भागसूचना
अष्टषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
द्रौपदीका जयद्रथको फटकारना और जयद्रथद्वारा उसका अपहरण
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरोषरागोपहतेन बल्गुना
सरागनेत्रेण नतोन्नतभ्रुवा ।
मुखेन विस्फूर्य सुवीरराष्ट्रपं
ततोऽब्रवीत् तं द्रुपदात्मजा पुनः ॥ १ ॥
मूलम्
सरोषरागोपहतेन बल्गुना
सरागनेत्रेण नतोन्नतभ्रुवा ।
मुखेन विस्फूर्य सुवीरराष्ट्रपं
ततोऽब्रवीत् तं द्रुपदात्मजा पुनः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जयद्रथकी बात सुनकर द्रौपदीका सुन्दर मुख क्रोधसे तमतमा उठा, आँखें लाल हो गयीं, भौंहें टेढ़ी होकर तन गयीं और उसने सौवीरराज जयद्रथको फटकारकर पुनः इस प्रकार कहा—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यशस्विनस्तीक्ष्णविषान् महारथा-
नभिब्रुवन् मूढ न लज्जसे कथम्।
महेन्द्रकल्पान् निरतान् स्वकर्मसु
स्थितान् समूहेष्वपि यक्षरक्षसाम् ॥ २ ॥
मूलम्
यशस्विनस्तीक्ष्णविषान् महारथा-
नभिब्रुवन् मूढ न लज्जसे कथम्।
महेन्द्रकल्पान् निरतान् स्वकर्मसु
स्थितान् समूहेष्वपि यक्षरक्षसाम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अरे मूढ़! मेरे पति पाण्डव महान् यशस्वी, सदा अपने धर्मके पालनमें स्थित, यक्षों तथा राक्षसोंके समूहमें भी युद्ध करनेमें समर्थ, देवराज इन्द्रके सदृश शक्तिशाली तथा महारथी वीर हैं। उनका क्रोध तीक्ष्ण विषवाले नागोंके समान भयंकर है। उनके सम्मानके विरुद्ध ऐसी ओछी बातें कहते हुए तुझे लज्जा कैसे नहीं आती?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न किंचिदीड्यं प्रवदन्ति पापं
वनेचरं वा गृहमेधिनं वा।
तपस्विनं सम्परिपूर्णविद्यं
भषन्ति हैवं श्वनराः सुवीर ॥ ३ ॥
मूलम्
न किंचिदीड्यं प्रवदन्ति पापं
वनेचरं वा गृहमेधिनं वा।
तपस्विनं सम्परिपूर्णविद्यं
भषन्ति हैवं श्वनराः सुवीर ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अच्छे लोग पूजनीय, तपस्वी तथा पूर्ण विद्वान् पुरुषके प्रति भले ही वह वनवासी हो या गृहस्थ कोई अनुचित बात नहीं कहते हैं। जयद्रथ! मनुष्योंमें जो तेरे-जैसे कुत्ते हैं, वे ही इस तरह भूँका करते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं तु मन्ये तव नास्ति कश्चि-
देतादृशे क्षत्रियसंनिवेशे ।
यस्त्वाद्य पातालमुखे पतन्तं
पाणौ गृहीत्वा प्रतिसंहरेत ॥ ४ ॥
नागं प्रभिन्नं गिरिकूटकल्प-
मुपत्यकां हैमवतीं चरन्तम् ।
दण्डीव यूथादपसेधसि त्वं
यो जेतुमाशंससि धर्मराजम् ॥ ५ ॥
मूलम्
अहं तु मन्ये तव नास्ति कश्चि-
देतादृशे क्षत्रियसंनिवेशे ।
यस्त्वाद्य पातालमुखे पतन्तं
पाणौ गृहीत्वा प्रतिसंहरेत ॥ ४ ॥
नागं प्रभिन्नं गिरिकूटकल्प-
मुपत्यकां हैमवतीं चरन्तम् ।
दण्डीव यूथादपसेधसि त्वं
यो जेतुमाशंससि धर्मराजम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि इस क्षत्रिय-मण्डलीमें कोई भी तेरा ऐसा हितैषी स्वजन नहीं है, जो आज तेरा हाथ पकड़कर तुझे पातालके गहरे गर्तमें गिरनेसे बचा ले। अरे! जैसे कोइ मूर्ख मनुष्य हिमालयकी उपत्यकामें विचरनेवाले पर्वतशिखरके समान ऊँचे एवं मदकी धारा बहानेवाले गजराजको हाथमें डंडा लेकर उसके यूथसे अलग हाँक लाना चाहे, उसी प्रकार तू धर्मराज युधिष्ठिरको जीतनेका हौसला रखता है॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाल्यात् प्रसुप्तस्य महाबलस्य
