२६० मुद्‌गलोपाख्याने

भागसूचना

षष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दुर्वासाद्वारा महर्षि मुद्‌गलके दानधर्म एवं धैर्यकी परीक्षा तथा मुद्‌गलका देवदूतसे कुछ प्रश्न करना

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्रीहिद्रोणः परित्यक्तः कथं तेन महात्मना।
कस्मै दत्तश्च भगवन् विधिना केन चात्थ मे ॥ १ ॥

मूलम्

व्रीहिद्रोणः परित्यक्तः कथं तेन महात्मना।
कस्मै दत्तश्च भगवन् विधिना केन चात्थ मे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— भगवन्! महात्मा मुद्‌गलने एक द्रोण1 धानका दान कैसे और किस विधिसे किया था तथा वह दान किसको दिया गया था? यह सब मुझे बताइये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्यक्षधर्मा भगवान् यस्य तुष्टो हि कर्मभिः।
सफलं तस्य जन्माहं मन्ये सद्धर्मचारिणः ॥ २ ॥

मूलम्

प्रत्यक्षधर्मा भगवान् यस्य तुष्टो हि कर्मभिः।
सफलं तस्य जन्माहं मन्ये सद्धर्मचारिणः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्योंके धर्मको प्रत्यक्ष देखने और जाननेवाले भगवान् जिसके कर्मोंसे संतुष्ट होते हैं, उसी श्रेष्ठ धर्मात्मा पुरुषका जन्म सफल है, ऐसा मैं मानता हूँ॥२॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिलोञ्छवृत्तिर्धर्मात्मा मुद्‌गलः संयतेन्द्रियः ।
आसीद् राजन् कुरुक्षेत्रे सत्यवागनसूयकः ॥ ३ ॥

मूलम्

शिलोञ्छवृत्तिर्धर्मात्मा मुद्‌गलः संयतेन्द्रियः ।
आसीद् राजन् कुरुक्षेत्रे सत्यवागनसूयकः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी बोले— राजन्! कुरुक्षेत्रमें मुद्‌गलनामक एक ऋषि रहते थे। वे बड़े धर्मात्मा और जितेन्द्रिय थे। शिल2 तथा उञ्छवृत्तिसे ही वे जीविका चलाते थे तथा सदा सत्य बोलते और किसीकी भी निन्दा नहीं करते थे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिथिव्रती क्रियावांश्च कापोतीं वृत्तिमास्थितः।
सत्रमिष्टीकृतं नाम समुपास्ते महातपाः ॥ ४ ॥
सपुत्रदारो हि मुनिः पक्षाहारो बभूव ह।
कपोतवृत्त्या पक्षेण व्रीहिद्रोणमुपार्जयत् ॥ ५ ॥

मूलम्

अतिथिव्रती क्रियावांश्च कापोतीं वृत्तिमास्थितः।
सत्रमिष्टीकृतं नाम समुपास्ते महातपाः ॥ ४ ॥
सपुत्रदारो हि मुनिः पक्षाहारो बभूव ह।
कपोतवृत्त्या पक्षेण व्रीहिद्रोणमुपार्जयत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने अतिथियोंकी सेवाका व्रत ले रखा था। वे बड़े कर्मनिष्ठ और तपस्वी थे तथा कापोती वृत्तिका आश्रय ले आवश्यकताके अनुरूप थोड़े-से ही अन्नका संग्रह करते थे। वे मुनि स्त्री और पुत्रके साथ रहकर पंद्रह दिनमें जैसे कबूतर दाने चुगता है, उसी प्रकार चुनकर एक द्रोण धानका संग्रह कर पाते थे और उसके द्वारा इष्टीकृत नामक यज्ञका अनुष्ठान करते थे। इस प्रकार परिवारसहित उन्हें पंद्रह दिनपर भोजन प्राप्त होता था॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दर्शं च पौर्णमासं च कुर्वन् विगतमत्सरः।
देवतातिथिशेषेण कुरुते देहयापनम् ॥ ६ ॥

