भागसूचना
एकोनसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
पाण्डवोंका आश्रमपर लौटना और धात्रेयिकासे द्रौपदीहरणका वृत्तान्त जानकर जयद्रथका पीछा करना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दिशः सम्प्रविहृत्य पार्था
मृगान् वराहान् महिषांश्च हत्वा।
धनुर्धराः श्रेष्ठतमाः पृथिव्यां
पृथक् चरन्तः सहिता बभूवुः ॥ १ ॥
मूलम्
ततो दिशः सम्प्रविहृत्य पार्था
मृगान् वराहान् महिषांश्च हत्वा।
धनुर्धराः श्रेष्ठतमाः पृथिव्यां
पृथक् चरन्तः सहिता बभूवुः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर भूमण्डलके श्रेष्ठतम धनुर्धर पाँचों कुन्तीकुमार सब दिशाओंमें घूम-फिरकर हिंसक पशुओं, वराहों और जंगली भैंसोंको मारकर पृथक्-पृथक् विचरते हुए एक साथ हो गये॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मृगव्यालगणानुकीर्णं
महावनं तद् विहगोपघुष्टम् ।
भ्रातॄंश्च तानभ्यवदद् युधिष्ठिरः
श्रुत्वा गिरो व्याहरतां मृगाणाम् ॥ २ ॥
मूलम्
ततो मृगव्यालगणानुकीर्णं
महावनं तद् विहगोपघुष्टम् ।
भ्रातॄंश्च तानभ्यवदद् युधिष्ठिरः
श्रुत्वा गिरो व्याहरतां मृगाणाम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय हिंसक पशुओं और साँपोंसे भरा हुआ वह महान् वन सहसा चिड़ियोंके चीत्कारसे गूँज उठा तथा वन्य पशु भी भयभीत होकर आर्तनाद करने लगे। उन सबकी आवाज सुनकर धर्मराज युधिष्ठिरने अपने भाइयोंसे कहा—॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदित्यदीप्तां दिशमभ्युपेत्य
मृगा द्विजाः क्रूरमिमे वदन्ति।
आयासमुग्रं प्रतिवेदयन्तो
महावनं शत्रुभिर्बाध्यमानम् ॥ ३ ॥
मूलम्
आदित्यदीप्तां दिशमभ्युपेत्य
मृगा द्विजाः क्रूरमिमे वदन्ति।
आयासमुग्रं प्रतिवेदयन्तो
महावनं शत्रुभिर्बाध्यमानम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भाइयो! देखो, ये मृग और पक्षी सूर्यके द्वारा प्रकाशित पूर्वदिशाकी ओर दौड़ते हुए अत्यन्त कठोर शब्द बोल रहे हैं और किसी भयंकर उत्पातकी सूचना देते हैं। जान पड़ता है, यह विशाल वन हमारे शत्रुओं-द्वारा पीड़ित हो रहा है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षिप्रं निवर्तध्वमलं विलम्बै-
र्मनो हि मे दूयति दह्यते च।
बुद्धिं समाच्छाद्य च मे समन्यु-
रुद्धूयते प्राणपतिः शरीरे ॥ ४ ॥
मूलम्
क्षिप्रं निवर्तध्वमलं विलम्बै-
र्मनो हि मे दूयति दह्यते च।
बुद्धिं समाच्छाद्य च मे समन्यु-
रुद्धूयते प्राणपतिः शरीरे ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब शीघ्र आश्रमकी ओर लौटो। हमें विलम्ब नहीं करना चाहिये; क्योंकि मेरा मन बुद्धिकी विवेकशक्तिको आच्छादित करके व्यथित तथा चिन्तासे दग्ध हो रहा है। तथा मेरे शरीरमें यह प्राणोंका स्वामी (जीव) भयभीत हुआ छटपटा रहा है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरः सुपर्णेन हृतोरगं यथा
राष्ट्रं यथाराजकमात्तलक्ष्मि ।
एवंविधं मे प्रतिभाति काम्यकं
शौण्डैर्यथा पीतरसश्च कुम्भः ॥ ५ ॥
मूलम्
सरः सुपर्णेन हृतोरगं यथा
राष्ट्रं यथाराजकमात्तलक्ष्मि ।
एवंविधं मे प्रतिभाति काम्यकं
