२६१ मुद्‌गलदेवदूतसंवादे

भागसूचना

एकषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

देवदूतद्वारा स्वर्गलोकके गुण-दोषोंका तथा दोषरहित विष्णुधामका वर्णन सुनकर मुद्‌गलका देवदूतको लौटा देना एवं व्यासजीका युधिष्ठिरको समझाकर अपने आश्रमको लौट जाना

मूलम् (वचनम्)

देवदूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

महर्षे आर्यबुद्धिस्त्वं यः स्वर्गसुखमुत्तमम्।
सम्प्राप्तं बहु मन्तव्यं विमृशस्यबुधो यथा ॥ १ ॥

मूलम्

महर्षे आर्यबुद्धिस्त्वं यः स्वर्गसुखमुत्तमम्।
सम्प्राप्तं बहु मन्तव्यं विमृशस्यबुधो यथा ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवदूत बोला— महर्षे! तुम्हारी बुद्धि बड़ी उत्तम है। जिस उत्तम स्वर्गीय सुखको दूसरे लोग बहुत बड़ी चीज समझते हैं, वह तुम्हें प्राप्त ही है, फिर भी तुम अनजान-से बनकर इसके सम्बन्धमें विचार करते हो—इसके गुण-दोषकी समीक्षा कर रहे हो॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपरिष्टादसौ लोको योऽयं स्वरिति संज्ञितः।
ऊर्ध्वगः सत्पथः शश्वद् देवयानचरो मुने ॥ २ ॥

मूलम्

उपरिष्टादसौ लोको योऽयं स्वरिति संज्ञितः।
ऊर्ध्वगः सत्पथः शश्वद् देवयानचरो मुने ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुने! जिसे स्वर्लोक कहते हैं, वह यहाँसे बहुत ऊपर है। वहाँ पहुँचनेके लिये ऊपरको जाया जाता है, इसलिये उसका एक नाम ऊर्ध्वग भी है। वहाँ जानेके लिये जो मार्ग है, वह बहुत उत्तम है। वहाँके लोग सदा विमानोंपर विचरा करते हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नातप्ततपसः पुंसो नामहायज्ञयाजिनः ।
नानृता नास्तिकाश्चैव तत्र गच्छन्ति मुद्‌गल ॥ ३ ॥

मूलम्

नातप्ततपसः पुंसो नामहायज्ञयाजिनः ।
नानृता नास्तिकाश्चैव तत्र गच्छन्ति मुद्‌गल ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुद्‌गल! जिन्होंने तपस्या नहीं की है, बड़े-बड़े यज्ञोंद्वारा यजन नहीं किया है तथा जो असत्यवादी एवं नास्तिक हैं, वे उस लोकमें नहीं जा पाते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मात्मानो जितात्मानः शान्ता दान्ता विमत्सराः।
दानधर्मरता मर्त्याः शूराश्चाहवलक्षणाः ॥ ४ ॥
तत्र गच्छन्ति धर्माग्र्यं कृत्वा शमदमात्मकम्।
लोकान् पुण्यकृतां ब्रह्मन्‌ सद्‌भिराचरितान्‌ नृभिः ॥ ५ ॥

मूलम्

धर्मात्मानो जितात्मानः शान्ता दान्ता विमत्सराः।
दानधर्मरता मर्त्याः शूराश्चाहवलक्षणाः ॥ ४ ॥
तत्र गच्छन्ति धर्माग्र्यं कृत्वा शमदमात्मकम्।
लोकान् पुण्यकृतां ब्रह्मन्‌ सद्‌भिराचरितान्‌ नृभिः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! धर्मात्मा, मनको वशमें रखनेवाले, शम-दमसे सम्पन्न, ईर्ष्यारहित, दानधर्मपरायण तथा युद्धकलामें प्रसिद्ध शूरवीर मनुष्य ही वहाँ सब धर्मोंमें श्रेष्ठ इन्द्रिय-संयम और मनोनिग्रहरूपी योगको अपनाकर सत्पुरुषों-द्वारा सेवित पुण्यवानोंके लोकोंमें जाते हैं॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवाः साध्यास्तथा विश्वे तथैव च महर्षयः।