मूलम्

दर्शं च पौर्णमासं च कुर्वन् विगतमत्सरः।
देवतातिथिशेषेण कुरुते देहयापनम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके मनमें किसीके प्रति ईर्ष्याका भाव नहीं था। वे प्रत्येक पक्षमें दर्श एवं पौर्णमास यज्ञ करते हुए देवताओं और अतिथियोंको उनका भाग अर्पित करके शेष अन्नसे जीवन-यापन करते थे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्येन्द्रः सहितो देवैः साक्षात् त्रिभुवनेश्वरः।
प्रत्यगृह्णान्महाराज भागं पर्वणि पर्वणि ॥ ७ ॥

मूलम्

तस्येन्द्रः सहितो देवैः साक्षात् त्रिभुवनेश्वरः।
प्रत्यगृह्णान्महाराज भागं पर्वणि पर्वणि ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! प्रत्येक पर्वपर तीनों लोकोंके स्वामी साक्षात् इन्द्र देवताओंसहित पधारकर उनके यज्ञमें भाग ग्रहण करते थे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पर्वकालं कृत्वा तु मुनिवृत्त्या समन्वितः।
अतिथिभ्यो ददावन्नं प्रहृष्टेनान्तरात्मना ॥ ८ ॥

मूलम्

स पर्वकालं कृत्वा तु मुनिवृत्त्या समन्वितः।
अतिथिभ्यो ददावन्नं प्रहृष्टेनान्तरात्मना ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुद्‌गल ऋषि मुनिवृत्तिसे रहते हुए पर्वकालोचित कर्मदर्श और पौर्णमास यज्ञ करके हर्षोल्लासपूर्ण हृदयसे अतिथियोंको भोजन देते थे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्रीहिद्रोणस्य तद्ध्यस्य ददतोऽन्नं महात्मनः।
शिष्टं मात्सर्यहीनस्य वर्धतेऽतिथिदर्शनात् ॥ ९ ॥

मूलम्

व्रीहिद्रोणस्य तद्ध्यस्य ददतोऽन्नं महात्मनः।
शिष्टं मात्सर्यहीनस्य वर्धतेऽतिथिदर्शनात् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ईर्ष्यासे रहित महात्मा मुद्‌गल एक द्रोण धानसे तैयार किये हुए अन्नमेंसे जब-जब दान करते थे, तब-तब देनेसे बचा हुआ अन्न मुद्‌गलके द्वारा दूसरे अतिथियोंका दर्शन करनेसे बढ़ जाया करता था॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छतान्यपि भुञ्जन्ति ब्राह्मणानां मनीषिणाम्।
मुनेस्त्यागविशुद्ध्या तु तदन्नं वृद्धिमृच्छति ॥ १० ॥

मूलम्

तच्छतान्यपि भुञ्जन्ति ब्राह्मणानां मनीषिणाम्।
मुनेस्त्यागविशुद्ध्या तु तदन्नं वृद्धिमृच्छति ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार उसमें सैकड़ों मनीषी ब्राह्मण एक साथ भोजन कर लेते थे। मुद्‌गल मुनिके विशुद्ध त्यागके प्रभावसे वह अन्न निश्चय ही बढ़ जाता था॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तु शुश्राव धर्मिष्ठं मुद्‌गलं संशितव्रतम्।
दुर्वासा नृप दिग्वासास्तमथाभ्याजगाम ह ॥ ११ ॥

मूलम्

तं तु शुश्राव धर्मिष्ठं मुद्‌गलं संशितव्रतम्।
दुर्वासा नृप दिग्वासास्तमथाभ्याजगाम ह ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! एक दिन दिगम्बर वेषमें भ्रमण करनेवाले महर्षि दुर्वासाने उत्तम व्रतका पालन करनेवाले धर्मिष्ठ महात्मा मुद्‌गलका नाम सुना। उनके व्रतकी ख्याति सुनकर वे वहाँ आ पहुँचे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिभ्रच्चानियतं वेषमुन्मत्त इव पाण्डव।
विकचः परुषा वाचो व्याहरन् विविधा मुनिः ॥ १२ ॥