शौण्डैर्यथा पीतरसश्च कुम्भः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे गरुडके द्वारा सरोवरमें रहनेवाले महासर्पके पकड़ लिये जानेपर वह मथित-सा हो उठता है, जैसे बिना राजाका राज्य श्रीहीन हो जाता है तथा जिस प्रकार रससे भरा हुआ घड़ा धूर्तोंद्वारा (चुपकेसे) पी लिये जानेपर सहसा खाली दिखायी देता है; उसी प्रकार शत्रुओंद्वारा काम्यकवनकी भी दुरवस्था की गयी है, ऐसा मुझे जान पड़ता है’॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते सैन्धवैरत्यनिलोग्रवेगै-
र्महाजवैर्वाजिभिरुह्यमानाः ।
युक्तैर्बृहद्भिः सुरथैर्नृवीरा-
स्तदाऽऽश्रमायाभिमुखा बभूवुः ॥ ६ ॥
मूलम्
ते सैन्धवैरत्यनिलोग्रवेगै-
र्महाजवैर्वाजिभिरुह्यमानाः ।
युक्तैर्बृहद्भिः सुरथैर्नृवीरा-
स्तदाऽऽश्रमायाभिमुखा बभूवुः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् वे नरवीर पाण्डव हवासे भी अधिक तेज चलनेवाले सिन्धुदेशके महान् वेगशाली अश्वोंसे जुते हुए सुन्दर एवं विशाल रथोंपर बैठकर आश्रमकी ओर चले॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां तु गोमायुरनल्पघोषो
निवर्ततां वाममुपेत्य पार्श्वम् ।
प्रव्याहरत् तत् प्रविमृश्य राजा
प्रोवाच भीमं च धनंजयं च ॥ ७ ॥
मूलम्
तेषां तु गोमायुरनल्पघोषो
निवर्ततां वाममुपेत्य पार्श्वम् ।
प्रव्याहरत् तत् प्रविमृश्य राजा
प्रोवाच भीमं च धनंजयं च ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय एक गीदड़ बड़े जोरसे रोता हुआ लौटते हुए पाण्डवोंके वामभागसे होकर निकल गया। इस अपशकुनपर विचार करके राजा युधिष्ठिरने भीमसेन और अर्जुनसे कहा—॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा वदत्येष विहीनयोनिः
शालावृको वाममुपेत्य पार्श्वम् ।
सुव्यक्तमस्मानवमन्य पापैः
कृतोऽभिमर्दः कुरुभिः प्रसह्य ॥ ८ ॥
मूलम्
यथा वदत्येष विहीनयोनिः
शालावृको वाममुपेत्य पार्श्वम् ।
सुव्यक्तमस्मानवमन्य पापैः
कृतोऽभिमर्दः कुरुभिः प्रसह्य ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह नीच योनिका गीदड़, जो हमलोगोंके वामभागसे होकर निकला है, जैसा शब्द कर रहा है, उससे स्पष्ट जान पड़ता है कि पापी कौरवोंने यहाँ आकर हमारी अवहेलना करते हुए हठपूर्वक भारी संहार मचा रखा है’॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येव ते तद् वनमाविशन्तो
महत्यरण्ये मृगयां चरित्वा ।
बालामपश्यन्त तदा रुदन्तीं
धात्रेयिकां प्रेष्यवधूं प्रियायाः ॥ ९ ॥
मूलम्
इत्येव ते तद् वनमाविशन्तो
महत्यरण्ये मृगयां चरित्वा ।
बालामपश्यन्त तदा रुदन्तीं
धात्रेयिकां प्रेष्यवधूं प्रियायाः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार उस विशाल वनमें शिकार खेलकर लौटे हुए पाण्डव जब आश्रमके समीपवर्ती वनमें प्रवेश करने लगे, तब उन्होंने देखा कि उनकी प्रिया द्रौपदीकी दासी धात्रेयिका, जो उन्हींके एक सेवककी स्त्री थी, रो रही है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामिन्द्रसेनस्त्वरितोऽभिसृत्य
रथादवप्लुत्य ततोऽभ्यधावत् ।
प्रोवाच चैनां वचनं नरेन्द्र
धात्रेयिकामन्तितरस्तदानीम् ॥ १० ॥
मूलम्
तामिन्द्रसेनस्त्वरितोऽभिसृत्य
रथादवप्लुत्य ततोऽभ्यधावत् ।
प्रोवाच चैनां वचनं नरेन्द्र
