भागसूचना
एकसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
पाण्डवोंद्वारा जयद्रथकी सेनाका संहार, जयद्रथका पलायन, द्रौपदी तथा नकुल-सहदेवके साथ युधिष्ठिरका आश्रमपर लौटना तथा भीम और अर्जुनका वनमें जयद्रथका पीछा करना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतिष्ठत प्रहरत तूर्णं विपरिधावत।
इति स्म सैन्धवो राजा चोदयामास तान् नृपान् ॥ १ ॥
मूलम्
संतिष्ठत प्रहरत तूर्णं विपरिधावत।
इति स्म सैन्धवो राजा चोदयामास तान् नृपान् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तब सिन्धुराज जयद्रथ ‘ठहरो, मारो, जल्दी दौड़ो’ कहकर अपने साथ आये हुए राजाओंको युद्धके लिये उत्साहित करने लगा॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो घोरतमः शब्दो रणे समभवत् तदा।
भीमार्जुनयमान् दृष्ट्वा सैन्यानां सयुधिष्ठिरान् ॥ २ ॥
मूलम्
ततो घोरतमः शब्दो रणे समभवत् तदा।
भीमार्जुनयमान् दृष्ट्वा सैन्यानां सयुधिष्ठिरान् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय रणभूमिमें युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेवको देखकर जयद्रथके सैनिकोंमें बड़ा भयंकर कोलाहल मच गया॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिबिसौवीरसिन्धूनां विषादश्चाप्यजायत ।
तान् दृष्ट्वा पुरुषव्याघ्रान् व्याघ्रानिव बलोत्कटान् ॥ ३ ॥
मूलम्
शिबिसौवीरसिन्धूनां विषादश्चाप्यजायत ।
तान् दृष्ट्वा पुरुषव्याघ्रान् व्याघ्रानिव बलोत्कटान् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सिंहके समान उत्कट बलवान् पुरुषसिंह पाण्डवोंको देखकर शिबि, सौवीर तथा सिन्धुदेशके राजाओंके मनमें भी अत्यन्त विषाद छा गया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हेमचित्रसमुत्सेधां सर्वशैक्यायसीं गदाम् ।
प्रगृह्याभ्यद्रवद् भीमः सैन्धवं कालचोदितम् ॥ ४ ॥
मूलम्
हेमचित्रसमुत्सेधां सर्वशैक्यायसीं गदाम् ।
प्रगृह्याभ्यद्रवद् भीमः सैन्धवं कालचोदितम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका ऊपरी भाग स्वर्णपत्रसे जटित होनेके कारण विचित्र शोभा पाता था, जिसका सब कुछ शैक्य नामक लोहेसे बनाया गया था, उस विशाल गदाको हाथमें लेकर भीमसेन कालप्रेरित जयद्रथकी ओर दौड़े॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदन्तरमथावृत्य कोटिकास्योऽभ्यहारयत् ।
महता रथवंशेन परिवार्य वृकोदरम् ॥ ५ ॥
मूलम्
तदन्तरमथावृत्य कोटिकास्योऽभ्यहारयत् ।
महता रथवंशेन परिवार्य वृकोदरम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेमें ही रथोंकी विशाल सेनाके द्वारा भीमसेनको सब ओरसे घेरकर कोटिकास्यने जयद्रथ और भीमसेनके बीचमें भारी व्यवधान डाल दिया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्तितोमरनाराचैर्वीरबाहुप्रचोदितैः ।
कीर्यमाणोऽपि बहुभिर्न स्म भीमोऽभ्यकम्पत ॥ ६ ॥
मूलम्
शक्तितोमरनाराचैर्वीरबाहुप्रचोदितैः ।
कीर्यमाणोऽपि बहुभिर्न स्म भीमोऽभ्यकम्पत ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सब योद्धा भीमसेनपर अपनी भुजाओंके द्वारा चलाकर शक्ति, तोमर और नाराच आदि बहुत-से अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करने लगे; परंतु भीमसेन इससे तनिक भी विचलित नहीं हुए॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गजं तु सगजारोहं पदातींश्च चतुर्दश।
जघान गदया भीमः सैन्धवध्वजिनीमुखे ॥ ७ ॥
मूलम्
गजं तु सगजारोहं पदातींश्च चतुर्दश।
जघान गदया भीमः सैन्धवध्वजिनीमुखे ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने जयद्रथकी सेनाके मुहानेपर जाकर अपनी गदाकी चोटसे सवारसहित एक हाथी और चौदह पैदलोंको मार डाला॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पार्थः पञ्च शतान् शूरान् पर्वतीयान् महारथान्।
