मूलम्
पुनरेव महाबाहुरपूर्वां तनुमाश्रितः ।
नरस्य कृत्वार्धतनुं सिंहस्यार्धतनुं प्रभुः ॥ ५६ ॥
दैत्येन्द्रस्य सभां गत्वा पाणिं संस्पृश्य पाणिना।
दैत्यानामादिपुरुषः सुरारिर्दितिनन्दनः ॥ ५७ ॥
दृष्ट्वा चापूर्वपुरुषं क्रोधात् संरक्तलोचनः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘तदनन्तर महाबाहु भगवान् श्रीहरिने एक अपूर्व शरीर धारण किया, जिसमें आधा अंग तो मनुष्यका था और आधा सिंहका। इस प्रकार नृसिंहरूप धारण करके हाथसे हाथका स्पर्श किये हुए दैत्यराज हिरण्यकशिपुकी सभामें गये। दैत्योंके आदिपुरुष और देवताओंके शत्रु दितिनन्दन हिरण्यकशिपुने उस अपूर्व पुरुषको देखकर क्रोधसे आँखें लाल कर लीं॥५६-५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूलोद्यतकरः स्रग्वी हिरण्यकशिपुस्तदा ॥ ५८ ॥
मेघस्तनितनिर्घोषो नीलाभ्रचयसंनिभः ।
देवारिर्दितिजो वीरो नृसिंहं समुपाद्रवत् ॥ ५९ ॥
मूलम्
शूलोद्यतकरः स्रग्वी हिरण्यकशिपुस्तदा ॥ ५८ ॥
मेघस्तनितनिर्घोषो नीलाभ्रचयसंनिभः ।
देवारिर्दितिजो वीरो नृसिंहं समुपाद्रवत् ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उसने एक हाथमें शूल उठा रखा था। उसके गलेमें पुष्पोंकी माला शोभा पा रही थी। उस समय वीर हिरण्यकशिपुने, जिसकी आवाज मेघकी गर्जनाके समान थी, जो नीले मेघोंके समूह-जैसा श्याम था तथा जो दितिके गर्भसे उत्पन्न होकर देवताओंका शत्रु बना हुआ था; भगवान् नृसिंहपर धावा किया॥५८-५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समुपेत्य ततस्तीक्ष्णैर्मृगेन्द्रेण बलीयसा ।
नारसिंहेन वपुषा दारितः करजैर्भृशम् ॥ ६० ॥
मूलम्
समुपेत्य ततस्तीक्ष्णैर्मृगेन्द्रेण बलीयसा ।
नारसिंहेन वपुषा दारितः करजैर्भृशम् ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसी समय अत्यन्त बलवान् मृगेन्द्रस्वरूप भगवान् नृसिंहने दैत्यके निकट जाकर उसे अपने तीखे नखोंद्वारा अत्यन्त विदीर्ण कर दिया॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं निहत्य भगवान् दैत्येन्द्रं रिपुघातिनम्।
भूयोऽन्यः पुण्डरीकाक्षः प्रभुर्लोकहिताय च ॥ ६१ ॥
मूलम्
एवं निहत्य भगवान् दैत्येन्द्रं रिपुघातिनम्।
भूयोऽन्यः पुण्डरीकाक्षः प्रभुर्लोकहिताय च ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस प्रकार शत्रुघाती दैत्यराज हिरण्यकशिपुका वध करके भगवान् कमलनयन श्रीहरि पुनः सम्पूर्ण लोकोंके हितके लिये अन्य रूपमें प्रकट हुए॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कश्यपस्यात्मजः श्रीमानदित्या गर्भधारितः ।
पूर्णे वर्षसहस्रे तु प्रसूता गर्भमुत्तमम् ॥ ६२ ॥
मूलम्
कश्यपस्यात्मजः श्रीमानदित्या गर्भधारितः ।
पूर्णे वर्षसहस्रे तु प्रसूता गर्भमुत्तमम् ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उस समय वे कश्यपजीके तेजस्वी पुत्र हुए। अदितिदेवीने उन्हें गर्भमें धारण किया था। पूरे एक हजार वर्षतक गर्भमें धारण करनेके पश्चात् अदितिने एक उत्तम बालकको जन्म दिया॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्दिनाम्भोदसदृशो दीप्ताक्षो वामनाकृतिः ।
