२६४ जयद्रथागमने

भागसूचना

चतुःषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

जयद्रथका द्रौपदीको देखकर मोहित होना और उसके पास कोटिकास्यको भेजना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् बहुमृगेऽरण्ये अटमाना महारथाः।
काम्यके भरतश्रेष्ठा विजह्रुस्ते यथामराः ॥ १ ॥

मूलम्

तस्मिन् बहुमृगेऽरण्ये अटमाना महारथाः।
काम्यके भरतश्रेष्ठा विजह्रुस्ते यथामराः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! काम्यकवनमें नाना प्रकारके वन्य पशु रहते थे। वहाँ भरतकुलभूषण महारथी पाण्डव सब ओर घूमते हुए देवताओंके समान विहार करते थे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रेक्षमाणा बहुविधान् वनोद्देशान् समन्ततः।
यथर्तुकालरम्याश्च वनराजीः सुपुष्पिताः ॥ २ ॥

मूलम्

प्रेक्षमाणा बहुविधान् वनोद्देशान् समन्ततः।
यथर्तुकालरम्याश्च वनराजीः सुपुष्पिताः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे चारों ओर घूम-घूमकर नाना प्रकारके वन्य प्रदेशों तथा ऋतुकालके अनुसार भलीभाँति खिले हुए फूलोंसे सुशोभित रमणीय वनश्रेणियोंकी शोभा देखते थे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवा मृगयाशीलाश्चरन्तस्तन्महद् वनम् ।
विजह्रुरिन्द्रप्रतिमाः कञ्चित् कालमरिंदम ॥ ३ ॥

मूलम्

पाण्डवा मृगयाशीलाश्चरन्तस्तन्महद् वनम् ।
विजह्रुरिन्द्रप्रतिमाः कञ्चित् कालमरिंदम ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुदमन जनमेजय! पाण्डवलोग बाघ-चीते आदि हिंसक पशुओंका शिकार किया करते थे। देवराज इन्द्रके समान वे उस महान् वनमें विचरते हुए कुछ कालतक विहार करते रहे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते यौगपद्येन ययुः सर्वे चतुर्दिशम्।
मृगयां पुरुषव्याघ्रा ब्राह्मणार्थे परंतपाः ॥ ४ ॥
द्रौपदीमाश्रमे न्यस्य तृणबिन्दोरनुज्ञया ।
महर्षेर्दीप्ततपसो धौम्यस्य च पुरोधसः ॥ ५ ॥

मूलम्

ततस्ते यौगपद्येन ययुः सर्वे चतुर्दिशम्।
मृगयां पुरुषव्याघ्रा ब्राह्मणार्थे परंतपाः ॥ ४ ॥
द्रौपदीमाश्रमे न्यस्य तृणबिन्दोरनुज्ञया ।
महर्षेर्दीप्ततपसो धौम्यस्य च पुरोधसः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिनकी बात है, शत्रुओंको संताप देनेवाले पुरुषसिंह पाँचों पाण्डव उद्दीप्त तपस्वी पुरोहित धौम्य तथा महर्षि तृणबिन्दुकी आज्ञासे द्रौपदीको अकेली ही आश्रममें रखकर ब्राह्मणोंकी रक्षाके लिये हिंसक पशुओं-को मारने एक साथ चारों दिशाओंमें (अलग-अलग) चले गये॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु राजा सिन्धूनां वार्द्धक्षत्रिर्महायशाः।
विवाहकामः शाल्वेयान् प्रयातः सोऽभवत् तदा ॥ ६ ॥
महता परिबर्हेण राजयोग्येन संवृतः।
राजभिर्बहुभिः सार्धमुपायात् काम्यकं च सः ॥ ७ ॥

मूलम्

ततस्तु राजा सिन्धूनां वार्द्धक्षत्रिर्महायशाः।
विवाहकामः शाल्वेयान् प्रयातः सोऽभवत् तदा ॥ ६ ॥
महता परिबर्हेण राजयोग्येन संवृतः।
राजभिर्बहुभिः सार्धमुपायात् काम्यकं च सः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी समय सिंधुदेशका महायशस्वी राजा जयद्रथ, जो वृद्धक्षत्रका पुत्र था, विवाहकी इच्छासे शाल्वदेशकी ओर जा रहा था। वह बहुमूल्य राजोचित ठाट-बाटसे सुसज्जित था। अनेक राजाओंके साथ यात्रा करता हुआ वह काम्यकवनमें आ पहुँचा॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रापश्यत् प्रियां भार्यां पाण्डवानां यशस्विनीम्।
तिष्ठन्तीमाश्रमद्वारि द्रौपदीं निर्जने वने ॥ ८ ॥

मूलम्

तत्रापश्यत् प्रियां भार्यां पाण्डवानां यशस्विनीम्।
तिष्ठन्तीमाश्रमद्वारि द्रौपदीं निर्जने वने ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ उसने पाण्डवोंकी प्यारी पत्नी यशस्विनी द्रौपदीको दूरसे देखा, जो निर्जन वनमें अपने आश्रमके दरवाजेपर खड़ी थी॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विभ्राजमानां वपुषा बिभ्रतीं रूपमुत्तमम्।
भ्राजयन्तीं वनोद्देशं नीलाभ्रमिव विद्युतम् ॥ ९ ॥