परीप्समानः सौवीरं जघान ध्वजिनीमुखे ॥ ८ ॥
मूलम्
पार्थः पञ्च शतान् शूरान् पर्वतीयान् महारथान्।
परीप्समानः सौवीरं जघान ध्वजिनीमुखे ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार अर्जुनने सौवीरराज जयद्रथको पकड़नेकी इच्छा रखकर सेनाके अग्रभागमें स्थित पाँच सौ शूरवीर पर्वतीय महारथियोंको मार डाला॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा स्वयं सुवीराणां प्रवराणां प्रहारिणाम्।
निमेषमात्रेण शतं जघान समरे तदा ॥ ९ ॥
मूलम्
राजा स्वयं सुवीराणां प्रवराणां प्रहारिणाम्।
निमेषमात्रेण शतं जघान समरे तदा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वयं राजा युधिष्ठिरने भी उस समय अपने ऊपर प्रहार करनेवाले सौवीर क्षत्रियोंके सौ प्रमुख वीरोंको पलक मारते-मारते समरांगणमें मार गिराया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददृशे नकुलस्तत्र रथात् प्रस्कन्द्य खड्गधृक्।
शिरांसि पादरक्षाणां बीजवत् प्रवपन् मुहुः ॥ १० ॥
मूलम्
ददृशे नकुलस्तत्र रथात् प्रस्कन्द्य खड्गधृक्।
शिरांसि पादरक्षाणां बीजवत् प्रवपन् मुहुः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महावीर नकुल हाथमें तलवार लिये रथसे कूद पड़े और पादरक्षक सैनिकोंके मस्तक काट-काटकर बीजकी भाँति उन्हें बार-बार धरतीपर बोते दिखायी दिये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहदेवस्तु संयाय रथेन गजयोधिनः।
पातयामास नाराचैर्द्रुमेभ्य इव बर्हिणः ॥ ११ ॥
मूलम्
सहदेवस्तु संयाय रथेन गजयोधिनः।
पातयामास नाराचैर्द्रुमेभ्य इव बर्हिणः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सहदेव रथद्वारा आगे बढ़कर हाथीसवार योद्धाओंसे भिड़ गये और नाराच नामक बाणोंसे मार-मारकर उन्हें इस प्रकार नीचे गिराने लगे, मानो कोई व्याध वृक्षोंपरसे मोरोंको घायल करके गिरा रहा हो॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्त्रिगर्तः सधनुरवतीर्य महारथात् ।
गदया चतुरो वाहान् राज्ञस्तस्य तदावधीत् ॥ १२ ॥
मूलम्
ततस्त्रिगर्तः सधनुरवतीर्य महारथात् ।
गदया चतुरो वाहान् राज्ञस्तस्य तदावधीत् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर धनुष हाथमें लिये त्रिगर्तराजने अपने विशाल रथसे उतरकर राजा युधिष्ठिरके चारों घोड़ोंको गदासे मार डाला॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमभ्याशगतं राजा पदातिं कुन्तिनन्दनः।
अर्धचन्द्रेण बाणेन विव्याधोरसि धर्मराट् ॥ १३ ॥
मूलम्
तमभ्याशगतं राजा पदातिं कुन्तिनन्दनः।
अर्धचन्द्रेण बाणेन विव्याधोरसि धर्मराट् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे पैदल ही पास आया देख कुन्तीनन्दन धर्मराज युधिष्ठिरने अर्धचन्द्राकार बाणसे उसकी छातीको छेद डाला॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स भिन्नहृदयो वीरो वक्त्राच्छोणितमुद्वमन्।
पपाताभिमुखः पार्थं छिन्नमूल इव द्रुमः ॥ १४ ॥
मूलम्
स भिन्नहृदयो वीरो वक्त्राच्छोणितमुद्वमन्।
पपाताभिमुखः पार्थं छिन्नमूल इव द्रुमः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब हृदय विदीर्ण हो जानेके कारण वीर त्रिगर्तराज मुखसे रक्त वमन करता हुआ राजा युधिष्ठिरके सामने ही जड़से कटे हुए वृक्षकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रसेनद्वितीयस्तु रथात् प्रस्कन्द्य धर्मराट्।
हताश्वः सहदेवस्य प्रतिपेदे महारथम् ॥ १५ ॥
मूलम्
इन्द्रसेनद्वितीयस्तु रथात् प्रस्कन्द्य धर्मराट्।