दण्डी कमण्डलुधरः श्रीवत्सोरसि भूषितः ॥ ६३ ॥
मूलम्
दुर्दिनाम्भोदसदृशो दीप्ताक्षो वामनाकृतिः ।
दण्डी कमण्डलुधरः श्रीवत्सोरसि भूषितः ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह वर्षाकालके मेघके समान श्यामवर्णका था। उसके नेत्र देदीप्यमान हो रहे थे। वे वामनाकार, दण्ड और कमण्डलु धारण किये तथा वक्षःस्थलमें श्रीवत्सचिह्नसे विभूषित थे॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जटी यज्ञोपवीती च भगवान् बालरूपधृक्।
यज्ञवाटं गतः श्रीमान् दानवेन्द्रस्य वै तदा ॥ ६४ ॥
मूलम्
जटी यज्ञोपवीती च भगवान् बालरूपधृक्।
यज्ञवाटं गतः श्रीमान् दानवेन्द्रस्य वै तदा ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उनके सिरपर जटा थी और गलेमें यज्ञोपवीत शोभा पाता था। उस समय वे बालरूपधारी श्रीमान् भगवान् दानवराज बलिकी यज्ञशालाके समीप गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बृहस्पतिसहायोऽसौ प्रविष्टो बलिनो मखे।
तं दृष्ट्वा वामनतनुं प्रहृष्टो बलिरब्रवीत् ॥ ६५ ॥
मूलम्
बृहस्पतिसहायोऽसौ प्रविष्टो बलिनो मखे।
तं दृष्ट्वा वामनतनुं प्रहृष्टो बलिरब्रवीत् ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बृहस्पतिजीकी सहायतासे उनका बलिके यज्ञ-मण्डपमें प्रवेश हुआ। वामनरूपधारी भगवान्को देखकर राजा बलि बहुत प्रसन्न हुए और बोले—॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीतोऽस्मि दर्शने विप्र ब्रूहि त्वं किं ददानि ते।
एवमुक्तस्तु बलिना वामनः प्रत्युवाच ह ॥ ६६ ॥
स्वस्तीत्युक्त्वा बलिं देवः स्मयमानोऽभ्यभाषत।
मेदिनीं दानवपते देहि मे विक्रमत्रयम् ॥ ६७ ॥
मूलम्
प्रीतोऽस्मि दर्शने विप्र ब्रूहि त्वं किं ददानि ते।
एवमुक्तस्तु बलिना वामनः प्रत्युवाच ह ॥ ६६ ॥
स्वस्तीत्युक्त्वा बलिं देवः स्मयमानोऽभ्यभाषत।
मेदिनीं दानवपते देहि मे विक्रमत्रयम् ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्मन्! आपका दर्शन पाकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। आज्ञा कीजिये, मैं आपकी सेवाके लिये क्या दूँ?’ बलिके ऐसा कहनेपर भगवान् वामनने ‘(आपका) स्वस्ति (कल्याण हो)’ ऐसा कहकर बलिको आशीर्वाद दिया और मुसकराते हुए कहा—‘दानवराज! मुझे तीन पग पृथ्वी दे दीजिये’॥६६-६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलिर्ददौ प्रसन्नात्मा विप्रायामिततेजसे ।
ततो दिव्याद्भुततमं रूपं विक्रमतो हरेः ॥ ६८ ॥
मूलम्
बलिर्ददौ प्रसन्नात्मा विप्रायामिततेजसे ।
ततो दिव्याद्भुततमं रूपं विक्रमतो हरेः ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बलिने प्रसन्नचित्त होकर उन अमिततेजस्वी ब्राह्मणदेवताको उनकी मुँहमाँगी वस्तु दे दी। तब भूमिको नापते समय श्रीहरिका अत्यन्त अद्भुत दिव्य रूप प्रकट हुआ॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विक्रमैस्त्रिभिरक्षोभ्यो जहाराशु स मेदिनीम्।
ददौ शक्राय च महीं विष्णुर्देवः सनातनः ॥ ६९ ॥
मूलम्