मूलम्

देवाः साध्यास्तथा विश्वे तथैव च महर्षयः।

Misc Detail

यामा धामाश्च मौद्‌गल्य 1_ गन्धर्वाप्सरसस्तथा ॥ ६ ॥_

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषां देवनिकायानां पृथक् पृथगनेकशः।
भास्वन्तः कामसम्पन्ना लोकास्तेजोमयाः शुभाः ॥ ७ ॥

मूलम्

एषां देवनिकायानां पृथक् पृथगनेकशः।
भास्वन्तः कामसम्पन्ना लोकास्तेजोमयाः शुभाः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुद्‌गल! वहाँ देवता, साध्य, विश्वेदेव, महर्षिगण, याम, धाम, गन्धर्व तथा अप्सरा—इन सब देवसमूहोंके अलग-अलग अनेक प्रकाशमान लोक हैं, जो इच्छानुसार प्राप्त होनेवाले भोगोंसे सम्पन्न, तेजस्वी तथा मंगलकारी हैं॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि योजनानि हिरण्मयः ।
मेरुः पर्वतराड् यत्र देवोद्यानानि मुद्‌गल ॥ ८ ॥
नन्दनादीनि पुण्यानि विहाराः पुण्यकर्मणाम्।
न क्षुत्पिपासे न ग्लानिर्न शीतोष्णे भयं तथा ॥ ९ ॥

मूलम्

त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि योजनानि हिरण्मयः ।
मेरुः पर्वतराड् यत्र देवोद्यानानि मुद्‌गल ॥ ८ ॥
नन्दनादीनि पुण्यानि विहाराः पुण्यकर्मणाम्।
न क्षुत्पिपासे न ग्लानिर्न शीतोष्णे भयं तथा ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वर्गमें तैंतीस हजार योजनका सुवर्णमय एक बहुत ऊँचा पर्वत है जो मेरुगिरिके नामसे विख्यात है। मुद्‌गल! वहीं देवताओंके नन्दन आदि पवित्र उद्यान तथा पुण्यात्मा पुरुषोंके विहारस्थल हैं। वहाँ किसीको भूख-प्यास नहीं लगती, मनमें कभी ग्लानि नहीं होती, गरमी और जाड़ेका कष्ट भी नहीं होता और न कोई भय ही होता है॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बीभत्समशुभं वापि तत्र किंचिन्न विद्यते।
मनोज्ञाः सर्वतो गन्धाः सुखस्पर्शाश्च सर्वशः ॥ १० ॥
शब्दाः श्रुतिमनोग्राह्याः सर्वतस्तत्र वै मुने।
न शोको न जरा तत्र नायासपरिदेवने ॥ ११ ॥

मूलम्

बीभत्समशुभं वापि तत्र किंचिन्न विद्यते।
मनोज्ञाः सर्वतो गन्धाः सुखस्पर्शाश्च सर्वशः ॥ १० ॥
शब्दाः श्रुतिमनोग्राह्याः सर्वतस्तत्र वै मुने।
न शोको न जरा तत्र नायासपरिदेवने ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो घृणा करने-योग्य एवं अशुभ हो। वहाँ सब ओर मनोरम सुगन्ध, सुखदायक स्पर्श तथा कानों और मनको प्रिय लगनेवाले मधुर शब्द सुननेमें आते हैं। मुने! स्वर्गलोकमें न शोक होता है, न बुढ़ापा। वहाँ थकावट तथा करुणाजनक विलाप भी श्रवणगोचर नहीं होते॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईदृशः स मुने लोकः स्वकर्मफलहेतुकः।
सुकृतैस्तत्र पुरुषाः सम्भवन्त्यात्मकर्मभिः ॥ १२ ॥

मूलम्

ईदृशः स मुने लोकः स्वकर्मफलहेतुकः।
सुकृतैस्तत्र पुरुषाः सम्भवन्त्यात्मकर्मभिः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षे! स्वर्गलोक ऐसा ही है। अपने सत्कर्मोंके फलरूप ही उसकी प्राप्ति होती है। मनुष्य वहाँ अपने किये हुए पुण्यकर्मोंसे ही रह पाते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैजसानि शरीराणि भवन्त्यत्रोपपद्यताम् ।
कर्मजान्येव मौद्‌गल्य न मातृपितृजान्युत ॥ १३ ॥

