२५७ युधिष्ठिरचिन्तायाम्

भागसूचना

सप्तपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दुर्योधनके यज्ञके विषयमें लोगोंका मत, कर्णद्वारा अर्जुनके वधकी प्रतिज्ञा, युधिष्ठिरकी चिन्ता तथा दुर्योधनकी शासननीति

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रविशन्तं महाराज सूतास्तुष्टुवुरच्युतम् ।
जनाश्चापि महेष्वासं तुष्टुवू राजसत्तम ॥ १ ॥

मूलम्

प्रविशन्तं महाराज सूतास्तुष्टुवुरच्युतम् ।
जनाश्चापि महेष्वासं तुष्टुवू राजसत्तम ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— महाराज! राजश्रेष्ठ! नगरमें प्रवेश करते समय सूतों तथा अन्य लोगोंने भी अटल निश्चयी और महान् धनुर्धर राजा दुर्योधनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लाजैश्चन्दनचूर्णैश्च विकीर्य च जनास्ततः।
ऊचुर्दिष्ट्या नृपाविघ्नः समाप्तोऽयं क्रतुस्तव ॥ २ ॥

मूलम्

लाजैश्चन्दनचूर्णैश्च विकीर्य च जनास्ततः।
ऊचुर्दिष्ट्या नृपाविघ्नः समाप्तोऽयं क्रतुस्तव ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् सब लोग लावा और चन्दनचूर्ण बिखेरकर कहने लगे—‘महाराज! आपका यह यज्ञ बिना किसी विघ्न-बाधाके पूर्ण हो गया, यह बड़े सौभाग्यकी बात है’॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपरे त्वब्रुवंस्तत्र वातिकास्तं महीपतिम्।
युधिष्ठिरस्य यज्ञेन न समो ह्येष ते क्रतुः ॥ ३ ॥

मूलम्

अपरे त्वब्रुवंस्तत्र वातिकास्तं महीपतिम्।
युधिष्ठिरस्य यज्ञेन न समो ह्येष ते क्रतुः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहीं कुछ ऐसे लोग भी थे, जिनका मस्तिष्क वातरोगसे विकृत था—कब क्या कहना उचित है, इसको वे नहीं जानते थे, अतः राजा दुर्योधनको सम्बोधित करके कहने लगे—‘राजन्! आपका यह यज्ञ युधिष्ठिरके यज्ञके समान नहीं था’॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैव तस्य क्रतोरेष कलामर्हति षोडशीम्।
एवं तत्राब्रुवन् केचिद् वातिकास्तं जनेश्वरम् ॥ ४ ॥

मूलम्

नैव तस्य क्रतोरेष कलामर्हति षोडशीम्।
एवं तत्राब्रुवन् केचिद् वातिकास्तं जनेश्वरम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ अन्य वायुरोगग्रस्त लोग राजा दुर्योधनसे इस प्रकार कहने लगे—‘यह यज्ञ तो युधिष्ठिरके यज्ञकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं है’॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुहृदस्त्वब्रुवंस्तत्र अति सर्वानयं क्रतुः।
ययातिर्नहुषश्चापि मान्धाता भरतस्तथा ॥ ५ ॥
क्रतुमेनं समाहृत्य पूताः सर्वे दिवं गताः।

मूलम्

सुहृदस्त्वब्रुवंस्तत्र अति सर्वानयं क्रतुः।
ययातिर्नहुषश्चापि मान्धाता भरतस्तथा ॥ ५ ॥
क्रतुमेनं समाहृत्य पूताः सर्वे दिवं गताः।

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजाके सुहृद् थे, वे वहाँ इस प्रकार बोले—‘यह यज्ञ पिछले सब यज्ञोंसे बढ़कर हुआ है। ययाति, नहुष, मांधाता और भरत भी इस यज्ञ-कर्मका अनुष्ठान करके पवित्र हो सब-के-सब स्वर्गलोकमें गये हैं’॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एता वाचः शुभाः शृण्वन् सुहृदां भरतर्षभ ॥ ६ ॥
प्रविवेश पुरं हृष्टः स्ववेश्म च नराधिपः।

मूलम्

एता वाचः शुभाः शृण्वन् सुहृदां भरतर्षभ ॥ ६ ॥
प्रविवेश पुरं हृष्टः स्ववेश्म च नराधिपः।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! सुहृदोंकी ये सुन्दर बातें सुनता हुआ राजा दुर्योधन प्रसन्नतापूर्वक नगरमें प्रवेश करके अपने राजभवनमें गया॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिवाद्य ततः पादौ मातापित्रोर्विशाम्पते ॥ ७ ॥
भीष्मद्रोणकृपादीनां विदुरस्य च धीमतः।
अभिवादितः कनीयोभिर्भ्रातृभिर्भ्रातृनन्दनः ॥ ८ ॥