मूलम्

बिभ्रच्चानियतं वेषमुन्मत्त इव पाण्डव।
विकचः परुषा वाचो व्याहरन् विविधा मुनिः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! दुर्वासा मुनि पागलोंकी तरह अटपटा वेष धारण किये, मूँड़ मुड़ाये और नाना प्रकारके कटु वचन बोलते हुए उस आश्रममें पधारे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिगम्याथ तं विप्रमुवाच मुनिसत्तमः।
अन्नार्थिनमनुप्राप्तं विद्धि मां द्विजसत्तम ॥ १३ ॥

मूलम्

अभिगम्याथ तं विप्रमुवाच मुनिसत्तमः।
अन्नार्थिनमनुप्राप्तं विद्धि मां द्विजसत्तम ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मर्षि मुद्‌गलके पास पहुँचकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासाने कहा—‘विप्रवर! तुम्हें यह मालूम होना चाहिये कि मैं भोजनकी इच्छासे यहाँ आया हूँ’॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वागतं तेऽस्त्विति मुनिं मुद्‌गलः प्रत्यभाषत।
पाद्यमाचमनीयं च प्रतिपाद्यार्घ्यमुत्तमम् ॥ १४ ॥
प्रादात् स तापसायान्नं क्षुधितायातिथिव्रती।
उन्मत्ताय परां श्रद्धामास्थाय स धृतव्रतः ॥ १५ ॥
ततस्तदन्नं रसवत् स एव क्षुधयान्वितः।
बुभुजे कृत्स्नमुन्मत्तः प्रादात् तस्मै च मुद्‌गलः ॥ १६ ॥

मूलम्

स्वागतं तेऽस्त्विति मुनिं मुद्‌गलः प्रत्यभाषत।
पाद्यमाचमनीयं च प्रतिपाद्यार्घ्यमुत्तमम् ॥ १४ ॥
प्रादात् स तापसायान्नं क्षुधितायातिथिव्रती।
उन्मत्ताय परां श्रद्धामास्थाय स धृतव्रतः ॥ १५ ॥
ततस्तदन्नं रसवत् स एव क्षुधयान्वितः।
बुभुजे कृत्स्नमुन्मत्तः प्रादात् तस्मै च मुद्‌गलः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुद्‌गलने उनसे कहा—‘महर्षे!’ आपका स्वागत है, ऐसा कहकर उन्होंने पाद्य, उत्तम अर्घ्य तथा आचमनीय आदि पूजनकी सामग्री भेंट की। तत्पश्चात् उन व्रतधारी अतिथिसेवी महर्षि मुद्‌गलने बड़ी श्रद्धाके साथ उन्मत्त-वेशधारी भूखे तपस्वी दुर्वासाको भोजन अर्पित किया। वह अन्न बड़ा स्वादिष्ट था। वे उन्मत्त मुनि भूखे तो थे ही, परोसी हुई सारी रसोई खा गये। तब महर्षि मुद्‌गलने उन्हें और भोजन दिया॥१४—१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुक्त्वा चान्नं ततः सर्वमुच्छिष्टेनात्मनस्ततः।
अथाङ्गं लिलिपेऽन्नेन यथागतमगाच्च सः ॥ १७ ॥

मूलम्

भुक्त्वा चान्नं ततः सर्वमुच्छिष्टेनात्मनस्ततः।
अथाङ्गं लिलिपेऽन्नेन यथागतमगाच्च सः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस तरह सारा भोजन उदरस्थ करके दुर्वासाजीने जूठन लेकर अपने सारे अंगोंमें लपेट ली और फिर जैसे आये थे, वैसे ही चल दिये॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं द्वितीये सम्प्राप्ते यथाकाले मनीषिणः।
आगम्य बुभुजे सर्वमन्नमुञ्छोपजीविनः ॥ १८ ॥

मूलम्

एवं द्वितीये सम्प्राप्ते यथाकाले मनीषिणः।
आगम्य बुभुजे सर्वमन्नमुञ्छोपजीविनः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार दूसरा पर्वकाल आनेपर दुर्वासा ऋषिने पुनः आकर उञ्छवृत्तिसे जीवन-निर्वाह करनेवाले उन मनीषी महात्मा मुद्‌गलके यहाँका सारा अन्न खा लिया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निराहारस्तु स मुनिरुञ्छमार्जयते पुनः।
न चैनं विक्रियां नेतुमशकन्मुद्‌गलं क्षुधा ॥ १९ ॥

