भागसूचना
एकोनपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दुर्योधनका कर्णसे अपनी ग्लानिका वर्णन करते हुए आमरण अनशनका निश्चय, दुःशासनको राजा बननेका आदेश, दुःशासनका दुःख और कर्णका दुर्योधनको समझाना
मूलम् (वचनम्)
दुर्योधन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्रसेनं समागम्य प्रहसन्नर्जुनस्तदा ।
इदं वचनमक्लीबमब्रवीत् परवीरहा ॥ १ ॥
मूलम्
चित्रसेनं समागम्य प्रहसन्नर्जुनस्तदा ।
इदं वचनमक्लीबमब्रवीत् परवीरहा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधन बोला— कर्ण! चित्रसेनसे मिलकर उस समय शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले अर्जुनने हँसते हुए-से यह शूरोचित वचन कहा—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातॄनर्हसि मे वीर मोक्तुं गन्धर्वसत्तम।
अनर्हधर्षणा हीमे जीवमानेषु पाण्डुषु ॥ २ ॥
मूलम्
भ्रातॄनर्हसि मे वीर मोक्तुं गन्धर्वसत्तम।
अनर्हधर्षणा हीमे जीवमानेषु पाण्डुषु ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीर गन्धर्वश्रेष्ठ! तुम्हें मेरे इन भाइयोंको मुक्त कर देना चाहिये। पाण्डवोंके जीते-जी ये इस प्रकार अपमान सहन करनेयोग्य नहीं हैं’॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु गन्धर्वः पाण्डवेन महात्मना।
उवाच यत् कर्ण वयं मन्त्रयन्तो विनिर्गताः ॥ ३ ॥
द्रष्टारः स्म सुखाद्धीनान् सदारान् पाण्डवानिति।
मूलम्
एवमुक्तस्तु गन्धर्वः पाण्डवेन महात्मना।
उवाच यत् कर्ण वयं मन्त्रयन्तो विनिर्गताः ॥ ३ ॥
द्रष्टारः स्म सुखाद्धीनान् सदारान् पाण्डवानिति।
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण! महात्मा पाण्डुनन्दन अर्जुनके ऐसा कहनेपर गन्धर्वने वह बात कह दी, जिसके लिये सलाह करके हमलोग घरसे चले थे। उसने बताया कि ‘ये कौरव सुखसे वञ्चित हुए पाण्डवों तथा द्रौपदीकी दुर्दशा देखनेके लिये आये हैं’॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन्नुच्चार्यमाणे तु गन्धर्वेण वचस्तथा ॥ ४ ॥
भूमेर्विवरमन्वैच्छं प्रवेष्टुं व्रीडयान्वितः ।
मूलम्
तस्मिन्नुच्चार्यमाणे तु गन्धर्वेण वचस्तथा ॥ ४ ॥
भूमेर्विवरमन्वैच्छं प्रवेष्टुं व्रीडयान्वितः ।
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय गन्धर्व उपर्युक्त बात कह रहा था, उस समय मैं (अत्यन्त) लज्जित हो गया। मेरी इच्छा हुई कि धरती फटे और मैं उसमें समा जाऊँ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरमथागम्य गन्धर्वाः सह पाण्डवैः ॥ ५ ॥
अस्मद्दुर्मन्त्रितं तस्मै बद्धांश्चास्मान् न्यवेदयन्।
मूलम्
युधिष्ठिरमथागम्य गन्धर्वाः सह पाण्डवैः ॥ ५ ॥
अस्मद्दुर्मन्त्रितं तस्मै बद्धांश्चास्मान् न्यवेदयन्।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् गन्धर्वोंने पाण्डवोंके साथ युधिष्ठिरके पास आकर हमलोगोंकी दुर्मन्त्रणा उन्हें बतायी और हमें उनके सुपुर्द कर दिया। उस समय हम सब लोग बँधे हुए थे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रीसमक्षमहं दीनो बद्धः शत्रुवशं गतः ॥ ६ ॥