सिंहस्य पक्ष्माणि मुखाल्लुनासि ।
पदा समाहत्य पलायमानः
क्रुद्धं यदा द्रक्ष्यसि भीमसेनम् ॥ ६ ॥
मूलम्
बाल्यात् प्रसुप्तस्य महाबलस्य
सिंहस्य पक्ष्माणि मुखाल्लुनासि ।
पदा समाहत्य पलायमानः
क्रुद्धं यदा द्रक्ष्यसि भीमसेनम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तू मूर्खतावश (अपनी माँदमें) सोये हुए महाबली सिंहको लात मारकर उसके मुखके बाल नोंच रहा है। जिस समय तू क्रोधमें भरे हुए भीमसेनको देखेगा, उस समय तुरंत भाग छूटेगा॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाबलं घोरतरं प्रवृद्धं
जातं हरिं पर्वतकन्दरेषु ।
प्रसुप्तमुग्रं प्रपदेन हंसि
यः क्रुद्धमायोत्स्यसि जिष्णुमुग्रम् ॥ ७ ॥
मूलम्
महाबलं घोरतरं प्रवृद्धं
जातं हरिं पर्वतकन्दरेषु ।
प्रसुप्तमुग्रं प्रपदेन हंसि
यः क्रुद्धमायोत्स्यसि जिष्णुमुग्रम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि तू रोषमें भरे हुए भयंकर योद्धा अर्जुनसे जूझना चाहता है, तो समझ ले कि पर्वतकी कन्दराओंमें उत्पन्न हो वहीं पलकर बढ़े हुए अत्यन्त घोर और महाबली सोये हुए भयानक सिंहको तू पैरसे ठोकर मार रहा है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णोरगौ तीक्ष्णमुखौ द्विजिह्वौ
मत्तः पदाऽऽक्रामसि पुच्छदेशे ।
यः पाण्डवाभ्यां पुरुषोत्तमाभ्यां
जघन्यजाभ्यां प्रयुयुत्ससे त्वम् ॥ ८ ॥
मूलम्
कृष्णोरगौ तीक्ष्णमुखौ द्विजिह्वौ
मत्तः पदाऽऽक्रामसि पुच्छदेशे ।
यः पाण्डवाभ्यां पुरुषोत्तमाभ्यां
जघन्यजाभ्यां प्रयुयुत्ससे त्वम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि तू पुरुषरत्न दोनों छोटे पाण्डवोंके साथ युद्ध करनेकी इच्छा रखता है तो यह मानना पड़ेगा कि मतवाला होकर तू मुखमें तीक्ष्ण विष धारण करनेवाले एवं दो जिह्वाओंसे युक्त दो काले नागोंकी पूँछको पैरसे कुचल रहा है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा च वेणुः कदली नलो वा
फलन्त्यभावाय न भूतयेऽऽत्मनः ।
तथैव मां तैः परिरक्ष्यमाणा-
मादास्यसे कर्कटकीव गर्भम् ॥ ९ ॥
मूलम्
यथा च वेणुः कदली नलो वा
फलन्त्यभावाय न भूतयेऽऽत्मनः ।
तथैव मां तैः परिरक्ष्यमाणा-
मादास्यसे कर्कटकीव गर्भम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अरे मूर्ख! जैसे बाँस, केला और नरकुल—ये अपने विनाशके लिये ही फलते हैं, समृद्धिके लिये नहीं तथा जैसे केकड़ेकी मादा अपनी मृत्युके लिये ही गर्भ धारण करती है, उसी प्रकार तू पाण्डवोंद्वारा सदा सुरक्षित मुझ द्रौपदीका अपनी मृत्युके लिये ही अपहरण करना चाहता है’॥९॥
मूलम् (वचनम्)
जयद्रथ उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानामि कृष्णे विदितं ममैतद्
यथाविधास्ते नरदेवपुत्राः ।
न त्वेवमेतेन विभीषणेन
शक्या वयं त्रासयितुं त्वयाद्य ॥ १० ॥
मूलम्
जानामि कृष्णे विदितं ममैतद्
