भागसूचना
षट्षष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
द्रौपदीका कोटिकास्यको उत्तर
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाब्रवीद् द्रौपदी राजपुत्री
पृष्टा शिबीनां प्रवरेण तेन।
अवेक्ष्य मन्दं प्रविमुच्य शाखां
संगृह्णती कौशिकमुत्तरीयम् ॥ १ ॥
मूलम्
अथाब्रवीद् द्रौपदी राजपुत्री
पृष्टा शिबीनां प्रवरेण तेन।
अवेक्ष्य मन्दं प्रविमुच्य शाखां
संगृह्णती कौशिकमुत्तरीयम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! शिबिदेशके प्रमुख वीर कोटिकास्यके इस प्रकार पूछनेपर राजकुमारी द्रौपदी कदम्बकी वह डाली छोड़कर अपनी रेशमी ओढ़नीको सँभालती हुई संकोचपूर्वक उसकी ओर देखकर बोली—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुद्ध्याभिजानामि नरेन्द्रपुत्र
न मादृशी त्वामभिभाष्टुमर्हति ।
न त्वेह वक्तास्ति तवेह वाक्य-
मन्यो नरो वाप्यथवापि नारी ॥ २ ॥
मूलम्
बुद्ध्याभिजानामि नरेन्द्रपुत्र
न मादृशी त्वामभिभाष्टुमर्हति ।
न त्वेह वक्तास्ति तवेह वाक्य-
मन्यो नरो वाप्यथवापि नारी ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजकुमार! मैं बुद्धिसे सोच-विचारकर भलीभाँति समझती हूँ कि मुझ-जैसी पतिपरायणा स्त्रीको तुम-जैसे पर पुरुषसे वार्तालाप नहीं करना चाहिये; परंतु यहाँ कोई दूसरा ऐसा पुरुष अथवा स्त्री नहीं है जो तुम्हारी बातका उत्तर दे सके॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एका ह्यहं सम्प्रति तेन वाचं
ददामि वै भद्र निबोध चेदम्।
अहं ह्यरण्ये कथमेकमेका
त्वामालपेयं निरता स्वधर्मे ॥ ३ ॥
मूलम्
एका ह्यहं सम्प्रति तेन वाचं
ददामि वै भद्र निबोध चेदम्।
अहं ह्यरण्ये कथमेकमेका
त्वामालपेयं निरता स्वधर्मे ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं इस समय यहाँ अकेली ही हूँ। इसलिये विवश होकर तुमसे बोलना पड़ रहा है। भद्रपुरुष! मेरी इस बातपर ध्यान दो। मैं अपने धर्मके पालनमें तत्पर रहनेवाली हूँ। इस समय इस वनमें मैं अकेली हूँ और तुम भी अकेले पुरुष हो, ऐसी दशामें मैं तुम्हारे साथ कैसे वार्तालाप कर सकती हूँ?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानामि च त्वां सुरथस्य पुत्रं
यं कोटिकास्येति विदुर्मनुष्याः ।
तस्मादहं शैब्य तथैव तुभ्य-
माख्यामि बन्धून् प्रथितं कुलं च ॥ ४ ॥
मूलम्
जानामि च त्वां सुरथस्य पुत्रं
यं कोटिकास्येति विदुर्मनुष्याः ।
तस्मादहं शैब्य तथैव तुभ्य-
माख्यामि बन्धून् प्रथितं कुलं च ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परंतु मैं तुम्हें पहचानती हूँ, तुम राजा सुरथके पुत्र हो, जिसे लोग कोटिकास्यके नामसे जानते हैं। शैब्य! इसीलिये मैं तुम्हें अपने बन्धुजनों तथा विश्वविख्यात वंशका परिचय देती हूँ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपत्यमस्मि द्रुपदस्य राज्ञः
कृष्णेति मां शैब्य विदुर्मनुष्याः।
साहं वृणे पञ्च जनान् पतित्वे
ये खाण्डवप्रस्थगताः श्रुतास्ते ॥ ५ ॥
मूलम्
अपत्यमस्मि द्रुपदस्य राज्ञः
कृष्णेति मां शैब्य विदुर्मनुष्याः।
साहं वृणे पञ्च जनान् पतित्वे
