२६७ जयद्रथद्रौपदीसंवादे

भागसूचना

सप्तषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

जयद्रथ और द्रौपदीका संवाद

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथाऽऽसीनेषु सर्वेषु तेषु राजसु भारत।
यदुक्तं कृष्णया सार्धं तत् सर्वं प्रत्यवेदयत् ॥ १ ॥

मूलम्

तथाऽऽसीनेषु सर्वेषु तेषु राजसु भारत।
यदुक्तं कृष्णया सार्धं तत् सर्वं प्रत्यवेदयत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— भारत! पूर्वोक्त प्रकारसे रथपर बैठे हुए उन सब राजाओंके पास जाकर कोटिकास्यने द्रौपदीके साथ उसकी जो-जो बातें हुई थीं, वे सब कह सुनायीं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटिकास्यवचः श्रुत्वा शैब्यं सौवीरकोऽब्रवीत्।
यदा वाचं व्याहरन्त्यामस्यां मे रमते मनः ॥ २ ॥
सीमन्तिनीनां मुख्यायां विनिवृत्तः कथं भवान्।
एतां दृष्ट्‌वा स्त्रियो मेऽन्या यथा शाखामृगस्त्रियः ॥ ३ ॥
प्रतिभान्ति महाबाहो सत्यमेतद् ब्रवीमि ते।
दर्शनादेव हि मनस्तया मेऽपहृतं भृशम् ॥ ४ ॥
तां समाचक्ष्व कल्याणीं यदि स्याच्छैब्य मानुषी।

मूलम्

कोटिकास्यवचः श्रुत्वा शैब्यं सौवीरकोऽब्रवीत्।
यदा वाचं व्याहरन्त्यामस्यां मे रमते मनः ॥ २ ॥
सीमन्तिनीनां मुख्यायां विनिवृत्तः कथं भवान्।
एतां दृष्ट्‌वा स्त्रियो मेऽन्या यथा शाखामृगस्त्रियः ॥ ३ ॥
प्रतिभान्ति महाबाहो सत्यमेतद् ब्रवीमि ते।
दर्शनादेव हि मनस्तया मेऽपहृतं भृशम् ॥ ४ ॥
तां समाचक्ष्व कल्याणीं यदि स्याच्छैब्य मानुषी।

अनुवाद (हिन्दी)

कोटिकास्यकी बात सुनकर सौवीरनरेश जयद्रथने उससे कहा—‘शैब्य! सुन्दरियोंमें सर्वश्रेष्ठ वह युवती जब तुमसे बातचीत कर रही थी, उस समय मेरा मन उसीमें लगा हुआ था। तुम उसे साथ लिये बिना कैसे लौट आये? महाबाहो! मैं तुमसे यह सच कहता हूँ इसे देखकर मुझे दूसरी स्त्रियाँ ऐसी जान पड़ती हैं मानो बंदरियाँ हों। उसने दर्शनमात्रसे ही मेरे मनको अच्छी तरह हर लिया है। शैब्य! यदि वह मानवी हो तो उस कल्याणीके विषयमें ठीक-ठीक बताओ’॥२—४॥

मूलम् (वचनम्)

कोटिक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा वै द्रौपदी कृष्णा राजपुत्री यशस्विनी ॥ ५ ॥
पञ्चानां पाण्डुपुत्राणां महिषी सम्मता भृशम्।
सर्वेषां चैव पार्थानां प्रिया बहुमता सती ॥ ६ ॥
तया समेत्य सौवीर सौवीराभिमुखो व्रज।

मूलम्

एषा वै द्रौपदी कृष्णा राजपुत्री यशस्विनी ॥ ५ ॥
पञ्चानां पाण्डुपुत्राणां महिषी सम्मता भृशम्।
सर्वेषां चैव पार्थानां प्रिया बहुमता सती ॥ ६ ॥
तया समेत्य सौवीर सौवीराभिमुखो व्रज।

अनुवाद (हिन्दी)