यथाविधास्ते नरदेवपुत्राः ।
न त्वेवमेतेन विभीषणेन
शक्या वयं त्रासयितुं त्वयाद्य ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जयद्रथने कहा— कृष्णे! मैं जानता हूँ कि तुम्हारे पति राजकुमार पाण्डव कैसे हैं? मुझे ये सब बातें मालूम हैं। परंतु इस समय इस विभीषिकाद्वारा तुम हमें डरा नहीं सकती॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं पुनः सप्तदशेषु कृष्णे
कुलेषु सर्वेऽनवमेषु जाताः ।
षड्भ्यो गुणेभ्योऽभ्यधिका विहीनान्
मन्यामहे द्रौपदि पाण्डुपुत्रान् ॥ ११ ॥
मूलम्
वयं पुनः सप्तदशेषु कृष्णे
कुलेषु सर्वेऽनवमेषु जाताः ।
षड्भ्यो गुणेभ्योऽभ्यधिका विहीनान्
मन्यामहे द्रौपदि पाण्डुपुत्रान् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रुपदकुमारी कृष्णे! हम सब लोग उन श्रेष्ठ कुलोंमें उत्पन्न हुए हैं, जो सत्रह1 गुणोंसे सम्पन्न हैं। इसके सिवा हम छः2 गुणोंको पाकर पाण्डवोंसे बढ़े-चढ़े हैं; अतः उन्हें अपनेसे हीन मानते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा क्षिप्रमातिष्ठ गजं रथं वा
न वाक्यमात्रेण वयं हि शक्याः।
आशंस वा त्वं कृपणं वदन्ती
सौवीरराजस्य पुनः प्रसादम् ॥ १२ ॥
मूलम्
सा क्षिप्रमातिष्ठ गजं रथं वा
न वाक्यमात्रेण वयं हि शक्याः।
आशंस वा त्वं कृपणं वदन्ती
सौवीरराजस्य पुनः प्रसादम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृष्णे! तुम बड़ी-बड़ी बातें बनाकर हमें रोक नहीं सकती। अब तुम्हारे सामने दो ही मार्ग हैं—या तो सीधी तरहसे तुरंत चलकर मेरे हाथी या रथपर सवार हो जाओ; अथवा पाण्डवोंके हार जानेपर दीन वाणीमें विलाप करती हुई सौवीरराज जयद्रथसे कृपाकी भीख माँगो॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
द्रौपद्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाबला किंत्विह दुर्बलेव
सौवीरराजस्य मताहमस्मि ।
नाहं प्रमाथादिह सम्प्रतीता
सौवीरराजं कृपणं वदेयम् ॥ १३ ॥
मूलम्
महाबला किंत्विह दुर्बलेव
सौवीरराजस्य मताहमस्मि ।
नाहं प्रमाथादिह सम्प्रतीता
सौवीरराजं कृपणं वदेयम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रौपदीने कहा— मैं महान् बल एवं शक्तिसे सम्पन्न हूँ, तो भी सौवीरराज जयद्रथकी दृष्टिमें यहाँ दुर्बल-सी प्रतीत हो रही हूँ। मुझे भगवान्पर विश्वास है, मैं जोर-जबर्दस्ती करनेसे यहाँ जयद्रथके सामने कभी दीन वचन नहीं बोल सकती॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्या हि कृष्णौ पदवीं चरेतां
समास्थितावेकरथे समेतौ ।
इन्द्रोऽपि तां नापहरेत् कथंचि-
न्मनुष्यमात्रः कृपणः कुतोऽन्यः ॥ १४ ॥
मूलम्
यस्या हि कृष्णौ पदवीं चरेतां
समास्थितावेकरथे समेतौ ।
इन्द्रोऽपि तां नापहरेत् कथंचि-
न्मनुष्यमात्रः कृपणः कुतोऽन्यः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक रथपर बैठे हुए भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन साथ होकर जिसकी खोजमें निकलेंगे, उस द्रौपदीको देवराज इन्द्र भी किसी तरह हरकर नहीं ले जा सकते। फिर दूसरे किसी दीन-हीन मनुष्यकी तो बिसात ही क्या है?॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा किरीटी परवीरघाती