ये खाण्डवप्रस्थगताः श्रुतास्ते ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शिबिदेशके राजकुमार! मैं राजा द्रुपदकी पुत्री हूँ। मनुष्य मुझे कृष्णाके नामसे जानते हैं। मैंने पाँचों पाण्डवोंका पतिरूपमें वरण किया है, जो खाण्डव-प्रस्थमें रहते थे। उनका नाम तुमने अवश्य सुना होगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरो भीमसेनार्जुनौ च
माद्र्याश्च पुत्रौ पुरुषप्रवीरौ ।
ते मां निवेश्येह दिशश्चतस्रो
विभज्य पार्था मृगयां प्रयाताः ॥ ६ ॥
मूलम्
युधिष्ठिरो भीमसेनार्जुनौ च
माद्र्याश्च पुत्रौ पुरुषप्रवीरौ ।
ते मां निवेश्येह दिशश्चतस्रो
विभज्य पार्था मृगयां प्रयाताः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा माद्रीपुत्र नरवीर नकुल-सहदेव—ये ही मेरे पति हैं। वे सब-के-सब मुझे यहाँ रखकर हिंसक पशुओंको मारनेके लिये अलग-अलग बँटकर चारों दिशाओंमें गये हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राचीं राजा दक्षिणां भीमसेनो
जयः प्रतीचीं यमजावुदीचीम् ।
मन्ये तु तेषां रथसत्तमानां
कालोऽभितः प्राप्त इहोपयातुम् ॥ ७ ॥
मूलम्
प्राचीं राजा दक्षिणां भीमसेनो
जयः प्रतीचीं यमजावुदीचीम् ।
मन्ये तु तेषां रथसत्तमानां
कालोऽभितः प्राप्त इहोपयातुम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘स्वयं राजा युधिष्ठिर पूर्व दिशामें गये हैं, भीमसेन दक्षिण दिशामें, अर्जुन पश्चिम दिशामें और नकुल-सहदेव उत्तर दिशामें गये हैं। मैं समझती हूँ, अब उन महारथियोंके सब ओरसे यहाँ पहुँचनेका समय हो गया है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्मानिता यास्यथ तैर्यथेष्टं
विमुच्य वाहानवरोहयध्वम् ।
प्रियातिथिर्धर्मसुतो महात्मा
प्रीतो भविष्यत्यभिवीक्ष्य युष्मान् ॥ ८ ॥
मूलम्
सम्मानिता यास्यथ तैर्यथेष्टं
विमुच्य वाहानवरोहयध्वम् ।
प्रियातिथिर्धर्मसुतो महात्मा
प्रीतो भविष्यत्यभिवीक्ष्य युष्मान् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब तुमलोग अपनी सवारियोंसे उतरो और घोड़ोंको खोलकर विश्राम करो। मेरे पतियोंका आदर-सत्कार ग्रहण करके अपने अभीष्ट देशको जाना। महात्मा धर्मपुत्र युधिष्ठिर अतिथियोंके बड़े प्रेमी हैं। वे तुमलोगोंको देखकर बहुत प्रसन्न होंगे’॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावदुक्त्वा द्रुपदात्मजा सा
शैब्यात्मजं चन्द्रमुखी प्रतीता ।
विवेश तां पर्णशालां प्रशस्तां
संचिन्त्य तेषामतिथित्वमर्थे ॥ ९ ॥
मूलम्
एतावदुक्त्वा द्रुपदात्मजा सा
शैब्यात्मजं चन्द्रमुखी प्रतीता ।
विवेश तां पर्णशालां प्रशस्तां
संचिन्त्य तेषामतिथित्वमर्थे ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिबिदेशके राजकुमार कोटिकास्यसे ऐसा कहकर वह चन्द्रमुखी द्रौपदी अपनी उत्तम पर्णशालाके भीतर चली गयी। ‘ये लोग हमारे अतिथि हैं’ ऐसा सोचकर उसे उनपर विश्वास हो गया था। अतः वह प्रसन्नतापूर्वक उनके आतिथ्यकी व्यवस्थामें लग गयी॥९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि द्रौपदीहरणपर्वणि द्रौपदीवाक्ये षट्षष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत द्रौपदीहरणपर्वमें द्रौपदीवाक्यविषयक दो सौ छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२६६॥