भागसूचना
त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरका भीमसेनको गन्धर्वोंके हाथसे कौरवोंको छुड़ानेका आदेश और इसके लिये अर्जुनकी प्रतिज्ञा
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मानभिगतांस्तात भयार्ताञ्छरणैषिणः ।
कौरवान् विषमप्राप्तान् कथं ब्रूयास्त्वमीदृशम् ॥ १ ॥
मूलम्
अस्मानभिगतांस्तात भयार्ताञ्छरणैषिणः ।
कौरवान् विषमप्राप्तान् कथं ब्रूयास्त्वमीदृशम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— तात! ये लोग भयसे पीड़ित हो शरण लेनेकी इच्छासे हमारे पास आये हैं। इस समय कौरव भारी संकटमें पड़ गये हैं। फिर तुम ऐसी कड़वी बात कैसे बोल रहे हो?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवन्ति भेदा ज्ञातीनां कलहाश्च वृकोदर।
प्रसक्तानि च वैराणि कुलधर्मो न नश्यति ॥ २ ॥
मूलम्
भवन्ति भेदा ज्ञातीनां कलहाश्च वृकोदर।
प्रसक्तानि च वैराणि कुलधर्मो न नश्यति ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन! ज्ञाति अर्थात् भाई-बन्धुओंमें मतभेद और लड़ाई-झगड़े होते ही रहते हैं। कभी-कभी उनमें वैर भी बँध जाते हैं; परंतु इससे कुलका धर्म यानी अपनापन नष्ट नहीं होता॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा तु कश्चिज्ज्ञातीनां बाह्यः पोथयते कुलम्।
न मर्षयन्ति तत् सन्तो बाह्येनाभिप्रधर्षणम् ॥ ३ ॥
मूलम्
यदा तु कश्चिज्ज्ञातीनां बाह्यः पोथयते कुलम्।
न मर्षयन्ति तत् सन्तो बाह्येनाभिप्रधर्षणम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब कोई बाहरका मनुष्य उनके कुलपर आक्रमण करता है, तब श्रेष्ठ पुरुष उस बाहरी मनुष्यके द्वारा होनेवाले अपने कुलके तिरस्कारको नहीं सहन करते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(परैः परिभवे प्राप्ते वयं पञ्चोत्तरं शतम्।
परस्परविरोधे तु वयं पञ्च शतं तु ते॥)
जानात्येष हि दुर्बुद्धिरस्मानिह चिरोषितान्।
स एवं परिभूयास्मानकार्षीदिदमप्रियम् ॥ ४ ॥
मूलम्
(परैः परिभवे प्राप्ते वयं पञ्चोत्तरं शतम्।
परस्परविरोधे तु वयं पञ्च शतं तु ते॥)
जानात्येष हि दुर्बुद्धिरस्मानिह चिरोषितान्।
स एवं परिभूयास्मानकार्षीदिदमप्रियम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरोंके द्वारा पराभव प्राप्त होनेपर उसका सामना करनेके लिये हमलोग एक सौ पाँच भाई हैं। आपसमें विरोध होनेपर ही हम पाँच भाई अलग हैं और वे सौ भाई अलग। यह खोटी बुद्धिवाला गन्धर्व जानता है कि हम (पाण्डव) दीर्घकालसे यहाँ रह रहे हैं, तो भी इस प्रकार हमारा तिरस्कार करके इस चित्रसेन गन्धर्वने यह अप्रिय कार्य किया है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनस्य ग्रहणाद् गन्धर्वेण बलात् प्रभो।
स्त्रीणां बाह्याभिमर्शाच्च हतं भवति नः कुलम् ॥ ५ ॥
मूलम्
दुर्योधनस्य ग्रहणाद् गन्धर्वेण बलात् प्रभो।