मूलम्

अभिवाद्य ततः पादौ मातापित्रोर्विशाम्पते ॥ ७ ॥
भीष्मद्रोणकृपादीनां विदुरस्य च धीमतः।
अभिवादितः कनीयोभिर्भ्रातृभिर्भ्रातृनन्दनः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उसने सबसे पहले अपने माता-पिताके चरणोंमें प्रणाम किया। तत्पश्चात् क्रमशः भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदिको तथा बुद्धिमान् विदुरजीको भी मस्तक झुकाया। तदनन्तर छोटे भाइयोंने आकर भ्राताओंका आनन्द बढ़ानेवाले दुर्योधनको प्रणाम किया॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निषसादासने मुख्ये भ्रातृभिः परिवारितः।
तमुत्थाय महाराजं सूतपुत्रोऽब्रवीद् वचः ॥ ९ ॥

मूलम्

निषसादासने मुख्ये भ्रातृभिः परिवारितः।
तमुत्थाय महाराजं सूतपुत्रोऽब्रवीद् वचः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद सब भाइयोंसे घिरा हुआ अपने प्रमुख राजसिंहासनपर विराजमान हुआ। उस समय सूतपुत्र कर्णने उठकर महाराज दुर्योधनसे इस प्रकार कहा—॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या ते भरतश्रेष्ठ समाप्तोऽयं महाक्रतुः।
हतेषु युधि पार्थेषु राजसूये तथा त्वया ॥ १० ॥
आहृतेऽहं नरश्रेष्ठ त्वां सभाजयिता पुनः।

मूलम्

दिष्ट्या ते भरतश्रेष्ठ समाप्तोऽयं महाक्रतुः।
हतेषु युधि पार्थेषु राजसूये तथा त्वया ॥ १० ॥
आहृतेऽहं नरश्रेष्ठ त्वां सभाजयिता पुनः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! सौभाग्यकी बात है कि तुम्हारा यह महान् यज्ञ सकुशल समाप्त हुआ। नरश्रेष्ठ! जब युद्धमें पाण्डव मारे जायँगे, उस समय तुम्हारे द्वारा आयोजित राजसूययज्ञकी समाप्तिपर मैं पुनः इसी प्रकार तुम्हारा अभिनन्दन करूँगा’॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमब्रवीन्महाराजो धार्तराष्ट्रो महायशाः ॥ ११ ॥
सत्यमेतत् त्वयोक्तं हि पाण्डवेषु दुरात्मसु।
निहतेषु नरश्रेष्ठ प्राप्ते चापि महाक्रतौ ॥ १२ ॥
राजसूये पुनर्वीर त्वमेवं वर्धयिष्यसि।

मूलम्

तमब्रवीन्महाराजो धार्तराष्ट्रो महायशाः ॥ ११ ॥
सत्यमेतत् त्वयोक्तं हि पाण्डवेषु दुरात्मसु।
निहतेषु नरश्रेष्ठ प्राप्ते चापि महाक्रतौ ॥ १२ ॥
राजसूये पुनर्वीर त्वमेवं वर्धयिष्यसि।

अनुवाद (हिन्दी)

तब महायशस्वी महाराज दुर्योधनने उससे इस प्रकार कहा—‘वीर! तुम्हारा यह कथन सत्य है। नरश्रेष्ठ! जब दुरात्मा पाण्डव मारे जायँगे, उस समय महायज्ञ राजसूयके समाप्त होनेपर तुम पुनः इसी प्रकार मेरा अभिनन्दन करोगे’॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा महाराज कर्णमाश्लिष्य भारत ॥ १३ ॥
राजसूयं क्रतुश्रेष्ठं चिन्तयामास कौरवः।

मूलम्

एवमुक्त्वा महाराज कर्णमाश्लिष्य भारत ॥ १३ ॥
राजसूयं क्रतुश्रेष्ठं चिन्तयामास कौरवः।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतकुलभूषण! महाराज! ऐसा कहकर दुर्योधनने कर्णको छातीसे लगा लिया और क्रतुश्रेष्ठ राजसूयका चिन्तन करने लगा॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽब्रवीत्‌ कौरवांश्चापि पार्श्वस्थान् नृपसत्तमः ॥ १४ ॥
कदा तु तं क्रतुवरं राजसूयं महाधनम्।
निहत्य पाण्डवान् सर्वानाहरिष्यामि कौरवाः ॥ १५ ॥

