२५३ कर्णदिग्विजये

भागसूचना

त्रिपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीष्मका कर्णकी निन्दा करते हुए दुर्योधनको पाण्डवोंसे संधि करनेका परामर्श देना, कर्णके क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजयके लिये प्रस्थान

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसमानेषु पार्थेषु वने तस्मिन् महात्मसु।
धार्तराष्ट्रा महेष्वासाः किमकुर्वत सत्तमाः ॥ १ ॥

मूलम्

वसमानेषु पार्थेषु वने तस्मिन् महात्मसु।
धार्तराष्ट्रा महेष्वासाः किमकुर्वत सत्तमाः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय बोले— मुने! जब महात्मा पाण्डव उस वनमें निवास करते थे, उन दिनों महान् धनुर्धर नरश्रेष्ठ धृतराष्ट्र-पुत्रोंने क्या किया?॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णो वैकर्तनश्चैव शकुनिश्च महाबलः।
भीष्मद्रोणकृपाश्चैव तन्मे शंसितुमर्हसि ॥ २ ॥

मूलम्

कर्णो वैकर्तनश्चैव शकुनिश्च महाबलः।
भीष्मद्रोणकृपाश्चैव तन्मे शंसितुमर्हसि ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यपुत्र कर्ण, महाबली शकुनि, भीष्म, द्रोण तथा कृपाचार्य—इन सबने कौन-सा कार्य किया? यह मुझे बतानेकी कृपा करें॥२॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं गतेषु पार्थेषु विसृष्टे च सुयोधने।
आगते हास्तिनपुरं मोक्षिते पाण्डुनन्दनैः ॥ ३ ॥
भीष्मोऽब्रवीन्महाराज धार्तराष्ट्रमिदं वचः ।

मूलम्

एवं गतेषु पार्थेषु विसृष्टे च सुयोधने।
आगते हास्तिनपुरं मोक्षिते पाण्डुनन्दनैः ॥ ३ ॥
भीष्मोऽब्रवीन्महाराज धार्तराष्ट्रमिदं वचः ।

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजीने कहा— महाराज! पाण्डवोंद्वारा गन्धर्वोंसे छुटकारा मिल जानेपर जब दुर्योधन विदा होकर हस्तिनापुर पहुँच गया और पाण्डव जाकर पूर्ववत् वनमें ही रहने लगे तब भीष्मजीने धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनसे यह बात कही—॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्तं तात यथा पूर्वं गच्छतस्ते तपोवनम् ॥ ४ ॥
गमनं मे न रुचितं तव तत्र कृतं च ते।

मूलम्

उक्तं तात यथा पूर्वं गच्छतस्ते तपोवनम् ॥ ४ ॥
गमनं मे न रुचितं तव तत्र कृतं च ते।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! तुम्हारे तपोवन जाते समय जैसा कि मैंने पहले ही कह दिया था, वही आज भी कह रहा हूँ। मुझे तुम्हारा वहाँ जाना अच्छा नहीं लगा और वहाँ जाकर तुमने जो कुछ किया, वह भी पसंद नहीं आया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्राप्तं त्वया वीर ग्रहणं शत्रुभिर्बलात् ॥ ५ ॥
मोक्षितश्चासि धर्मज्ञैः पाण्डवैर्न च लज्जसे।

मूलम्

ततः प्राप्तं त्वया वीर ग्रहणं शत्रुभिर्बलात् ॥ ५ ॥
मोक्षितश्चासि धर्मज्ञैः पाण्डवैर्न च लज्जसे।

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर! शत्रुओंने तुम्हें वहाँ बलपूर्वक बंदी बना लिया और धर्मज्ञ पाण्डवोंने तुम्हें उस संकटसे छुड़ाया है। क्या अब भी तुम्हें लज्जा नहीं आती?॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्यक्षं तव गान्धारे ससैन्यस्य विशाम्पते ॥ ६ ॥
सूतपुत्रोऽपयाद् भीतो गन्धर्वाणां तदा रणात्।

मूलम्

प्रत्यक्षं तव गान्धारे ससैन्यस्य विशाम्पते ॥ ६ ॥
सूतपुत्रोऽपयाद् भीतो गन्धर्वाणां तदा रणात्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘गान्धारीनन्दन! सेनासहित तुम्हारे सामने ही सूतपुत्र कर्ण गन्धर्वोंसे भयभीत हो युद्धभूमिसे भाग निकला॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रोशतस्तव राजेन्द्र ससैन्यस्य नृपात्मज ॥ ७ ॥
दृष्टस्ते विक्रमश्चैव पाण्डवानां महात्मनाम्।