विक्रमैस्त्रिभिरक्षोभ्यो जहाराशु स मेदिनीम्।
ददौ शक्राय च महीं विष्णुर्देवः सनातनः ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन अक्षोभ्य सनातन विष्णुदेवने तीन पगद्वारा शीघ्र ही सारी वसुधा नाप ली और देवराज इन्द्रको समर्पित कर दी॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष ते वामनो नाम प्रादुर्भावः प्रकीर्तितः।
तेन देवाः प्रादुरासन् वैष्णवं चोच्यते जगत् ॥ ७० ॥
मूलम्
एष ते वामनो नाम प्रादुर्भावः प्रकीर्तितः।
तेन देवाः प्रादुरासन् वैष्णवं चोच्यते जगत् ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह मैंने तुम्हें भगवान्के वामनावतारकी बात बतायी है। उन्हींसे देवताओंकी उत्पत्ति हुई है। यह जगत् भी भगवान् विष्णुसे प्रकट होनेके कारण वैष्णव कहलाता है॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असतां निग्रहार्थाय धर्मसंरक्षणाय च।
अवतीर्णो मनुष्याणामजायत यदुक्षये ॥ ७१ ॥
स एवं भगवान् विष्णुः कृष्णेति परिकीर्त्यते।
अनाद्यन्तमजं देवं प्रभुं लोकनमस्कृतम् ॥ ७२ ॥
मूलम्
असतां निग्रहार्थाय धर्मसंरक्षणाय च।
अवतीर्णो मनुष्याणामजायत यदुक्षये ॥ ७१ ॥
स एवं भगवान् विष्णुः कृष्णेति परिकीर्त्यते।
अनाद्यन्तमजं देवं प्रभुं लोकनमस्कृतम् ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! वे ही भगवान् विष्णु दुष्टोंका दमन और धर्मका संरक्षण करनेके लिये मनुष्योंके बीच यदुकुलमें अवतीर्ण हुए हैं। उन्हींको श्रीकृष्ण कहते हैं। वे अनादि, अनन्त, अजन्मा, दिव्यस्वरूप, सर्वसमर्थ और विश्ववन्दित हैं॥७१-७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं देवं विदुषो गान्ति तस्य कर्माणि सैन्धव।
यमाहुरजितं कृष्णं शङ्खचक्रगदाधरम् ॥ ७३ ॥
श्रीवत्सधारिणं देवं पीतकौशेयवाससम् ।
प्रधानः सोऽस्त्रविदुषां तेन कृष्णेन रक्ष्यते ॥ ७४ ॥
मूलम्
यं देवं विदुषो गान्ति तस्य कर्माणि सैन्धव।
यमाहुरजितं कृष्णं शङ्खचक्रगदाधरम् ॥ ७३ ॥
श्रीवत्सधारिणं देवं पीतकौशेयवाससम् ।
प्रधानः सोऽस्त्रविदुषां तेन कृष्णेन रक्ष्यते ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सिन्धुराज! विद्वान् पुरुष उन्हीं भगवान्की महिमा गाते और उन्हींके पावन चरित्रोंका वर्णन करते हैं। उन्हींको अपराजित, शंखचक्रगदाधारी पीतपट्टाम्बर-विभूषित श्रीवत्सधारी भगवान् श्रीकृष्ण कहा गया है। अस्त्रविद्याके विद्वानोंमें श्रेष्ठ अर्जुन उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित हैं॥७३-७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहायः पुण्डरीकाक्षः श्रीमानतुलविक्रमः ।
समानस्यन्दने पार्थमास्थाय परवीरहा ॥ ७५ ॥
मूलम्
सहायः पुण्डरीकाक्षः श्रीमानतुलविक्रमः ।
समानस्यन्दने पार्थमास्थाय परवीरहा ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले अतुलपराक्रमी श्रीमान् कमलनयन श्रीकृष्ण एक ही रथपर अर्जुनके समीप बैठकर उनकी सहायता करते हैं॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न शक्यते तेन जेतुं त्रिदशैरपि दुःसहः।