कोटिक बोला— सौवीरनरेश! यह यशस्विनी राजकुमारी द्रुपदपुत्री कृष्णा ही है, जो पाँचों पाण्डवोंकी अत्यन्त आदरणीया महारानी है। कुन्तीके सभी पुत्र इसे प्यार करते हैं। यह सती-साध्वी देवी अपने पतियोंके लिये बड़े सम्मानकी वस्तु है। तुम उससे मिलकर सौवीरदेशकी राह लो॥५-६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः प्रत्युवाच पश्यामि द्रौपदीमिति ॥ ७ ॥
पतिः सौवीरसिन्धूनां दुष्टभावो जयद्रथः।

मूलम्

एवमुक्तः प्रत्युवाच पश्यामि द्रौपदीमिति ॥ ७ ॥
पतिः सौवीरसिन्धूनां दुष्टभावो जयद्रथः।

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! कोटिकास्यके ऐसा कहनेपर सौवीर और सिन्धु आदि देशोंके स्वामी जयद्रथने मनमें दुर्भावना लेकर उसे उत्तर दिया—‘अच्छा, मैं भी द्रौपदीसे मिल लेता हूँ’॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स प्रविश्याश्रमं पुण्यं सिंहगोष्ठं वृको यथा ॥ ८ ॥
आत्मना सप्तमः कृष्णामिदं वचनमब्रवीत्।
कुशलं ते वरारोहे भर्तारस्तेऽप्यनामयाः ॥ ९ ॥
येषां कुशलकामासि तेऽपि कच्चिदनामयाः।

मूलम्

स प्रविश्याश्रमं पुण्यं सिंहगोष्ठं वृको यथा ॥ ८ ॥
आत्मना सप्तमः कृष्णामिदं वचनमब्रवीत्।
कुशलं ते वरारोहे भर्तारस्तेऽप्यनामयाः ॥ ९ ॥
येषां कुशलकामासि तेऽपि कच्चिदनामयाः।

अनुवाद (हिन्दी)

उसने अपने छः भाइयोंके साथ स्वयं सातवाँ बनकर द्रौपदीके पवित्र आश्रममें प्रवेश किया, मानो कोई भेड़िया सिंहकी माँदमें घुसा हो। वहाँ जाकर उसने द्रौपदीसे इस प्रकार कहा—‘वरारोहे! तुम कुशलसे हो न? तुम्हारे पति नीरोग तो हैं न? इनके सिवा और जिन लोगोंको तुम सकुशल देखना चाहती हो, वे सभी स्वस्थ तो हैं न?॥८-९॥

मूलम् (वचनम्)

द्रौपद्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि ते कुशलं राजन् राष्ट्रे कोशे बले तथा॥१०॥
कच्चिदेकः शिबीनाढ्यान्‌ सौवीरान् सह सिन्धुभिः।
अनुतिष्ठसि धर्मेण ये चान्ये विजितास्त्वया ॥ ११ ॥

मूलम्

अपि ते कुशलं राजन् राष्ट्रे कोशे बले तथा॥१०॥
कच्चिदेकः शिबीनाढ्यान्‌ सौवीरान् सह सिन्धुभिः।
अनुतिष्ठसि धर्मेण ये चान्ये विजितास्त्वया ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदी बोली— राजन्! तुम स्वयं सकुशल हो न? तुम्हारे राज्य, खजाना और सैनिक तो कुशलसे हैं न? समृद्धिशाली शिबि, सौवीर, सिन्धु तथा अन्य जो-जो प्रदेश तुम्हारे अधिकारमें आ गये हैं, उन सबकी प्रजाका तुम धर्मपूर्वक पालन तो करते हो न?॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कौरव्यः कुशली राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
अहं च भ्रातरश्चास्य यांश्चान्यान् परिपृच्छसि ॥ १२ ॥
पाद्यं प्रतिगृहाणेदमासनं च नृपात्मज।

मूलम्

कौरव्यः कुशली राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
अहं च भ्रातरश्चास्य यांश्चान्यान् परिपृच्छसि ॥ १२ ॥
पाद्यं प्रतिगृहाणेदमासनं च नृपात्मज।

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे पति कुरुकुलरत्न कुन्तीकुमार राजा युधिष्ठिर सकुशल हैं। मैं, उनके चारों भाई तथा अन्य जिन लोगोंके विषयमें तुम पूछ रहे हो, वे सब कुशलसे हैं। राजकुमार! यह पैर धोनेके लिये जल है, इसे ग्रहण करो और यह आसन है, इसपर बैठो॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