मूलम्

क्रोशतस्तव राजेन्द्र ससैन्यस्य नृपात्मज ॥ ७ ॥
दृष्टस्ते विक्रमश्चैव पाण्डवानां महात्मनाम्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! राजकुमार! जब सेनासहित तुम चीखते-चिल्लाते रहे उस समय महात्मा पाण्डवोंने जो पराक्रम कर दिखाया था वह भी तुमने प्रत्यक्ष देखा है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णस्य च महाबाहो सूतपुत्रस्य दुर्मतेः ॥ ८ ॥
न चापि पादभाक् कर्णः पाण्डवानां नृपोत्तम।
धनुर्वेदे च शौर्ये च धर्मे वा धर्मवत्सल ॥ ९ ॥

मूलम्

कर्णस्य च महाबाहो सूतपुत्रस्य दुर्मतेः ॥ ८ ॥
न चापि पादभाक् कर्णः पाण्डवानां नृपोत्तम।
धनुर्वेदे च शौर्ये च धर्मे वा धर्मवत्सल ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! उस समय खोटी बुद्धिवाले सूतपुत्र कर्णका पराक्रम भी तुमसे छिपा नहीं था। नृपश्रेष्ठ! धर्मवत्सल! मेरा तो ऐसा विश्वास है कि धनुर्वेद, शौर्य और धर्माचरणमें कर्ण पाण्डवोंकी अपेक्षा चौथाई योग्यता भी नहीं रखता है॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादहं क्षमं मन्ये पाण्डवैस्तैर्महात्मभिः।
संधिं संधिविदां श्रेष्ठ कुलस्यास्य विवृद्धये ॥ १० ॥

मूलम्

तस्मादहं क्षमं मन्ये पाण्डवैस्तैर्महात्मभिः।
संधिं संधिविदां श्रेष्ठ कुलस्यास्य विवृद्धये ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः संधिवेत्ताओंमें श्रेष्ठ नरेश! मैं तो इस कुलके अभ्युदयके लिये उन महात्मा पाण्डवोंके साथ संधि कर लेना ही उचित समझता हूँ’॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तश्च भीष्मेण धार्तराष्ट्रो जनेश्वरः।
प्रहस्य सहसा राजन् विप्रतस्थे ससौबलः ॥ ११ ॥

मूलम्

एवमुक्तश्च भीष्मेण धार्तराष्ट्रो जनेश्वरः।
प्रहस्य सहसा राजन् विप्रतस्थे ससौबलः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! भीष्मके ऐसा कहनेपर राजा दुर्योधन हँस पड़ा और शकुनिके साथ सहसा वहाँसे अन्यत्र चला गया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तु प्रस्थितमाज्ञाय कर्णदुःशासनादयः।
अनुजग्मुर्महेष्वासा धार्तराष्ट्रं महाबलम् ॥ १२ ॥

मूलम्

तं तु प्रस्थितमाज्ञाय कर्णदुःशासनादयः।
अनुजग्मुर्महेष्वासा धार्तराष्ट्रं महाबलम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबली दुर्योधनको अन्यत्र गया जान कर्ण और दुःशासन आदि महान् धनुर्धरोंने उसका अनुसरण किया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तांस्तु सम्प्रस्थितान्‌ दृष्ट्‌वा भीष्मः कुरुपितामहः।
लज्जया व्रीडितो राजन् जगाम स्वं निवेशनम् ॥ १३ ॥

मूलम्

तांस्तु सम्प्रस्थितान्‌ दृष्ट्‌वा भीष्मः कुरुपितामहः।
लज्जया व्रीडितो राजन् जगाम स्वं निवेशनम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उन सबको वहाँसे प्रस्थान करते देख कुरुकुलपितामह भीष्म लज्जित होकर अपने आवास-स्थानको चले गये॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गते भीष्मे महाराज धार्तराष्ट्रो जनेश्वरः।
पुनरागम्य तं देशममन्त्रयत मन्त्रिभिः ॥ १४ ॥

मूलम्

गते भीष्मे महाराज धार्तराष्ट्रो जनेश्वरः।
पुनरागम्य तं देशममन्त्रयत मन्त्रिभिः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! भीष्मके चले जानेपर राजा दुर्योधन फिर उसी स्थानपर लौट आया और अपने मन्त्रियोंके साथ गुप्त मन्त्रणा करने लगा—॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमस्माकं भवेच्छ्रेयः किं कार्यमवशिष्यते।
कथं च सुकृतं तत् स्यान्मन्त्रयामोऽद्य यद्धितम् ॥ १५ ॥