निघ्नन् रथस्थो द्विषतां मनांसि।
मदन्तरे त्वद्ध्वजिनीं प्रवेष्टा
कक्षं दहन्नग्निरिवोष्णगेषु ॥ १५ ॥
मूलम्
यदा किरीटी परवीरघाती
निघ्नन् रथस्थो द्विषतां मनांसि।
मदन्तरे त्वद्ध्वजिनीं प्रवेष्टा
कक्षं दहन्नग्निरिवोष्णगेषु ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले किरीटधारी अर्जुन शत्रुओंके मनोबलको नष्ट करते हुए मेरे लिये रथमें स्थित हो तेरी सेनामें प्रवेश करेंगे, उस समय जैसे गर्मियोंमें आग घास-फूसको जलाती है, उसी प्रकार तुझे और तेरी सेनाको भस्म कर डालेंगे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनार्दनः सान्धकवृष्णिवीरो
महेष्वासाः केकयाश्चापि सर्वे ।
एते हि सर्वे मम राजपुत्राः
प्रहृष्टरूपाः पदवीं चरेयुः ॥ १६ ॥
मूलम्
जनार्दनः सान्धकवृष्णिवीरो
महेष्वासाः केकयाश्चापि सर्वे ।
एते हि सर्वे मम राजपुत्राः
प्रहृष्टरूपाः पदवीं चरेयुः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्धक और वृष्णिवंशी वीरोंके साथ भगवान् श्रीकृष्ण तथा महान् धनुर्धर समस्त केकयराजकुमार मेरे रक्षक हैं। ये सभी राजपुत्र हर्ष और उत्साहमें भरकर मेरा पता लगानेके लिये निकल पड़ेंगे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मौर्वीविसृष्टाः स्तनयित्नुघोषा
गाण्डीवमुक्तास्त्वतिवेगवन्तः ।
हस्तं समाहत्य धनंजयस्य
भीमाः शब्दं घोरतरं नदन्ति ॥ १७ ॥
मूलम्
मौर्वीविसृष्टाः स्तनयित्नुघोषा
गाण्डीवमुक्तास्त्वतिवेगवन्तः ।
हस्तं समाहत्य धनंजयस्य
भीमाः शब्दं घोरतरं नदन्ति ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनके गाण्डीव धनुषकी प्रत्यञ्चासे छूटे हुए अत्यन्त वेगशाली बाण मेघोंके समान गर्जना करते हैं। वे भयानक बाण अर्जुनके हाथसे टकराकर अत्यन्त घोर शब्दकी सृष्टि करते हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गाण्डीवमुक्तांश्च महाशरौघान्
पतंगसङ्घानिव शीघ्रवेगान् ।
यदा द्रष्टास्यर्जुनं वीर्यशालिनं
तदा स्वबुद्धिं प्रतिनिन्दितासि ॥ १८ ॥
मूलम्
गाण्डीवमुक्तांश्च महाशरौघान्
पतंगसङ्घानिव शीघ्रवेगान् ।
यदा द्रष्टास्यर्जुनं वीर्यशालिनं
तदा स्वबुद्धिं प्रतिनिन्दितासि ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब तू गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए विशाल बाण-समूहोंको टिड्डियोंकी भाँति वेगसे उड़ते देखेगा और जब अद्भुत पराक्रमसे शोभा पानेवाले वीर अर्जुनपर तेरी दृष्टि पड़ेगी, उस समय अपने इस कुकृत्यको याद करके तू स्वयं ही अपनी बुद्धिको धिक्कारेगा॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सशङ्खघोषः सतलत्रघोषो
गाण्डीवधन्वा मुहुरुद्वहंश्च ।
यदा शरानर्पयिता तवोरसि
तदा मनस्ते किमिवाभविष्यत् ॥ १९ ॥
मूलम्
सशङ्खघोषः सतलत्रघोषो
गाण्डीवधन्वा मुहुरुद्वहंश्च ।
यदा शरानर्पयिता तवोरसि
