भागसूचना
एकपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शकुनिके समझानेपर भी दुर्योधनको प्रायोपवेशनसे विचलित होते न देखकर दैत्योंका कृत्याद्वारा उसे रसातलमें बुलाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रायोपविष्टं राजानं दुर्योधनममर्षणम् ।
उवाच सान्त्वयन् राजञ्छकुनिः सौबलस्तदा ॥ १ ॥
मूलम्
प्रायोपविष्टं राजानं दुर्योधनममर्षणम् ।
उवाच सान्त्वयन् राजञ्छकुनिः सौबलस्तदा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर अमर्षमें भरकर आमरण उपवासके लिये बैठे हुए राजा दुर्योधनको सान्त्वना देते हुए सुबलपुत्र शकुनिने कहा॥१॥
मूलम् (वचनम्)
शकुनिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्यगुक्तं हि कर्णेन तच्छ्रुतं कौरव त्वया।
मया हृतां श्रियं स्फीतां तां मोहादपहाय किम् ॥ २ ॥
मूलम्
सम्यगुक्तं हि कर्णेन तच्छ्रुतं कौरव त्वया।
मया हृतां श्रियं स्फीतां तां मोहादपहाय किम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शकुनि बोला— कुरुनन्दन! कर्णने बहुत अच्छी बात कही है, जो तुमने सुनी ही है। मैंने पाण्डवोंसे तुम्हारे लिये जिस समृद्धशालिनी राज-लक्ष्मीका अपहरण किया है, तुम उसे मोहवश क्यों त्याग रहे हो?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमल्पबुद्ध्या नृपते प्राणानुत्स्रष्टुमर्हसि ।
अथवाप्यवगच्छामि न वृद्धाः सेवितास्त्वया ॥ ३ ॥
मूलम्
त्वमल्पबुद्ध्या नृपते प्राणानुत्स्रष्टुमर्हसि ।
अथवाप्यवगच्छामि न वृद्धाः सेवितास्त्वया ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! तुम अपनी अल्पबुद्धिके कारण ही आज प्राणत्याग करनेको उतारू हो गये हो; अथवा मैं समझता हूँ कि तुमने कभी वृद्धपुरुषोंका सेवन नहीं किया है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः समुत्पतितं हर्षं दैन्यं वा न नियच्छति।
स नश्यति श्रियं प्राप्य पात्रमाममिवाम्भसि ॥ ४ ॥
मूलम्
यः समुत्पतितं हर्षं दैन्यं वा न नियच्छति।
स नश्यति श्रियं प्राप्य पात्रमाममिवाम्भसि ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य सहसा उत्पन्न हुए हर्ष अथवा शोकपर नियन्त्रण नहीं रखता, वह राजलक्ष्मीको पाकर भी उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जैसे मिट्टीका कच्चा बर्तन पानीमें गल जाता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतिभीरुमतिक्लीबं दीर्घसूत्रं प्रमादिनम् ।
व्यसनाद् विषयाक्रान्तं न भजन्ति नृपं प्रजाः ॥ ५ ॥
मूलम्
अतिभीरुमतिक्लीबं दीर्घसूत्रं प्रमादिनम् ।
व्यसनाद् विषयाक्रान्तं न भजन्ति नृपं प्रजाः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा अत्यन्त डरपोक, बहुत कायर, दीर्घसूत्री (आलसी), प्रमादी और दुर्व्यसनवश विषयोंमें फँसा होता है, उसे प्रजा अपना स्वामी नहीं स्वीकार करती है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्कृतस्य हि ते शोको विपरीते कथं भवेत्।
