भागसूचना
सप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
द्रौपदीद्वारा जयद्रथके सामने पाण्डवोंके पराक्रमका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो घोरतरः शब्दो वने समभवत् तदा।
भीमसेनार्जुनौ दृष्ट्वा क्षत्रियाणाममर्षिणाम् ॥ १ ॥
मूलम्
ततो घोरतरः शब्दो वने समभवत् तदा।
भीमसेनार्जुनौ दृष्ट्वा क्षत्रियाणाममर्षिणाम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर उस वनमें भीमसेन और अर्जुनको देखकर अमर्षमें भरे हुए क्षत्रियोंका अत्यन्त घोर कोलाहल सुनायी देने लगा॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां ध्वजाग्राण्यभिवीक्ष्य राजा
स्वयं दुरात्मा नरपुङ्गवानाम् ।
जयद्रथो याज्ञसेनीमुवाच
रथे स्थितां भानुमतीं हतौजाः ॥ २ ॥
मूलम्
तेषां ध्वजाग्राण्यभिवीक्ष्य राजा
स्वयं दुरात्मा नरपुङ्गवानाम् ।
जयद्रथो याज्ञसेनीमुवाच
रथे स्थितां भानुमतीं हतौजाः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन नरश्रेष्ठ वीरोंकी ध्वजाओंके अग्रभागोंको देखकर हतोत्साह हुए दुरात्मा राजा जयद्रथने अपने रथपर बैठी हुई तेजस्विनी द्रौपदीसे स्वयं कहा—॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयान्तीमे पञ्च रथा महान्तो
मन्ये च कृष्णे पतयस्तवैते।
सा जानती ख्यापय नः सुकेशि
परं परं पाण्डवानां रथस्थम् ॥ ३ ॥
मूलम्
आयान्तीमे पञ्च रथा महान्तो
मन्ये च कृष्णे पतयस्तवैते।
सा जानती ख्यापय नः सुकेशि
परं परं पाण्डवानां रथस्थम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुन्दर केशोंवाली कृष्णे! ये पाँच विशाल रथ आ रहे हैं। जान पड़ता है, इनमें तुम्हारे पति ही बैठे हैं। तुम तो सबको जानती ही हो। मुझे रथपर बैठे हुए इन पाण्डवोंमेंसे एक-एकका उत्तरोत्तर परिचय दो’॥३॥
मूलम् (वचनम्)
द्रौपद्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं ते ज्ञातैर्मूढ महाधनुर्धरै-
रनायुष्यं कर्म कृत्वातिघोरम् ।
एते वीराः पतयो मे समेता
न वः शेषः कश्चिदिहास्ति युद्धे ॥ ४ ॥
मूलम्
किं ते ज्ञातैर्मूढ महाधनुर्धरै-
रनायुष्यं कर्म कृत्वातिघोरम् ।
एते वीराः पतयो मे समेता
न वः शेषः कश्चिदिहास्ति युद्धे ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रौपदी बोली— अरे मूढ़! आयुका नाश करनेवाला वह अत्यन्त भयंकर नीच कर्म करके अब तू इन महाधनुर्धर पाण्डव वीरोंका परिचय जानकर क्या करेगा? ये मेरे सभी वीर पति जुट गये हैं। इनके साथ जो युद्ध होनेवाला है, उसमें तेरे पक्षका कोई भी मनुष्य जीवित नहीं बचेगा॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आख्यातव्यं त्वेव सर्वं मुमूर्षो-
र्मया तुभ्यं पृष्टया धर्म एषः।
न मे व्यथा विद्यते त्वद्भयं वा
सम्पश्यन्त्याः सानुजं धर्मराजम् ॥ ५ ॥
मूलम्
आख्यातव्यं त्वेव सर्वं मुमूर्षो-
र्मया तुभ्यं पृष्टया धर्म एषः।
न मे व्यथा विद्यते त्वद्भयं वा