मूलम्

तैजसानि शरीराणि भवन्त्यत्रोपपद्यताम् ।
कर्मजान्येव मौद्‌गल्य न मातृपितृजान्युत ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुद्‌गल! स्वर्गवासियोंके शरीरमें तैजस तत्त्वकी प्रधानता होती है। वे शरीर पुण्यकर्मोंसे ही उपलब्ध होते हैं। माता-पिताके रजोवीर्यसे उनकी उत्पत्ति नहीं होती है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न संस्वेदो न दौर्गन्ध्यं पुरीषं मूत्रमेव च।
तेषां न च रजो वस्त्रं बाधते तत्र वै मुने॥१४॥

मूलम्

न संस्वेदो न दौर्गन्ध्यं पुरीषं मूत्रमेव च।
तेषां न च रजो वस्त्रं बाधते तत्र वै मुने॥१४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन शरीरोंमें कभी पसीना नहीं निकलता, दुर्गन्ध नहीं आती तथा मल-मूत्रका भी अभाव होता है। मुने! उनके कपड़ोंमें कभी मैल नहीं बैठती है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न म्लायन्ति स्रजस्तेषां दिव्यगन्धा मनोरमाः।
संयुज्यन्ते विमानैश्च ब्रह्मन्नेवंविधैश्च ते ॥ १५ ॥

मूलम्

न म्लायन्ति स्रजस्तेषां दिव्यगन्धा मनोरमाः।
संयुज्यन्ते विमानैश्च ब्रह्मन्नेवंविधैश्च ते ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वर्गवासियोंकी जो (दिव्य कुसुमोंकी) मालाएँ होती हैं, वे कभी कुम्हलाती नहीं हैं। उनसे निरन्तर दिव्य सुगन्ध फैलती रहती है तथा वे देखनेमें भी बड़ी मनोरम होती हैं। ब्रह्मन्! स्वर्गके सभी निवासी ऐसे ही विमानोंसे सम्पन्न होते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईर्ष्याशोकक्लमापेता मोहमात्सर्यवर्जिताः ।
सुखं स्वर्गजितस्तत्र वर्तयन्ते महामुने ॥ १६ ॥

मूलम्

ईर्ष्याशोकक्लमापेता मोहमात्सर्यवर्जिताः ।
सुखं स्वर्गजितस्तत्र वर्तयन्ते महामुने ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामुने! जो अपने सत्कर्मोंद्वारा स्वर्गलोकपर विजय पा चुके हैं, वे वहाँ बड़े सुखसे जीवन बिताते हैं। उनमें किसीके प्रति ईर्ष्या नहीं होती, वे कभी शोक तथा थकावटका अनुभव नहीं करते एवं मोह तथा मात्सर्य (द्वेषभाव)-से सदा दूर रहते हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां तथाविधानां तु लोकानां मुनिपुङ्गव।
उपर्युपरि लोकस्य लोका दिव्या गुणान्विताः ॥ १७ ॥

मूलम्

तेषां तथाविधानां तु लोकानां मुनिपुङ्गव।
उपर्युपरि लोकस्य लोका दिव्या गुणान्विताः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिश्रेष्ठ! देवताओंके जो पूर्वोक्त प्रकारके लोक हैं, उन सबसे ऊपर अन्य कितने ही विविध गुणसम्पन्न दिव्य लोक हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरस्ताद् ब्राह्मणास्तत्र लोकास्तेजोमयाः शुभाः।
यत्र यान्त्यृषयो ब्रह्मन् पूताः स्वैः कर्मभिः शुभैः ॥ १८ ॥

मूलम्

पुरस्ताद् ब्राह्मणास्तत्र लोकास्तेजोमयाः शुभाः।
यत्र यान्त्यृषयो ब्रह्मन् पूताः स्वैः कर्मभिः शुभैः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सबसे ऊपर ब्रह्माजीके लोक हैं, जो अत्यन्त तेजस्वी एवं मंगलकारी हैं। ब्रह्मन्! वहाँ अपने शुभ कर्मोंसे पवित्र ऋषि, मुनि जाते हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋभवो नाम तत्रान्ये देवानामपि देवताः।
तेषां लोकात् परतरे यान् यजन्तीह देवताः ॥ १९ ॥