मूलम्

सोऽब्रवीत्‌ कौरवांश्चापि पार्श्वस्थान् नृपसत्तमः ॥ १४ ॥
कदा तु तं क्रतुवरं राजसूयं महाधनम्।
निहत्य पाण्डवान् सर्वानाहरिष्यामि कौरवाः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ दुर्योधनने अपने पास खड़े हुए कौरवोंको सम्बोधित करके कहा—‘कुरुकुलके राजकुमारो! कब ऐसा समय आयगा जब मैं समस्त पाण्डवोंको मारकर प्रचुर धनसे सम्पन्न होनेवाले उस क्रतुश्रेष्ठ राजसूयका अनुष्ठान करूँगा’॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमब्रवीत् तदा कर्णः शृणु मे राजकुञ्जर।
पादौ न धावये तावद् यावन्न निहतोऽर्जुनः ॥ १६ ॥
कीलालजं न खादेयं करिष्ये चासुरव्रतम्।
नास्तीति नैव वक्ष्यामि याचितो येन केनचित् ॥ १७ ॥

मूलम्

तमब्रवीत् तदा कर्णः शृणु मे राजकुञ्जर।
पादौ न धावये तावद् यावन्न निहतोऽर्जुनः ॥ १६ ॥
कीलालजं न खादेयं करिष्ये चासुरव्रतम्।
नास्तीति नैव वक्ष्यामि याचितो येन केनचित् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय कर्णने दुर्योधनसे कहा—‘नृपश्रेष्ठ! मेरी यह प्रतिज्ञा सुन लो—‘जबतक अर्जुन मेरे हाथसे मारा नहीं जाता, तबतक मैं दूसरोंसे पैर नहीं धुलवाऊँगा, केवल जलसे उत्पन्न पदार्थ नहीं खाऊँगा और आसुरव्रत (क्रूरता आदि) नहीं धारण करूँगा। किसीके भी कुछ माँगनेपर ‘नहीं है’, ऐसी बात नहीं कहूँगा’॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथोत्क्रुष्टं महेष्वासैर्धार्तराष्ट्रैर्महारथैः ।
प्रतिज्ञाते फाल्गुनस्य वधे कर्णेन संयुगे ॥ १८ ॥

मूलम्

अथोत्क्रुष्टं महेष्वासैर्धार्तराष्ट्रैर्महारथैः ।
प्रतिज्ञाते फाल्गुनस्य वधे कर्णेन संयुगे ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णके द्वारा युद्धमें अर्जुनके वधकी प्रतिज्ञा करनेपर महान् धनुर्धर महारथी धृतराष्ट्रपुत्रोंने बड़े जोरसे सिंहनाद किया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विजितांश्चाप्यमन्यन्त पाण्डवान् धृतराष्ट्रजाः ।
दुर्योधनोऽपि राजेन्द्र विसृज्य नरपुङ्गवान् ॥ १९ ॥
प्रविवेश गृहं श्रीमान् यथा चैत्ररथं प्रभुः।
तेऽपि सर्वे महेष्वासा जग्मुर्वेश्मानि भारत ॥ २० ॥

मूलम्

विजितांश्चाप्यमन्यन्त पाण्डवान् धृतराष्ट्रजाः ।
दुर्योधनोऽपि राजेन्द्र विसृज्य नरपुङ्गवान् ॥ १९ ॥
प्रविवेश गृहं श्रीमान् यथा चैत्ररथं प्रभुः।
तेऽपि सर्वे महेष्वासा जग्मुर्वेश्मानि भारत ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस दिनसे कौरव पाण्डवोंको पराजित ही मानने लगे। राजेन्द्र! तदनन्तर जैसे देवराज इन्द्र चैत्ररथ नामक उद्यानमें प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार श्रीमान् राजा दुर्योधनने उन नरपुंगवोंको विदा करके अपने महलमें प्रवेश किया। भारत! तदनन्तर वे सभी महाधनुर्धर वीर अपने-अपने भवनमें चले गये॥१९-२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवाश्च महेष्वासा दूतवाक्यप्रचोदिताः ।
चिन्तयन्तस्तमेवार्थं नालभन्त सुखं क्वचित् ॥ २१ ॥

मूलम्

पाण्डवाश्च महेष्वासा दूतवाक्यप्रचोदिताः ।
चिन्तयन्तस्तमेवार्थं नालभन्त सुखं क्वचित् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर महाधनुर्धर पाण्डव दूतके वाक्यसे प्रेरित हो उसी विषयका चिन्तन करते हुए कभी चैन नहीं पाते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूयश्च चारै राजेन्द्र प्रवृत्तिरुपपादिता।
प्रतिज्ञा सूतपुत्रस्य विजयस्य वधं प्रति ॥ २२ ॥