मूलम्

निराहारस्तु स मुनिरुञ्छमार्जयते पुनः।
न चैनं विक्रियां नेतुमशकन्मुद्‌गलं क्षुधा ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनि निराहार रहकर पुनः अन्नके दाने बीनने लगे। भूखका कष्ट उनके मनमें विकार उत्पन्न करनेमें समर्थ न हो सका॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न क्रोधो न च मात्सर्यं नावमानो न सम्भ्रमः।
सपुत्रदारमुञ्छन्तमाविवेश द्विजोत्तमम् ॥ २० ॥

मूलम्

न क्रोधो न च मात्सर्यं नावमानो न सम्भ्रमः।
सपुत्रदारमुञ्छन्तमाविवेश द्विजोत्तमम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्री-पुत्रसहित अन्नके दाने चुनते हुए विप्रवर मुद्‌गलके हृदयमें क्रोध, द्वेष, घबराहट तथा अपमान प्रवेश नहीं कर सके॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा तमुञ्छधर्माणं दुर्वासा मुनिसत्तमम्।
उपतस्थे यथाकालं षट्‌कृत्वः कृतनिश्चयः ॥ २१ ॥

मूलम्

तथा तमुञ्छधर्माणं दुर्वासा मुनिसत्तमम्।
उपतस्थे यथाकालं षट्‌कृत्वः कृतनिश्चयः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार उञ्छधर्मका पालन करनेवाले मुनिश्रेष्ठ मुद्‌गलके घरपर महर्षि दुर्वासा उनका धैर्य छुड़ानेका दृढ़ निश्चय लेकर लगातार छः बार ठीक पर्वके समय उपस्थित हुए॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चास्य मनसा कंचिद् विकारं ददृशे मुनिः।
शुद्धसत्त्वस्य शुद्धं स ददृशे निर्मलं मनः ॥ २२ ॥

मूलम्

न चास्य मनसा कंचिद् विकारं ददृशे मुनिः।
शुद्धसत्त्वस्य शुद्धं स ददृशे निर्मलं मनः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु उन्होंने उनके मनमें कभी कोई विकार नहीं देखा। शुद्ध अन्तःकरणवाले महर्षि मुद्‌गलके मनको दुर्वासाने सदा शुद्ध और निर्मल ही पाया॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुवाच ततः प्रीतः स मुनिर्मुद्‌गलं ततः।
त्वत्समो नास्ति लोकेऽस्मिन् दाता मात्सर्यवर्जितः ॥ २३ ॥

मूलम्

तमुवाच ततः प्रीतः स मुनिर्मुद्‌गलं ततः।
त्वत्समो नास्ति लोकेऽस्मिन् दाता मात्सर्यवर्जितः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वे प्रसन्न होकर मुद्‌गलसे बोले—‘ब्रह्मन्! इस संसारमें ईर्ष्यासे रहित होकर दान देनेवाला मनुष्य तुम्हारे समान दूसरा कोई नहीं है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षुद् धर्मसंज्ञां प्रणुदत्यादत्ते धैर्यमेव च।
रसानुसारिणी जिह्वा कर्षत्येव रसान् प्रति ॥ २४ ॥

मूलम्

क्षुद् धर्मसंज्ञां प्रणुदत्यादत्ते धैर्यमेव च।
रसानुसारिणी जिह्वा कर्षत्येव रसान् प्रति ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भूख (बड़े-बड़े लोगोंके) धर्मज्ञानको विलुप्त कर देती है, धैर्य हर लेती है तथा रसका अनुसरण करनेवाली रसना सदा रसीले पदार्थोंकी ओर मनुष्यको खींचती रहती है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहारप्रभवाः प्राणा मनो दुर्निग्रहं चलम्।
मनसश्चेन्द्रियाणां चाप्यैकाग्र्यं निश्चितं तपः ॥ २५ ॥