हताश्वः सहदेवस्य प्रतिपेदे महारथम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर धर्मराज युधिष्ठिर अपने घोड़े मारे जानेके कारण सारथि इन्द्रसेनके साथ सहदेवके विशाल रथपर जा बैठे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नकुलं त्वभिसंधाय क्षेमङ्करमहामुखौ ।
उभावुभयतस्तीक्ष्णैः शरवर्षैरवर्षताम् ॥ १६ ॥
मूलम्
नकुलं त्वभिसंधाय क्षेमङ्करमहामुखौ ।
उभावुभयतस्तीक्ष्णैः शरवर्षैरवर्षताम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरी ओर क्षेमंकर और महामुख नामक दो वीर (राजकुमार) नकुलको लक्ष्य करके दोनों ओरसे तीखे बाणोंकी वर्षा करने लगे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तोमरैरभिवर्षन्तौ जीमूताविव वार्षिकौ ।
एकैकेन विपाठेन जघ्ने माद्रवतीसुतः ॥ १७ ॥
मूलम्
तोमरैरभिवर्षन्तौ जीमूताविव वार्षिकौ ।
एकैकेन विपाठेन जघ्ने माद्रवतीसुतः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय तोमरोंकी वर्षा करते हुए वे दोनों योद्धा वर्षाऋतुके दो बादलोंके समान जान पड़ते थे। परंतु माद्रीनन्दन नकुलने एक-एक विपाठ नामक बाण मारकर उन दोनोंको धराशायी कर दिया॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिगर्तराजः सुरथस्तस्याथ रथधूर्गतः ।
रथमाक्षेपयामास गजेन गजयानवित् ॥ १८ ॥
मूलम्
त्रिगर्तराजः सुरथस्तस्याथ रथधूर्गतः ।
रथमाक्षेपयामास गजेन गजयानवित् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर हाथीका संचालन करनेमें निपुण त्रिगर्तराज सुरथने नकुलके रथके धुरेके पास पहुँचकर अपने हाथीके द्वारा उनके रथको दूर फेंकवा दिया॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नकुलस्त्वपभीस्तस्माद् रथाच्चर्मासिपाणिमान् ।
उद्भ्रान्तं स्थानमास्थाय तस्थौ गिरिरिवाचलः ॥ १९ ॥
मूलम्
नकुलस्त्वपभीस्तस्माद् रथाच्चर्मासिपाणिमान् ।
उद्भ्रान्तं स्थानमास्थाय तस्थौ गिरिरिवाचलः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु नकुलको इससे तनिक भी भय नहीं हुआ। वे हाथमें ढाल-तलवार लिये उस रथसे कूद पड़े और एक निरापद स्थानमें आकर पर्वतकी भाँति अविचलभावसे खड़े हो गये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरथस्तं गजवरं वधाय नकुलस्य तु।
प्रेषयामास सक्रोधमत्युच्छ्रितकरं ततः ॥ २० ॥
मूलम्
सुरथस्तं गजवरं वधाय नकुलस्य तु।
प्रेषयामास सक्रोधमत्युच्छ्रितकरं ततः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सुरथने कुपित होकर अत्यन्त ऊँचे सूँड़ उठाये हुए उस गजराजको नकुलका वध करनेके लिये प्रेरित किया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नकुलस्तस्य नागस्य समीपपरिवर्तिनः ।
सविषाणं भुजं मूले खड्गेन निरकृन्तत ॥ २१ ॥
मूलम्
नकुलस्तस्य नागस्य समीपपरिवर्तिनः ।
सविषाणं भुजं मूले खड्गेन निरकृन्तत ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु नकुलने खड्गद्वारा अपने निकट आये हुए उस हाथीकी सूँड़को दाँतोंसहित जड़से काट डाला॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स विनद्य महानादं गजः किङ्किणिभूषणः।
पतन्नवाक्शिरा भूमौ हस्त्यारोहमपोथयत् ॥ २२ ॥
मूलम्
स विनद्य महानादं गजः किङ्किणिभूषणः।
पतन्नवाक्शिरा भूमौ हस्त्यारोहमपोथयत् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो घुघुरुओंसे विभूषित वह गजराज बड़े जोरसे चीत्कार करके नीचे मस्तक किये पृथ्वीपर गिर पड़ा। गिरते-गिरते उसने महावतको भी पृथ्वीपर दे मारा॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तत् कर्म महत् कृत्वा शूरो माद्रवतीसुतः।
भीमसेनरथं प्राप्य शर्म लेभे महारथः ॥ २३ ॥
मूलम्
स तत् कर्म महत् कृत्वा शूरो माद्रवतीसुतः।