मा कृतं शोभनं पार्थैः शोकमालमब्य नाशय ॥ ६ ॥
मूलम्
सत्कृतस्य हि ते शोको विपरीते कथं भवेत्।
मा कृतं शोभनं पार्थैः शोकमालमब्य नाशय ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डवोंने तुम्हारा सत्कार किया है तो तुम्हें शोक हो रहा है। इसके विपरीत यदि उन्होंने तिरस्कार किया होता तो न जाने तुम्हारी कैसी दशा हो जाती? कुन्तीकुमारोंने जो सद्व्यवहार किया है, उसे तुम शोकका आश्रय लेकर नष्ट न कर दो॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र हर्षस्त्वया कार्यः सत्कर्तव्याश्च पाण्डवाः।
तत्र शोचसि राजेन्द्र विपरीतमिदं तव ॥ ७ ॥
मूलम्
यत्र हर्षस्त्वया कार्यः सत्कर्तव्याश्च पाण्डवाः।
तत्र शोचसि राजेन्द्र विपरीतमिदं तव ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! जहाँ तुम्हें हर्ष मनाना और पाण्डवोंका सत्कार करना चाहिये था वहाँ तुम शोक कर रहे हो। तुम्हारा यह व्यवहार तो उलटा ही है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसीद मा त्यजात्मानं तुष्टश्च सुकृतं स्मर।
प्रयच्छ राज्यं पार्थानां यशो धर्ममवाप्नुहि ॥ ८ ॥
मूलम्
प्रसीद मा त्यजात्मानं तुष्टश्च सुकृतं स्मर।
प्रयच्छ राज्यं पार्थानां यशो धर्ममवाप्नुहि ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः मनमें प्रसन्नता लाओ। शरीरका त्याग न करो। पाण्डवोंने तुम्हारे साथ जो सद्व्यवहार किया है उसे स्मरण करो और संतुष्ट होकर उनका राज्य उन्हें लौटा दो। ऐसा करके यश और धर्मके भागी बनो॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रियामेतां समाज्ञाय कृतज्ञस्त्वं भविष्यसि।
सौभ्रात्रं पाण्डवैः कृत्वा समवस्थाप्य चैव तान् ॥ ९ ॥
पित्र्यं राज्यं प्रयच्छैषां ततः सुखमवाप्स्यसि।
मूलम्
क्रियामेतां समाज्ञाय कृतज्ञस्त्वं भविष्यसि।
सौभ्रात्रं पाण्डवैः कृत्वा समवस्थाप्य चैव तान् ॥ ९ ॥
पित्र्यं राज्यं प्रयच्छैषां ततः सुखमवाप्स्यसि।
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे इस प्रस्तावको समझकर ऐसा ही करो। इससे तुम कृतज्ञ माने जाओगे। पाण्डवोंके साथ उत्तम भाईचारेका बर्ताव करके उन्हें राज्यसिंहासनपर बिठा दो और उनका पैतृक राज्य उन्हें समर्पित कर दो। इससे तुम्हें सुख प्राप्त होगा॥९॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शकुनेस्तु वचः श्रुत्वा दुःशासनमवेक्ष्य च ॥ १० ॥
पादयोः पतितं वीरं विकृतं भ्रातृसौहृदम्।
बाहुभ्यां साधुजाताभ्यां दुःशासनमरिंदमम् ॥ ११ ॥
उत्थाप्य सम्परिष्वज्य प्रीत्याजिघ्रत मूर्धनि।
मूलम्
शकुनेस्तु वचः श्रुत्वा दुःशासनमवेक्ष्य च ॥ १० ॥
पादयोः पतितं वीरं विकृतं भ्रातृसौहृदम्।
बाहुभ्यां साधुजाताभ्यां दुःशासनमरिंदमम् ॥ ११ ॥
उत्थाप्य सम्परिष्वज्य प्रीत्याजिघ्रत मूर्धनि।