मूलम्

आहारप्रभवाः प्राणा मनो दुर्निग्रहं चलम्।
मनसश्चेन्द्रियाणां चाप्यैकाग्र्यं निश्चितं तपः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भोजनसे ही प्राणोंकी रक्षा होती है। चंचल मनको रोकना अत्यन्त कठिन होता है। मन और इन्द्रियोंकी एकाग्रताको ही निश्चितरूपसे तप कहा गया है’॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रमेणोपार्जितं त्यक्तुं दुःखं शुद्धेन चेतसा।
तत् सर्वं भवता साधो यथावदुपपादितम् ॥ २६ ॥

मूलम्

श्रमेणोपार्जितं त्यक्तुं दुःखं शुद्धेन चेतसा।
तत् सर्वं भवता साधो यथावदुपपादितम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परिश्रमसे उपार्जित किये हुए धनका शुद्ध हृदयसे दान करना अत्यन्त दुष्कर है। परंतु श्रेष्ठ पुरुष! तुमने यह सब कुछ यथार्थरूपसे सिद्ध कर लिया है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीताः स्मोऽनुगृहीताश्च समेत्य भवता सह।
इन्द्रियाभिजयो धैर्यं संविभागो दमः शमः ॥ २७ ॥
दया सत्यं च धर्मश्च त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम्।
(विशुद्धसत्त्वसम्पन्नो न त्वदन्योऽस्ति कश्चन।)
जितास्ते कर्मभिर्लोकाः प्राप्तोऽसि परमां गतिम् ॥ २८ ॥

मूलम्

प्रीताः स्मोऽनुगृहीताश्च समेत्य भवता सह।
इन्द्रियाभिजयो धैर्यं संविभागो दमः शमः ॥ २७ ॥
दया सत्यं च धर्मश्च त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम्।
(विशुद्धसत्त्वसम्पन्नो न त्वदन्योऽस्ति कश्चन।)
जितास्ते कर्मभिर्लोकाः प्राप्तोऽसि परमां गतिम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुमसे मिलकर हम बहुत प्रसन्न हैं और अपने ऊपर तुम्हारा अनुग्रह मानते हैं। इन्द्रियसंयम, धैर्य, संविभाग (दान), शम, दम, दया, सत्य और धर्म—ये सब गुण तुममें पूर्णरूपसे विद्यमान हैं। तुम्हारे-जैसा पवित्र अन्तःकरणवाला दूसरा कोई नहीं है। तुमने अपने शुभ कर्मोंसे सभी लोकोंको जीत लिया; परमपदको प्राप्त कर लिया॥२७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो दानं विघुष्टं ते सुमहत् स्वर्गवासिभिः।
सशरीरो भवान् गन्ता स्वर्गं सुचरितव्रत ॥ २९ ॥

मूलम्

अहो दानं विघुष्टं ते सुमहत् स्वर्गवासिभिः।
सशरीरो भवान् गन्ता स्वर्गं सुचरितव्रत ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अहो! स्वर्गवासी देवताओंने भी तुम्हारे महान् दानकी सर्वत्र घोषणा की है। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षे! तुम सदेह स्वर्गलोकको जाओगे’॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवं वदतस्तस्य तदा दुर्वाससो मुनेः।
देवदूतो विमानेन मुद्‌गलं प्रत्युपस्थितः ॥ ३० ॥

मूलम्

इत्येवं वदतस्तस्य तदा दुर्वाससो मुनेः।
देवदूतो विमानेन मुद्‌गलं प्रत्युपस्थितः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्वासा मुनि इस प्रकार कह ही रहे थे कि एक देवदूत विमानके साथ मुद्‌गल ऋषिके पास आ पहुँचा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हंससारसयुक्तेन किङ्किणीजालमालिना ।
कामगेन विचित्रेण दिव्यगन्धवता तथा ॥ ३१ ॥

मूलम्

हंससारसयुक्तेन किङ्किणीजालमालिना ।
कामगेन विचित्रेण दिव्यगन्धवता तथा ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस विमानमें हंस एवं सारस जुते हुए थे। क्षुद्र-घण्टिकाओंकी जालीसे उसे सुसज्जित किया गया था तथा उससे दिव्य सुगन्ध फैल रही थी। वह विमान देखनेमें बड़ा विचित्र और इच्छानुसार चलनेवाला था॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उवाच चैनं विप्रर्षिं विमानं कर्मभिर्जितम्।
समुपारोह संसिद्धिं प्राप्तोऽसि परमां मुने ॥ ३२ ॥