मूलम्

ऋभवो नाम तत्रान्ये देवानामपि देवताः।
तेषां लोकात् परतरे यान् यजन्तीह देवताः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहीं ऋभु नामक दूसरे देवता रहते हैं, जो देवगणोंके भी आराध्यदेव हैं। देवताओंके लोकोंसे उनका स्थान उत्कृष्ट है। देवतालोग भी यज्ञोंद्वारा उनका यजन करते हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयंप्रभास्ते भास्वन्तो लोकाः कामदुघाः परे।
न तेषां स्त्रीकृतस्तापो न लोकैश्वर्यमत्सरः ॥ २० ॥

मूलम्

स्वयंप्रभास्ते भास्वन्तो लोकाः कामदुघाः परे।
न तेषां स्त्रीकृतस्तापो न लोकैश्वर्यमत्सरः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके उत्तम लोक स्वयंप्रकाश, तेजस्वी और सम्पूर्ण कामनाओंकी पूर्ति करनेवाले हैं। उन्हें स्त्रियोंके लिये संताप नहीं होता। लोकोंके ऐश्वर्यके लिये उनके मनमें कभी ईर्ष्या नहीं होती॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न वर्तयन्त्याहुतिभिस्ते नाप्यमृतभोजनाः ।
तथा दिव्यशरीरास्ते न च विग्रहमूर्तयः ॥ २१ ॥

मूलम्

न वर्तयन्त्याहुतिभिस्ते नाप्यमृतभोजनाः ।
तथा दिव्यशरीरास्ते न च विग्रहमूर्तयः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे देवताओंकी तरह आहुतियोंसे जीविका नहीं चलाते। उन्हें अमृत पीनेकी आवश्यकता नहीं होती। उनके शरीर दिव्य ज्योतिर्मय हैं। उनकी कोई विशेष आकृति नहीं होती॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न सुखे सुखकामास्ते देवदेवाः सनातनाः।
न कल्पपरिवर्तेषु परिवर्तन्ति ते तथा ॥ २२ ॥

मूलम्

न सुखे सुखकामास्ते देवदेवाः सनातनाः।
न कल्पपरिवर्तेषु परिवर्तन्ति ते तथा ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सुखमें प्रतिष्ठित हैं, परंतु सुखकी कामना नहीं रखते। वे देवताओंके भी देवता और सनातन हैं। कल्पका अन्त होनेपर भी उनकी स्थितिमें कोई परिवर्तन नहीं होता—वे ज्यों-के-त्यों बने रहते हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरा मृत्युः कुतस्तेषां हर्षः प्रीतिः सुखं न च।
न दुःखं न सुखं चापि रागद्वेषौ कुतो मुने॥२३॥

मूलम्

जरा मृत्युः कुतस्तेषां हर्षः प्रीतिः सुखं न च।
न दुःखं न सुखं चापि रागद्वेषौ कुतो मुने॥२३॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुने! उनमें जरा-मृत्युकी सम्भावना तो हो ही कैसे सकती है? हर्ष, प्रीति तथा सुख आदि विकारोंका भी उनमें सर्वथा अभाव ही है। ऐसी स्थितिमें उनके भीतर दुःख-सुख तथा राग-द्वेषादि कैसे रह सकते हैं?॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवानामपि मौद्‌गल्य कांक्षिता सा गतिः परा।
दुष्प्रापा परमा सिद्धिरगम्या कामगोचरैः ॥ २४ ॥

मूलम्

देवानामपि मौद्‌गल्य कांक्षिता सा गतिः परा।
दुष्प्रापा परमा सिद्धिरगम्या कामगोचरैः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मौद्‌गल्य! स्वर्गवासी देवता भी उस (ऋभु नामक देवताओंकी) परमगतिको प्राप्त करनेकी इच्छा रखते हैं। वह परा सिद्धिकी अवस्था है, जो अत्यन्त दुर्लभ है। विषयभोगोंकी इच्छा रखनेवाले लोगोंकी वहाँतक पहुँच नहीं होती॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रयस्त्रिंशदिमे देवा येषां लोका मनीषिभिः।
गम्यन्ते नियमैः श्रेष्ठैर्दानैर्वा विधिपूर्वकैः ॥ २५ ॥

मूलम्

त्रयस्त्रिंशदिमे देवा येषां लोका मनीषिभिः।
गम्यन्ते नियमैः श्रेष्ठैर्दानैर्वा विधिपूर्वकैः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये जो तैंतीस देवता हैं, उन्हींके लोकोंको मनीषी पुरुष उत्तम नियमोंके आचरणसे अथवा विधिपूर्वक दिये हुए दानोंसे प्राप्त करते हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेयं दानकृता व्युष्टिरनुप्राप्ता सुखं त्वया।
तां भुङ्‌क्ष्व सुकृतैर्लब्धां तपसा द्योतितप्रभः ॥ २६ ॥