सम्पश्यन्त्याः सानुजं धर्मराजम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं भाइयोंसहित धर्मराज युधिष्ठिरको सामने देख रही हूँ; अतः अब न मुझे दुःख है और न तेरा डर ही है। अब तू शीघ्र ही मरना चाहता है; अतः ऐसे समयमें तूने मुझसे जो कुछ पूछा है, उसका उत्तर तुझे दे देना उचित है; यही धर्म है। (अतः मैं अपने पतियोंका परिचय देती हूँ)॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य ध्वजाग्रे नदतो मृदङ्गौ
नन्दोपनन्दौ मधुरौ युक्तरूपौ ।
एतं स्वधर्मार्थविनिश्चयज्ञं
सदा जनाः कृत्यवन्तोऽनुयान्ति ॥ ६ ॥
य एष जाम्बूनदशुद्धगौरः
प्रचण्डघोणस्तनुरायताक्षः ।
एतं कुरुश्रेष्ठतमं वदन्ति
युधिष्ठिरं धर्मसुतं पतिं मे ॥ ७ ॥
मूलम्
यस्य ध्वजाग्रे नदतो मृदङ्गौ
नन्दोपनन्दौ मधुरौ युक्तरूपौ ।
एतं स्वधर्मार्थविनिश्चयज्ञं
सदा जनाः कृत्यवन्तोऽनुयान्ति ॥ ६ ॥
य एष जाम्बूनदशुद्धगौरः
प्रचण्डघोणस्तनुरायताक्षः ।
एतं कुरुश्रेष्ठतमं वदन्ति
युधिष्ठिरं धर्मसुतं पतिं मे ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनकी ध्वजाके सिरेपर बँधे हुए नन्द और उपनन्द नामक दो सुन्दर मृदंग मधुर स्वरमें बज रहे हैं, जिनका शरीर जाम्बूनद सुवर्णके समान विशुद्ध गौरवर्णका है, जिनकी नासिका ऊँची और नेत्र बड़े-बड़े हैं, जो देखनेमें दुबले-पतले हैं, कुरुकुलके इन श्रेष्ठतम पुरुषको ही धर्मनन्दन युधिष्ठिर कहते हैं। ये मेरे पति हैं। ये अपने धर्म और अर्थके सिद्धान्तको अच्छी तरह जानते हैं; अतः आवश्यकता पड़नेपर लोग इनका सदा अनुसरण करते हैं॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्येष शत्रोः शरणागतस्य
दद्यात् प्राणान् धर्मचारी नृवीरः।
परेह्येनं मूढ जवेन भूतये
त्वमात्मनः प्राञ्जलिर्न्यस्तशस्त्रः ॥ ८ ॥
मूलम्
अप्येष शत्रोः शरणागतस्य
दद्यात् प्राणान् धर्मचारी नृवीरः।
परेह्येनं मूढ जवेन भूतये
त्वमात्मनः प्राञ्जलिर्न्यस्तशस्त्रः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये धर्मात्मा नरवीर अपनी शरणमें आये हुए शत्रुको भी प्राणदान दे देते हैं। अरे मूर्ख! यदि तू अपनी भलाई चाहता है तो हथियार नीचे डाल दे और हाथ जोड़कर शीघ्र इनकी शरणमें जा॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाप्येनं पश्यसि यं रथस्थं
महाभुजं शालमिव प्रवृद्धम् ।
संदष्टौष्ठं भ्रुकुटीसंहतभ्रुवं
वृकोदरो नाम पतिर्ममैषः ॥ ९ ॥
आजानेया बलिनः साधु दान्ता
महाबलाः शूरमुदावहन्ति ।
एतस्य कर्माण्यतिमानुषाणि
भीमेति शब्दोऽस्य गतः पृथिव्याम् ॥ १० ॥
मूलम्
अथाप्येनं पश्यसि यं रथस्थं
महाभुजं शालमिव प्रवृद्धम् ।
संदष्टौष्ठं भ्रुकुटीसंहतभ्रुवं
वृकोदरो नाम पतिर्ममैषः ॥ ९ ॥
आजानेया बलिनः साधु दान्ता
महाबलाः शूरमुदावहन्ति ।
एतस्य कर्माण्यतिमानुषाणि
