भागसूचना
(व्रीहिद्रौणिकपर्व)
एकोनषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरकी चिन्ता, व्यासजीका पाण्डवोंके पास आगमन और दानकी महत्ताका प्रतिपादन
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वने निवसतां तेषां पाण्डवानां महात्मनाम्।
वर्षाण्येकादशातीयुः कृच्छ्रेण भरतर्षभ ॥ १ ॥
मूलम्
वने निवसतां तेषां पाण्डवानां महात्मनाम्।
वर्षाण्येकादशातीयुः कृच्छ्रेण भरतर्षभ ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— भरतश्रेष्ठ जनमेजय! इस प्रकार वनमें रहते हुए उन महात्मा पाण्डवोंके ग्यारह वर्ष बड़े कष्टसे बीते॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फलमूलाशनास्ते हि सुखार्हां दुःखमुत्तमम्।
प्राप्तकालमनुध्यान्तः सेहिरे वरपूरुषाः ॥ २ ॥
मूलम्
फलमूलाशनास्ते हि सुखार्हां दुःखमुत्तमम्।
प्राप्तकालमनुध्यान्तः सेहिरे वरपूरुषाः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे फल-मूल खाकर रहते थे। सुख भोगनेके योग्य होकर भी महान् कष्ट भोगते थे और यह सोचकर कि यह हमारे कष्टका समय है, इसे धैर्यपूर्वक सहन करना चाहिये, चुपचाप सब दुःख झेलते थे। उनमें ऐसा विवेक इसलिये था कि वे सब-के-सब श्रेष्ठ पुरुष थे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरस्तु राजर्षिरात्मकर्मापराधजम् ।
चिन्तयन् स महाबाहुर्भातॄणां दुःखमुत्तमम् ॥ ३ ॥
मूलम्
युधिष्ठिरस्तु राजर्षिरात्मकर्मापराधजम् ।
चिन्तयन् स महाबाहुर्भातॄणां दुःखमुत्तमम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहु राजर्षि युधिष्ठिर सदा यही सोचते रहते थे कि ‘मेरे भाइयोंपर जो यह महान् दुःख आ पड़ा है, मेरी ही करनीका फल है। मेरे ही अपराधसे इन्हें कष्ट भोगना पड़ रहा है’॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न सुष्वाप सुखं राजा हृदि शल्यैरिवार्पितैः।
दौरात्म्यमनुपश्यंस्तत् काले द्यूतोद्भवस्य हि ॥ ४ ॥
संस्मरन् परुषा वाचः सूतपुत्रस्य पाण्डवः।
निःश्वासपरमो दीनो बिभ्रत् कोपविषं महत् ॥ ५ ॥
मूलम्
न सुष्वाप सुखं राजा हृदि शल्यैरिवार्पितैः।
दौरात्म्यमनुपश्यंस्तत् काले द्यूतोद्भवस्य हि ॥ ४ ॥
संस्मरन् परुषा वाचः सूतपुत्रस्य पाण्डवः।
निःश्वासपरमो दीनो बिभ्रत् कोपविषं महत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी चिन्तामें पड़े-पड़े राजा युधिष्ठिर रातमें सुखकी नींद नहीं सो पाते थे। ये बातें उनके हृदयमें चुभे हुए काँटोंके समान दुःख दिया करती थीं। जूआ खेलनेके कारणभूत शकुनि आदिकी दुष्टतापर दृष्टिपात करके तथा सूतपुत्र कर्णकी कठोर बातोंको स्मरण करके पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर दीनभावसे लंबी साँसें लेते रहते और महान् क्रोधरूपी विषको अपने हृदयमें धारण करते थे॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनों यमजौ चोभौ द्रौपदी च यशस्विनी।
स च भीमो महातेजाः सर्वेषामुत्तमो बली ॥ ६ ॥
युधिष्ठिरमुदीक्षन्तः सेहुर्दुःखमनुत्तमम् ।
मूलम्
अर्जुनों यमजौ चोभौ द्रौपदी च यशस्विनी।
स च भीमो महातेजाः सर्वेषामुत्तमो बली ॥ ६ ॥
युधिष्ठिरमुदीक्षन्तः सेहुर्दुःखमनुत्तमम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन, दोनों भाई नकुल-सहदेव, यशस्विनी द्रौपदी तथा सर्वश्रेष्ठ बलवान् महातेजस्वी भीमसेन भी राजा युधिष्ठिरकी ओर देखते हुए महान्-से-महान् दुःखको चुपचाप सहते रहे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवशिष्टमल्पकालं मन्वानाः पुरुषर्षभाः ॥ ७ ॥
वपुरन्यदिवाकार्षुरुत्साहामर्षचेष्टितैः ।
मूलम्
अवशिष्टमल्पकालं मन्वानाः पुरुषर्षभाः ॥ ७ ॥