भीमसेनरथं प्राप्य शर्म लेभे महारथः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह महान् पराक्रम प्रकट करके शूरवीर माद्रीनन्दन महारथी नकुल भीमसेनके रथपर चढ़ गये और वहीं पहुँचकर उन्हें शान्ति मिली॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमस्त्वापततो राज्ञः कोटिकास्यस्य सङ्गरे।
सूतस्य नुदतो वाहान् क्षुरेणापाहरच्छिरः ॥ २४ ॥
मूलम्
भीमस्त्वापततो राज्ञः कोटिकास्यस्य सङ्गरे।
सूतस्य नुदतो वाहान् क्षुरेणापाहरच्छिरः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर भीमसेनने युद्धमें अपने ऊपर आक्रमण करनेवाले राजा कोटिकास्यके सारथिका, जो उस समय घोड़ोंका संचालन कर रहा था, छुरेसे सिर उड़ा दिया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न बुबोध हतं सूतं स राजा बाहुशालिना।
तस्याश्वा व्यद्रवन् संख्ये हतसूतास्ततस्ततः ॥ २५ ॥
मूलम्
न बुबोध हतं सूतं स राजा बाहुशालिना।
तस्याश्वा व्यद्रवन् संख्ये हतसूतास्ततस्ततः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु राजाको यह मालूम न हो सका कि बाहुशाली भीमके द्वारा मेरा सारथि मारा गया है। उसके मारे जानेसे कोटिकास्यके घोड़े रणभूमिमें इधर-उधर भागने लगे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमुखं हतसूतं तं भीमः प्रहरतां वरः।
जघान तलयुक्तेन प्रासेनाभ्येत्य पाण्डवः ॥ २६ ॥
मूलम्
विमुखं हतसूतं तं भीमः प्रहरतां वरः।
जघान तलयुक्तेन प्रासेनाभ्येत्य पाण्डवः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सारथिके नष्ट हो जानेसे कोटिकास्यको रणसे विमुख हुआ देख योद्धाओंमें श्रेष्ठ पाण्डुनन्दन भीमसेनने उसके पास जाकर प्रास नामक मूठदार शस्त्रसे उसे मार डाला॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वादशानां तु सर्वेषां सौवीराणां धनंजयः।
चकर्त निशितैर्भल्लैर्धनूंषि च शिरांसि च ॥ २७ ॥
मूलम्
द्वादशानां तु सर्वेषां सौवीराणां धनंजयः।
चकर्त निशितैर्भल्लैर्धनूंषि च शिरांसि च ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने सौवीरदेशके जो बारह राजकुमार थे, उन सबके धनुष और मस्तक अपने भल्ल नामक तीखे बाणोंसे काट गिराये॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिबीनिक्ष्वाकुमुख्यांश्च त्रिगर्तान् सैन्धवानपि ।
जघानातिरथः संख्ये बाणगोचरमागतान् ॥ २८ ॥
मूलम्
शिबीनिक्ष्वाकुमुख्यांश्च त्रिगर्तान् सैन्धवानपि ।
जघानातिरथः संख्ये बाणगोचरमागतान् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन अतिरथी वीरने युद्धमें बाणोंके लक्ष्य बने हुए शिबि, इक्ष्वाकु, त्रिगर्त और सिन्धुदेशके क्षत्रियोंको भी मार डाला॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सादिताः प्रत्यदृश्यन्त बहवः सव्यसाचिना।
सपताकाश्च मातङ्गाः सध्वजाश्च महारथाः ॥ २९ ॥
मूलम्
सादिताः प्रत्यदृश्यन्त बहवः सव्यसाचिना।
सपताकाश्च मातङ्गाः सध्वजाश्च महारथाः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सव्यसाची अर्जुनके द्वारा मारे या नष्ट किये गये पताकासहित बहुतेरे हाथी और ध्वजायुक्त अनेक विशाल रथ दृष्टिगोचर हो रहे थे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रच्छाद्य पृथिवीं तस्थुः सर्वमायोधनं प्रति।
शरीराण्यशिरस्कानि विदेहानि शिरांसि च ॥ ३० ॥
मूलम्
प्रच्छाद्य पृथिवीं तस्थुः सर्वमायोधनं प्रति।
शरीराण्यशिरस्कानि विदेहानि शिरांसि च ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय बिना सिरके धड़ और बिना धड़के सिर समस्त रणभूमिको आच्छादित करके बिखरे पड़े थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्वगृध्रकङ्ककाकोलभासगोमायुवायसाः ।
अतृप्यंस्तत्र वीराणां हतानां मांसशोणितैः ॥ ३१ ॥
मूलम्
श्वगृध्रकङ्ककाकोलभासगोमायुवायसाः ।
