भागसूचना
(मृगस्वप्नोद्भवपर्व)
अष्टपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
पाण्डवोंका काम्यकवनमें गमन
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनं मोक्षयित्वा पाण्डुपुत्रा महाबलाः।
किमकार्षुर्वने तस्मिंस्तन्ममाख्यातुमर्हसि ॥ १ ॥
मूलम्
दुर्योधनं मोक्षयित्वा पाण्डुपुत्रा महाबलाः।
किमकार्षुर्वने तस्मिंस्तन्ममाख्यातुमर्हसि ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयने पूछा— दुर्योधनको गन्धर्वोंके बन्धनसे छुड़ाकर महाबली पाण्डवोंने उस वनमें कौन-सा कार्य किया? यह मुझे बतानेकी कृपा करें॥१॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शयानं कौन्तेयं रात्रौ द्वैतवने मृगाः।
स्वप्नान्ते दर्शयामासुर्बाष्पकण्ठा युधिष्ठिरम् ॥ २ ॥
मूलम्
ततः शयानं कौन्तेयं रात्रौ द्वैतवने मृगाः।
स्वप्नान्ते दर्शयामासुर्बाष्पकण्ठा युधिष्ठिरम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजीने कहा— तदनन्तर एक रातमें जब कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर सो रहे थे, स्वप्नमें द्वैतवनके सिंह-बाघ आदि हिंस्र पशुओंने उन्हें दर्शन दिया। उन सबके कण्ठ आँसुओंसे रुँधे हुए थे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानब्रवीत् स राजेन्द्रो वेपमानान् कृताञ्जलीन्।
ब्रूत यद् वक्तुकामाः स्थ के भवन्तः किमिष्यते ॥ ३ ॥
मूलम्
तानब्रवीत् स राजेन्द्रो वेपमानान् कृताञ्जलीन्।
ब्रूत यद् वक्तुकामाः स्थ के भवन्तः किमिष्यते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे थर-थर काँपते हुए हाथ जोड़कर खड़े थे। महाराज युधिष्ठिरने उनसे पूछा—‘आपलोग कौन हैं? क्या कहना चाहते हैं? आपकी क्या इच्छा है? बताइये’॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ताः पाण्डवेन कौन्तेयेन यशस्विना।
प्रत्यब्रुवन् मृगास्तत्र हतशेषा युधिष्ठिरम् ॥ ४ ॥
मूलम्
एवमुक्ताः पाण्डवेन कौन्तेयेन यशस्विना।
प्रत्यब्रुवन् मृगास्तत्र हतशेषा युधिष्ठिरम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यशस्वी पाण्डव कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरके इस प्रकार पूछनेपर मरनेसे बचे हुए हिंसक पशुओंने उनसे कहा—॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं मृगा द्वैतवने हतशिष्टास्तु भारत।
नोत्सीदेम महाराज क्रियतां वासपर्ययः ॥ ५ ॥
मूलम्
वयं मृगा द्वैतवने हतशिष्टास्तु भारत।
नोत्सीदेम महाराज क्रियतां वासपर्ययः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भारत! हम द्वैतवनके पशु हैं। आपलोगोंके मारनेसे हमारी इतनी ही संख्या शेष रह गयी है। महाराज! हमारा सर्वथा संहार न हो जाय, इसके लिये आप अपना निवासस्थान बदल दीजिये॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवतो भ्रातरः शूराः सर्व एवास्त्रकोविदाः।
कुलान्यल्पावशिष्टानि कृतवन्तो वनौकसाम् ॥ ६ ॥
मूलम्
भवतो भ्रातरः शूराः सर्व एवास्त्रकोविदाः।
कुलान्यल्पावशिष्टानि कृतवन्तो वनौकसाम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपके सभी भाई शूरवीर एवं अस्त्रविद्याके पण्डित हैं। इन्होंने हम वनवासी हिंसक पशुओंके कुलोंको थोड़ी ही संख्यामें जीवित छोड़ा है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बीजभूता वयं केचिदवशिष्टा महामते।
विवर्धेमहि राजेन्द्र प्रसादात् ते युधिष्ठिर ॥ ७ ॥
मूलम्
बीजभूता वयं केचिदवशिष्टा महामते।
विवर्धेमहि राजेन्द्र प्रसादात् ते युधिष्ठिर ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महामते! हम सिंह, बाघ आदि पशु थोड़ी-सी संख्यामें अपने वंशके बीजमात्र शेष रह गये हैं। महाराज युधिष्ठिर! आपकी कृपासे हमारे वंशकी वृद्धि हो, यही हम निवेदन करते हैं’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् वेपमानान् वित्रस्तान् बीजमात्रावशेषितान्।
मृगान् दृष्ट्वा सुदुःखार्तो धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ ८ ॥
मूलम्
तान् वेपमानान् वित्रस्तान् बीजमात्रावशेषितान्।
मृगान् दृष्ट्वा सुदुःखार्तो धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सिंह-बाघ आदि पशु त्रस्त होकर थर-थर काँप रहे थे और बीजमात्र ही शेष रह गये थे। उनकी यह दयनीय दशा देखकर धर्मराज युधिष्ठिर अत्यन्त दुःखसे व्याकुल हो गये॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तांस्तथेत्यब्रवीद् राजा सर्वभूतहिते रतः।
यथा भवन्तो ब्रुवते करिष्यामि च तत् तथा ॥ ९ ॥
मूलम्