युधिष्ठिरस्योपहृतः किं नु दुःखमतः परम्।
मूलम्
स्त्रीसमक्षमहं दीनो बद्धः शत्रुवशं गतः ॥ ६ ॥
युधिष्ठिरस्योपहृतः किं नु दुःखमतः परम्।
अनुवाद (हिन्दी)
स्त्रियोंके सामने मैं दीनभावसे बँधकर शत्रुओंके वशमें पड़ गया और उसी दशामें युधिष्ठिरको अर्पित किया गया। इससे बढ़कर दुःखकी बात और क्या हो सकती है?॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये मे निराकृता नित्यं रिपुर्येषामहं सदा ॥ ७ ॥
तैर्मोक्षितोऽहं दुर्बुद्धिर्दत्तं तैरेव जीवितम्।
मूलम्
ये मे निराकृता नित्यं रिपुर्येषामहं सदा ॥ ७ ॥
तैर्मोक्षितोऽहं दुर्बुद्धिर्दत्तं तैरेव जीवितम्।
अनुवाद (हिन्दी)
जिनका मैंने सदा तिरस्कार किया और जिनका मैं सर्वदा शत्रु बना रहा, उन्हीं लोगोंने मुझ दुर्बुद्धिको शत्रुओंके बन्धनसे छुड़ाया है और उन्होंने ही मुझे जीवनदान दिया है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्तः स्यां यद्यहं वीर वधं तस्मिन् महारणे ॥ ८ ॥
श्रेयस्तद् भविता मह्यं नैवंभूतस्य जीवितम्।
मूलम्
प्राप्तः स्यां यद्यहं वीर वधं तस्मिन् महारणे ॥ ८ ॥
श्रेयस्तद् भविता मह्यं नैवंभूतस्य जीवितम्।
अनुवाद (हिन्दी)
वीर! यदि मैं उस महायुद्धमें मारा गया होता तो यह मेरे लिये कल्याणकारी होता; परंतु इस दशामें जीवित रहना कदापि अच्छा नहीं है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवेद् यशः पृथिव्यां मे ख्यातं गन्धर्वतो वधात् ॥ ९ ॥
प्राप्ताश्च पुण्यलोकाः स्युर्महेन्द्रसदनेऽक्षयाः ।
मूलम्
भवेद् यशः पृथिव्यां मे ख्यातं गन्धर्वतो वधात् ॥ ९ ॥
प्राप्ताश्च पुण्यलोकाः स्युर्महेन्द्रसदनेऽक्षयाः ।
अनुवाद (हिन्दी)
गन्धर्वके हाथसे मारे जानेपर इस भूमण्डलमें मेरा यश विख्यात हो जाता और इन्द्रलोकमें मुझे अक्षय पुण्यधाम प्राप्त होते॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् त्वद्य मे व्यवसितं तच्छृणुध्वं नरर्षभाः ॥ १० ॥
इह प्रायमुपासिष्ये यूयं व्रजत वै गृहान्।
मूलम्
यत् त्वद्य मे व्यवसितं तच्छृणुध्वं नरर्षभाः ॥ १० ॥
इह प्रायमुपासिष्ये यूयं व्रजत वै गृहान्।
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ वीरो! अब मैंने जो निश्चय किया है, उसे सुनो। मैं यहाँ आमरण अनशन करूँगा। तुम सब लोग घर लौट जाओ॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातरश्चैव मे सर्वे यान्त्वद्य स्वपुरं प्रति ॥ ११ ॥
कर्णप्रभृतयश्चैव सुहृदो बान्धवाश्च ये।
दुःशासनं पुरस्कृत्य प्रयान्त्वद्य पुरं प्रति ॥ १२ ॥
मूलम्
भ्रातरश्चैव मे सर्वे यान्त्वद्य स्वपुरं प्रति ॥ ११ ॥
कर्णप्रभृतयश्चैव सुहृदो बान्धवाश्च ये।