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! शकुनिका यह वचन सुनकर दुर्योधनने अपने चरणोंमें पड़े हुए म्लान मुखवाले भ्रातृभक्त शत्रुदमन वीर दुःशासनकी ओर देखकर अपनी सुन्दर बाँहोंद्वारा उसे उठाया और प्रेमपूर्वक हृदयसे लगाकर उसका मस्तक सूँघा॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णसौबलयोश्चापि संश्रुत्य वचनान्यसौ ॥ १२ ॥
निर्वेदं परमं गत्वा राजा दुर्योधनस्तदा।
व्रीडयाभिपरीतात्मा नैराश्यमगमत् परम् ॥ १३ ॥
मूलम्
कर्णसौबलयोश्चापि संश्रुत्य वचनान्यसौ ॥ १२ ॥
निर्वेदं परमं गत्वा राजा दुर्योधनस्तदा।
व्रीडयाभिपरीतात्मा नैराश्यमगमत् परम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण और शकुनिकी भी बातें सुनकर राजा दुर्योधन अत्यन्त उदास हो गया, तथा मन-ही-मन लज्जासे अभिभूत हो उसने बड़ी निराशाका अनुभव किया॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा सुहृदश्चैव समन्युरिदमब्रवीत् ।
न धर्मधनसौख्येन नैश्वर्येण न चाज्ञया ॥ १४ ॥
नैव भोगैश्च मे कार्यं मा विहन्यत गच्छत।
निश्चितेयं मम मतिः स्थिता प्रायोपवेशने ॥ १५ ॥
गच्छध्वं नगरं सर्वे पूज्याश्च गुरवो मम।
मूलम्
तच्छ्रुत्वा सुहृदश्चैव समन्युरिदमब्रवीत् ।
न धर्मधनसौख्येन नैश्वर्येण न चाज्ञया ॥ १४ ॥
नैव भोगैश्च मे कार्यं मा विहन्यत गच्छत।
निश्चितेयं मम मतिः स्थिता प्रायोपवेशने ॥ १५ ॥
गच्छध्वं नगरं सर्वे पूज्याश्च गुरवो मम।
अनुवाद (हिन्दी)
सब सुहृदोंके वचन सुनकर दुर्योधनने उनसे कुपित हो इस प्रकार कहा—‘मुझे धर्म, धन, सुख, ऐश्वर्य, शासन और भोग किसीकी भी आवश्यकता नहीं है। तुमलोग मेरे निश्चयमें बाधा न डालो। यहाँसे चले जाओ। आमरण अनशन करनेके सम्बन्धमें मेरी बुद्धिका निश्चय अटल है। तुम सब लोग नगरको जाओ और वहाँ मेरे गुरुजनोंका सदा आदर-सत्कार करो’॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त एवमुक्ताः प्रत्यूचू राजानमरिमर्दनम् ॥ १६ ॥
या गतिस्तव राजेन्द्र सास्माकमपि भारत।
कथं वा सम्प्रवेक्ष्यामस्त्वद्विहीनाः पुरं वयम् ॥ १७ ॥
मूलम्
त एवमुक्ताः प्रत्यूचू राजानमरिमर्दनम् ॥ १६ ॥
या गतिस्तव राजेन्द्र सास्माकमपि भारत।
कथं वा सम्प्रवेक्ष्यामस्त्वद्विहीनाः पुरं वयम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा उत्तर पाकर सब सुहृदोंने शत्रुदमन राजा दुर्योधनसे कहा—‘राजेन्द्र! तुम्हारी जो गति होगी वही हमारी भी होगी। भारत! हम तुम्हारे बिना हस्तिनापुरमें कैसे प्रवेश करेंगे?’॥१६-१७॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सुहृद्भिरमात्यैश्च भ्रातृभिः स्वजनेन च।
बहुप्रकारमप्युक्तो निश्चयान्न विचाल्यते ॥ १८ ॥
मूलम्
स सुहृद्भिरमात्यैश्च भ्रातृभिः स्वजनेन च।
बहुप्रकारमप्युक्तो निश्चयान्न विचाल्यते ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! दुर्योधनको उसके सुहृद्, मन्त्री, भाई तथा स्वजनोंने बहुतेरा समझाया, परंतु कोई भी उसे अपने निश्चयसे विचलित न कर सका॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दर्भास्तरणमास्तीर्य निश्चयाद् धृतराष्ट्रजः ।