कः पुनर्मानुषो भावो रणे पार्थं विजेष्यति ॥ ७६ ॥
मूलम्
न शक्यते तेन जेतुं त्रिदशैरपि दुःसहः।
कः पुनर्मानुषो भावो रणे पार्थं विजेष्यति ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस कारण अर्जुनको कोई नहीं जीत सकता। उनका वेग सहन करना देवताओंके लिये भी कठिन है; फिर कौन ऐसा मनुष्य है जो युद्धमें अर्जुनपर विजय पा सके?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेकं वर्जयित्वा तु सर्वं यौधिष्ठिरं बलम्।
चतुरः पाण्डवान् राजन् दिनैकं जेष्यसे रिपून् ॥ ७७ ॥
मूलम्
तमेकं वर्जयित्वा तु सर्वं यौधिष्ठिरं बलम्।
चतुरः पाण्डवान् राजन् दिनैकं जेष्यसे रिपून् ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! केवल अर्जुनको छोड़कर एक दिन ही तुम युधिष्ठिरकी सारी सेनाको और अपने शत्रु चारों पाण्डवोंको भी जीत सकोगे’॥७७॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवमुक्त्वा नृपतिं सर्वपापहरो हरः।
उमापतिः पशुपतिर्यज्ञहा त्रिपुरार्दनः ॥ ७८ ॥
वामनैर्विकटैः कुब्जैरुग्रश्रवणदर्शनैः ।
वृतः पारिषदैर्घोरैर्नानाप्रहरणोद्यतैः ॥ ७९ ॥
त्र्यम्बको राजशार्दूल भगनेत्रनिपातनः ।
उमासहायो भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत ॥ ८० ॥
मूलम्
इत्येवमुक्त्वा नृपतिं सर्वपापहरो हरः।
उमापतिः पशुपतिर्यज्ञहा त्रिपुरार्दनः ॥ ७८ ॥
वामनैर्विकटैः कुब्जैरुग्रश्रवणदर्शनैः ।
वृतः पारिषदैर्घोरैर्नानाप्रहरणोद्यतैः ॥ ७९ ॥
त्र्यम्बको राजशार्दूल भगनेत्रनिपातनः ।
उमासहायो भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! उमापति भगवान् हर समस्त पापोंका अपहरण करनेवाले हैं। वे पशुरूपी जीवोंके पालक, दक्षयज्ञविध्वंसक तथा त्रिपुरविनाशक हैं। उनके तीन नेत्र हैं और उन्हींके द्वारा भगदेवताके नेत्र नष्ट किये गये हैं। भगवती उमा सदा उनके साथ रहती हैं। नृपश्रेष्ठ! भगवान् शिव सिन्धुराज जयद्रथसे पूर्वोक्त वचन कहकर भयंकर कानों और नेत्रोंवाले भाँति-भाँतिके अस्त्र उठाये रहनेवाले अपने भयंकर पार्षदोंके साथ, जिनमें बौने, कुबड़े और विकट आकृतिवाले प्राणी भी थे, भगवती पार्वतीसहित वहीं अन्तर्धान हो गये॥७८—८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयद्रथोऽपि मन्दात्मा स्वमेव भवनं ययौ।
पाण्डवाश्च वने तस्मिन् न्यवसन् काम्यके तथा ॥ ८१ ॥
मूलम्
जयद्रथोऽपि मन्दात्मा स्वमेव भवनं ययौ।
पाण्डवाश्च वने तस्मिन् न्यवसन् काम्यके तथा ॥ ८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् मन्दबुद्धि जयद्रथ भी अपने घर चला गया और पाण्डवगण उस काम्यकवनमें उसी प्रकार निवास करने लगे॥८१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि जयद्रथविमोक्षणपर्वणि द्विसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २७२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत जयद्रथविमोक्षणपर्वमें दो सौ बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२७२॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ८१ श्लोक हैं)