स्त्रीणां बाह्याभिमर्शाच्च हतं भवति नः कुलम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शक्तिशाली भीम! गन्धर्वके द्वारा बलपूर्वक दुर्योधनके पकड़े जानेसे और एक बाहरी पुरुषके द्वारा कुरुकुलकी स्त्रियोंका अपहरण होनेसे हमारे कुलका जो तिरस्कार हुआ है, वह कुलके लिये मृत्युके तुल्य है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरणं च प्रपन्नानां त्राणार्थं च कुलस्य च।
उत्तिष्ठत नरव्याघ्राः सज्जीभवत मा चिरम् ॥ ६ ॥
मूलम्
शरणं च प्रपन्नानां त्राणार्थं च कुलस्य च।
उत्तिष्ठत नरव्याघ्राः सज्जीभवत मा चिरम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ वीरो! शरणागतोंकी रक्षा करने और कुलकी लाज बचानेके लिये तुमलोग शीघ्र उठो और युद्धके लिये तैयार हो जाओ, विलम्ब न करो॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनश्च यमौ चैव त्वं च वीरापराजितः।
मोक्षयध्वं नरव्याघ्रा ह्रियमाणं सुयोधनम् ॥ ७ ॥
मूलम्
अर्जुनश्च यमौ चैव त्वं च वीरापराजितः।
मोक्षयध्वं नरव्याघ्रा ह्रियमाणं सुयोधनम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर! अर्जुन, नकुल, सहदेव और तुम किसीसे परास्त होनेवाले नहीं हो। नरवीरो! गन्धर्वोंद्वारा अपहृत होनेवाले दुर्योधनको छुड़ा लाओ॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते रथा नरव्याघ्राः सर्वशस्त्रसमन्विताः।
धृतराष्ट्रस्य पुत्राणां विमलाः काञ्चनध्वजाः ॥ ८ ॥
सस्वनानधिरोहध्वं नित्यसज्जानिमान् रथान् ।
इन्द्रसेनादिभिः सूतैः कृतशस्त्रैरधिष्ठितान् ॥ ९ ॥
एतानास्थाय वै यत्ता गन्धर्वान् योद्धुमाहवे।
सुयोधनस्य मोक्षाय प्रयतध्वमतन्द्रिताः ॥ १० ॥
मूलम्
एते रथा नरव्याघ्राः सर्वशस्त्रसमन्विताः।
धृतराष्ट्रस्य पुत्राणां विमलाः काञ्चनध्वजाः ॥ ८ ॥
सस्वनानधिरोहध्वं नित्यसज्जानिमान् रथान् ।
इन्द्रसेनादिभिः सूतैः कृतशस्त्रैरधिष्ठितान् ॥ ९ ॥
एतानास्थाय वै यत्ता गन्धर्वान् योद्धुमाहवे।
सुयोधनस्य मोक्षाय प्रयतध्वमतन्द्रिताः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरसिंहो! कौरवोंके ये सुनहरी ध्वजावाले निर्मल रथ सामने खड़े हैं। इनमें सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र मौजूद हैं। इनके चलनेपर भारी आवाज होती है। ये रथ सदा सुसज्जित रहते हैं। शस्त्रविद्यामें निपुण इन्द्रसेन आदि सारथि इनपर बैठे हुए हैं। तुमलोग इन रथोंपर आरूढ़ हो गन्धर्वोंसे युद्ध करनेके लिये तैयार हो जाओ और सावधान होकर दुर्योधनको छुड़ानेका प्रयत्न करो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एव कश्चिद् राजन्यः शरणार्थमिहागतम्।
परं शक्त्याभिरक्षेत किं पुनस्त्वं वृकोदर ॥ ११ ॥
मूलम्
य एव कश्चिद् राजन्यः शरणार्थमिहागतम्।
परं शक्त्याभिरक्षेत किं पुनस्त्वं वृकोदर ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन! जो कोई साधारण क्षत्रिय भी क्यों न हो, शरण लेनेके लिये आये हुए मनुष्यकी यथाशक्ति रक्षा करता है। फिर तुम-जैसे वीर पुरुष शरणागतकी रक्षा करें, इसके लिये तो कहना ही क्या है?॥११॥
मूलम् (वचनम्)
(वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु कौन्तेयः पुनर्वाक्यमभाषत ।
कोपसंरक्तनयनः पूर्ववैरमनुस्मरन् ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु कौन्तेयः पुनर्वाक्यमभाषत ।
कोपसंरक्तनयनः पूर्ववैरमनुस्मरन् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर कुन्तीकुमार भीमसेन पहलेके वैरका स्मरण करते हुए क्रोधसे आँखें लाल करके फिर इस प्रकार बोले।
मूलम् (वचनम्)
भीम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा जतुगृहेऽनेन दग्धुमस्मान् युधिष्ठिर।
दुर्बुद्धिर्हि कृता वीर भृशं दैवेन रक्षिताः॥
मूलम्
पुरा जतुगृहेऽनेन दग्धुमस्मान् युधिष्ठिर।
दुर्बुद्धिर्हि कृता वीर भृशं दैवेन रक्षिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन बोले— वीरवर भैया युधिष्ठिर! आपको याद होगा, पहले इसी दुर्योधनने लाक्षागृहमें हमलोगोंको जलाकर भस्म कर देनेका घृणित विचार किया था; परंतु दैवने हमारी रक्षा की॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालकूटं विषं तीक्ष्णं भोजने मम भारत।
उप्त्वा गङ्गां लतापाशैर्बद्ध्वा च प्राक्षिपत् प्रभो॥
मूलम्
कालकूटं विषं तीक्ष्णं भोजने मम भारत।
उप्त्वा गङ्गां लतापाशैर्बद्ध्वा च प्राक्षिपत् प्रभो॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतकुलभूषण प्रभो! इसीने मेरे भोजनमें तीव्र कालकूट विष मिला दिया और मुझे लतापाशसे बाँधकर गंगाजीमें फेंक दिया था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्यूतकाले हि कौन्तेय वृजिनानि कृतानि वै।
द्रौपद्याश्च परामर्शः केशग्रहणमेव च॥
वस्त्रापहरणं चैव सभामध्ये कृतानि वै।
पुरा कृतानां पापानां फलं भुङ्क्ते सुयोधनः॥
मूलम्
द्यूतकाले हि कौन्तेय वृजिनानि कृतानि वै।
द्रौपद्याश्च परामर्शः केशग्रहणमेव च॥
वस्त्रापहरणं चैव सभामध्ये कृतानि वै।
पुरा कृतानां पापानां फलं भुङ्क्ते सुयोधनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! जूएके समय इसने बड़े-बड़े पाप किये हैं। द्रौपदीका स्पर्श, उसके केशोंको पकड़कर खींचना और भरी सभामें उसे नंगी करनेके लिये उसके वस्त्रोंका अपहरण करना—ये सब दुर्योधनके कुकृत्य हैं। पहलेके किये हुए पापोंका फल आज दुर्योधन भोग रहा है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्माभिरेव कर्तव्यो धार्तराष्ट्रस्य निग्रहः।
अन्येन तु कृतं तच्च मैत्र्यमस्माभिरिच्छता॥
उपकारी तु गन्धर्वो मा राजन् विमना भव॥
मूलम्
अस्माभिरेव कर्तव्यो धार्तराष्ट्रस्य निग्रहः।
अन्येन तु कृतं तच्च मैत्र्यमस्माभिरिच्छता॥
उपकारी तु गन्धर्वो मा राजन् विमना भव॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनको पकड़कर दण्ड देनेका काम तो हमलोगोंको ही करना चाहिये था; परंतु किसी दूसरेने हमारे साथ मैत्रीकी इच्छा रखकर स्वयं ही वह कार्य पूरा कर दिया। राजन्! आप उदास न हों; गन्धर्व हमलोगोंका उपकारी ही है॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नन्तरे राजंश्चित्रसेनेन वै हृतः।