जयद्रथ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एहि मे रथमारोह सुखमाप्नुहि केवलम् ॥ १३ ॥
गतश्रीकांश्च्युतान् राज्यात्‌ कृपणान् गतचेतसः।
अरण्यवासिनः पार्थान् नानुरोद्‌धुं त्वमर्हसि ॥ १४ ॥
नैव प्राज्ञा गतश्रीकं भर्तारमुपयुञ्जते।
युञ्जानमनुयुञ्जीत न श्रियः संक्षये वसेत् ॥ १५ ॥

मूलम्

एहि मे रथमारोह सुखमाप्नुहि केवलम् ॥ १३ ॥
गतश्रीकांश्च्युतान् राज्यात्‌ कृपणान् गतचेतसः।
अरण्यवासिनः पार्थान् नानुरोद्‌धुं त्वमर्हसि ॥ १४ ॥
नैव प्राज्ञा गतश्रीकं भर्तारमुपयुञ्जते।
युञ्जानमनुयुञ्जीत न श्रियः संक्षये वसेत् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जयद्रथने कहा— आओ चलो, मेरे रथपर बैठो और अखण्ड सुखका उपभोग करो। अब पाण्डवोंके पास धन नहीं रहा। उनका राज्य छीन लिया गया। वे दीन और उत्साहहीन हो गये हैं। अब इन वनवासी कुन्तीपुत्रोंका अनुसरण करना तुम्हें शोभा नहीं देता। विदुषी स्त्रियाँ निर्धन पतिकी उपासना नहीं करती हैं। स्वामीके पास जबतक लक्ष्मी रहे, तभीतक उसके साथ रहना चाहिये। जब उसकी सम्पत्ति नष्ट हो जाय, तो वहाँ कदापि न रहे॥१३—१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रिया विहीना राष्ट्राच्च विनष्टाः शाश्वतीः समाः।
अलं ते पाण्डुपुत्राणां भक्त्या क्लेशमुपासितुम् ॥ १६ ॥

मूलम्

श्रिया विहीना राष्ट्राच्च विनष्टाः शाश्वतीः समाः।
अलं ते पाण्डुपुत्राणां भक्त्या क्लेशमुपासितुम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डव सदाके लिये श्रीहीन तथा राज्यभ्रष्ट हो गये हैं। अब तुम्हें पाण्डवोंके प्रति भक्ति रखकर कष्ट भोगनेकी आवश्यकता नहीं है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भार्या मे भव सुश्रोणि त्यजैनान् सुखमाप्नुहि।
अखिलान् सिन्धुसौवीरानाप्नुहि त्वं मया सह ॥ १७ ॥

मूलम्

भार्या मे भव सुश्रोणि त्यजैनान् सुखमाप्नुहि।
अखिलान् सिन्धुसौवीरानाप्नुहि त्वं मया सह ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दरि! तुम मेरी भार्या बन जाओ। इन पाण्डवोंको छोड़ दो और मेरे साथ रहकर सुख भोगो। मेरे साथ रहनेसे तुम्हें सम्पूर्ण सिन्धु और सौवीरदेशका राज्य प्राप्त होगा, तुम महारानी बनोगी॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्ता सिन्धुराजेन वाक्यं हृदयकम्पनम्।
कृष्णा तस्मादपाक्रामद्‌ देशात्‌ सभ्रुकुटीमुखी ॥ १८ ॥

मूलम्

इत्युक्ता सिन्धुराजेन वाक्यं हृदयकम्पनम्।
कृष्णा तस्मादपाक्रामद्‌ देशात्‌ सभ्रुकुटीमुखी ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! सिन्धुराज जयद्रथके मुखसे यह हृदय कँपा देनेवाली बात सुनकर द्रुपदकुमारी कृष्णा उस स्थानसे दूर हट गयी। उसके मुखपर रोष छा गया और उसकी भौंहें तन गयीं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवमत्यास्य तद् वाक्यमाक्षिप्य च सुमध्यमा।
मैवमित्यब्रवीत् कृष्णा लज्जस्वेति च सैन्धव ॥ १९ ॥