अतृप्यंस्तत्र वीराणां हतानां मांसशोणितैः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ मारे गये वीरोंके मांस तथा रक्तसे कुत्ते, गीध, कंक (सफेद चीलें), काकोल (पहाड़ी कौए) चीलें, गीदड़ और कौए तृप्त हो रहे थे॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतेषु तेषु वीरेषु सिन्धुराजो जयद्रथः।
विमुच्य कृष्णां संत्रस्तः पलायनपरोऽभवत् ॥ ३२ ॥
मूलम्
हतेषु तेषु वीरेषु सिन्धुराजो जयद्रथः।
विमुच्य कृष्णां संत्रस्तः पलायनपरोऽभवत् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन वीरोंके मारे जानेपर सिन्धुराज जयद्रथ भयसे थर्रा उठा और द्रौपदीको वहीं छोड़कर उसने भाग जानेका विचार किया॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तस्मिन् संकुले सैन्ये द्रौपदीमवतार्य ताम्।
प्राणप्रेप्सुरुपाधावद् वनं येन नराधमः ॥ ३३ ॥
मूलम्
स तस्मिन् संकुले सैन्ये द्रौपदीमवतार्य ताम्।
प्राणप्रेप्सुरुपाधावद् वनं येन नराधमः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस तितर-बितर हुई सेनाके बीच उस द्रौपदीको रथसे उतारकर नराधम जयद्रथ अपने प्राण बचानेके लिये वनकी ओर भागा॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौपदीं धर्मराजस्तु दृष्ट्वा धौम्यपुरस्कृताम्।
माद्रीपुत्रेण वीरेण रथमारोपयत् तदा ॥ ३४ ॥
मूलम्
द्रौपदीं धर्मराजस्तु दृष्ट्वा धौम्यपुरस्कृताम्।
माद्रीपुत्रेण वीरेण रथमारोपयत् तदा ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मराज युधिष्ठिरने देखा कि द्रौपदी धौम्य मुनिको आगे करके आ रही है, तो उन्होंने वीरवर माद्रीनन्दन सहदेवद्वारा उसे रथपर चढ़वा लिया॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तद् विद्रुतं सैन्यमपयाते जयद्रथे।
आदिश्यादिश्य नाराचैराजघान वृकोदरः ॥ ३५ ॥
मूलम्
ततस्तद् विद्रुतं सैन्यमपयाते जयद्रथे।
आदिश्यादिश्य नाराचैराजघान वृकोदरः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जयद्रथके भाग जानेपर सारी सेना इधर-उधर भाग चली, परंतु भीमसेन अपने नाराचोंद्वारा नाम बता-बताकर उन सैनिकोंका वध करने लगे॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सव्यसाची तु तं दृष्ट्वा पलायन्तं जयद्रथम्।
वारयामास निघ्नन्तं भीमं सैन्धवसैनिकान् ॥ ३६ ॥
मूलम्
सव्यसाची तु तं दृष्ट्वा पलायन्तं जयद्रथम्।
वारयामास निघ्नन्तं भीमं सैन्धवसैनिकान् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जयद्रथको भागते देख अर्जुनने उसके सैनिकोंके संहारमें लगे हुए भीमसेनको रोका॥३६॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्यापचारात् प्राप्तोऽयमस्मान् क्लेशो दुरासदः।
तमस्मिन् समरोद्देशे न पश्यामि जयद्रथम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
यस्यापचारात् प्राप्तोऽयमस्मान् क्लेशो दुरासदः।
तमस्मिन् समरोद्देशे न पश्यामि जयद्रथम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन बोले— जिसके अत्याचारसे हमलोगोंको यह दुःसह क्लेश सहन करना पड़ा है, उस जयद्रथको तो मैं इस समरभूमिमें देखता ही नहीं हूँ॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेवान्विष भद्रं ते किं ते योधैर्निपातितैः।
अनामिषमिदं कर्म कथं वा मन्यते भवान् ॥ ३८ ॥
मूलम्
तमेवान्विष भद्रं ते किं ते योधैर्निपातितैः।
अनामिषमिदं कर्म कथं वा मन्यते भवान् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भैया! आपका भला हो, आप जयद्रथकी ही खोज करें, इन (निरीह) सैनिकोंको मारनेसे क्या लाभ? यह कार्य तो निष्फल दिखायी देता है अथवा आप इसे कैसा समझते हैं?॥३८॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तो भीमसेनस्तु गुडाकेशेन धीमता।
युधिष्ठिरमभिप्रेक्ष्य वाग्मी वचनमब्रवीत् ॥ ३९ ॥
मूलम्