मूलम्

विभ्राजमानां वपुषा बिभ्रतीं रूपमुत्तमम्।
भ्राजयन्तीं वनोद्देशं नीलाभ्रमिव विद्युतम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह परम सुन्दर रूप धारण किये अपनी अनुपम कान्तिसे उद्‌भासित हो रही थी और जैसे विद्युत् अपनी प्रभासे नीले मेघसमूहको प्रकाशित करती है, उसी प्रकार वह सुन्दरी अपनी अङ्गच्छटासे उस वनप्रान्तको सब ओरसे देदीप्यमान कर रही थी॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्सरा देवकन्या वा माया वा देवनिर्मिता।
इति कृत्वाञ्जलिं सर्वे ददृशुस्तामनिन्दिताम् ॥ १० ॥

मूलम्

अप्सरा देवकन्या वा माया वा देवनिर्मिता।
इति कृत्वाञ्जलिं सर्वे ददृशुस्तामनिन्दिताम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जयद्रथ और उसके सभी साथियोंने उस अनिन्द्य सुन्दरीकी ओर देखा और वे हाथ जोड़कर मन-ही-मन यह विचार करने लगे—‘यह कोई अप्सरा है या देवकन्या अथवा देवताओंकी रची हुई माया है?’॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स राजा सिन्धूनां वार्द्धक्षत्रिर्जयद्रथः।
विस्मितस्त्वनवद्याङ्गीं दृष्ट्‌वा तां दुष्टमानसः ॥ ११ ॥

मूलम्

ततः स राजा सिन्धूनां वार्द्धक्षत्रिर्जयद्रथः।
विस्मितस्त्वनवद्याङ्गीं दृष्ट्‌वा तां दुष्टमानसः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निर्दोष अंगोंवाली उस सुन्दरीको देखकर वृद्धक्षत्र-कुमार सिन्धुराज जयद्रथ चकित रह गया। उसके मनमें दूषित भावनाका उदय हुआ॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कोटिकास्यं राजानमब्रवीत् काममोहितः।
कस्य त्वेषानवद्याङ्गी यदि वापि न मानुषी ॥ १२ ॥

मूलम्

स कोटिकास्यं राजानमब्रवीत् काममोहितः।
कस्य त्वेषानवद्याङ्गी यदि वापि न मानुषी ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने काममोहित होकर राजा कोटिकास्यसे कहा—‘कोटिक! जरा जाकर पता तो लगाओ, यह सर्वांगसुन्दरी किसकी स्त्री है? अथवा यह मनुष्यजातिकी स्त्री है भी या नहीं?॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विवाहार्थो न मे कश्चिदिमां प्राप्यातिसुन्दरीम्।
एतामेवाहमादाय गमिष्यामि स्वमालयम् ॥ १३ ॥

मूलम्

विवाहार्थो न मे कश्चिदिमां प्राप्यातिसुन्दरीम्।
एतामेवाहमादाय गमिष्यामि स्वमालयम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस अत्यन्त सुन्दरी रमणीको पाकर मुझे और किसीसे विवाह करनेकी आवश्यकता ही नहीं रह जायगी। इसीको लेकर मैं अपने घर लौट जाऊँगा॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छ जानीहि सौम्येमां कस्य वात्र कुतोऽपि वा।
किमर्थमागता सुभ्रूरिदं कण्टकितं वनम् ॥ १४ ॥

मूलम्

गच्छ जानीहि सौम्येमां कस्य वात्र कुतोऽपि वा।
किमर्थमागता सुभ्रूरिदं कण्टकितं वनम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सौम्य! जाओ, पता लगाओ, यह किसकी स्त्री है और कहाँसे इस वनमें आयी है? यह सुन्दर भौंहोंवाली युवती काँटोंसे भरे हुए इस जंगलमें किसलिये आयी है?॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि नाम वरारोहा मामेषा लोकसुन्दरी।
भजेदद्यायतापाङ्गी सुदती तनुमध्यमा ॥ १५ ॥

मूलम्

अपि नाम वरारोहा मामेषा लोकसुन्दरी।
भजेदद्यायतापाङ्गी सुदती तनुमध्यमा ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्या यह मनोहर कटिप्रदेशवाली विश्वसुन्दरी मुझे अंगीकार करेगी? इसके नेत्रप्रान्त कितने विशाल हैं, दाँत कैसे सुन्दर हैं और शरीरका मध्यभाग कितना सूक्ष्म है?॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्यहं कृतकामः स्यामिमां प्राप्य वरस्त्रियम्।
गच्छ जानीहि को न्वस्या नाथ इत्येव कोटिक ॥ १६ ॥
स कोटिकास्यस्तच्छ्रुत्वा रथात् प्रस्कन्द्य कुण्डली।
उपेत्य पप्रच्छ तदा क्रोष्टा व्याघ्रवधूमिव ॥ १७ ॥

मूलम्

अप्यहं कृतकामः स्यामिमां प्राप्य वरस्त्रियम्।
गच्छ जानीहि को न्वस्या नाथ इत्येव कोटिक ॥ १६ ॥
स कोटिकास्यस्तच्छ्रुत्वा रथात् प्रस्कन्द्य कुण्डली।
उपेत्य पप्रच्छ तदा क्रोष्टा व्याघ्रवधूमिव ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि मैं इस सुन्दरीको पा जाऊँ तो कृतार्थ हो जाऊँगा। कोटिक! जाओ और पता लगाओ कि इसका पति कौन है?’ जयद्रथका यह वचन सुनकर कुण्डलमण्डित कोटिकास्य रथसे उतर पड़ा और जैसे गीदड़ बाघकी स्त्रीसे बात करे, उसी प्रकार उसने द्रौपदीके पास जाकर पूछा॥१६-१७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि द्रौपदीहरणपर्वणि जयद्रथागमने चतुःषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत द्रौपदीहरणपर्वमें जयद्रथका आगमनविषयक दो सौ चौसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२६४॥