दुःशासनं पुरस्कृत्य प्रयान्त्वद्य पुरं प्रति ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे सब भाई आज अपनी राजधानीको चले जायँ। कर्ण आदि मेरे मित्र तथा बान्धवगण भी दुःशासनको आगे करके आज ही हस्तिनापुरको लौट जायँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यहं सम्प्रयास्यामि पुरं शत्रुनिराकृतः।
शत्रुमानापहो भूत्वा सुहृदां मानकृत् तथा ॥ १३ ॥
मूलम्
न ह्यहं सम्प्रयास्यामि पुरं शत्रुनिराकृतः।
शत्रुमानापहो भूत्वा सुहृदां मानकृत् तथा ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंसे अपमानित होकर अब मैं अपने नगरको नहीं जाऊँगा। अबतक मैंने शत्रुओंका मानमर्दन किया है और सुहृदोंको सम्मान दिया है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सुहृच्छोकदो जातः शत्रूणां हर्षवर्धनः।
वारणाह्वयमासाद्य किं वक्ष्यामि जनाधिपम् ॥ १४ ॥
मूलम्
स सुहृच्छोकदो जातः शत्रूणां हर्षवर्धनः।
वारणाह्वयमासाद्य किं वक्ष्यामि जनाधिपम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु आज मैं अपने सुहृदोंके लिये शोकदायक और शत्रुओंका हर्ष बढ़ानेवाला हो गया। हस्तिनापुर जाकर मैं राजासे क्या कहूँगा?॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीष्मद्रोणौ कृपद्रौणी विदुरः संजयस्तथा।
बाह्लीकः सौमदत्तिश्च ये चान्ये वृद्धसम्मताः ॥ १५ ॥
ब्राह्मणाः श्रेणिमुख्याश्च तथोदासीनवृत्तयः ।
किं मां वक्ष्यन्ति किं चापि प्रतिवक्ष्यामि तानहम् ॥ १६ ॥
मूलम्
भीष्मद्रोणौ कृपद्रौणी विदुरः संजयस्तथा।
बाह्लीकः सौमदत्तिश्च ये चान्ये वृद्धसम्मताः ॥ १५ ॥
ब्राह्मणाः श्रेणिमुख्याश्च तथोदासीनवृत्तयः ।
किं मां वक्ष्यन्ति किं चापि प्रतिवक्ष्यामि तानहम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विदुर, संजय, बाह्लीक, भूरिश्रवा तथा अन्य जो वृद्ध पुरुषोंके लिये आदरणीय महानुभाव हैं वे, तथा ब्राह्मण, प्रमुख वैश्यगण और उदासीन वृत्तिवाले लोग मुझसे क्या कहेंगे और मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगा?॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रिपूणां शिरसि स्थित्वा तथा विक्रम्य चोरसि।
आत्मदोषात् परिभ्रष्टः कथं वक्ष्यामि तानहम् ॥ १७ ॥
मूलम्
रिपूणां शिरसि स्थित्वा तथा विक्रम्य चोरसि।
आत्मदोषात् परिभ्रष्टः कथं वक्ष्यामि तानहम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं पराक्रम करके शत्रुओंके मस्तक तथा छातीपर खड़ा हो गया था; परंतु अब अपने ही दोषसे नीचे गिर गया। ऐसी दशामें उन आदरणीय पुरुषोंसे मैं किस प्रकार वार्तालाप करूँगा?॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्विनीताः श्रियं प्राप्य विद्यामैश्वर्यमेव च।
तिष्ठन्ति न चिरं भद्रे यथाहं मदगर्वितः ॥ १८ ॥
मूलम्
दुर्विनीताः श्रियं प्राप्य विद्यामैश्वर्यमेव च।