मूलम्

सेयं दानकृता व्युष्टिरनुप्राप्ता सुखं त्वया।
तां भुङ्‌क्ष्व सुकृतैर्लब्धां तपसा द्योतितप्रभः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! तुमने अपने दानके प्रभावसे अनायास ही वह स्वर्गीय सुख-सम्पत्ति प्राप्त कर ली है। अपनी तपस्याके तेजसे देदीप्यमान होकर अब तुम अपने पुण्यसे प्राप्त हुए उस दिव्य वैभवका उपभोग करो॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् स्वर्गसुखं विप्र लोका नानाविधास्तथा।
गुणाः स्वर्गस्य प्रोक्तास्ते दोषानपि निबोध मे ॥ २७ ॥

मूलम्

एतत् स्वर्गसुखं विप्र लोका नानाविधास्तथा।
गुणाः स्वर्गस्य प्रोक्तास्ते दोषानपि निबोध मे ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रवर! यही स्वर्गका सुख है और ऐसे ही वहाँ भाँति-भाँतिके लोक हैं। यहाँतक मैंने तुम्हें स्वर्गके गुण बताये हैं; अब वहाँके दोष भी मुझसे सुन लो॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतस्य कर्मणस्तत्र भुज्यते यत् फलं दिवि।
न चान्यत् क्रियते कर्म मूलच्छेदेन भुज्यते ॥ २८ ॥

मूलम्

कृतस्य कर्मणस्तत्र भुज्यते यत् फलं दिवि।
न चान्यत् क्रियते कर्म मूलच्छेदेन भुज्यते ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने किये हुए सत्कर्मोंका जो फल होता है, वही स्वर्गमें भोगा जाता है। वहाँ कोई नया कर्म नहीं किया जाता। अपना पुण्यरूप मूलधन गँवानेसे ही वहाँके भोग प्राप्त होते हैं॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽत्र दोषो मम मतस्तस्यान्ते पतनं च यत्।
सुखव्याप्तमनस्कानां पतनं यच्च मुद्‌गल ॥ २९ ॥

मूलम्

सोऽत्र दोषो मम मतस्तस्यान्ते पतनं च यत्।
सुखव्याप्तमनस्कानां पतनं यच्च मुद्‌गल ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुद्‌गल! स्वर्गमें सबसे बड़ा दोष मुझे यह जान पड़ता है कि कर्मोंका भोग समाप्त होनेपर एक दिन वहाँसे पतन हो ही जाता है। जिनका मन सुखभोगमें लगा हुआ है, उनको सहसा पतन कितना दुःखदायी होता है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असंतोषः परीतापो दृष्ट्‌वा दीप्ततराः श्रियः।
यद् भवत्यवरे स्थाने स्थितानां तत् सुदुष्करम् ॥ ३० ॥

मूलम्

असंतोषः परीतापो दृष्ट्‌वा दीप्ततराः श्रियः।
यद् भवत्यवरे स्थाने स्थितानां तत् सुदुष्करम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वर्गमें भी जो लोग नीचेके स्थानोंमें स्थित हैं, उन्हें अपनेसे ऊपरके लोकोंकी समुज्ज्वल श्रीसम्पत्ति देखकर जो असंतोष और संताप होता है, उसका वर्णन करना अत्यन्त कठिन है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संज्ञामोहश्च पततां रजसा च प्रधर्षणम्।
प्रम्लानेषु च माल्येषु ततः पिपतिषोर्भयम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

संज्ञामोहश्च पततां रजसा च प्रधर्षणम्।
प्रम्लानेषु च माल्येषु ततः पिपतिषोर्भयम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वर्गलोकसे गिरते समय वहाँके निवासियोंकी चेतना लुप्त हो जाती है। रजोगुणके आक्रमणसे उनकी बुद्धि बिगड़ जाती है। पहले उनके गलेकी मालाएँ कुम्हला जाती हैं; इससे उन्हें पतनकी सूचना मिल जानेसे उनके मनमें बड़ा भारी भय समा जाता है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आब्रह्मभवनादेते दोषा मौद्‌गल्य दारुणाः।
नाकलोके सुकृतिनां गुणास्त्वयुतशो नृणाम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