विललाप सुदुःखार्तो ह्रियमाणः सुयोधनः॥
मूलम्
एतस्मिन्नन्तरे राजंश्चित्रसेनेन वै हृतः।
विललाप सुदुःखार्तो ह्रियमाणः सुयोधनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इसी समय चित्रसेनद्वारा अपहृत होता हुआ दुर्योधन अत्यन्त दुःखसे पीड़ित हो जोर-जोरसे विलाप करने लगा॥
मूलम् (वचनम्)
दुर्योधन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डुपुत्र महाबाहो पौरवाणां यशस्कर।
सर्वधर्मभृतां श्रेष्ठ गन्धर्वेण हृतं बलात्॥
रक्षस्व पुरुषव्याघ्र युधिष्ठिर महायशः॥
भ्रातरं ते महाबाहो बद्ध्वा नयति मामयम्।
दुःशासनं दुर्विषहं दुर्मुखं दुर्जयं तथा॥
बद्ध्वा हरन्ति गन्धर्वा अस्महारांश्च सर्वशः।
अनुधावत मां क्षिप्रं रक्षध्वं पुरुषोत्तमाः॥
वृकोदर महाबाहो धनंजय महायशः।
यमौ मामनुधावेतां रक्षार्थं मम सायुधौ॥
कुरुवंशस्य तु महदयशः प्राप्तमीदृशम्।
व्यपोहयध्वं गन्धर्वाञ्जित्वा वीर्येण पाण्डवाः॥
मूलम्
पाण्डुपुत्र महाबाहो पौरवाणां यशस्कर।
सर्वधर्मभृतां श्रेष्ठ गन्धर्वेण हृतं बलात्॥
रक्षस्व पुरुषव्याघ्र युधिष्ठिर महायशः॥
भ्रातरं ते महाबाहो बद्ध्वा नयति मामयम्।
दुःशासनं दुर्विषहं दुर्मुखं दुर्जयं तथा॥
बद्ध्वा हरन्ति गन्धर्वा अस्महारांश्च सर्वशः।
अनुधावत मां क्षिप्रं रक्षध्वं पुरुषोत्तमाः॥
वृकोदर महाबाहो धनंजय महायशः।
यमौ मामनुधावेतां रक्षार्थं मम सायुधौ॥
कुरुवंशस्य तु महदयशः प्राप्तमीदृशम्।
व्यपोहयध्वं गन्धर्वाञ्जित्वा वीर्येण पाण्डवाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधन बोला— पूरुवंशका यश बढ़ानेवाले समस्त धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ महायशस्वी पुरुषसिंह महाबाहु पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर! मुझे गन्धर्व बलपूर्वक हरकर लिये जा रहा है। मेरी रक्षा करो। महाबाहो! यह शत्रु तुम्हारे भाई मुझ दुर्योधनको बाँधे लिये जाता है। साथ ही ये सारे गन्धर्व दुःशासन, दुर्विषह, दुर्मुख, दुर्जय तथा हमारी रानियोंको भी बंदी बनाकर लिये जा रहे हैं। पुरुषोत्तम पाण्डवो! शीघ्र इनका पीछा करो और मेरे प्राण बचाओ। महाबाहु वृकोदर और महायशस्वी धनंजय! मेरी रक्षा करो। दोनों भाई नकुल और सहदेव भी अस्त्र-शस्त्र लिये मेरी रक्षाके लिये दौड़े आवें। पाण्डवो! कुरुवंशके लिये यह बड़ा भारी अयश प्राप्त हो रहा है। तुम अपने पराक्रमसे इन गन्धर्वोंको जीतकर मार भगाओ॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विलपमानस्य कौरवस्यार्तया गिरा।
श्रुत्वा विलापं सम्भ्रान्तो घृणयाभिपरिप्लुतः॥
युधिष्ठिरः पुनर्वाक्यं भीमसेनमथाब्रवीत् ।)
मूलम्
एवं विलपमानस्य कौरवस्यार्तया गिरा।
श्रुत्वा विलापं सम्भ्रान्तो घृणयाभिपरिप्लुतः॥
युधिष्ठिरः पुनर्वाक्यं भीमसेनमथाब्रवीत् ।)