धात्रेयिकामन्तितरस्तदानीम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा जनमेजय! उसे रोती देख सारथि इन्द्रसेन तुरंत रथसे कूद पड़ा और वहाँसे दौड़कर धात्रेयिकाके अत्यन्त निकट जाकर उस समय इस प्रकार बोला—॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं रोदिषि त्वं पतिता धरण्यां
किं ते मुखं शुष्यति दीनवर्णम्।
कच्चिन्न पापैः सुनृशंसकृद्भिः
प्रमाथिता द्रौपदी राजपुत्री ॥ ११ ॥
मूलम्
किं रोदिषि त्वं पतिता धरण्यां
किं ते मुखं शुष्यति दीनवर्णम्।
कच्चिन्न पापैः सुनृशंसकृद्भिः
प्रमाथिता द्रौपदी राजपुत्री ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तू इस प्रकार धरतीपर पड़ी क्यों रो रही है? तेरा मुँह दीन होकर क्यों सूख रहा है? कहीं अत्यन्त निष्ठुर कर्म करनेवाले पापी कौरवोंने यहाँ आकर राजकुमारी द्रौपदीका तिरस्कार तो नहीं किया?॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अचिन्त्यरूपा सुविशालनेत्रा
शरीरतुल्या कुरुपुङ्गवानाम् ।
यद्येव देवी पृथिवीं प्रविष्टा
दिवं प्रपन्नाप्यथवा समुद्रम् ॥ १२ ॥
तस्या गमिष्यन्ति पदे हि पार्था
यथा हि संतप्यति धर्मपुत्रः।
मूलम्
अचिन्त्यरूपा सुविशालनेत्रा
शरीरतुल्या कुरुपुङ्गवानाम् ।
यद्येव देवी पृथिवीं प्रविष्टा
दिवं प्रपन्नाप्यथवा समुद्रम् ॥ १२ ॥
तस्या गमिष्यन्ति पदे हि पार्था
यथा हि संतप्यति धर्मपुत्रः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘धर्मराज युधिष्ठिर महारानीके लिये जिस प्रकार संतप्त हो रहे हैं, उसे देखते हुए यह निश्चय है कि समस्त कुन्तीकुमार उनकी खोजमें अभी जायँगे। उनका रूप अचिन्त्य है। वे सुन्दर एवं विशाल नेत्रोंसे सुशोभित होती हैं तथा कुरुप्रवर पाण्डवोंको अपने शरीरके समान प्यारी हैं। वे द्रौपदीदेवी यदि पृथ्वीके भीतर प्रविष्ट हुई हों, स्वर्गलोकमें गयी हों अथवा समुद्रमें समा गयी हों, पाण्डव उन्हें अवश्य ढूँढ़ निकालेंगे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
को हीदृशानामरिमर्दनानां
क्लेशक्षमानामपराजितानाम् ॥ १३ ॥
प्राणैः समामिष्टतमां जिहीर्षे-
दनुत्तमं रत्नमिव प्रमूढः ।
मूलम्
को हीदृशानामरिमर्दनानां
क्लेशक्षमानामपराजितानाम् ॥ १३ ॥
प्राणैः समामिष्टतमां जिहीर्षे-
दनुत्तमं रत्नमिव प्रमूढः ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो शत्रुओंका मान मर्दन करनेवाले और किसीसे भी पराजित नहीं होनेवाले हैं, जो सब प्रकारके क्लेश सहन करनेमें समर्थ हैं, ऐसे पाण्डवोंकी सर्वोत्तम रत्नके समान स्पृहणीय तथा प्राणोंके समान प्रियतमा द्रौपदीका कौन मूर्ख अपहरण करना चाहेगा?॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न बुध्यते नाथवतीमिहाद्य
बहिश्चरं हृदयं पाण्डवानाम् ॥ १४ ॥
कस्याद्य कायं प्रतिभिद्य घोरा
महीं प्रवेक्ष्यन्ति शिताः शराग्र्याः।
मूलम्
न बुध्यते नाथवतीमिहाद्य
बहिश्चरं हृदयं पाण्डवानाम् ॥ १४ ॥
कस्याद्य कायं प्रतिभिद्य घोरा
महीं प्रवेक्ष्यन्ति शिताः शराग्र्याः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘द्रौपदी बाहर प्रकट हुई पाण्डवोंकी अन्तरात्मा है। अपने पतियोंसे सनाथ महारानी द्रौपदीको यहाँ कौन मूर्ख नहीं जानता था? आज पाण्डवोंके अत्यन्त भयंकर और तीक्ष्ण श्रेष्ठ बाण किसके शरीरको विदीर्ण करके पृथ्वीमें घुस जायँगे?॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा त्वं शुचस्तां प्रति भीरु विद्धि