मूलम्

किमस्माकं भवेच्छ्रेयः किं कार्यमवशिष्यते।
कथं च सुकृतं तत् स्यान्मन्त्रयामोऽद्य यद्धितम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मित्रो! क्या करनेसे हमलोगोंकी भलाई होगी? हमारे लिये कौन-सा कार्य शेष रह गया है? कैसे करनेसे हमारा कार्य शुभ परिणामजनक होगा? क्या करनेमें हमारा हित है? आज इसी विषयपर हमलोगोंको विचार करना है’॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

कर्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधन निबोधेदं यत् त्वां वक्ष्यामि कौरव।
भीष्मोऽस्मान् निन्दति सदा पाण्डवांश्च प्रशंसति ॥ १६ ॥

मूलम्

दुर्योधन निबोधेदं यत् त्वां वक्ष्यामि कौरव।
भीष्मोऽस्मान् निन्दति सदा पाण्डवांश्च प्रशंसति ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्ण बोला— कुरुकुलरत्न दुर्योधन! मैं तुमसे जो कुछ कह रहा हूँ, उसपर ध्यान दो। भीष्म सदा हमारी निन्दा और पाण्डवोंकी प्रशंसा करते रहते हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वद् द्वेषाच्च महाबाहो ममापि द्वेष्टुमर्हति।
विगर्हते च मां नित्यं त्वत्समीपे नरेश्वर ॥ १७ ॥

मूलम्

त्वद् द्वेषाच्च महाबाहो ममापि द्वेष्टुमर्हति।
विगर्हते च मां नित्यं त्वत्समीपे नरेश्वर ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! वे तुम्हारे प्रति द्वेष होनेसे मुझसे भी द्वेष रखते हैं। नरेश्वर! तुम्हारे सामने वे सदा मेरी निन्दा ही किया करते हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं भीष्मवचस्तद् वै न मृष्यामीह भारत।
त्वत्समक्षं यदुक्तं च भीष्मेणामित्रकर्षण ॥ १८ ॥
पाण्डवानां यशो राजंस्तव निन्दां च भारत।
अनुजानीहि मां राजन् सभृत्यबलवाहनम् ॥ १९ ॥

मूलम्

सोऽहं भीष्मवचस्तद् वै न मृष्यामीह भारत।
त्वत्समक्षं यदुक्तं च भीष्मेणामित्रकर्षण ॥ १८ ॥
पाण्डवानां यशो राजंस्तव निन्दां च भारत।
अनुजानीहि मां राजन् सभृत्यबलवाहनम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! तुम्हारे सामने भीष्मने जो कुछ कहा है, उसे मैं सहन नहीं कर सकता। शत्रुदमन! भरतकुलनन्दन! उन्होंने जो पाण्डवोंका यश गाया और तुम्हारी निन्दा की है, यह मेरे लिये असह्य है। अतः तुम मुझे सेवक, सेना तथा सवारियोंके साथ दिग्विजय करनेकी आज्ञा दो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेष्यामि पृथिवीं राजन् सशैलवनकाननाम्।
जिता च पाण्डवैर्भूमिश्चतुर्भिर्बलशालिभिः ॥ २० ॥
तामहं ते विजेष्यामि एक एव न संशयः।
सम्पश्यतु सुदुर्बुद्धिर्भीष्मः कुरुकुलाधमः ॥ २१ ॥

मूलम्

जेष्यामि पृथिवीं राजन् सशैलवनकाननाम्।
जिता च पाण्डवैर्भूमिश्चतुर्भिर्बलशालिभिः ॥ २० ॥
तामहं ते विजेष्यामि एक एव न संशयः।
सम्पश्यतु सुदुर्बुद्धिर्भीष्मः कुरुकुलाधमः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मैं पर्वत, वन और काननोंसहित सारी पृथ्वीको जीत लूँगा। जिस भूमिपर चार बलशाली पाण्डवोंने मिलकर विजय पायी है उसे मैं तुम्हारे लिये अकेला ही जीत लूँगा, इसमें संशय नहीं है। खोटी बुद्धिवाला कुरु-कुलाधम भीष्म मेरे इस पराक्रमको अपनी आँखों देखे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिन्द्यं निन्दते यो हि अप्रशंस्यं प्रशंसति।
स पश्यतु बलं मेऽद्य आत्मानं तु विगर्हतु ॥ २२ ॥