भीमेति शब्दोऽस्य गतः पृथिव्याम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये जो शाल (साखू)-के वृक्षकी तरह ऊँचे और विशाल भुजाओंसे सुशोभित वीर पुरुष तुझे रथमें बैठे दिखायी देते हैं, जो क्रोधके मारे भौंहें टेढ़ी करके दाँतोंसे अपने ओंठ चबा रहे हैं, ये मेरे दूसरे पति वृकोदर हैं। बड़े बलवान्, सुशिक्षित और शक्तिशाली आजानेय नामक अश्व इन शूरशिरोमणिके रथको खींचते हैं। इनके सभी कर्म प्रायः ऐसे होते हैं, जिन्हें मानवजगत् नहीं कर सकता। ये अपने भयंकर पराक्रमके कारण इस भूतलपर भीमके नामसे विख्यात हैं॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्यापराद्धाः शेषमवाप्नुवन्ति
नायं वैरं विस्मरते कदाचित्।
वैरस्यान्तं संविधायोपयाति
पश्चाच्छान्तिं न च गच्छत्यतीव ॥ ११ ॥
मूलम्
नास्यापराद्धाः शेषमवाप्नुवन्ति
नायं वैरं विस्मरते कदाचित्।
वैरस्यान्तं संविधायोपयाति
पश्चाच्छान्तिं न च गच्छत्यतीव ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके अपराधी कभी जीवित नहीं रह सकते। ये वैरको कभी नहीं भूलते हैं और वैरका बदला लेकर ही रहते हैं। बदला लेनेके बाद भी अच्छी तरह शान्त नहीं हो पाते॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनुर्धराग्र्यो धृतिमान् यशस्वी
जितेन्द्रियो वृद्धसेवी नृवीरः ।
भ्राता च शिष्यश्च युधिष्ठिरस्य
धनंजयो नाम पतिर्ममैषः ॥ १२ ॥
यो वै न कामान्न भयान्न लोभात्
त्यजेद् धर्मं न नृशंसं च कुर्यात्।
स एष वैश्वानरतुल्यतेजाः
कुन्तीसुतः शत्रुसहः प्रमाथी ॥ १३ ॥
मूलम्
धनुर्धराग्र्यो धृतिमान् यशस्वी
जितेन्द्रियो वृद्धसेवी नृवीरः ।
भ्राता च शिष्यश्च युधिष्ठिरस्य
धनंजयो नाम पतिर्ममैषः ॥ १२ ॥
यो वै न कामान्न भयान्न लोभात्
त्यजेद् धर्मं न नृशंसं च कुर्यात्।
स एष वैश्वानरतुल्यतेजाः
कुन्तीसुतः शत्रुसहः प्रमाथी ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये जो तीसरे वीर पुरुष दिखायी दे रहे हैं, वे मेरे पति धनंजय हैं। इन्हें समस्त धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ माना गया है। ये धैर्यवान्, यशस्वी, जितेन्द्रिय, वृद्धपुरुषोंके सेवक तथा महाराज युधिष्ठिरके भाई और शिष्य हैं। अर्जुन कभी काम, भय अथवा लोभवश न तो अपना धर्म छोड़ सकते हैं और न कोई निष्ठुरतापूर्ण कार्य ही कर सकते हैं। इनका तेज अग्निके समान है। ये कुन्तीनन्दन धनंजय समस्त शत्रुओंका सामना करनेमें समर्थ और सभी दुष्टोंका दमन करनेमें दक्ष हैं॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः सर्वधर्मार्थविनिश्चयज्ञो
भयार्तानां भयहर्ता मनीषी ।
यस्योत्तमं रूपमाहुः पृथिव्यां
यं पाण्डवाः परिरक्षन्ति सर्वे ॥ १४ ॥
प्राणैर्गरीयांसमनुव्रतं वै
स एष वीरो नकुलः पतिर्मे।
मूलम्
यः सर्वधर्मार्थविनिश्चयज्ञो
भयार्तानां भयहर्ता मनीषी ।
यस्योत्तमं रूपमाहुः पृथिव्यां
यं पाण्डवाः परिरक्षन्ति सर्वे ॥ १४ ॥
प्राणैर्गरीयांसमनुव्रतं वै