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार आर्त वाणीमें विलाप करते हुए दुर्योधनका करुण क्रन्दन सुनकर माननीय युधिष्ठिर दयासे द्रवित हो गये। उन्होंने पुनः भीमसेनसे कहा—॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क इहार्यो भवेत् त्राणमभिधावेति नोदितः।
प्राञ्जलिं शरणापन्नं दृष्ट्वा शत्रुमपि ध्रुवम् ॥ १२ ॥
मूलम्
क इहार्यो भवेत् त्राणमभिधावेति नोदितः।
प्राञ्जलिं शरणापन्नं दृष्ट्वा शत्रुमपि ध्रुवम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस जगत्में कौन ऐसा श्रेष्ठ पुरुष है, जो हाथ जोड़कर शरणमें आये हुए शत्रुको भी देखकर और उसके द्वारा की हुई ‘दौड़ो-बचाओ’ की पुकार सुनकर उसकी रक्षाके लिये दौड़ नहीं पड़ेगा?॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरप्रदानं राज्यं च पुत्रजन्म च पाण्डवाः।
शत्रोश्च मोक्षणं क्लेशात् त्रीणि चैकं च तत्समम् ॥ १३ ॥
मूलम्
वरप्रदानं राज्यं च पुत्रजन्म च पाण्डवाः।
शत्रोश्च मोक्षणं क्लेशात् त्रीणि चैकं च तत्समम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पाण्डवो! वरदान, राज्यप्रदान, पुत्रकी प्राप्ति कराना तथा शत्रुका संकटसे उद्धार करना—इन चार वस्तुओंमेंसे प्रारम्भके तीन और अन्तका एक समान हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं चाप्यधिकमेतस्माद् यदापन्नः सुयोधनः।
त्वद्बाहुबलमाश्रित्य जीवितं परिमार्गते ॥ १४ ॥
मूलम्
किं चाप्यधिकमेतस्माद् यदापन्नः सुयोधनः।
त्वद्बाहुबलमाश्रित्य जीवितं परिमार्गते ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम्हारे लिये इससे बढ़कर आनन्दकी बात और क्या होगी कि दुर्योधन विपत्तिमें पड़कर तुम्हारे बाहुबलके भरोसे अपने जीवनकी रक्षा करना चाहता है?॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयमेव प्रधावेयं यदि न स्याद् वृकोदर।
विततो मे क्रतुर्वीर न हि मेऽत्र विचारणा ॥ १५ ॥
मूलम्
स्वयमेव प्रधावेयं यदि न स्याद् वृकोदर।
विततो मे क्रतुर्वीर न हि मेऽत्र विचारणा ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीर भीमसेन! यदि मेरा यह यज्ञ प्रारम्भ न हो गया होता तो मैं स्वयं ही दुर्योधनको छुड़ानेके लिये दौड़ा जाता। इस विषयमें मेरे लिये कोई दूसरा विचार करना उचित नहीं है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साम्नैव तु यथा भीम मोक्षयेथाः सुयोधनम्।
तथा सर्वैरुपायैस्त्वं यतेथाः कुरुनन्दन ॥ १६ ॥
मूलम्
साम्नैव तु यथा भीम मोक्षयेथाः सुयोधनम्।
तथा सर्वैरुपायैस्त्वं यतेथाः कुरुनन्दन ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुरुनन्दन भीम! शान्तिपूर्ण ढंगसे समझा-बुझाकर जिस तरह भी दुर्योधनको छुड़ा सको, सभी उपायोंसे वैसा ही प्रयत्न करना॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न साम्ना प्रतिपद्येत यदि गन्धर्वराडसौ।
पराक्रमेण मृदुना मोक्षयेथाः सुयोधनम् ॥ १७ ॥
मूलम्
न साम्ना प्रतिपद्येत यदि गन्धर्वराडसौ।