मूलम्

अनिन्द्यं निन्दते यो हि अप्रशंस्यं प्रशंसति।
स पश्यतु बलं मेऽद्य आत्मानं तु विगर्हतु ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अनिन्दनीयकी निन्दा और अप्रशंसनीयकी प्रशंसा करता है, वह भीष्म आज मेरा बल देख ले और अपने-आपको धिक्कारे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुजानीहि मां राजन् ध्रुवो हि विजयस्तव।
प्रतिजानामि ते सत्यं राजन्नायुधमालभे ॥ २३ ॥

मूलम्

अनुजानीहि मां राजन् ध्रुवो हि विजयस्तव।
प्रतिजानामि ते सत्यं राजन्नायुधमालभे ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मुझे आज्ञा दो। तुम्हारी विजय निश्चित है। यह मैं तुमसे प्रतिज्ञापूर्वक सत्य कहता हूँ और शस्त्र छूकर शपथ करता हूँ॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा तु वचो राजन् कर्णस्य भरतर्षभ।
प्रीत्या परमया युक्तः कर्णमाह नराधिपः ॥ २४ ॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा तु वचो राजन् कर्णस्य भरतर्षभ।
प्रीत्या परमया युक्तः कर्णमाह नराधिपः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ राजन्! कर्णकी यह बात सुनकर राजा दुर्योधनने बड़ी प्रसन्नताके साथ उससे कहा—॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि यस्य मे त्वं महाबलः।
हितेषु वर्तसे नित्यं सफलं जन्म चाद्य मे ॥ २५ ॥

मूलम्

धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि यस्य मे त्वं महाबलः।
हितेषु वर्तसे नित्यं सफलं जन्म चाद्य मे ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर! मैं धन्य हूँ, तुम्हारे अनुग्रहका पात्र हूँ; क्योंकि तुम-जैसे महाबली सुहृद् सदा मेरे हितसाधनमें लगे रहते हैं। आज मेरा जन्म सफल हो गया॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा च मन्यसे वीर सर्वशत्रुनिबर्हणम्।
तदा निर्गच्छ भद्रं ते ह्यनुशाधि च मामिति ॥ २६ ॥

मूलम्

यदा च मन्यसे वीर सर्वशत्रुनिबर्हणम्।
तदा निर्गच्छ भद्रं ते ह्यनुशाधि च मामिति ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीरवर! जब तुम्हें विश्वास है कि तुम्हारे द्वारा सब शत्रुओंका संहार हो सकता है तब तुम दिग्विजयके लिये यात्रा करो। तुम्हारा कल्याण हो। मुझे आवश्यक व्यवस्थाके लिये आज्ञा दो॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तदा कर्णो धार्तराष्ट्रेण धीमता।
सर्वमाज्ञापयामास प्रायात्रिकमरिंदम ॥ २७ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तदा कर्णो धार्तराष्ट्रेण धीमता।
सर्वमाज्ञापयामास प्रायात्रिकमरिंदम ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! बुद्धिमान् दुर्योधनके इस प्रकार कहनेपर कर्णने यात्रासम्बन्धी सारी आवश्यक तैयारीके लिये आज्ञा दे दी॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रययौ च महेष्वासो नक्षत्रे शुभदैवते।
शुभे तिथौ मुहूर्ते च पूज्यमानो द्विजातिभिः ॥ २८ ॥
मङ्गलैश्च शुभैः स्नातो वाग्भिश्चापि प्रपूजितः।
नादयन् रथघोषेण त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ २९ ॥

मूलम्

प्रययौ च महेष्वासो नक्षत्रे शुभदैवते।
शुभे तिथौ मुहूर्ते च पूज्यमानो द्विजातिभिः ॥ २८ ॥
मङ्गलैश्च शुभैः स्नातो वाग्भिश्चापि प्रपूजितः।
नादयन् रथघोषेण त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर महान् धनुर्धर कर्णने मांगलिक शुभ पदार्थोंसे जलके द्वारा स्नान करके द्विजातियोंकी आशीर्वादमय वाणीसे सम्मानित एवं प्रशंसित हो शुभ नक्षत्र, शुभ तिथि और शुभ मुहूर्तमें यात्रा की। उस समय वह अपने रथकी घर्घराहटसे चराचर भूतोंसहित समस्त त्रिलोकीको प्रतिध्वनित कर रहा था॥२८-२९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि घोषयात्रापर्वणि कर्णदिग्विजये त्रिपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत घोषयात्रापर्वमें कर्णदिग्विजयविषयक दो सौ तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२५३॥