स एष वीरो नकुलः पतिर्मे।
अनुवाद (हिन्दी)
जो समस्त धर्म और अर्थके निश्चयको जानते हैं, भयसे पीड़ित मनुष्योंका भय दूर करते हैं, जो परम बुद्धिमान् हैं, इस भूमण्डलमें जिनका रूप सबसे सुन्दर बताया जाता है, जो अपने बड़े भाइयोंकी सेवामें तत्पर रहनेवाले और उन्हें प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं, समस्त पाण्डव जिनकी रक्षा करते हैं, वे ही ये मेरे वीर पति नकुल हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः खड्गयोधी लघुचित्रहस्तो
महांश्च धीमान् सहदेवोऽद्वितीयः ॥ १५ ॥
यस्याद्य कर्म द्रक्ष्यसे मूढसत्त्व
शतक्रतोर्वा दैत्यसेनासु संख्ये ।
शूरः कृतास्त्रो मतिमान् मनस्वी
प्रियङ्करो धर्मसुतस्य राज्ञः ॥ १६ ॥
मूलम्
यः खड्गयोधी लघुचित्रहस्तो
महांश्च धीमान् सहदेवोऽद्वितीयः ॥ १५ ॥
यस्याद्य कर्म द्रक्ष्यसे मूढसत्त्व
शतक्रतोर्वा दैत्यसेनासु संख्ये ।
शूरः कृतास्त्रो मतिमान् मनस्वी
प्रियङ्करो धर्मसुतस्य राज्ञः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो खड्गद्वारा युद्ध करनेकी कलामें कुशल हैं, जिनका हाथ बड़ी फुर्तीसे अद्भुत पैंतरे दिखाता हुआ चलता है, जो परम बुद्धिमान् और अद्वितीय वीर हैं, वे सहदेव मेरे पाँचवें पति हैं। ओ मूढ़ प्राणी! जैसे दैत्योंकी सेनामें देवराज इन्द्रका पराक्रम प्रकट होता है, उसी प्रकार युद्धमें तू आज सहदेवका महान् पौरुष देखेगा। वे शौर्यसम्पन्न, अस्त्रविद्याके विशेषज्ञ, बुद्धिमान्, मनस्वी तथा धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरका प्रिय करनेवाले हैं॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एष चन्द्रार्कसमानतेजा
जघन्यजः पाण्डवानां प्रियश्च ।
बुद्ध्या समो यस्य नरो न विद्यते
वक्ता तथा सत्सु विनिश्चयज्ञः ॥ १७ ॥
मूलम्
य एष चन्द्रार्कसमानतेजा
जघन्यजः पाण्डवानां प्रियश्च ।
बुद्ध्या समो यस्य नरो न विद्यते
वक्ता तथा सत्सु विनिश्चयज्ञः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनका तेज चन्द्रमा और सूर्यके समान है। ये पाण्डवोंमें सबसे छोटे और सबके प्रिय हैं। बुद्धिमें इनकी समानता करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। ये अच्छे वक्ता और सत्पुरुषोंकी सभामें सिद्धान्तके ज्ञाता माने गये हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एष शूरो नित्यममर्षणश्च
धीमान् प्राज्ञः सहदेवः पतिर्मे।
त्यजेत् प्राणान् प्रविशेद्धव्यवाहं
न त्वेवैष व्याहरेद् धर्मबाह्यम् ॥ १८ ॥
सदा मनस्वी क्षत्रधर्मे रतश्च
कुन्त्याः प्राणैरिष्टतमो नृवीरः ।
मूलम्
स एष शूरो नित्यममर्षणश्च
धीमान् प्राज्ञः सहदेवः पतिर्मे।
त्यजेत् प्राणान् प्रविशेद्धव्यवाहं
न त्वेवैष व्याहरेद् धर्मबाह्यम् ॥ १८ ॥
सदा मनस्वी क्षत्रधर्मे रतश्च
कुन्त्याः प्राणैरिष्टतमो नृवीरः ।