इत्युक्तो भीमसेनस्तु गुडाकेशेन धीमता।
युधिष्ठिरमभिप्रेक्ष्य वाग्मी वचनमब्रवीत् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! बुद्धिमान् अर्जुनके ऐसा कहनेपर बातचीतमें कुशल भीमसेनने युधिष्ठिरकी ओर देखकर कहा—॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतप्रवीरा रिपवो भूयिष्ठं विद्रुता दिशः।
गृहीत्वा द्रौपदीं राजन् निवर्ततु भवानितः ॥ ४० ॥
मूलम्
हतप्रवीरा रिपवो भूयिष्ठं विद्रुता दिशः।
गृहीत्वा द्रौपदीं राजन् निवर्ततु भवानितः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! शत्रुओंके प्रमुख वीर मारे जा चुके हैं और बहुत-से सैनिक सब दिशाओंमें भाग गये हैं। अब आप द्रौपदीको साथ लेकर यहाँसे आश्रमको लौटिये॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमाभ्यां सह राजेन्द्र धौम्येन च महात्मना।
प्राप्याश्रमपदं राजन् द्रौपदीं परिसान्त्वय ॥ ४१ ॥
मूलम्
यमाभ्यां सह राजेन्द्र धौम्येन च महात्मना।
प्राप्याश्रमपदं राजन् द्रौपदीं परिसान्त्वय ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! आप नकुल, सहदेव तथा महात्मा धौम्यके साथ आश्रमपर पहुँचकर द्रौपदीको सान्त्वना दीजिये॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि मे मोक्ष्यते जीवन् मूढः सैन्धवको नृपः।
पातालतलसंस्थोऽपि यदि शक्रोऽस्य सारथिः ॥ ४२ ॥
मूलम्
न हि मे मोक्ष्यते जीवन् मूढः सैन्धवको नृपः।
पातालतलसंस्थोऽपि यदि शक्रोऽस्य सारथिः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मूर्ख सिन्धुराज जयद्रथ यदि पातालमें घुस जाय अथवा इन्द्र भी उसके सारथि या सहायक होकर आ जायँ तो भी आज वह मेरे हाथसे जीवित नहीं बच सकता’॥४२॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हन्तव्यो महाबाहो दुरात्मापि स सैन्धवः।
दुःशलामभिसंस्मृत्य गान्धारीं च यशस्विनीम् ॥ ४३ ॥
मूलम्
न हन्तव्यो महाबाहो दुरात्मापि स सैन्धवः।
दुःशलामभिसंस्मृत्य गान्धारीं च यशस्विनीम् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— महाबाहो! सिन्धुराज जयद्रथ यद्यपि अत्यन्त दुरात्मा है; तथापि बहिन दुःशला और यशस्विनी माता गान्धारीको स्मरण करके उसका वध न करना॥४३॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा द्रौपदी भीममुवाच व्याकुलेन्द्रिया।
कुपिता ह्रीमती प्राज्ञा पती भीमार्जुनावुभौ ॥ ४४ ॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा द्रौपदी भीममुवाच व्याकुलेन्द्रिया।
कुपिता ह्रीमती प्राज्ञा पती भीमार्जुनावुभौ ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! युधिष्ठिरकी यह बात सुनकर द्रौपदीकी सारी इन्द्रियाँ व्याकुल हो उठीं। वह लज्जावती और बुद्धिमती होनेपर भी भीमसेन और अर्जुन दोनों पतियोंसे कुपित होकर बोली—॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्तव्यं चेत् प्रियं मह्यं वध्यः स पुरुषाधमः।
सैन्धवापसदः पापो दुर्मतिः कुलपांसनः ॥ ४५ ॥
मूलम्
कर्तव्यं चेत् प्रियं मह्यं वध्यः स पुरुषाधमः।
सैन्धवापसदः पापो दुर्मतिः कुलपांसनः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि आप लोगोंको मेरा प्रिय करना है तो उस नराधमको अवश्य मार डालिये। वह पापी दुर्बुद्धि जयद्रथ सिन्धुदेशका कलङ्क और कुलाङ्गार है॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भार्याभिहर्ता वैरी यो यश्च राज्यहरो रिपुः।
याचमानोऽपि संग्रामे न मोक्तव्यः कथंचन ॥ ४६ ॥
मूलम्
भार्याभिहर्ता वैरी यो यश्च राज्यहरो रिपुः।