संस्पृश्यापः शुचिर्भूत्वा भूतले समुपस्थितः ॥ १९ ॥
कुशचीराम्बरधरः परं नियममास्थितः ।
वाग्यतो राजशार्दूलः स स्वर्गगतिकाम्यया ॥ २० ॥
मनसोपचितिं कृत्वा निरस्य च बहिःक्रियाः।
मूलम्
दर्भास्तरणमास्तीर्य निश्चयाद् धृतराष्ट्रजः ।
संस्पृश्यापः शुचिर्भूत्वा भूतले समुपस्थितः ॥ १९ ॥
कुशचीराम्बरधरः परं नियममास्थितः ।
वाग्यतो राजशार्दूलः स स्वर्गगतिकाम्यया ॥ २० ॥
मनसोपचितिं कृत्वा निरस्य च बहिःक्रियाः।
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रपुत्र नृपश्रेष्ठ दुर्योधन अपने निश्चयपर अटल रहकर आचमन करके पवित्र हो पृथ्वीपर कुशका आसन बिछा कुश और वल्कलके वस्त्र धारण करके बैठा और स्वर्गप्राप्तिकी इच्छासे वाणीका संयम करके उपवासके उत्तम नियमोंका पालन करने लगा। उस समय उसने मनके द्वारा मरनेका ही निश्चय करके स्नान-भोजन आदि बाह्य क्रियाओंको सर्वथा त्याग दिया था॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तं निश्चयं तस्य बुद्ध्वा दैतेयदानवाः ॥ २१ ॥
पातालवासिनो रौद्राः पूर्वं देवैर्विनिर्जिताः।
ते स्वपक्षक्षयं तं तु ज्ञात्वा दुर्योधनस्य वै ॥ २२ ॥
आह्वानाय तदा चक्रुः कर्म वैतानसम्भवम्।
बृहस्पत्युशनोक्तैश्च मन्त्रैर्मन्त्रविशारदाः ॥ २३ ॥
अथर्ववेदप्रोक्तैश्च याश्चोपनिषदि क्रियाः ।
मन्त्रजप्यसमायुक्तास्तास्तदा समवर्तयन् ॥ २४ ॥
मूलम्
अथ तं निश्चयं तस्य बुद्ध्वा दैतेयदानवाः ॥ २१ ॥
पातालवासिनो रौद्राः पूर्वं देवैर्विनिर्जिताः।
ते स्वपक्षक्षयं तं तु ज्ञात्वा दुर्योधनस्य वै ॥ २२ ॥
आह्वानाय तदा चक्रुः कर्म वैतानसम्भवम्।
बृहस्पत्युशनोक्तैश्च मन्त्रैर्मन्त्रविशारदाः ॥ २३ ॥
अथर्ववेदप्रोक्तैश्च याश्चोपनिषदि क्रियाः ।
मन्त्रजप्यसमायुक्तास्तास्तदा समवर्तयन् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधनके इस निश्चयको जानकर पातालवासी भयंकर दैत्यों और दानवोंने, जो पूर्वकालमें देवताओंसे पराजित हो चुके थे, मन-ही-मन विचार किया कि इस प्रकार दुर्योधनका प्राणान्त होनेसे तो हमारा पक्ष ही नष्ट हो जायगा; अतः उसे अपने पास बुलानेके लिये मन्त्रविद्यामें निपुण दैत्योंने उस समय बृहस्पति और शुक्राचार्यके द्वारा वर्णित तथा अथर्ववेदमें प्रतिपादित मन्त्रोंद्वारा अग्निविस्तार-साध्य यज्ञकर्मका अनुष्ठान आरम्भ किया और उपनिषद् (आरण्यक)-में जो मन्त्रजपसे युक्त हवनादि क्रियाएँ बतायी गयी हैं, उनका भी सम्पादन किया॥२१—२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जुह्वत्यग्नौ हविः क्षीरं मन्त्रवत् सुसमाहिताः।
ब्राह्मणा वेदवेदाङ्गपारगाः सुदृढव्रताः ॥ २५ ॥
मूलम्
जुह्वत्यग्नौ हविः क्षीरं मन्त्रवत् सुसमाहिताः।
