भागसूचना
पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कर्णके समझानेपर भी दुर्योधनका आमरण अनशन करनेका ही निश्चय
मूलम् (वचनम्)
कर्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजन्नाद्यावगच्छामि तवेह लघुसत्त्वताम् ।
किमत्र चित्रं यद् वीर मोक्षितः पाण्डवैरसि ॥ १ ॥
सद्यो वशं समापन्नः शत्रूणां शत्रुकर्शन।
मूलम्
राजन्नाद्यावगच्छामि तवेह लघुसत्त्वताम् ।
किमत्र चित्रं यद् वीर मोक्षितः पाण्डवैरसि ॥ १ ॥
सद्यो वशं समापन्नः शत्रूणां शत्रुकर्शन।
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण बोला— राजन्! आज तुम जो यहाँ इतनी लघुताका अनुभव कर रहे हो, इसका कोई कारण मेरी समझमें नहीं आता। शत्रुनाशक वीर! यदि एक बार शत्रुओंके वशमें पड़ जानेपर पाण्डवोंने तुम्हें छुड़ाया है, तो इसमें कौन अद्भुत बात हो गयी?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेनाजीवैश्च कौरव्य तथा विषयवासिभिः ॥ २ ॥
अज्ञातैर्यदि वा ज्ञातैः कर्तव्यं नृपतेः प्रियम्।
मूलम्
सेनाजीवैश्च कौरव्य तथा विषयवासिभिः ॥ २ ॥
अज्ञातैर्यदि वा ज्ञातैः कर्तव्यं नृपतेः प्रियम्।
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! जो राजकीय सेनामें रहकर जीविका चलाते हैं तथा राजाके राज्यमें निवास करते हैं, वे ज्ञात हों या अज्ञात; उनका कर्तव्य है कि वे सदा राजाका प्रिय करें॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रायः प्रधानाः पुरुषाः क्षोभयन्त्यरिवाहिनीम् ॥ ३ ॥
निगृह्यन्ते च युद्धेषु मोक्ष्यन्ते चैव सैनिकैः।
मूलम्
प्रायः प्रधानाः पुरुषाः क्षोभयन्त्यरिवाहिनीम् ॥ ३ ॥
निगृह्यन्ते च युद्धेषु मोक्ष्यन्ते चैव सैनिकैः।
अनुवाद (हिन्दी)
प्रायः देखा जाता है कि प्रधान पुरुष लड़ते-लड़ते शत्रुओंकी सेनाको व्याकुल कर देते हैं। फिर उसी युद्धमें वे बंदी बना लिये जाते हैं और साधारण सैनिकोंकी सहायतासे छूट भी जाते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेनाजीवाश्च ये राज्ञां विषये सन्ति मानवाः ॥ ४ ॥
तैः सङ्गम्य नृपार्थाय यतितव्यं यथातथम्।
मूलम्
सेनाजीवाश्च ये राज्ञां विषये सन्ति मानवाः ॥ ४ ॥
तैः सङ्गम्य नृपार्थाय यतितव्यं यथातथम्।
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य सेनाजीवी हैं अथवा राजाके राज्यमें निवास करते हैं, उन सबको मिलकर अपने राजाके हितके लिये यथोचित प्रयत्न करना चाहिये॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्येवं पाण्डवै राजन् भवद्विषयवासिभिः ॥ ५ ॥
यदृच्छया मोक्षितोऽसि तत्र का परिदेवना।
मूलम्
यद्येवं पाण्डवै राजन् भवद्विषयवासिभिः ॥ ५ ॥
यदृच्छया मोक्षितोऽसि तत्र का परिदेवना।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यदि तुम्हारे राज्यमें निवास करनेवाले पाण्डवोंने इसी नीतिके अनुसार दैववश तुम्हें शत्रुओंके हाथसे छुड़ा दिया है, तो इसमें खेद करनेकी क्या बात है?॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चैतत् साधु यद् राजन् पाण्डवास्त्वां नृपोत्तमम् ॥ ६ ॥
स्वसेनया सम्प्रयान्तं नानुयान्ति स्म पृष्ठतः।
मूलम्
न चैतत् साधु यद् राजन् पाण्डवास्त्वां नृपोत्तमम् ॥ ६ ॥
स्वसेनया सम्प्रयान्तं नानुयान्ति स्म पृष्ठतः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! आप श्रेष्ठ नरेश हैं और अपनी सेनाके साथ वनमें पधारे हैं, ऐसी दशामें यहाँ रहनेवाले पाण्डव यदि आपके पीछे-पीछे न चलते—आपकी सहायता न करते तो यह उनके लिये अच्छी बात न होती॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूराश्च बलवन्तश्च संयुगेष्वपलायिनः ॥ ७ ॥