मूलम्

उवाच चैनं विप्रर्षिं विमानं कर्मभिर्जितम्।
समुपारोह संसिद्धिं प्राप्तोऽसि परमां मुने ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवदूतने ब्रह्मर्षि मुद्‌गलसे कहा—‘मुने! यह विमान आपको शुभ कर्मोंसे प्राप्त हुआ है। इसपर बैठिये। आप परम सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं’॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमेवंवादिनमृषिर्देवदूतमुवाच ह ।
इच्छामि भवता प्रोक्तान्‌ गुणान् स्वर्गनिवासिनाम् ॥ ३३ ॥
के गुणास्तत्र वसतां किं तपः कश्च निश्चयः।
स्वर्गे तत्र सुखं किं च दोषो वा देवदूतक॥३४॥

मूलम्

तमेवंवादिनमृषिर्देवदूतमुवाच ह ।
इच्छामि भवता प्रोक्तान्‌ गुणान् स्वर्गनिवासिनाम् ॥ ३३ ॥
के गुणास्तत्र वसतां किं तपः कश्च निश्चयः।
स्वर्गे तत्र सुखं किं च दोषो वा देवदूतक॥३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवदूतके ऐसा कहनेपर महर्षि मुद्‌गलने उससे कहा—‘देवदूत! मैं तुम्हारे मुखसे स्वर्गवासियोंके गुण सुनना चाहता हूँ। वहाँ रहनेवालोंमें कौन-कौनसे गुण होते हैं? कैसी तपस्या होती है? और उनका निश्चित विचार कैसा होता है? स्वर्गमें क्या सुख है और वहाँ क्या दोष है?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतां साप्तपदं मैत्रमाहुः सन्तः कुलोचिताः।
मित्रतां च पुरस्कृत्य पृच्छामि त्वामहं विभो ॥ ३५ ॥

मूलम्

सतां साप्तपदं मैत्रमाहुः सन्तः कुलोचिताः।
मित्रतां च पुरस्कृत्य पृच्छामि त्वामहं विभो ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! सत्पुरुषोंमें सात पग एक साथ चलनेसे ही मित्रता हो जाती है, ऐसा कुलीन सत्पुरुषोंका कथन है। मैं उसी मैत्रीको सामने रखकर तुमसे उपर्युक्त प्रश्न पूछ रहा हूँ॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदत्र तथ्यं पथ्यं च तद् ब्रवीह्यविचारयन्।
श्रुत्वा तथा करिष्यामि व्यवसायं गिरा तव ॥ ३६ ॥

मूलम्

यदत्र तथ्यं पथ्यं च तद् ब्रवीह्यविचारयन्।
श्रुत्वा तथा करिष्यामि व्यवसायं गिरा तव ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसके उत्तरमें जो सत्य एवं हितकर बात हो, उसे बिना किसी हिचकिचाहटके कहो। तुम्हारी बात सुनकर उसीके द्वारा मैं अपने कर्तव्यका निश्चय करूँगा’॥३६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि व्रीहिद्रौणिकपर्वणि मुद्‌गलोपाख्याने षष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत व्रीहिद्रौणिकपर्वमें मुद्‌गलोपाख्यानसम्बन्धी दो सौ साठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२६०॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ३६ श्लोक हैं)


  1. कुछ विद्वानोंके मतसे यह सोलह सेरका होता है। ↩︎

  2. ‘उञ्छः कणश आदानं कणिशाद्यर्जनं शिलम्।’ इस कोषवाक्यके अनुसार बाजार उठ जानेपर या खेत कटनेपर वहाँ बिखरे हुए अन्नके दाने बीनना ‘उञ्छ’ कहलाता है और खेत कट जानेपर वहाँ गिरी हुई गेहूँ-धान आदिकी बालें बीनना ‘शील’ कहा गया है। ↩︎