पराक्रमेण मृदुना मोक्षयेथाः सुयोधनम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि समझाने-बुझानेसे वह गन्धर्वराज चित्रसेन तुम्हारी बात न माने तो कोमलतापूर्ण पराक्रमके द्वारा दुर्योधनको छुड़ानेकी चेष्टा करना॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथासौ मृदुयुद्धेन न मुञ्चेद् भीम कौरवान्।
सर्वोपायैर्विमोच्यास्ते निगृह्य परिपन्थिनः ॥ १८ ॥
मूलम्
अथासौ मृदुयुद्धेन न मुञ्चेद् भीम कौरवान्।
सर्वोपायैर्विमोच्यास्ते निगृह्य परिपन्थिनः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भीम! यदि कोमलतापूर्ण युद्धसे भी वह कौरवोंको न छोड़े तो तुम सभी उपायोंसे उन लुटेरे गन्धर्वोंको कैद करके कौरवोंको छुड़ाना॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावद्धि मया शक्यं संदेष्टुं वै वृकोदर।
वैताने कर्मणि तते वर्तमाने च भारत ॥ १९ ॥
मूलम्
एतावद्धि मया शक्यं संदेष्टुं वै वृकोदर।
वैताने कर्मणि तते वर्तमाने च भारत ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भरतनन्दन वृकोदर! इस समय मेरा यह यज्ञकर्म चालू है; अतः ऐसी स्थितिमें मैं तुम्हें इतना ही संदेश दे सकता हूँ’॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजातशत्रोर्वचनं तच्छ्रुत्वा तु धनंजयः।
प्रतिजज्ञे गुरोर्वाक्यं कौरवाणां विमोक्षणम् ॥ २० ॥
मूलम्
अजातशत्रोर्वचनं तच्छ्रुत्वा तु धनंजयः।
प्रतिजज्ञे गुरोर्वाक्यं कौरवाणां विमोक्षणम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! अजातशत्रु युधिष्ठिरका उपर्युक्त वचन सुनकर अर्जुनने अपने बड़े भाईकी आज्ञाके अनुसार कौरवोंको छुड़ानेकी प्रतिज्ञा की॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि साम्ना न मोक्ष्यन्ति गन्धर्वा धृतराष्ट्रजान्।
अद्य गन्धर्वराजस्य भूमिः पास्यति शोणितम् ॥ २१ ॥
मूलम्
यदि साम्ना न मोक्ष्यन्ति गन्धर्वा धृतराष्ट्रजान्।
अद्य गन्धर्वराजस्य भूमिः पास्यति शोणितम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन बोले— यदि गन्धर्वलोग समझाने-बुझानेसे कौरवोंको नहीं छोड़ेंगे, तो यह पृथ्वी आज गन्धर्वराजका रक्त पीयेगी॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनस्य तु तां श्रुत्वा प्रतिज्ञां सत्यवादिनः।
कौरवाणां तदा राजन् पुनः प्रत्यागतं मनः ॥ २२ ॥
मूलम्
अर्जुनस्य तु तां श्रुत्वा प्रतिज्ञां सत्यवादिनः।
कौरवाणां तदा राजन् पुनः प्रत्यागतं मनः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! सत्यवादी अर्जुनकी वह प्रतिज्ञा सुनकर कौरवोंके जीमें जी आया॥२२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि घोषयात्रापर्वणि दुर्योधनमोचनानुज्ञायां त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २४३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत घोषयात्रापर्वमें दुर्योधनको छुड़ानेकी आज्ञाविषयक दो सौ तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२४३॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १५ श्लोक मिलाकर कुल ३७ श्लोक हैं)