आब्रह्मभवनादेते दोषा मौद्‌गल्य दारुणाः।
नाकलोके सुकृतिनां गुणास्त्वयुतशो नृणाम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मौद्‌गल्य! ब्रह्मलोकपर्यन्त जितने लोक हैं, उन सबमें ये भयंकर दोष देखे जाते हैं। स्वर्गलोकमें रहते समय तो पुण्यात्मा पुरुषोंमें सहस्रों गुण होते हैं॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं त्वन्यो गुणः श्रेष्ठश्च्युतानां स्वर्गतो मुने।
शुभानुशययोगेन मनुष्येषूपजायते ॥ ३३ ॥

मूलम्

अयं त्वन्यो गुणः श्रेष्ठश्च्युतानां स्वर्गतो मुने।
शुभानुशययोगेन मनुष्येषूपजायते ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुने! परंतु वहाँसे भ्रष्ट हुए जीवोंका भी यह एक अन्य श्रेष्ठ गुण देखा जाता है कि वे अपने शुभ कर्मों-के संस्कारसे युक्त होनेके कारण मनुष्ययोनिमें ही जन्म पाते हैं॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रापि स महाभागः सुखभागभिजायते।
न चेत् सम्बुध्यते तत्र गच्छत्यधमतां ततः ॥ ३४ ॥

मूलम्

तत्रापि स महाभागः सुखभागभिजायते।
न चेत् सम्बुध्यते तत्र गच्छत्यधमतां ततः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ भी वह महाभाग मानव सुखके साधनोंसे सम्पन्न होकर ही उत्पन्न होता है। परंतु यदि मानवयोनिमें वह अपने कर्तव्यको न समझे, तो उससे भी नीची योनिमें चला जाता है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इह यत् क्रियते कर्म तत् परत्रोपभुज्यते।
कर्मभूमिरियं ब्रह्मन् फलभूमिरसौ मता ॥ ३५ ॥

मूलम्

इह यत् क्रियते कर्म तत् परत्रोपभुज्यते।
कर्मभूमिरियं ब्रह्मन् फलभूमिरसौ मता ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस मनुष्यलोकमें मानव-शरीरद्वारा जो कर्म किया जाता है, उसीको परलोकमें भोगा जाता है। ब्रह्मन्! यह कर्मभूमि और वह फलभोगकी भूमि मानी गयी है॥३५॥

मूलम् (वचनम्)

मुद्‌गल उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

महान्तस्तु अमी दोषास्त्वया स्वर्गस्य कीर्तिताः।
निर्दोष एव यस्त्वन्यो लोकं तं प्रवदस्व मे ॥ ३६ ॥

मूलम्

महान्तस्तु अमी दोषास्त्वया स्वर्गस्य कीर्तिताः।
निर्दोष एव यस्त्वन्यो लोकं तं प्रवदस्व मे ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुद्‌गल बोले— देवदूत! तुमने स्वर्गके महान् दोष बताये, परंतु स्वर्गकी अपेक्षा यदि कोई दूसरा लोक इन दोषोंसे सर्वथा रहित हो तो मुझसे उसीका वर्णन करो॥

मूलम् (वचनम्)

देवदूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मणः सदनादूर्ध्वं तद् विष्णोः परमं पदम्।
शुद्धं सनातनं ज्योतिः परं ब्रह्मेति यद् विदुः ॥ ३७ ॥

मूलम्

ब्रह्मणः सदनादूर्ध्वं तद् विष्णोः परमं पदम्।
शुद्धं सनातनं ज्योतिः परं ब्रह्मेति यद् विदुः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवदूतने कहा— ब्रह्माजीके भी लोकसे ऊपर भगवान् विष्णुका परम धाम है। वह शुद्ध सनातन ज्योतिर्मय लोक है। उसे परब्रह्म भी कहते हैं॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तत्र विप्र गच्छन्ति पुरुषा विषयात्मकाः।
दम्भलोभमहाक्रोधमोहद्रोहैरभिद्रुताः ॥ ३८ ॥