तिष्ठन्ति न चिरं भद्रे यथाहं मदगर्वितः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्दण्ड मनुष्य लक्ष्मी, विद्या तथा ऐश्वर्यको पाकर भी दीर्घकालतक कल्याणमय पदपर प्रतिष्ठित नहीं रह पाते हैं। जैसे मैं मद और अहंकारमें चूर होकर अपनी प्रतिष्ठा खो बैठा हूँ॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो नार्हमिदं कर्म कष्टं दुश्चरितं कृतम्।
स्वयं दुर्बुद्धिना मोहाद् येन प्राप्तोऽस्मि संशयम् ॥ १९ ॥
मूलम्
अहो नार्हमिदं कर्म कष्टं दुश्चरितं कृतम्।
स्वयं दुर्बुद्धिना मोहाद् येन प्राप्तोऽस्मि संशयम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहो! यह कुकर्म मेरे योग्य नहीं था। मुझ दुर्बुद्धिने स्वयं ही मोहवश दुःखदायक दुष्कर्म कर डाला; जिससे (गन्धर्वोंका बंदी हो जानेके कारण) मेरा जीवन संदिग्ध हो गया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् प्रायमुपासिष्ये न हि शक्ष्यामि जीवितुम्।
चेतयानो हि को जीवेत् कृच्छ्राच्छत्रुभिरुद्धृतः ॥ २० ॥
मूलम्
तस्मात् प्रायमुपासिष्ये न हि शक्ष्यामि जीवितुम्।
चेतयानो हि को जीवेत् कृच्छ्राच्छत्रुभिरुद्धृतः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये मैं (अवश्य) आमरण उपवास करूँगा। अब जीवित नहीं रह सकूँगा। जिसका शत्रुओंने संकटसे उद्धार किया हो, ऐसा कौन विचारशील पुरुष जीवित रहना चाहेगा?॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शत्रुभिश्चावहसितो मानी पौरुषवर्जितः ।
पाण्डवैर्विक्रमाढ्यैश्च सावमानमवेक्षितः ॥ २१ ॥
मूलम्
शत्रुभिश्चावहसितो मानी पौरुषवर्जितः ।
पाण्डवैर्विक्रमाढ्यैश्च सावमानमवेक्षितः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंने मेरी हँसी उड़ायी है। मुझे अपने पौरुषका अभिमान था; किंतु यहाँ मैं कोई पुरुषार्थ न दिखा सका। पराक्रमी पाण्डवोंने अवहेलनापूर्ण दृष्टिसे मुझे देखा है। (ऐसी दशामें मुझे इस जीवनसे विरक्ति हो गयी है)॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं चिन्तापरिगतो दुःशासनमथाब्रवीत् ।
दुःशासन निबोधेदं वचनं मम भारत ॥ २२ ॥
मूलम्
एवं चिन्तापरिगतो दुःशासनमथाब्रवीत् ।
दुःशासन निबोधेदं वचनं मम भारत ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार चिन्तामग्न हुए दुर्योधनने दुःशासनसे कहा—‘भरतनन्दन दुःशासन! मेरी यह बात सुनो—॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतीच्छ त्वं मया दत्तमभिषेकं नृपो भव।
प्रशाधि पृथिवीं स्फीतां कर्णसौबलपालिताम् ॥ २३ ॥
मूलम्
प्रतीच्छ त्वं मया दत्तमभिषेकं नृपो भव।
प्रशाधि पृथिवीं स्फीतां कर्णसौबलपालिताम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं तुम्हारा राज्याभिषेक करता हूँ। तुम मेरे दिये हुए इस राज्यको ग्रहण करो और राजा बनो। कर्ण और शकुनिकी सहायतासे सुरक्षित एवं धन-धान्यसे समृद्ध इस पृथ्वीका शासन करो॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातॄन् पालय विस्रब्धं मरुतो वृत्रहा यथा।
बान्धवाश्चोपजीवन्तु देवा इव शतक्रुतुम् ॥ २४ ॥
मूलम्
भ्रातॄन् पालय विस्रब्धं मरुतो वृत्रहा यथा।