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे पति सहदेव शूरवीर, सदा ईर्ष्यारहित, बुद्धिमान् और विद्वान् हैं। ये अपने प्राण छोड़ सकते हैं, प्रज्वलित आगमें प्रवेश कर सकते हैं, परंतु धर्मके विरुद्ध कोई बात नहीं बोल सकते। नरवीर सहदेव सदा क्षत्रियधर्मके पालनमें तत्पर रहनेवाले और मनस्वी हैं। आर्या कुन्तीको ये प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशीर्यन्तीं नावमिवार्णवान्ते
रत्नाभिपूर्णां मकरस्य पृष्ठे ॥ १९ ॥
सेनां तवेमां हतसर्वयोधां
विक्षोभितां द्रक्ष्यसि पाण्डुपुत्रैः ।
मूलम्
विशीर्यन्तीं नावमिवार्णवान्ते
रत्नाभिपूर्णां मकरस्य पृष्ठे ॥ १९ ॥
सेनां तवेमां हतसर्वयोधां
विक्षोभितां द्रक्ष्यसि पाण्डुपुत्रैः ।
अनुवाद (हिन्दी)
(अरे मूढ!) रत्नोंसे लदी हुई नाव जैसे समुद्रके बीचमें जाकर किसी मगरमच्छकी पीठसे टकराकर टूट जाती है, उसी प्रकार पाण्डवलोग आज तेरे समस्त सैनिकोंका संहार करके तेरी इस सारी सेनाको छिन्न-भिन्न कर डालेंगे और तू अपनी आँखोंसे यह सब कुछ देखेगा॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येते वै कथिताः पाण्डुपुत्रा
यांस्त्वं मोहादवमन्य प्रवृत्तः ।
यद्येतेभ्यो मुच्यसेऽरिष्टदेहः
पुनर्जन्म प्राप्स्यसे जीव एव ॥ २० ॥
मूलम्
इत्येते वै कथिताः पाण्डुपुत्रा
यांस्त्वं मोहादवमन्य प्रवृत्तः ।
यद्येतेभ्यो मुच्यसेऽरिष्टदेहः
पुनर्जन्म प्राप्स्यसे जीव एव ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मैंने तुझे इन पाण्डवोंका परिचय दिया है, जिनका अपमान करके तू मोहवश इस नीच कर्ममें प्रवृत्त हुआ है। यदि आज तू इनके हाथोंसे जीवित बच जाय और तेरे शरीरपर कोई आँच नहीं आये, तो तुझे जीते-जी यह दूसरा जन्म प्राप्त हो॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पार्थाः पञ्च पञ्चेन्द्रकल्पा-
स्त्यक्त्वा त्रस्तान् प्राञ्जलींस्तान् पदातीन्।
रथानीकं शरवर्षान्धकारं
चक्रुः क्रुद्धाः सर्वतः संनिगृह्य ॥ २१ ॥
मूलम्
ततः पार्थाः पञ्च पञ्चेन्द्रकल्पा-
स्त्यक्त्वा त्रस्तान् प्राञ्जलींस्तान् पदातीन्।
रथानीकं शरवर्षान्धकारं
चक्रुः क्रुद्धाः सर्वतः संनिगृह्य ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! द्रौपदी यह बात कह ही रही थी कि पाँच इन्द्रोंके समान पराक्रमी पाँचों पाण्डव भयभीत होकर हाथ जोड़नेवाले पैदल सैनिकोंको छोड़कर कुपित हो रथ, हाथी और घोड़ोंसे युक्त अवशिष्ट सेनाको सब ओरसे घेरकर खड़े हो गये और बाणोंकी ऐसी घनघोर वर्षा करने लगे कि चारों ओर अन्धकार छा गया॥२१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि द्रौपदीहरणपर्वणि द्रौपदीवाक्ये सप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २७० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत द्रौपदीहरणपर्वमें द्रौपदीवचनविषयक दो सौ सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२७०॥