ब्राह्मणा वेदवेदाङ्गपारगाः सुदृढव्रताः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले, वेद-वेदांगोंके पारंगत विद्वान् ब्राह्मण एकाग्रचित्त हो मन्त्रोच्चारणपूर्वक प्रज्वलित अग्निमें घृत और खीरकी आहुति देने लगे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मसिद्धौ तदा तत्र जृम्भमाणा महाद्भुता।
कृत्या समुत्थिता राजन् किं करोमीति चाब्रवीत् ॥ २६ ॥
मूलम्
कर्मसिद्धौ तदा तत्र जृम्भमाणा महाद्भुता।
कृत्या समुत्थिता राजन् किं करोमीति चाब्रवीत् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! कर्मकी सिद्धि होनेपर वहाँ यज्ञकुण्डसे उस समय एक अत्यन्त अद्भुत कृत्या जँभाई लेती हुई प्रकट हुई और बोली—‘मैं क्या करूँ?’॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहुर्दैत्याश्च तां तत्र सुप्रीतेनान्तरात्मना।
प्रायोपविष्टं राजानं धार्तराष्ट्रमिहानय ॥ २७ ॥
मूलम्
आहुर्दैत्याश्च तां तत्र सुप्रीतेनान्तरात्मना।
प्रायोपविष्टं राजानं धार्तराष्ट्रमिहानय ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब दैत्योंने प्रसन्नचित्त होकर उससे कहा—‘तू प्रायोपवेशन करते हुए धृतराष्ट्रपुत्र राजा दुर्योधनको यहाँ ले आ’॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेति च प्रतिश्रुत्य सा कृत्या प्रययौ तदा।
निमेषादगमच्चापि यत्र राजा सुयोधनः ॥ २८ ॥
मूलम्
तथेति च प्रतिश्रुत्य सा कृत्या प्रययौ तदा।
निमेषादगमच्चापि यत्र राजा सुयोधनः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो आज्ञा’ कहकर वह कृत्या तत्काल वहाँसे प्रस्थित हुई और पलक मारते-मारते जहाँ राजा दुर्योधन था, वहाँ पहुँच गयी॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समादाय च राजानं प्रविवेश रसातलम्।
दानवानां मुहूर्ताच्च तमानीतं न्यवेदयत्।
तमानीतं नृपं दृष्ट्वा रात्रौ संगत्य दानवाः ॥ २९ ॥
प्रहृष्टमनसः सर्वे किंचिदुत्फुल्ललोचनाः ।
साभिमानमिदं वाक्यं दुर्योधनमथाब्रुवन् ॥ ३० ॥
मूलम्
समादाय च राजानं प्रविवेश रसातलम्।
दानवानां मुहूर्ताच्च तमानीतं न्यवेदयत्।
तमानीतं नृपं दृष्ट्वा रात्रौ संगत्य दानवाः ॥ २९ ॥
प्रहृष्टमनसः सर्वे किंचिदुत्फुल्ललोचनाः ।
साभिमानमिदं वाक्यं दुर्योधनमथाब्रुवन् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर राजाको साथ ले दो ही घड़ीमें रसातल आ पहुँची; और दानवोंको उसके लाये जानेकी सूचना दे दी। राजा दुर्योधनको लाया गया देख सब दानव रातमें एकत्र हुए। उनके मनमें प्रसन्नता भरी थी और नेत्र हर्षातिरेकसे कुछ खिल उठे थे। उन्होंने दुर्योधनसे अभिमानपूर्वक यह बात कही॥२९-३०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि घोषयात्रापर्वणि दुर्योधनप्रायोपवेशे एकपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत घोषयात्रापर्वमें दुर्योधनप्रायोपवेशनविषयक दो सौ इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२५१॥