तदा मनस्ते किमिवाभविष्यत् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब गाण्डीव धनुष धारण करनेवाले अर्जुन शंख-ध्वनिके साथ दस्तानेकी आवाज फैलाते हुए बार-बार बाण उठा-उठाकर तेरी छातीपर चोट करेंगे, उस समय तेरे मनकी दशा कैसी होगी? (इसे भी सोच ले)॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गदाहस्तं भीममभिद्रवन्तं
माद्रीपुत्रौ सम्पतन्तौ दिशश्च ।
अमर्षजं क्रोधविषं वमन्तौ
दृष्ट्वा चिरं तापमुपैष्यसेऽधम ॥ २० ॥
मूलम्
गदाहस्तं भीममभिद्रवन्तं
माद्रीपुत्रौ सम्पतन्तौ दिशश्च ।
अमर्षजं क्रोधविषं वमन्तौ
दृष्ट्वा चिरं तापमुपैष्यसेऽधम ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अरे नीच! जब भीमसेन हाथमें गदा लिये दौड़ेंगे और माद्रीनन्दन नकुल-सहदेव अमर्षजनित क्रोधरूपी विष उगलते हुए (तेरी सेनापर) सब दिशाओंसे टूट पड़ेंगे, तब उन्हें देखकर तू दीर्घकालतक संतापकी आगमें जलता रहेगा॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा वाहं नातिचरे कथंचित्
पतीन् महार्हान् मनसापि जातु।
तेनाद्य सत्येन वशीकृतं त्वां
द्रष्टास्मि पार्थैः परिकृष्यमाणम् ॥ २१ ॥
मूलम्
यथा वाहं नातिचरे कथंचित्
पतीन् महार्हान् मनसापि जातु।
तेनाद्य सत्येन वशीकृतं त्वां
द्रष्टास्मि पार्थैः परिकृष्यमाणम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि मैंने कभी मनसे भी अपने परम पूजनीय पतियोंका किसी तरह उल्लंघन नहीं किया हो तो आज इस सत्यके प्रभावसे मैं देखूँगी कि पाण्डव तुझे जीतकर अपने वशमें करके जमीनपर घसीट रहे हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न सम्भ्रमं गन्तुमहं हि शक्ष्ये
त्वया नृशंसेन विकृष्यमाणा ।
समागताहं हि कुरुप्रवीरैः
पुनर्वनं काम्यकमागतास्मि ॥ २२ ॥
मूलम्
न सम्भ्रमं गन्तुमहं हि शक्ष्ये
त्वया नृशंसेन विकृष्यमाणा ।
समागताहं हि कुरुप्रवीरैः
पुनर्वनं काम्यकमागतास्मि ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं जानती हूँ कि तू नृशंस है, अतः मुझे बलपूर्वक खींचकर ले जायगा। परंतु इससे मैं सम्भ्रम (घबराहट)-में नहीं पड़ सकूँगी। मैं अपने पति कुरुवंशी वीर पाण्डवोंसे शीघ्र ही मिलूँगी और उनके साथ पुनः इसी काम्यकवनमें आकर रहूँगी॥२२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा ताननुप्रेक्ष्य विशालनेत्रा
जिघृक्षमाणानवभर्त्सयन्ती ।
प्रोवाच मा मा स्पृशतेति भीता
धौम्यं प्रचुक्रोश पुरोहितं सा ॥ २३ ॥
मूलम्
सा ताननुप्रेक्ष्य विशालनेत्रा
जिघृक्षमाणानवभर्त्सयन्ती ।
प्रोवाच मा मा स्पृशतेति भीता
धौम्यं प्रचुक्रोश पुरोहितं सा ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! उस समय जयद्रथके साथी आश्रममें प्रविष्ट होकर द्रौपदीको पकड़ लेना चाहते थे। यह देख विशाल नेत्रोंवाली द्रौपदी उन्हें डाँटकर बोली—‘खबरदार, कोई मेरे शरीरका स्पर्श न करे।’ फिर भयभीत होकर उसने अपने पुरोहित धौम्य मुनिको पुकारा॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जग्राह तामुत्तरवस्त्रदेशे
जयद्रथस्तं समवाक्षिपत् सा ।
तया समाक्षिप्ततनुः स पापः
पपात शाखीव निकृत्तमूलः ॥ २४ ॥
मूलम्
जग्राह तामुत्तरवस्त्रदेशे
जयद्रथस्तं समवाक्षिपत् सा ।
तया समाक्षिप्ततनुः स पापः