मूलम्

न तत्र विप्र गच्छन्ति पुरुषा विषयात्मकाः।
दम्भलोभमहाक्रोधमोहद्रोहैरभिद्रुताः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रवर! जिनका मन विषयोंमें रचा-पचा रहता है, वे लोग वहाँ नहीं जा सकते। दम्भ, लोभ, महाक्रोध, मोह और द्रोहसे युक्त मनुष्य भी वहाँ नहीं पहुँच सकते॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्ममा निरहङ्‌कारा निर्द्वन्द्वाः संयतेन्द्रियाः।
ध्यानयोगपराश्चैव तत्र गच्छन्ति मानवाः ॥ ३९ ॥

मूलम्

निर्ममा निरहङ्‌कारा निर्द्वन्द्वाः संयतेन्द्रियाः।
ध्यानयोगपराश्चैव तत्र गच्छन्ति मानवाः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ममता और अहंकारसे रहित, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंसे ऊपर उठे हुए, जितेन्द्रिय तथा ध्यानयोगमें तत्पर हैं, वे मनुष्य ही उस लोकमें जा सकते हैं॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् ते सर्वमाख्यातं यन्मां पृच्छसि मुद्‌गल।
तवानुकम्पया साधो साधु गच्छाम मा चिरम् ॥ ४० ॥

मूलम्

एतत् ते सर्वमाख्यातं यन्मां पृच्छसि मुद्‌गल।
तवानुकम्पया साधो साधु गच्छाम मा चिरम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुद्‌गल! तुमने जो कुछ मुझसे पूछा था, वह सब मैंने कह सुनाया। साधो! अब आपकी कृपासे हमलोग सुखपूर्वक स्वर्गकी यात्रा करें, विलम्ब नहीं होना चाहिये॥४०॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा तु मौद्‌गल्यो वाक्यं विममृशे धिया।
विमृश्य च मुनिश्रेष्ठो देवदूतमुवाच ह ॥ ४१ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा तु मौद्‌गल्यो वाक्यं विममृशे धिया।
विमृश्य च मुनिश्रेष्ठो देवदूतमुवाच ह ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी कहते हैं— राजन्! देवदूतकी यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ मुद्‌गलने उसपर बुद्धिपूर्वक विचार किया। विचार करके उन्होंने देवदूतसे कहा—॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवदूत नमस्तेऽस्तु गच्छ तात यथासुखम्।
महादोषेण मे कार्यं न स्वर्गेण सुखेन वा ॥ ४२ ॥

मूलम्

देवदूत नमस्तेऽस्तु गच्छ तात यथासुखम्।
महादोषेण मे कार्यं न स्वर्गेण सुखेन वा ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवदूत! तुम्हें नमस्कार है। तात! तुम सुखपूर्वक पधारो। स्वर्ग अथवा वहाँका सुख महान् दोषसे युक्त है; इसलिये मुझे उसकी आवश्यकता नहीं है॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतनान्ते महद् दुःखं परितापः सुदारुणः।
स्वर्गभाजश्चरन्तीह तस्मात् स्वर्गं न कामये ॥ ४३ ॥

मूलम्

पतनान्ते महद् दुःखं परितापः सुदारुणः।
स्वर्गभाजश्चरन्तीह तस्मात् स्वर्गं न कामये ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ओह! पतनके बाद तो स्वर्गवासी मनुष्योंको अत्यन्त भयंकर महान् दुःख और अनुताप होता है और फिर वे इसी लोकमें विचरते रहते हैं; इसलिये मुझे स्वर्गमें जानेकी इच्छा नहीं है॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र गत्वा न शोचन्ति न व्यथन्ति चलन्ति वा।
तदहं स्थानमत्यन्तं मार्गयिष्यामि केवलम् ॥ ४४ ॥

मूलम्

यत्र गत्वा न शोचन्ति न व्यथन्ति चलन्ति वा।
तदहं स्थानमत्यन्तं मार्गयिष्यामि केवलम् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जहाँ जाकर मनुष्य कभी शोक नहीं करते, व्यथित नहीं होते तथा जहाँसे विचलित नहीं होते हैं। केवल उसी अक्षय धामका मैं अनुसंधान करूँगा’॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा स मुनिर्वाक्यं देवदूतं विसृज्य तम्।
शिलोञ्छवृत्तिर्धर्मात्मा शममातिष्ठदुत्तमम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा स मुनिर्वाक्यं देवदूतं विसृज्य तम्।
शिलोञ्छवृत्तिर्धर्मात्मा शममातिष्ठदुत्तमम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर मुद्‌गल मुनिने उस देवदूतको विदा कर दिया और शिल एवं उञ्छवृत्तिसे जीवन-निर्वाह करनेवाले वे धर्मात्मा महर्षि उत्तम रीतिसे शम-दम आदि नियमोंका पालन करने लगे॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुल्यनिन्दास्तुतिर्भूत्वा समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
ज्ञानयोगेन शुद्धेन ध्याननित्यो बभूव ह ॥ ४६ ॥