बान्धवाश्चोपजीवन्तु देवा इव शतक्रुतुम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे इन्द्र मरुद्गणोंकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार तुम अपने अन्य भाइयोंका विश्वासपूर्वक पालन करना। जैसे देवता इन्द्रके आश्रित रहकर जीवननिर्वाह करते हैं, उसी प्रकार तुम्हारे बान्धवजन भी तुम्हारा आश्रय लेकर जीविका चलावें॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणेषु सदा वृत्तिं कुर्वीथाश्चाप्रमादतः।
बन्धूनां सुहृदां चैव भवेथास्त्वं गतिः सदा ॥ २५ ॥
मूलम्
ब्राह्मणेषु सदा वृत्तिं कुर्वीथाश्चाप्रमादतः।
बन्धूनां सुहृदां चैव भवेथास्त्वं गतिः सदा ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रमाद छोड़कर सदा ब्राह्मणोंकी जीविकाकी व्यवस्था एवं रक्षा करना। बन्धुओं तथा सुहृदोंको सदैव सहारा देते रहना॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञातींश्चाप्यनुपश्येथा विष्णुर्देवगणान् यथा ।
गुरवः पालनीयास्ते गच्छ पालय मेदिनीम् ॥ २६ ॥
नन्दयन् सुहृदः सर्वान् शात्रवांश्चावभर्त्सयन्।
कण्ठे चैनं परिष्वज्य गम्यतामित्युवाच ह ॥ २७ ॥
मूलम्
ज्ञातींश्चाप्यनुपश्येथा विष्णुर्देवगणान् यथा ।
गुरवः पालनीयास्ते गच्छ पालय मेदिनीम् ॥ २६ ॥
नन्दयन् सुहृदः सर्वान् शात्रवांश्चावभर्त्सयन्।
कण्ठे चैनं परिष्वज्य गम्यतामित्युवाच ह ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे भगवान् विष्णु देवताओंपर कृपादृष्टि रखते हैं, उसी प्रकार तुम भी अपने कुटुम्बीजनोंकी देखभाल करते रहना और गुरुजनोंका सदैव पालन करना। अच्छा, अब जाओ और समस्त सुहृदोंका आनन्द बढ़ाते तथा शत्रुओंकी भर्त्सना करते हुए अपनी अधिकृत भूमिकी रक्षा करो।’ ऐसा कहकर दुर्योधनने दुःशासनको गलेसे लगा लिया और गद्गद कण्ठसे कहा—‘जाओ’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा दीनो दुःशासनोऽब्रवीत्।
अश्रुकण्ठः सुदुःखार्तः प्राञ्जलिः प्रणिपत्य च ॥ २८ ॥
सगद्गदमिदं वाक्यं भ्रातरं ज्येष्ठमात्मनः।
प्रसीदेत्यपतद् भूमौ दूयमानेन चेतसा ॥ २९ ॥
दुःखितः पादयोस्तस्य नेत्रजं जलमुत्सृजन्।
उक्तवांश्च नरव्याघ्रो नैतदेवं भविष्यति ॥ ३० ॥
मूलम्
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा दीनो दुःशासनोऽब्रवीत्।
अश्रुकण्ठः सुदुःखार्तः प्राञ्जलिः प्रणिपत्य च ॥ २८ ॥
सगद्गदमिदं वाक्यं भ्रातरं ज्येष्ठमात्मनः।
प्रसीदेत्यपतद् भूमौ दूयमानेन चेतसा ॥ २९ ॥
दुःखितः पादयोस्तस्य नेत्रजं जलमुत्सृजन्।
उक्तवांश्च नरव्याघ्रो नैतदेवं भविष्यति ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधनकी यह बात सुनकर दुःशासनका गला भर आया। वह अत्यन्त दुःखसे आतुर हो दीनभावसे हाथ जोड़कर अपने बड़े भाईके चरणोंमें गिर पड़ा और गद्गद वाणीमें व्यथित चित्तसे इस प्रकार बोला—‘भैया! आप प्रसन्न हों?’ ऐसा कहकर वह धरतीपर लोट गया और दुःखसे कातर हो दुर्योधनके दोनों चरणोंमें अपने नेत्रोंका अश्रुजल चढ़ाता हुआ नरश्रेष्ठ दुःशासन यों बोला—‘नहीं, ऐसा नहीं होगा॥२८—३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदीर्येत् सकला भूमिर्द्यौश्चापि शकलीभवेत्।