वपुरन्यदिवाकार्षुरुत्साहामर्षचेष्टितैः ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब तो वनवासका थोड़ा-सा ही समय शेष रह गया है, ऐसा समझकर नरश्रेष्ठ पाण्डवोंने उत्साह एवं अमर्षयुक्त चेष्टाओंसे अपने शरीरको किसी और ही प्रकारका बना लिया था॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्यचित् त्वथ कालस्य व्यासः सत्यवतीसुतः ॥ ८ ॥
आजगाम महायोगी पाण्डवानवलोककः ।
तमागतमभिप्रेक्ष्य कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ९ ॥
प्रत्युद्गम्य महात्मानं प्रत्यगृह्णाद् यथाविधि।
मूलम्
कस्यचित् त्वथ कालस्य व्यासः सत्यवतीसुतः ॥ ८ ॥
आजगाम महायोगी पाण्डवानवलोककः ।
तमागतमभिप्रेक्ष्य कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ९ ॥
प्रत्युद्गम्य महात्मानं प्रत्यगृह्णाद् यथाविधि।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर किसी समय महायोगी सत्यवतीनन्दन व्यास पाण्डवोंको देखनेके लिये वहाँ आये। उन महात्माको आया देख कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर उनकी अगवानीके लिये कुछ दूर आगे बढ़ गये और विधिपूर्वक स्वागत-सत्कारके साथ उन्हें अपने साथ लिवा लाये॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमासीनमुपासीनः शुश्रूषुर्नियतेन्द्रियः ॥ १० ॥
तोषयन् प्रणिपातेन व्यासं पाण्डवनन्दनः।
मूलम्
तमासीनमुपासीनः शुश्रूषुर्नियतेन्द्रियः ॥ १० ॥
तोषयन् प्रणिपातेन व्यासं पाण्डवनन्दनः।
अनुवाद (हिन्दी)
जब वे आसनपर बैठ गये तब पाण्डवोंका आनन्द बढ़ानेवाले युधिष्ठिर अपनी इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए सेवाकी इच्छासे व्यासजीके पास ही बैठ गये और उनके चरणोंमें प्रणाम करके उन्होंने महर्षिको संतुष्ट किया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानवेक्ष्य कृशान् पौत्रान् वने वन्येन जीवतः ॥ ११ ॥
महर्षिरनुकम्पार्थमब्रवीद् बाष्पगद्गदम् ।
मूलम्
तानवेक्ष्य कृशान् पौत्रान् वने वन्येन जीवतः ॥ ११ ॥
महर्षिरनुकम्पार्थमब्रवीद् बाष्पगद्गदम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
अपने पौत्रोंको वनवासके कष्टसे दुर्बल तथा जंगली फल-मूल खाकर जीवननिर्वाह करते देख महर्षि व्यासको बड़ी दया आयी। वे उनपर कृपा करनेके लिये नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए गद्गद कण्ठसे बोले—॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिर महाबाहो शृणु धर्मभृतां वर ॥ १२ ॥
नातप्ततपसो लोके प्राप्नुवन्ति महासुखम्।
सुखदुःखे हि पुरुषः पर्यायेणोपसेवते ॥ १३ ॥
मूलम्
युधिष्ठिर महाबाहो शृणु धर्मभृतां वर ॥ १२ ॥
नातप्ततपसो लोके प्राप्नुवन्ति महासुखम्।
सुखदुःखे हि पुरुषः पर्यायेणोपसेवते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ महाबाहु युधिष्ठिर! मेरी बात सुनो, संसारमें जिन्होंने तपस्या नहीं की है, वे महान् सुखकी उपलब्धि नहीं कर पाते हैं। मनुष्य बारी-बारीसे सुख और दुःख दोनोंका सेवन करता है॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यनन्तं सुखं कश्चित् प्राप्नोति पुरुषर्षभ।
प्रज्ञावांस्त्वेव पुरुषः संयुक्तः परया धिया ॥ १४ ॥
उदयास्तमनज्ञो हि न हृष्यति न शोचति।
मूलम्
न ह्यनन्तं सुखं कश्चित् प्राप्नोति पुरुषर्षभ।
प्रज्ञावांस्त्वेव पुरुषः संयुक्तः परया धिया ॥ १४ ॥
उदयास्तमनज्ञो हि न हृष्यति न शोचति।
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरश्रेष्ठ! कोई भी इस जगत्में ऐसा सुख नहीं पाता, जिसका कभी अन्त न हो। उत्तम बुद्धिसे युक्त ज्ञानवान् पुरुष ही उत्पत्ति, स्थिति और लयके अधिष्ठानरूप परमात्माको जानकर कभी हर्ष और शोक नहीं करता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखमापतितं सेवेद् दुःखमापतितं वहेत् ॥ १५ ॥