मूलम्

अवमत्यास्य तद् वाक्यमाक्षिप्य च सुमध्यमा।
मैवमित्यब्रवीत् कृष्णा लज्जस्वेति च सैन्धव ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके इस प्रस्तावका तिरस्कार करके सुन्दरी द्रौपदीने उसे कड़ी फटकार सुनायी और बोली—‘खबरदार, फिर कभी ऐसी बात मुखसे मत निकालना। सिन्धुराज! तुम्हें लज्जा आनी चाहिये थी॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा काङ्‌क्षमाणा भर्तॄणामुपयातमनिन्दिता ।
विलोभयामास परं वाक्यैर्वाक्यानि युञ्जती ॥ २० ॥

मूलम्

सा काङ्‌क्षमाणा भर्तॄणामुपयातमनिन्दिता ।
विलोभयामास परं वाक्यैर्वाक्यानि युञ्जती ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पतिव्रता द्रौपदी चाहती थी कि मेरे पति अभी यहाँ आ जायँ। अतः वह जयद्रथसे वाद-विवाद करती हुई उसे बातोंमें फँसाये रखनेकी चेष्टा करने लगी॥२०॥

मूलम् (वचनम्)

(द्रौपद्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैवं वद महाबाहो न्याय्यं त्वं न च बुध्यसे॥
पाण्डूनां धार्तराष्ट्राणां स्वसा चैव कनीयसी।
दुःशला नाम तस्यास्त्वं भर्ता राजकुलोद्वह॥
मम भ्राता च न्याय्येन त्वया रक्ष्या महारथ।
धर्मिष्ठानां कुले जातो न धर्मं त्वमवेक्षसे॥

मूलम्

नैवं वद महाबाहो न्याय्यं त्वं न च बुध्यसे॥
पाण्डूनां धार्तराष्ट्राणां स्वसा चैव कनीयसी।
दुःशला नाम तस्यास्त्वं भर्ता राजकुलोद्वह॥
मम भ्राता च न्याय्येन त्वया रक्ष्या महारथ।
धर्मिष्ठानां कुले जातो न धर्मं त्वमवेक्षसे॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदी बोली— महाबाहो! ऐसी पापकी बात न बोलो। कौन-सा कार्य धर्मके अनुकूल और न्यायसंगत है, इसका तुम्हें ज्ञान नहीं है। तुम धृतराष्ट्रपुत्रों तथा पाण्डवोंकी छोटी बहन दुःशलाके पति हो। महारथी राजकुमार! इस नातेसे न्यायतः तुम मेरे भाई हो; अतः तुम्हें मेरी रक्षा करनी चाहिये। तुम्हारा जन्म तो धर्मात्माओंके कुलमें हुआ है, परंतु तुम्हारी दृष्टि धर्मकी ओर नहीं है॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः सिन्धुराजोऽथ वाक्यमुत्तरमब्रवीत् ।

मूलम्

इत्युक्तः सिन्धुराजोऽथ वाक्यमुत्तरमब्रवीत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— द्रौपदीके ऐसा कहनेपर सिन्धुराज जयद्रथने उसे इस प्रकार उत्तर दिया।

मूलम् (वचनम्)

जयद्रथ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्ञां धर्मं न जानीषे स्त्रियो रत्नानि चैव हि।
साधारणानि लोकेऽस्मिन् प्रवदन्ति मनीषिणः॥)

मूलम्

राज्ञां धर्मं न जानीषे स्त्रियो रत्नानि चैव हि।
साधारणानि लोकेऽस्मिन् प्रवदन्ति मनीषिणः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

जयद्रथ बोला— कृष्णे! तुम राजाओंका धर्म नहीं जानती। मनीषी पुरुषोंका कथन है कि इस संसारमें स्त्रियाँ तथा रत्न सर्वसाधारणकी वस्तुएँ हैं॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि द्रौपदीहरणपर्वणि जयद्रथद्रौपदीसंवादे सप्तषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत द्रौपदीहरणपर्वमें जयद्रथद्रौपदीसंवादविषयक दो सौ सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२६७॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर कुल २४ श्लोक हैं)