यथाद्य कृष्णा पुनरेष्यतीति ॥ १५ ॥
निहत्य सर्वान् द्विषतः समग्रान्
पार्थाः समेष्यन्त्यथ याज्ञसेन्या ।
मूलम्
मा त्वं शुचस्तां प्रति भीरु विद्धि
यथाद्य कृष्णा पुनरेष्यतीति ॥ १५ ॥
निहत्य सर्वान् द्विषतः समग्रान्
पार्थाः समेष्यन्त्यथ याज्ञसेन्या ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘भीरु! तू महारानी द्रौपदीके लिये शोक न कर। तू समझ ले कि अभी वे पुनः यहाँ आ जायँगी। कुन्तीके पुत्र अपने समस्त शत्रुओंका संहार करके द्रुपदकुमारीसे अवश्य मिलेंगे’॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाब्रवीच्चारु मुखं प्रमृज्य
धात्रेयिका सारथिमिन्द्रसेनम् ॥ १६ ॥
जयद्रथेनापहृता प्रमथ्य
पञ्चेन्द्रकल्पान् परिभूय कृष्णा ।
तिष्ठन्ति वर्त्मानि नवान्यमूनि
वृक्षाश्च न म्लान्ति तथैव भग्नाः ॥ १७ ॥
मूलम्
अथाब्रवीच्चारु मुखं प्रमृज्य
धात्रेयिका सारथिमिन्द्रसेनम् ॥ १६ ॥
जयद्रथेनापहृता प्रमथ्य
पञ्चेन्द्रकल्पान् परिभूय कृष्णा ।
तिष्ठन्ति वर्त्मानि नवान्यमूनि
वृक्षाश्च न म्लान्ति तथैव भग्नाः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब अपने सुन्दर मुखपर बहते हुए आँसुओंको (दोनों हाथोंसे) पोंछकर धात्रेयिकाने सारथि इन्द्रसेनसे कहा—‘इन्द्रसेन! इन्द्रके समान पराक्रमी इन पाँचों पाण्डवोंका अपमान करके जयद्रथने हठपूर्वक द्रौपदीका अपहरण किया है। देखो, उसके रथ और सैनिकोंके जानेसे जो ये नये मार्ग बन गये हैं, वे ज्यों-के-त्यों हैं, मिटे नहीं हैं तथा ये टूटे हुए वृक्ष भी अभी मुरझाये नहीं हैं॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवर्तयध्वं ह्यनुयात शीघ्रं
न दूरयातैव हि राजपुत्री।
संनह्यध्वं सर्व एवेन्द्रकल्पा
महान्ति चारूणि च दंशनानि ॥ १८ ॥
मूलम्
आवर्तयध्वं ह्यनुयात शीघ्रं
न दूरयातैव हि राजपुत्री।
संनह्यध्वं सर्व एवेन्द्रकल्पा
महान्ति चारूणि च दंशनानि ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन्द्रके समान तेजस्वी समस्त पाण्डववीरो! आपलोग अपने रथोंको लौटाइये। शीघ्र शत्रुओंका पीछा कीजिये। अभी राजकुमारी द्रौपदी दूर नहीं गयी होगी। शीघ्र ही महान् एवं मनोहर कवच धारण कर लीजिये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृह्णीत चापानि महाधनानि
शरांश्च शीघ्रं पदवीं चरध्वम्।
पुरा हि निर्भर्त्सनदण्डमोहिता
प्रमोहचित्ता वदनेन शुष्यता ॥ १९ ॥
ददाति कस्मैचिदनर्हते तनुं
वराज्यपूर्णामिव भस्मनि स्रुचम् ।
पुरा तुषाग्नाविव हूयते हविः
पुरा श्मशाने स्रगिवापविद्ध्यते ॥ २० ॥
पुरा च सोमोऽध्वरगोऽवलिह्यते
शुना यथा विप्रजने प्रमोहिते।
महत्यरण्ये मृगयां चरित्वा
पुरा शृगालो नलिनीं विगाहते ॥ २१ ॥
मूलम्
गृह्णीत चापानि महाधनानि
शरांश्च शीघ्रं पदवीं चरध्वम्।
पुरा हि निर्भर्त्सनदण्डमोहिता
प्रमोहचित्ता वदनेन शुष्यता ॥ १९ ॥
ददाति कस्मैचिदनर्हते तनुं
वराज्यपूर्णामिव भस्मनि स्रुचम् ।
पुरा तुषाग्नाविव हूयते हविः