पपात शाखीव निकृत्तमूलः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेमें ही जयद्रथने आगे बढ़कर द्रौपदीकी ओढ़नीका छोर पकड़ लिया, परंतु द्रौपदीने उसे जोरका धक्का दिया। उसका धक्का लगते ही पापी जयद्रथका शरीर जड़से कटे हुए वृक्षकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रगृह्यमाणा तु महाजवेन
मुहुर्विनिःश्वस्य च राजपुत्री ।
सा कृष्यमाणा रथमारुरोह
धौम्यस्य पादावभिवाद्य कृष्णा ॥ २५ ॥
मूलम्
प्रगृह्यमाणा तु महाजवेन
मुहुर्विनिःश्वस्य च राजपुत्री ।
सा कृष्यमाणा रथमारुरोह
धौम्यस्य पादावभिवाद्य कृष्णा ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर बड़े वेगसे उठकर उसने राजकुमारी द्रौपदीको पकड़ लिया। तब बार-बार लंबी साँसें छोड़ती हुई द्रौपदीने धौम्यमुनिके चरणोंमें प्रणाम किया, किंतु वह जयद्रथके द्वारा खींची जानेके कारण बाध्य होकर उसके रथपर बैठ गयी॥२५॥
मूलम् (वचनम्)
धौम्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेयं शक्या त्वया नेतुमविजित्य महारथान्।
धर्मं क्षत्रस्य पौराणमवेक्षस्व जयद्रथ ॥ २६ ॥
मूलम्
नेयं शक्या त्वया नेतुमविजित्य महारथान्।
धर्मं क्षत्रस्य पौराणमवेक्षस्व जयद्रथ ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब धौम्यने कहा— जयद्रथ! तू क्षत्रियोंके प्राचीन धर्मपर दृष्टिपात कर। महारथी पाण्डवोंको परास्त किये बिना इसे ले जानेका तुझे कोई अधिकार नहीं है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षुद्रं कृत्वा फलं पापं त्वं प्राप्स्यसि न संशयः।
आसाद्य पाण्डवान् वीरान् धर्मराजपुरोगमान् ॥ २७ ॥
मूलम्
क्षुद्रं कृत्वा फलं पापं त्वं प्राप्स्यसि न संशयः।
आसाद्य पाण्डवान् वीरान् धर्मराजपुरोगमान् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तू धर्मराज आदि वीर पाण्डवोंके सामने पड़नेपर इस खोटे कर्मका बुरा फल प्राप्त करेगा, इसमें संशय नहीं है॥२७॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा ह्रियमाणां तां राजपुत्रीं यशस्विनीम्।
अन्वगच्छत् तदा धौम्यः पदातिगणमध्यगः ॥ २८ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा ह्रियमाणां तां राजपुत्रीं यशस्विनीम्।
अन्वगच्छत् तदा धौम्यः पदातिगणमध्यगः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ऐसा कहकर धौम्य मुनि हरकर ले जायी जाती हुई यशस्विनी राजकुमारी द्रौपदीके पीछे-पीछे पैदल सेनाके बीचमें होकर चलने लगे॥२८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि द्रौपदीहरणपर्वणि अष्टषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत द्रौपदीहरणपर्वमें दो सौ अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२६८॥
-
खेती, व्यापार, दुर्ग, पुल बनाना, हाथी बाँधना, खानोंकी रक्षा, कर वसूलना और निर्जन प्रदेशोंको बसाना—ये आठ संधान-कर्म तथा प्रभुशक्ति, मन्त्रशक्ति, उत्साहशक्ति, प्रभुसिद्धि, मन्त्रसिद्धि, उत्साहसिद्धि, प्रभूदय, मन्त्रोदय और उत्साहोदय—ये नौ मिलाकर सत्रह गुण होते हैं। ↩︎
-
शौर्य, तेज, धृति, दाक्षिण्य, दान तथा ऐश्वर्य—ये छः गुण हैं। ↩︎