मूलम्

भूयश्च चारै राजेन्द्र प्रवृत्तिरुपपादिता।
प्रतिज्ञा सूतपुत्रस्य विजयस्य वधं प्रति ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! फिर उन्होंने गुप्तचरोंद्वारा वह समाचार भी प्राप्त कर लिया, जिसमें अर्जुनके वधके लिये सूतपुत्र कर्णकी प्रतिज्ञा दुहरायी गयी थी॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा धर्मसुतः समुद्विग्नो नराधिप।
अभेद्यकवचं मत्वा कर्णमद्‌भुतविक्रमम् ॥ २३ ॥
अनुस्मरंश्च संक्लेशान् न शान्तिमुपयाति सः।

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा धर्मसुतः समुद्विग्नो नराधिप।
अभेद्यकवचं मत्वा कर्णमद्‌भुतविक्रमम् ॥ २३ ॥
अनुस्मरंश्च संक्लेशान् न शान्तिमुपयाति सः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! यह सब सुनकर धर्मपुत्र युधिष्ठिर उद्विग्न हो उठे। वे विचारने लगे—‘कर्णका कवच अभेद्य है और उसका पराक्रम भी अद्‌भुत है।’ यह मानकर तथा वनके क्लेशोंका स्मरण करके उन्हें शान्ति नहीं प्राप्त होती थी॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य चिन्तापरीतस्य बुद्धिर्जज्ञे महात्मनः ॥ २४ ॥
बहुव्यालमृगाकीर्णं त्यक्तुं द्वैतवनं वनम्।

मूलम्

तस्य चिन्तापरीतस्य बुद्धिर्जज्ञे महात्मनः ॥ २४ ॥
बहुव्यालमृगाकीर्णं त्यक्तुं द्वैतवनं वनम्।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार चिन्तासे घिरे हुए महात्मा युधिष्ठिरके मनमें यह विचार उत्पन्न हुआ कि ‘अनेक प्रकारके सर्पों तथा मृगोंसे भरे हुए इस द्वैतवनको छोड़कर हम कहीं अन्यत्र चले चलें’॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धार्तराष्ट्रोऽपि नृपतिः प्रशशास वसुन्धराम् ॥ २५ ॥
भ्रातृभिः सहितो वीरैर्भीष्मद्रोणकृपैस्तथा ।
सङ्गम्य सूतपुत्रेण कर्णेनाहवशोभिना ॥ २६ ॥
(सततं प्रीयमाणो वै देविना सौबलेन च।)

मूलम्

धार्तराष्ट्रोऽपि नृपतिः प्रशशास वसुन्धराम् ॥ २५ ॥
भ्रातृभिः सहितो वीरैर्भीष्मद्रोणकृपैस्तथा ।
सङ्गम्य सूतपुत्रेण कर्णेनाहवशोभिना ॥ २६ ॥
(सततं प्रीयमाणो वै देविना सौबलेन च।)

अनुवाद (हिन्दी)

इधर राजा दुर्योधन भी अपने वीर भाइयोंके साथ रहकर भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, युद्धमें शोभा पानेवाले सूतपुत्र कर्ण तथा द्यूतकुशल शकुनिसे मिलकर निरन्तर प्रसन्नताका अनुभव करता हुआ इस पृथ्वीका शासन करने लगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनः प्रिये नित्यं वर्तमानो महीभृताम्।
पूजयामास विप्रेन्द्रान् क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ॥ २७ ॥

मूलम्

दुर्योधनः प्रिये नित्यं वर्तमानो महीभृताम्।
पूजयामास विप्रेन्द्रान् क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन सदा अपने अधीन रहनेवाले राजाओंका प्रिय करने लगा और प्रचुर दक्षिणावाले यज्ञोंद्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणोंका भी स्वागत-सत्कार करता रहा॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातॄणां च प्रियं राजन् स चकार परंतपः।
निश्चित्य मनसा वीरो दत्तभुक्तफलं धनम् ॥ २८ ॥

मूलम्

भ्रातॄणां च प्रियं राजन् स चकार परंतपः।
निश्चित्य मनसा वीरो दत्तभुक्तफलं धनम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! शत्रुओंको संताप देनेवाला वीर दुर्योधन निरन्तर अपने भाइयोंका प्रिय कार्य किया करता था। ‘धनके दो ही फल हैं—दान और भोग’ ऐसा मन-ही-मन निश्चय करके वह इन्हींमें धनका उपयोग करता था॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि घोषयात्रापर्वणि युधिष्ठिरचिन्तायां सप्तपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत घोषयात्रापर्वमें युधिष्ठिरकी चिन्तासे सम्बन्ध रखनेवाला दो सौ सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२५७॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल २८ श्लोक हैं)