पुरा श्मशाने स्रगिवापविद्ध्यते ॥ २० ॥
पुरा च सोमोऽध्वरगोऽवलिह्यते
शुना यथा विप्रजने प्रमोहिते।
महत्यरण्ये मृगयां चरित्वा
पुरा शृगालो नलिनीं विगाहते ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बहुमूल्य धनुष और बाण ले लीजिये और शीघ्र ही शत्रुके मार्गका अनुसरण कीजिये। कहीं ऐसा न हो कि डाँट-डपट और दण्डके भयसे मोहित और व्याकुलचित्त हो अपना उदास मुख लिये द्रौपदी किसी अयोग्य पुरुषको आत्मसमर्पण कर दे। ऐसी घटना घटित होनेसे पहले ही वहाँ पहुँच जाइये। यदि राजकुमारी कृष्णा किसी पराये पुरुषके हाथमें पड़ गयी तो समझ लीजिये किसीने उत्तम घीसे भरी हुई स्रुवाको राखमें डाल दिया, हविष्यको भूसेकी आगमें होम दिया गया, (देवपूजाके लिये बनी हुई) सुन्दर माला श्मशानमें फेंक दी गयी, यज्ञमण्डपमें रखे हुए पवित्र सोमरसको वहाँके ब्राह्मणोंकी असावधानीसे किसी कुत्तेने चाट लिया और विशाल वनमें शिकार करके अशुद्ध हुए गीदड़ने किसी पवित्र सरोवरमें गोता लगाकर उसे अपवित्र कर दिया; अतः ऐसी अप्रिय घटना घटित होनेसे पहले ही आपलोगोंको वहाँ पहुँच जाना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा वः प्रियायाः सुनसं सुलोचनं
चन्द्रप्रभाच्छं वदनं प्रसन्नम् ।
स्पृश्याच्छुभं कश्चिदकृत्यकारी
श्वा वै पुरोडाशमिवाध्वरस्थम् ।
एतानि वर्त्मान्यनुयात शीघ्रं
मा वः कालः क्षिप्रमिहात्यगाद् वै ॥ २२ ॥
मूलम्
मा वः प्रियायाः सुनसं सुलोचनं
चन्द्रप्रभाच्छं वदनं प्रसन्नम् ।
स्पृश्याच्छुभं कश्चिदकृत्यकारी
श्वा वै पुरोडाशमिवाध्वरस्थम् ।
एतानि वर्त्मान्यनुयात शीघ्रं
मा वः कालः क्षिप्रमिहात्यगाद् वै ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कहीं ऐसा न हो कि आपलोगोंकी प्रियाके सुन्दर नेत्र तथा मनोहर नासिकासे सुशोभित चन्द्र-रश्मियोंके समान स्वच्छ, प्रसन्न एवं पवित्र मुखको कोई कुकर्मकारी पापात्मा पुरुष छू दे; ठीक उसी तरह, जैसे कुत्ता यज्ञके पुरोडाशको चाट ले। अतः जितना शीघ्र सम्भव हो, इन्हीं मार्गोंसे शत्रुका पीछा कीजिये। आपलोगोंका बहुमूल्य समय यहाँ अधिक नहीं बीतना चाहिये’॥२२॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भद्रे प्रतिक्राम नियच्छ वाचं
मास्मत्सकाशे परुषाण्यवोचः ।
राजानो वा यदि वा राजपुत्रा
बलेन मत्ता वञ्चनां प्राप्नुवन्ति ॥ २३ ॥
मूलम्
भद्रे प्रतिक्राम नियच्छ वाचं
मास्मत्सकाशे परुषाण्यवोचः ।
राजानो वा यदि वा राजपुत्रा
बलेन मत्ता वञ्चनां प्राप्नुवन्ति ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— भद्रे! हट जाओ। अपनी जबान बंद करो। हमारे निकट द्रौपदीके सम्बन्धमें ऐसी अनुचित और कठोर बातें मुँहसे न निकालो। जिन्होंने अपने बलके घमंडमें आकर ऐसा निन्दनीय कार्य किया है, वे राजा हों या राजकुमार, उन्हें अपने प्राण एवं सम्मानसे अवश्य वञ्चित होना पड़ेगा॥२३॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावदुक्त्वा प्रययुर्हि शीघ्रं
तान्येव वर्त्मान्यनुवर्तमानाः ।
मुहुर्मुहुर्व्यालवदुच्छ्वसन्तो
ज्यां विक्षिपन्तश्च महाधनुर्भ्यः ॥ २४ ॥
मूलम्
एतावदुक्त्वा प्रययुर्हि शीघ्रं
तान्येव वर्त्मान्यनुवर्तमानाः ।
मुहुर्मुहुर्व्यालवदुच्छ्वसन्तो