कालप्राप्तमुपासीत सस्यानामिव कर्षकः ।
मूलम्
सुखमापतितं सेवेद् दुःखमापतितं वहेत् ॥ १५ ॥
कालप्राप्तमुपासीत सस्यानामिव कर्षकः ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः विवेकी पुरुषको उचित है कि प्राप्त हुए सुखका (त्यागपूर्वक) सेवन करे और स्वतः आये हुए दुःखका भार भी (धैर्यपूर्वक) वहन करे। जैसे किसान बीज बोकर समयके अनुसार प्रारब्धवश जितना अन्न मिलता है, उसे ग्रहण करता है; उसी प्रकार मनुष्य समय-समयपर दैववश प्राप्त हुए सुख तथा दुःखको स्वीकार करें॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपसो हि परं नास्ति तपसा विन्दते महत् ॥ १६ ॥
नासाध्यं तपसः किंचिदिति बुद्ध्यस्व भारत।
मूलम्
तपसो हि परं नास्ति तपसा विन्दते महत् ॥ १६ ॥
नासाध्यं तपसः किंचिदिति बुद्ध्यस्व भारत।
अनुवाद (हिन्दी)
‘भारत! तपसे बढ़कर दूसरा कोई साधन नहीं है। तपसे मनुष्य महत्पद (परमात्मा)-को प्राप्त कर लेता है। तुम इस बातको अच्छी तरह जान लो कि तपस्यासे कुछ भी असाध्य नहीं है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यमार्जवमक्रोधः संविभागो दमः शमः ॥ १७ ॥
अनसूयाविहिंसा च शौचमिन्द्रियसंयमः ।
पावनानि महाराज नराणां पुण्यकर्मणाम् ॥ १८ ॥
मूलम्
सत्यमार्जवमक्रोधः संविभागो दमः शमः ॥ १७ ॥
अनसूयाविहिंसा च शौचमिन्द्रियसंयमः ।
पावनानि महाराज नराणां पुण्यकर्मणाम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! सत्य, सरलता, क्रोधका अभाव, देवता और अतिथियोंको देकर अन्न आदि ग्रहण करना, इन्द्रियसंयम, मनोनिग्रह, दूसरोंके दोष न देखना, हिंसा न करना, बाहर-भीतरकी पवित्रता रखना तथा सम्पूर्ण इन्द्रियोंको काबूमें रखना—ये पुण्यात्मा पुरुषोंके सद्गुण सबको पवित्र करनेवाले हैं॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मरुचयो मूढास्तिर्यग्गतिपरायणाः ।
कृच्छ्रां योनिमनुप्राप्ता न सुखं विन्दते जनाः ॥ १९ ॥
मूलम्
अधर्मरुचयो मूढास्तिर्यग्गतिपरायणाः ।
कृच्छ्रां योनिमनुप्राप्ता न सुखं विन्दते जनाः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो लोग अधर्ममें रुचि रखनेवाले हैं, वे मूढ़ मानव पशु-पक्षी आदि तिर्यग्-योनियोंमें जन्म ग्रहण करते हैं। उन कष्टदायक योनियोंमें पड़कर वे कभी सुख नहीं पाते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इह यत् क्रियते कर्म तत् परत्रोपयुज्यते।
तस्माच्छरीरं युञ्जीत तपसा नियमेन च ॥ २० ॥
मूलम्
इह यत् क्रियते कर्म तत् परत्रोपयुज्यते।
तस्माच्छरीरं युञ्जीत तपसा नियमेन च ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस लोकमें जो कर्म किया जाता है, उसका फल परलोकमें भोगना पड़ता है। इसलिये अपने शरीरको तप और नियमोंके पालनमें लगावे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाशक्ति प्रयच्छेत सम्पूज्याभिप्रणम्य च।
काले प्राप्ते च हृष्टात्मा राजन् विगतमत्सरः ॥ २१ ॥
मूलम्
यथाशक्ति प्रयच्छेत सम्पूज्याभिप्रणम्य च।
काले प्राप्ते च हृष्टात्मा राजन् विगतमत्सरः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! समयपर यदि कोई अतिथि आ जाय तो क्रोधरहित और प्रसन्नचित्त होकर अपनी शक्तिके अनुसार उसे दान दे; और विधिवत् पूजन करके उसे प्रणाम करे॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यवादी लभेतायुरनायासमथार्जवम् ।
अक्रोधनोऽनसूयश्च निर्वृतिं लभते पराम् ॥ २२ ॥
मूलम्
सत्यवादी लभेतायुरनायासमथार्जवम् ।