याचमानोऽपि संग्रामे न मोक्तव्यः कथंचन ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो अपनी पत्नीका अपहरण करनेवाला तथा राज्यको हड़प लेनेवाला हो, ऐसे शत्रुको युद्धमें पाकर वह प्राणोंकी भीख माँगे तो भी किसी तरह जीवित नहीं छोड़ना चाहिये’॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तौ तौ नरव्याघ्रौ ययतुर्यत्र सैन्धवः।
राजा निववृते कृष्णामादाय सपुरोहितः ॥ ४७ ॥
मूलम्
इत्युक्तौ तौ नरव्याघ्रौ ययतुर्यत्र सैन्धवः।
राजा निववृते कृष्णामादाय सपुरोहितः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रौपदीके ऐसा कहनेपर वे दोनों नरश्रेष्ठ जिस ओर जयद्रथ गया था, उसी ओर चल दिये तथा राजा युधिष्ठिर द्रौपदीको लेकर पुरोहित धौम्यके साथ आश्रमपर चल पड़े॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स प्रविश्याश्रमपदमपविद्धबृसीमठम् ।
मार्कण्डेयादिभिर्विप्रैरनुकीर्णं ददर्श ह ॥ ४८ ॥
मूलम्
स प्रविश्याश्रमपदमपविद्धबृसीमठम् ।
मार्कण्डेयादिभिर्विप्रैरनुकीर्णं ददर्श ह ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने आश्रममें प्रवेश करके देखा कि बैठनेके आसन और स्वाध्यायके लिये बनी हुई पर्णशालामें सब वस्तुएँ इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं। मार्कण्डेय आदि ब्रह्मर्षि वहाँ इकट्ठे हो रहे थे॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौपदीमनुशोचद्भिर्ब्राह्मणैस्तैः समाहितैः ।
समियाय महाप्राज्ञः सभार्यो भ्रातृमध्यगः ॥ ४९ ॥
मूलम्
द्रौपदीमनुशोचद्भिर्ब्राह्मणैस्तैः समाहितैः ।
समियाय महाप्राज्ञः सभार्यो भ्रातृमध्यगः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब ब्राह्मण एकाग्रचित्त हो द्रौपदीके लिये ही बार-बार शोक कर रहे थे। इतनेमें ही पत्नीसहित परम बुद्धिमान् युधिष्ठिर अपने भाई नकुल और सहदेवके बीचमें होकर चलते हुए वहाँ आ पहुँचे॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते स्म तं मुदिता दृष्ट्वा पुनः प्रत्यागतं नृपम्।
जित्वा तान् सिन्धुसौवीरान् द्रौपदीं चाहृतां पुनः ॥ ५० ॥
मूलम्
ते स्म तं मुदिता दृष्ट्वा पुनः प्रत्यागतं नृपम्।
जित्वा तान् सिन्धुसौवीरान् द्रौपदीं चाहृतां पुनः ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सिन्धु और सौवीरदेशके क्षत्रियोंको जीतकर महाराज लौटे हैं और द्रौपदीदेवी भी पुनः आश्रममें आ गयी हैं, यह देखकर उन ऋषियोंको बड़ी प्रसन्नता हुई॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तैः परिवृतो राजा तत्रैवोपविवेश ह।
प्रविवेशाश्रमं कृष्णा यमाभ्यां सह भाविनी ॥ ५१ ॥
मूलम्
स तैः परिवृतो राजा तत्रैवोपविवेश ह।
प्रविवेशाश्रमं कृष्णा यमाभ्यां सह भाविनी ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन ब्राह्मणोंसे घिरे हुए राजा युधिष्ठिर वहीं बैठ गये और भामिनी कृष्णा नकुल-सहदेवके साथ आश्रमके भीतर चली गयी॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनार्जुनौ चापि श्रुत्वा क्रोशगतं रिपुम्।
स्वयमश्वांस्तुदन्तौ तौ जवेनैवाभ्यधावताम् ॥ ५२ ॥
मूलम्
भीमसेनार्जुनौ चापि श्रुत्वा क्रोशगतं रिपुम्।
स्वयमश्वांस्तुदन्तौ तौ जवेनैवाभ्यधावताम् ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर भीमसेन और अर्जुनने जब सुना कि हमारा शत्रु जयद्रथ एक कोस आगे निकल गया है, तब वे स्वयं अपने घोड़ोंको हाँकते हुए बड़े वेगसे उसके पीछे दौड़े॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदमत्यद्भुतं चात्र चकार पुरुषोऽर्जुनः।
क्रोशमात्रगतानश्वान् सैन्धवस्य जघान यत् ॥ ५३ ॥
स हि दिव्यास्त्रसम्पन्नः कृच्छ्रकालेऽप्यसम्भ्रमः।
अकरोद् दुष्करं कर्म शरैरस्त्रानुमन्त्रितैः ॥ ५४ ॥
मूलम्
इदमत्यद्भुतं चात्र चकार पुरुषोऽर्जुनः।
क्रोशमात्रगतानश्वान् सैन्धवस्य जघान यत् ॥ ५३ ॥
स हि दिव्यास्त्रसम्पन्नः कृच्छ्रकालेऽप्यसम्भ्रमः।