ज्यां विक्षिपन्तश्च महाधनुर्भ्यः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ऐसा कहकर समस्त पाण्डव अपने विशाल धनुषकी डोरी खींचते और बार-बार सर्पोंके समान फुफकारते हुए उन्हीं मार्गोंपर चलते हुए बड़े वेगसे आगे बढ़े॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽपश्यंस्तस्य सैन्यस्य रेणु-
मुद्भूतं वै वाजिखुरप्रणुन्नम् ।
पदातीनां मध्यगतं च धौम्यं
विक्रोशन्तं भीममभिद्रवेति ॥ २५ ॥
मूलम्
ततोऽपश्यंस्तस्य सैन्यस्य रेणु-
मुद्भूतं वै वाजिखुरप्रणुन्नम् ।
पदातीनां मध्यगतं च धौम्यं
विक्रोशन्तं भीममभिद्रवेति ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उन्हें जयद्रथकी सेनाके घोड़ोंकी टॉपसे आहत होकर उड़ती हुई धूल दिखायी दी। उसके साथ ही पैदल सैनिकोंके बीचमें होकर चलते हुए पुरोहित धौम्य भी दृष्टिगोचर हुए, जो बार-बार पुकार रहे थे—‘भीमसेन! दौड़ो’॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते सान्त्व्य धौम्यं परिदीनसत्त्वाः
सुखं भवानेत्विति राजपुत्राः ।
श्येना यथैवामिषसम्प्रयुक्ता
जवेन तत् सैन्यमथाभ्यधावन् ॥ २६ ॥
मूलम्
ते सान्त्व्य धौम्यं परिदीनसत्त्वाः
सुखं भवानेत्विति राजपुत्राः ।
श्येना यथैवामिषसम्प्रयुक्ता
जवेन तत् सैन्यमथाभ्यधावन् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब असाधारण पराक्रमी राजकुमार पाण्डव धौम्य मुनिको सान्त्वना देते हुए बोले—‘आप निश्चिन्त होकर चलिये, (हमलोग आ पहुँचे हैं।)’ फिर जैसे बाज मांसकी ओर झपटते हैं, उसी प्रकार पाण्डव जयद्रथकी सेनाके पीछे बड़े वेगसे दौड़े॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां महेन्द्रोपमविक्रमाणां
संरब्धानां धर्षणाद् याज्ञसेन्याः ।
क्रोधः प्रजज्वाल जयद्रथं च
दृष्ट्वा प्रियां तस्य रथे स्थितां च ॥ २७ ॥
मूलम्
तेषां महेन्द्रोपमविक्रमाणां
संरब्धानां धर्षणाद् याज्ञसेन्याः ।
क्रोधः प्रजज्वाल जयद्रथं च
दृष्ट्वा प्रियां तस्य रथे स्थितां च ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रके समान पराक्रमी पाण्डव द्रौपदीके तिरस्कारकी बात सुनकर ही क्रोधातुर हो रहे थे; जब उन्होंने जयद्रथको और उसके रथपर बैठी हुई अपनी प्रिया द्रौपदीको देखा, तब तो उनकी क्रोधाग्नि प्रबल वेगसे प्रज्वलित हो उठी॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रचुक्रुशुश्चाप्यथ सिन्धुराजं
वृकोदरश्चैव धनंजयश्च ।
यमौ च राजा च महाधनुर्धरा-
स्ततो दिशः सम्मुमुहुः परेषाम् ॥ २८ ॥
मूलम्
प्रचुक्रुशुश्चाप्यथ सिन्धुराजं
वृकोदरश्चैव धनंजयश्च ।
यमौ च राजा च महाधनुर्धरा-
स्ततो दिशः सम्मुमुहुः परेषाम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव तथा राजा युधिष्ठिर—ये सभी महाधनुर्धर वीर सिन्धुराज जयद्रथको ललकारने लगे। उस समय शत्रुओंके सैनिकोंको इतनी घबराहट हुई कि उन्हें दिशाओंतकका ज्ञान न रहा॥२८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि द्रौपदीहरणपर्वणि पार्थागमने एकोनसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत द्रौपदीहरणपर्वमें पार्थागमनविषयक दो सौ उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२६९॥