अक्रोधनोऽनसूयश्च निर्वृतिं लभते पराम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सत्यवादी मनुष्य दीर्घ आयु, क्लेशशून्यता (सुख) तथा सरलता प्राप्त करता है। जो क्रोध नहीं करता और दूसरोंके दोष नहीं देखता है, उसे परमानन्दपदकी प्राप्ति होती है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दान्तः शमपरः शश्वत् परिक्लेशं न विन्दति।
न च तप्यति दान्तात्मा दृष्ट्वा परगतां श्रियम् ॥ २३ ॥
मूलम्
दान्तः शमपरः शश्वत् परिक्लेशं न विन्दति।
न च तप्यति दान्तात्मा दृष्ट्वा परगतां श्रियम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो सदा अपनी इन्द्रियोंको संयममें रखकर मनका निग्रह करता है, उसे कभी क्लेशका सामना नहीं करना पड़ता। जिसने अपने मनको वशमें कर लिया है, वह दूसरोंकी सम्पत्तिको देखकर संतप्त नहीं होता है’॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संविभक्ता च दाता च भोगवान् सुखवान् नरः।
भवत्यहिंसकश्चैव परमारोग्यमश्नुते ॥ २४ ॥
मूलम्
संविभक्ता च दाता च भोगवान् सुखवान् नरः।
भवत्यहिंसकश्चैव परमारोग्यमश्नुते ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो देवताओं और अतिथियोंको उनका भाग समर्पित करता है वह भोगसामग्रीसे सम्पन्न होता है। दान करनेवाला मनुष्य सुखी होता है। जो किसी भी प्राणीकी हिंसा नहीं करता उसे उत्तम आरोग्यकी प्राप्ति होती है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मान्यमानयिता जन्म कुले महति विन्दति।
व्यसनैर्न तु संयोगं प्राप्नोति विजितेन्द्रियः ॥ २५ ॥
(विन्दते सुखमत्यन्तमिह लोके परत्र च।)
मूलम्
मान्यमानयिता जन्म कुले महति विन्दति।
व्यसनैर्न तु संयोगं प्राप्नोति विजितेन्द्रियः ॥ २५ ॥
(विन्दते सुखमत्यन्तमिह लोके परत्र च।)
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो माननीय पुरुषोंका सम्मान करता है वह महान् कुलमें जन्म पाता है। जितेन्द्रिय पुरुष कभी दुर्व्यसनोंमें नहीं फँसता है। उसे इस लोक और परलोकमें भी अत्यन्त सुखकी प्राप्ति होती है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुभानुशयबुद्धिर्हि संयुक्तः कालधर्मणा ।
प्रादुर्भवति तद्योगात् कल्याणमतिरेव सः ॥ २६ ॥
मूलम्
शुभानुशयबुद्धिर्हि संयुक्तः कालधर्मणा ।
प्रादुर्भवति तद्योगात् कल्याणमतिरेव सः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिसकी बुद्धि शुभमें ही आसक्त होती है, वह मनुष्य मृत्युको प्राप्त होनेपर उस शुभके संयोगसे कल्याणबुद्धि होकर ही उत्पन्न होता है’॥२६॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् दानधर्माणां तपसो वा महामुने।
किंस्विद् बहुगुणं प्रेत्य किं वा दुष्करमुच्यते ॥ २७ ॥
मूलम्
भगवन् दानधर्माणां तपसो वा महामुने।
किंस्विद् बहुगुणं प्रेत्य किं वा दुष्करमुच्यते ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भगवन्! महामुने! दानधर्म एवं तपस्या—इनमेंसे किसका फल परलोकमें अधिक माना गया है? और इन दोनोंमें कौन दुष्कर बताया जाता है॥२७॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दानान्न दुष्करं तात पृथिव्यामस्ति किंचन।
अर्थे च महती तृष्णा स च दुःखेन लभ्यते॥२८॥
मूलम्
दानान्न दुष्करं तात पृथिव्यामस्ति किंचन।
अर्थे च महती तृष्णा स च दुःखेन लभ्यते॥२८॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजीने कहा— तात! दानसे बढ़कर दुष्कर कार्य इस पृथ्वीपर दूसरा कोई नहीं है। लोगोंको धनका लोभ अधिक होता है और धन मिलता भी बड़े कष्टसे है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परित्यज्य प्रियान् प्राणाम् धनार्थं हि महामते।
प्रविशन्ति नरा वीराः समुद्रमटवीं तथा ॥ २९ ॥
मूलम्
परित्यज्य प्रियान् प्राणाम् धनार्थं हि महामते।