अकरोद् दुष्करं कर्म शरैरस्त्रानुमन्त्रितैः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ वीर पुरुष अर्जुनने एक अद्भुत पराक्रम दिखाया। यद्यपि जयद्रथके घोड़े एक कोस आगे निकल गये थे, तो भी उन्होंने दिव्यास्त्रोंसे अभिमन्त्रित बाणोंद्वारा उन्हें दूरसे ही मार डाला। अर्जुन दिव्यास्त्रसे सम्पन्न थे। संकटकालमें भी घबराते नहीं थे। इसीलिये उन्होंने वह दुष्कर कर्म कर दिखाया॥५३-५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽभ्यधावतां वीरावुभौ भीमधनंजयौ ।
हताश्वं सैन्धवं भीतमेकं व्याकुलचेतसम् ॥ ५५ ॥
मूलम्
ततोऽभ्यधावतां वीरावुभौ भीमधनंजयौ ।
हताश्वं सैन्धवं भीतमेकं व्याकुलचेतसम् ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् वे दोनों वीर भीम और अर्जुन जयद्रथके पीछे दौड़े। वह अकेला तो था ही, घोड़ोंके मारे जानेसे अत्यन्त भयभीत भी हो गया था। उसके हृदयमें व्याकुलता छा गयी थी॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैन्धवस्तु हतान् दृष्ट्वा तथाश्वान् स्वान् सुदुःखितः।
अतिविक्रमकर्माणि कुर्वाणं च धनंजयम् ॥ ५६ ॥
मूलम्
सैन्धवस्तु हतान् दृष्ट्वा तथाश्वान् स्वान् सुदुःखितः।
अतिविक्रमकर्माणि कुर्वाणं च धनंजयम् ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सिन्धुराज अपने घोड़ोंको मारा गया देख और अलौकिक पराक्रम कर दिखानेवाले अर्जुनको आता जान अत्यन्त दुःखी हो गया॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पलायनकृतोत्साहः प्राद्रवद् येन वै वनम्।
सैन्धवं त्वभिसम्प्रेक्ष्य पराक्रान्तं पलायने ॥ ५७ ॥
अनुयाय महाबाहुः फाल्गुनो वाक्यमब्रवीत्।
मूलम्
पलायनकृतोत्साहः प्राद्रवद् येन वै वनम्।
सैन्धवं त्वभिसम्प्रेक्ष्य पराक्रान्तं पलायने ॥ ५७ ॥
अनुयाय महाबाहुः फाल्गुनो वाक्यमब्रवीत्।
अनुवाद (हिन्दी)
अब उसमें केवल भागनेका उत्साह रह गया था, अतः वह वनकी ओर भागा। सिन्धुराजको केवल भागनेमें ही पराक्रम दिखाता देख महाबाहु अर्जुन उसका पीछा करते हुए बोले—॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेन वीर्येण कथं स्त्रियं प्रार्थयसे बलात् ॥ ५८ ॥
राजपुत्र निवर्तस्व न ते युक्तं पलायनम्।
कथं ह्यनुचरान् हित्वा शत्रुमध्ये पलायसे ॥ ५९ ॥
मूलम्
अनेन वीर्येण कथं स्त्रियं प्रार्थयसे बलात् ॥ ५८ ॥
राजपुत्र निवर्तस्व न ते युक्तं पलायनम्।
कथं ह्यनुचरान् हित्वा शत्रुमध्ये पलायसे ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजकुमार! लौटो, तुम्हें पीठ दिखाकर भागना शोभा नहीं देता। अपने सेवकोंको शत्रुओंके बीचमें छोड़कर कैसे भागे जा रहे हो? क्या इसी बलसे तुम दूसरेकी स्त्रीको बलपूर्वक हरकर ले जाना चाहते थे?’॥५८-५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युच्यमानः पार्थेन सैन्धवो न न्यवर्तत।
तिष्ठ तिष्ठेति तं भीमः सहसाभ्यद्रवद् बली।
मा वधीरिति पार्थस्तं दयावान् प्रत्यभाषत ॥ ६० ॥
मूलम्
इत्युच्यमानः पार्थेन सैन्धवो न न्यवर्तत।
तिष्ठ तिष्ठेति तं भीमः सहसाभ्यद्रवद् बली।
मा वधीरिति पार्थस्तं दयावान् प्रत्यभाषत ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनके इस प्रकार ताने देनेपर भी सिन्धुराज नहीं लौटा, तब महाबली भीम ‘ठहरो, ठहरो’ कहते हुए सहसा उसके पीछे दौड़े। उस समय दयालु अर्जुनने उनसे कहा—‘भैया! इसकी जान न मारना’॥६०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि द्रौपदीहरणपर्वणि जयद्रथपलायने एकसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २७१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत द्रौपदीहरणपर्वमें जयद्रथपलायनविषयक दो सौ इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२७१॥