मूलम्

तुल्यनिन्दास्तुतिर्भूत्वा समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
ज्ञानयोगेन शुद्धेन ध्याननित्यो बभूव ह ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी दृष्टिमें निन्दा और स्तुति समान हो गयी। वे मिट्टीके ढेले, पत्थर और सुवर्णको समान समझने लगे और विशुद्ध ज्ञानयोगके द्वारा नित्य ध्यानमें तत्पर रहने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्यानयोगाद् बलं लब्ध्वा प्राप्य बुद्धिमनुत्तमाम्।
जगाम शाश्वतीं सिद्धिं परां निर्वाणलक्षणाम् ॥ ४७ ॥

मूलम्

ध्यानयोगाद् बलं लब्ध्वा प्राप्य बुद्धिमनुत्तमाम्।
जगाम शाश्वतीं सिद्धिं परां निर्वाणलक्षणाम् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ध्यानसे (परम वैराग्यका) बल पाकर उन्हें उत्तम बोध प्राप्त हुआ और उसके द्वारा उन्होंने सनातन मोक्षरूपा परम सिद्धि प्राप्त कर ली॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् त्वमपि कौन्तेय न शोकं कर्तुमर्हसि।
राज्यात् स्फीतात् परिभ्रष्टस्तपसा तदवाप्स्यसि ॥ ४८ ॥

मूलम्

तस्मात् त्वमपि कौन्तेय न शोकं कर्तुमर्हसि।
राज्यात् स्फीतात् परिभ्रष्टस्तपसा तदवाप्स्यसि ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! इसलिये तुम भी समृद्धिशाली राज्यसे भ्रष्ट होनेके कारण शोक न करो; तपस्याद्वारा तुम उसे प्राप्त कर लोगे॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम्।
पर्यायेणोपसर्पन्ते नरं नेमिमरा इव ॥ ४९ ॥

मूलम्

सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम्।
पर्यायेणोपसर्पन्ते नरं नेमिमरा इव ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यपर सुखके बाद दुःख और दुःखके बाद सुख बारी-बारीसे आते रहते हैं। जैसे अरे नेमिसे जुड़े हुए ऊँचे-नीचे आते रहते हैं, वैसे ही मनुष्यका दुःख-सुखसे सम्बन्ध होता रहता है॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितृपैतामहं राज्यं प्राप्स्यस्यमितविक्रम ।
वर्षात् त्रयोदशादूर्ध्वं व्येतु ते मानसो ज्वरः ॥ ५० ॥

मूलम्

पितृपैतामहं राज्यं प्राप्स्यस्यमितविक्रम ।
वर्षात् त्रयोदशादूर्ध्वं व्येतु ते मानसो ज्वरः ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अमितपराक्रमी युधिष्ठिर! तुम तेरहवें वर्षके बाद अपने बाप-दादोंका राज्य प्राप्त कर लोगे, अतः अब तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये॥५०॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एवमुक्त्वा भगवान् व्यासः पाण्डवनन्दनम्।
जगाम तपसे धीमान् पुनरेवाश्रमं प्रति ॥ ५१ ॥

मूलम्

स एवमुक्त्वा भगवान् व्यासः पाण्डवनन्दनम्।
जगाम तपसे धीमान् पुनरेवाश्रमं प्रति ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! परम बुद्धिमान् भगवान् व्यास पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरसे ऐसा कहकर तपस्याके लिये पुनः अपने आश्रमकी ओर चले गये॥५१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि व्रीहिद्रौणिकपर्वणि मुद्‌गलदेवदूतसंवादे एकषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत व्रीहिद्रौणिकपर्वमें मुद्‌गल-देवदूत-संवादविषयक दो सौ इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२६१॥


  1. मुद्गल ऋषिको ही ‘मौद्गल्य’ भी कहा है। ↩︎