प्रविशन्ति नरा वीराः समुद्रमटवीं तथा ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामते! कितने ही साहसी मनुष्य रत्नोंके लिये अपने प्यारे प्राणोंका मोह छोड़कर समुद्रमें गोते लगाते हैं और धनके लिये घोर जंगलोंमें भटकते फिरते हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृषिगोरक्ष्यमित्येके प्रतिपद्यन्ति मानवाः ।
पुरुषाः प्रेष्यतामेके निर्गच्छन्ति धनार्थिनः ॥ ३० ॥
मूलम्
कृषिगोरक्ष्यमित्येके प्रतिपद्यन्ति मानवाः ।
पुरुषाः प्रेष्यतामेके निर्गच्छन्ति धनार्थिनः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ मनुष्य कृषि तथा गोरक्षाको अपनी जीविकाका साधन बनाते हैं, कुछ लोग धनकी इच्छासे नौकरी करनेके लिये दूर निकल जाते हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् दुःखार्जितस्यैव परित्यागः सुदुष्करः।
न दुष्करतरं दानात् तस्माद् दानं मतं मम ॥ ३१ ॥
मूलम्
तस्माद् दुःखार्जितस्यैव परित्यागः सुदुष्करः।
न दुष्करतरं दानात् तस्माद् दानं मतं मम ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः दुःख सहकर कमाये हुए धनका परित्याग करना अत्यन्त कठिन है। दानसे बढ़कर दूसरा कोई दुष्कर कार्य नहीं है। इसलिये मेरे मतमें दान ही सर्वश्रेष्ठ है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशेषस्त्वत्र विज्ञेयो न्यायेनोपार्जितं धनम्।
पात्रे काले च देशे च साधुभ्यः प्रतिपादयेत् ॥ ३२ ॥
मूलम्
विशेषस्त्वत्र विज्ञेयो न्यायेनोपार्जितं धनम्।
पात्रे काले च देशे च साधुभ्यः प्रतिपादयेत् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ विशेष बात यह जाननी चाहिये कि मनुष्य न्यायसे कमाये गये धनको उत्तम देश, काल और पात्रका विचार करते हुए श्रेष्ठ पुरुषोंको दे॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यायात् समुपात्तेन दानधर्मो धनेन यः।
क्रियते न स कर्तारं त्रायते महतो भयात् ॥ ३३ ॥
मूलम्
अन्यायात् समुपात्तेन दानधर्मो धनेन यः।
क्रियते न स कर्तारं त्रायते महतो भयात् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्यायसे प्राप्त किये हुए धनके द्वारा जो दानधर्म किया जाता है वह कर्ताकी महान् भयसे रक्षा नहीं कर पाता॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पात्रे दानं स्वल्पमपि काले दत्तं युधिष्ठिर।
मनसा हि विशुद्धेन प्रेत्यानन्तफलं स्मृतम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
पात्रे दानं स्वल्पमपि काले दत्तं युधिष्ठिर।
मनसा हि विशुद्धेन प्रेत्यानन्तफलं स्मृतम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! यदि विशुद्ध मनसे उत्तम समयपर सत्पात्रको थोड़ा-सा भी दान दिया गया हो तो वह परलोकमें अनन्त फल देनेवाला माना गया है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
व्रीहिद्रोणपरित्यागाद् यत् फलं प्राप मुद्गलः ॥ ३५ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
व्रीहिद्रोणपरित्यागाद् यत् फलं प्राप मुद्गलः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस विषयमें जानकार लोग इस पुराने इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं कि मुद्गल ऋषिने एक द्रोण धानका दान करके महान् फल प्राप्त किया था॥३५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि व्रीहिद्रौणिकपर्वणि दानदुष्करत्वकथने एकोनषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत व्रीहिद्रौणिकपर्वमें दानकी दुष्करताका प्रतिपादनविषय दो सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२५९॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ३५ श्लोक हैं)