भवतस्ते सहाया वै प्रेष्यतां पूर्वमागताः।
मूलम्
शूराश्च बलवन्तश्च संयुगेष्वपलायिनः ॥ ७ ॥
भवतस्ते सहाया वै प्रेष्यतां पूर्वमागताः।
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डव शौर्यसम्पन्न, बलवान् तथा युद्धमें पीठ न दिखानेवाले हैं। वे आपके दास तो बहुत पहले ही हो चुके हैं, अतः उन्हें आपका सहायक होना ही चाहिये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवेयानि रत्नानि त्वमद्याप्युपभुञ्जसे ॥ ८ ॥
सत्त्वस्थान् पाण्डवान् पश्य न ते प्रायमुपाविशन्।
(तदलं ते महाबाहो विषादं कर्तुमीदृशम्।)
उत्तिष्ठ राजन् भद्रं ते न चिरं कर्तुमर्हसि ॥ ९ ॥
मूलम्
पाण्डवेयानि रत्नानि त्वमद्याप्युपभुञ्जसे ॥ ८ ॥
सत्त्वस्थान् पाण्डवान् पश्य न ते प्रायमुपाविशन्।
(तदलं ते महाबाहो विषादं कर्तुमीदृशम्।)
उत्तिष्ठ राजन् भद्रं ते न चिरं कर्तुमर्हसि ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डवोंके पास जितने रत्न थे, उन सबका उपभोग आज तुम्हीं कर रहे हो; तथापि देखो, पाण्डव कितने धैर्यवान् हैं कि उन्होंने कभी आमरण अनशन नहीं किया। अतः महाबाहो! तुम्हारे इस प्रकार विषाद करनेसे कोई लाभ नहीं है। राजन्! उठो, तुम्हारा कल्याण हो। अब यहाँ अधिक विलम्ब नहीं करना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवश्यमेव नृपते राज्ञो विषयवासिभिः।
प्रियाण्याचरितव्यानि तत्र का परिदेवना ॥ १० ॥
मूलम्
अवश्यमेव नृपते राज्ञो विषयवासिभिः।
प्रियाण्याचरितव्यानि तत्र का परिदेवना ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! राजाके राज्यमें निवास करनेवाले लोगोंको अवश्य ही उसके प्रिय कार्य करने चाहिये। अतः इसके लिये पछताने या विलाप करनेकी क्या बात है?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मद्वाक्यमेतद् राजेन्द्र यद्येवं न करिष्यसि।
स्थास्यामीह भवत्पादौ शुश्रूषन्नरिमर्दन ॥ ११ ॥
मूलम्
मद्वाक्यमेतद् राजेन्द्र यद्येवं न करिष्यसि।
स्थास्यामीह भवत्पादौ शुश्रूषन्नरिमर्दन ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंका मान मर्दन करनेवाले महाराज! यदि तुम मेरी यह बात नहीं मानोगे तो मैं भी तुम्हारे चरणोंकी सेवा करता हुआ यहीं रह जाऊँगा॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नोत्सहे जीवितुमहं त्वद्विहीनो नरर्षभ।
प्रायोपविष्टस्तु नृप राज्ञां हास्यो भविष्यसि ॥ १२ ॥
मूलम्
नोत्सहे जीवितुमहं त्वद्विहीनो नरर्षभ।
प्रायोपविष्टस्तु नृप राज्ञां हास्यो भविष्यसि ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! तुमसे अलग होकर मैं जीवित नहीं रहना चाहता। राजन्! आमरण अनशनके लिये बैठ जानेपर तुम समस्त राजाओंके उपहासपात्र हो जाओगे॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु कर्णेन राजा दुर्योधनस्तदा।
नैवोत्थातुं मनश्चक्रे स्वर्गाय कृतनिश्चयः ॥ १३ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु कर्णेन राजा दुर्योधनस्तदा।
नैवोत्थातुं मनश्चक्रे स्वर्गाय कृतनिश्चयः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! कर्णके ऐसा कहनेपर राजा दुर्योधनने स्वर्गलोकमें ही जानेका निश्चय करके उस समय उठनेका विचार नहीं किया॥१३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि घोषयात्रापर्वणि दुर्योधनप्रायोपवेशे कर्णवाक्ये पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत घोषयात्रापर्वमें दुर्योधनप्रायोपवेशनके प्रसंगमें कर्णवाक्यसम्बन्धी दो सौ पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२५०॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल १३ श्लोक हैं)