तांस्तथेत्यब्रवीद् राजा सर्वभूतहिते रतः।
यथा भवन्तो ब्रुवते करिष्यामि च तत् तथा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त प्राणियोंके हितमें तत्पर रहनेवाले राजा युधिष्ठिरने उनसे कहा—‘बहुत अच्छा, तुमलोग जैसा कहते हो, वैसा ही करूँगा’॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवं प्रतिबुद्धः स रात्र्यन्ते राजसत्तमः।
अब्रवीत् सहितान् भ्रातॄन् दयापन्नो मृगान् प्रति ॥ १० ॥
उक्तो रात्रौ मृगैरस्मि स्वप्नान्ते हतशेषितैः।
तन्तुभूताः स्म भद्रं ते दया नः क्रियतामिति ॥ ११ ॥
मूलम्
इत्येवं प्रतिबुद्धः स रात्र्यन्ते राजसत्तमः।
अब्रवीत् सहितान् भ्रातॄन् दयापन्नो मृगान् प्रति ॥ १० ॥
उक्तो रात्रौ मृगैरस्मि स्वप्नान्ते हतशेषितैः।
तन्तुभूताः स्म भद्रं ते दया नः क्रियतामिति ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार रात बीतनेपर जब सबेरे उनकी नींद खुली, तब वे नृपतिशिरोमणि हिंसक पशुओंके प्रति दयाभावसे द्रवित हो अपने सब भाइयोंसे बोले—‘बन्धुओ! रातको सपनेमें मरनेसे बचे हुए इस वनके पशुओंने मुझसे कहा है—‘राजन्! आपका भला हो। हम अपनी वंशपरम्पराके एक-एक तन्तुमात्र शेष रह गये हैं। अब हमलोगोंपर दया कीजिये’॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते सत्यमाहुः कर्तव्या दयास्माभिर्वनौकसाम्।
साष्टमासं हि नो वर्षं यदेतदुपयुङ्क्ष्महे ॥ १२ ॥
मूलम्
ते सत्यमाहुः कर्तव्या दयास्माभिर्वनौकसाम्।
साष्टमासं हि नो वर्षं यदेतदुपयुङ्क्ष्महे ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरी समझमें वे पशु ठीक कहते हैं। हमलोगोंको वनवासी हिंस्र जीवोंपर भी दया करनी चाहिये। अबतक हमलोगोंको इस द्वैतवनमें रहते हुए एक वर्ष आठ महीने बीत चुके हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनर्बहुमृगं रम्यं काम्यकं काननोत्तमम्।
मरुभूमेः शिरःस्थानं तृणबिन्दुसरः प्रति ॥ १३ ॥
तत्रेमां वसतिं शिष्टां विहरन्तो रमेमहि।
मूलम्
पुनर्बहुमृगं रम्यं काम्यकं काननोत्तमम्।
मरुभूमेः शिरःस्थानं तृणबिन्दुसरः प्रति ॥ १३ ॥
तत्रेमां वसतिं शिष्टां विहरन्तो रमेमहि।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः अब हम पुनः असंख्य मृगोंसे युक्त, रमणीय तथा उत्तम काम्यकवनमें तृणबिन्दु नामक सरोवरके पास चलें। काम्यकवन मरुभूमिके शीर्षक स्थानमें पड़ता है। वहीं विहार करते हुए हम वनवासके शेष दिन सुखपूर्वक बितायेंगे’॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते पाण्डवाः शीघ्रं प्रययुर्धर्मकोविदाः ॥ १४ ॥
ब्राह्मणैः सहिता राजन् ये च तत्र सहोषिताः।
इन्द्रसेनादिभिश्चैव प्रेष्यैरनुगतास्तदा ॥ १५ ॥
मूलम्
ततस्ते पाण्डवाः शीघ्रं प्रययुर्धर्मकोविदाः ॥ १४ ॥
ब्राह्मणैः सहिता राजन् ये च तत्र सहोषिताः।
इन्द्रसेनादिभिश्चैव प्रेष्यैरनुगतास्तदा ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तदनन्तर उन धर्मज्ञ पाण्डवोंने वहाँ रहनेवाले ब्राह्मणोंके साथ शीघ्र ही उस वनसे प्रस्थान कर दिया। इन्द्रसेन आदि सेवक भी उस समय उन्हींके साथ चल दिये॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते यात्वानुसृतैर्मार्गैः स्वन्नैः शुचिजलान्वितैः।
ददृशुः काम्यकं पुण्यमाश्रमं तापसायुतम् ॥ १६ ॥
मूलम्
ते यात्वानुसृतैर्मार्गैः स्वन्नैः शुचिजलान्वितैः।
ददृशुः काम्यकं पुण्यमाश्रमं तापसायुतम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब लोग उत्तम अन्न और पवित्र जलकी सुविधासे सम्पन्न तथा सदा चालू रहनेवाले मार्गोंसे यात्रा करते हुए पुण्य एवं बहुतेरे तपस्वी जनोंसे युक्त काम्यक वनके आश्रममें पहुँचकर वहाँकी शोभा देखने लगे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विविशुस्ते स्म कौरव्या वृता विप्रर्षभैस्तदा।
तद् वनं भरतश्रेष्ठाः स्वर्गं सुकृतिनो यथा ॥ १७ ॥
मूलम्
विविशुस्ते स्म कौरव्या वृता विप्रर्षभैस्तदा।
तद् वनं भरतश्रेष्ठाः स्वर्गं सुकृतिनो यथा ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पुण्यात्मा पुरुष स्वर्गमें जाते हैं, उसी प्रकार उन भरतश्रेष्ठ पाण्डवोंने श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके साथ काम्यक वनमें प्रवेश किया॥१७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि मृगस्वप्नोद्भवपर्वणि काम्यकप्रवेशे अष्टपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत मृगस्वप्नोद्भवपर्वमें काम्यकवनप्रवेशविषयक दो सौ अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२५८॥