रविरात्मप्रभां जह्यात् सोमः शीतांशुतां त्यजेत् ॥ ३१ ॥
वायुः शैघ्र्यमथो जह्याद्धिमवांश्च परिव्रजेत्।
शुष्येत् तोयं समुद्रेषु वह्निरप्युष्णतां त्यजेत् ॥ ३२ ॥
न चाहं त्वदृते राजन् प्रशासेयं वसुन्धराम्।
पुनः पुनः प्रसीदेति वाक्यं चेदमुवाच ह ॥ ३३ ॥
मूलम्
विदीर्येत् सकला भूमिर्द्यौश्चापि शकलीभवेत्।
रविरात्मप्रभां जह्यात् सोमः शीतांशुतां त्यजेत् ॥ ३१ ॥
वायुः शैघ्र्यमथो जह्याद्धिमवांश्च परिव्रजेत्।
शुष्येत् तोयं समुद्रेषु वह्निरप्युष्णतां त्यजेत् ॥ ३२ ॥
न चाहं त्वदृते राजन् प्रशासेयं वसुन्धराम्।
पुनः पुनः प्रसीदेति वाक्यं चेदमुवाच ह ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘चाहे सारी पृथ्वी फट जाय, आकाशके टुकड़े-टुकड़े हो जायँ, सूर्य अपनी प्रभा और चन्द्रमा अपनी शीतलता त्याग दें, वायु अपनी तीव्र गति छोड़ दें, हिमालय अपना स्थान छोड़कर इधर-उधर घूमने लगे, समुद्रका जल सूख जाय तथा अग्नि अपनी उष्णता त्याग दे; परंतु मैं आपके बिना इस पृथ्वीका शासन नहीं करूँगा। राजन्! अब आप प्रसन्न हो जाइये, प्रसन्न हो जाइये।’ इस अन्तिम वाक्यको दुःशासनने बार-बार दुहराया और इस प्रकार कहा—॥३१—३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमेव नः कुले राजा भविष्यसि शतं समाः।
एवमुक्त्वा स राजानं सुस्वरं प्ररुरोद ह ॥ ३४ ॥
पादौ संस्पृश्य मानार्हौ भ्रातुर्ज्येष्ठस्य भारत।
मूलम्
त्वमेव नः कुले राजा भविष्यसि शतं समाः।
एवमुक्त्वा स राजानं सुस्वरं प्ररुरोद ह ॥ ३४ ॥
पादौ संस्पृश्य मानार्हौ भ्रातुर्ज्येष्ठस्य भारत।
अनुवाद (हिन्दी)
‘भैया! आप ही हमारे कुलमें सौ वर्षोंतक राजा बने रहेंगे।’ जनमेजय! ऐसा कहकर दुःशासन अपने बड़े भाईके माननीय चरणोंको पकड़कर फूट-फूटकर रोने लगा॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा तौ दुःखितौ दृष्ट्वा दुःशासनसुयोधनौ ॥ ३५ ॥
अधिगम्य व्यथाविष्टः कर्णस्तौ प्रत्यभाषत।
मूलम्
तथा तौ दुःखितौ दृष्ट्वा दुःशासनसुयोधनौ ॥ ३५ ॥
अधिगम्य व्यथाविष्टः कर्णस्तौ प्रत्यभाषत।
अनुवाद (हिन्दी)
दुःशासन और दुर्योधनको इस प्रकार दुःखी होते देख कर्णके मनमें बड़ी व्यथा हुई। उसने निकट जाकर उन दोनोंसे कहा—॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विषीदथः किं कौरव्यौ बालिश्यात् प्राकृताविव ॥ ३६ ॥
न शोकः शोचमानस्य विनिवर्तेत कर्हिचित्।
मूलम्
विषीदथः किं कौरव्यौ बालिश्यात् प्राकृताविव ॥ ३६ ॥
न शोकः शोचमानस्य विनिवर्तेत कर्हिचित्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुरुकुलके श्रेष्ठ वीरो! तुम दोनों गँवारोंकी तरह नासमझीके कारण इतना विषाद क्यों कर रहे हो? शोकमें डूबे रहनेसे किसी मनुष्यका शोक कभी निवृत्त नहीं होता॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा च शोचतः शोको व्यसनं नापकर्षति ॥ ३७ ॥
सामर्थ्यं किं ततः शोके शोचमानौ प्रपश्यथः।
धृतिं गृह्णीत मा शत्रून् शोचन्तौ नन्दयिष्यथः ॥ ३८ ॥
मूलम्
यदा च शोचतः शोको व्यसनं नापकर्षति ॥ ३७ ॥
सामर्थ्यं किं ततः शोके शोचमानौ प्रपश्यथः।
धृतिं गृह्णीत मा शत्रून् शोचन्तौ नन्दयिष्यथः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब शोक करनेवालेका शोक उसपर आये हुए संकटको टाल नहीं सकता है, तब उसमें क्या सामर्थ्य है? यह तुम दोनों भाई शोक करके प्रत्यक्ष देख रहे हो। अतः धैर्य धारण करो। शोक करके तो शत्रुओंका हर्ष ही बढ़ाओगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्तव्यं हि कृतं राजन् पाण्डवैस्तव मोक्षणम्।
नित्यमेव प्रियं कार्यं राज्ञो विषयवासिभिः ॥ ३९ ॥
मूलम्
कर्तव्यं हि कृतं राजन् पाण्डवैस्तव मोक्षणम्।
नित्यमेव प्रियं कार्यं राज्ञो विषयवासिभिः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! पाण्डवोंने गन्धर्वोंके हाथसे तुम्हें छुड़ाकर अपने कर्तव्यका ही पालन किया है। राजाके राज्यमें रहनेवालोंको सदा ही उसका प्रिय करना चाहिये॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाल्यमानास्त्वया ते हि निवसन्ति गतज्वराः।
नार्हस्येवंगते मन्युं कर्तुं प्राकृतवद् यथा ॥ ४० ॥
मूलम्
पाल्यमानास्त्वया ते हि निवसन्ति गतज्वराः।
नार्हस्येवंगते मन्युं कर्तुं प्राकृतवद् यथा ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुमसे सुरक्षित होकर वे यहाँ निश्चिन्ततापूर्वक निवास कर रहे हैं। ऐसी दशामें तुम्हें निम्न कोटिके मनुष्योंकी तरह दीनतापूर्ण खेद नहीं करना चाहिये॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विषण्णास्तव सोदर्यास्त्वयि प्रायं समास्थिते।
(तदलं दुःखितानेतान् कर्तुं सर्वान् नराधिप॥)
उत्तिष्ठ व्रज भद्रं ते समाश्वासय सोदरान् ॥ ४१ ॥
मूलम्
विषण्णास्तव सोदर्यास्त्वयि प्रायं समास्थिते।
(तदलं दुःखितानेतान् कर्तुं सर्वान् नराधिप॥)
उत्तिष्ठ व्रज भद्रं ते समाश्वासय सोदरान् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! तुम आमरण उपवासका व्रत लेकर बैठे हो और इधर तुम्हारे सगे भाई शोक एवं विषादमें डूबे हुए हैं। बस, इन सबको दुःखी करनेसे कोई लाभ नहीं है। तुम्हारा भला हो। उठो, चलो और अपने भाइयोंको आश्वासन दो’॥४१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि घोषयात्रापर्वणि दुर्योधनप्रायोपवेशे एकोनपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २४९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत घोषयात्रापर्वमें दुर्योधनप्रायोपवेशनविषयक दो सौ उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२४९॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ४१ श्लोक हैं)