२४२ दुर्योधनादिहरणे

भागसूचना

द्विचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

गन्धर्वोंद्वारा दुर्योधन आदिकी पराजय और उनका अपहरण

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गन्धर्वैस्तु महाराज भग्ने कर्णे महारथे।
सम्प्राद्रवच्चमूः सर्वा धार्तराष्ट्रस्य पश्यतः ॥ १ ॥

मूलम्

गन्धर्वैस्तु महाराज भग्ने कर्णे महारथे।
सम्प्राद्रवच्चमूः सर्वा धार्तराष्ट्रस्य पश्यतः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— महाराज! गन्धर्वोंने जब महारथी कर्णको भगा दिया, तब दुर्योधनके देखते-देखते उसकी सारी सेना भी भाग चली॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान्‌ दृष्ट्वा द्रवतः सर्वान् धार्तराष्ट्रान् पराङ्‌मुखान्।
दुर्योधनो महाराजो नासीत् तत्र पराङ्‌मुखः ॥ २ ॥

मूलम्

तान्‌ दृष्ट्वा द्रवतः सर्वान् धार्तराष्ट्रान् पराङ्‌मुखान्।
दुर्योधनो महाराजो नासीत् तत्र पराङ्‌मुखः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रके सभी पुत्रोंको युद्धसे पीठ दिखाकर भागते देखकर भी राजा दुर्योधन स्वयं वहीं डटा रहा। उसने पीठ नहीं दिखायी॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामापतन्तीं सम्प्रेक्ष्य गन्धर्वाणां महाचमूम्।
महता शरवर्षेण सोऽभ्यवर्षदरिंदमः ॥ ३ ॥

मूलम्

तामापतन्तीं सम्प्रेक्ष्य गन्धर्वाणां महाचमूम्।
महता शरवर्षेण सोऽभ्यवर्षदरिंदमः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्वोंकी उस विशाल सेनाको अपनी ओर आती देख शत्रुओंका दमन करनेवाले वीर दुर्योधनने उसपर बाणोंकी बड़ी भारी वर्षा प्रारम्भ कर दी॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अचिन्त्य शरवर्षं तु गन्धर्वास्तस्य तं रथम्।
दुर्योधनं जिघांसन्तः समन्तात् पर्यवारयन् ॥ ४ ॥

मूलम्

अचिन्त्य शरवर्षं तु गन्धर्वास्तस्य तं रथम्।
दुर्योधनं जिघांसन्तः समन्तात् पर्यवारयन् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु गन्धर्वोंने उस बाणवर्षाकी कुछ भी परवाह नहीं की। उन्होंने दुर्योधनको मार डालनेकी इच्छासे उसके रथको चारों ओरसे घेर लिया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युगमीषां वरूथं च तथैव ध्वजसारथी।
अश्वांस्त्रिवेणुं तल्पं च तिलशो व्यधमञ्छरैः ॥ ५ ॥

मूलम्

युगमीषां वरूथं च तथैव ध्वजसारथी।
अश्वांस्त्रिवेणुं तल्पं च तिलशो व्यधमञ्छरैः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और उसके युग, ईषादण्ड, वरूथ, ध्वजा, सारथि, घोड़ों, तीन वेणुदण्डवाले छत्र और तल्प (बैठनेके स्थान)-को बाणोंद्वारा तिल-तिल करके काट डाला॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनं चित्रसेनो विरथं पतितं भुवि।
अभिद्रुत्य महाबाहुर्जीवग्राहमथाग्रहीत् ॥ ६ ॥

मूलम्

दुर्योधनं चित्रसेनो विरथं पतितं भुवि।
अभिद्रुत्य महाबाहुर्जीवग्राहमथाग्रहीत् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय दुर्योधन रथहीन होकर धरतीपर गिर पड़ा। यह देख महाबाहु चित्रसेनने झटपट जाकर उसे जीते-जी ही बंदी बना लिया॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् गृहीते राजेन्द्र स्थितं दुःशासनं रथे।
पर्यगृह्णन्त गन्धर्वाः परिवार्य समन्ततः ॥ ७ ॥

मूलम्

तस्मिन् गृहीते राजेन्द्र स्थितं दुःशासनं रथे।
पर्यगृह्णन्त गन्धर्वाः परिवार्य समन्ततः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! दुर्योधनके कैद हो जानेपर गन्धर्वोंने रथपर बैठे हुए दुःशासनको भी सब ओरसे घेरकर पकड़ लिया॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विविंशतिं चित्रसेनमादायान्ये विदुद्रुवुः ।
विन्दानुविन्दावपरे राजदारांश्च सर्वशः ॥ ८ ॥

मूलम्

विविंशतिं चित्रसेनमादायान्ये विदुद्रुवुः ।
विन्दानुविन्दावपरे राजदारांश्च सर्वशः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्य कितने ही गन्धर्व धृतराष्ट्रके पुत्र चित्रसेन और विविंशतिको बंदी बनाकर ले चले। कुछ अन्य गन्धर्वोंने विन्द और अनुविन्दको तथा राजकुलकी समस्त महिलाओंको भी अपने अधिकारमें ले लिया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैन्यं तद् धार्तराष्ट्रस्य गन्धर्वैः समभिद्रुतम्।
पूर्वं प्रभग्नाः सहिताः पाण्डवानभ्ययुस्तदा ॥ ९ ॥

मूलम्

सैन्यं तद् धार्तराष्ट्रस्य गन्धर्वैः समभिद्रुतम्।
पूर्वं प्रभग्नाः सहिताः पाण्डवानभ्ययुस्तदा ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्वोंने दुर्योधनकी सारी सेनाको मार भगाया था। वह सेना तथा उसके वे सैनिक, जो पहलेसे ही मैदान छोड़कर भाग गये थे, सब एक साथ पाण्डवोंकी शरणमें गये॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शकटापणवेशाश्च यानयुग्यं च सर्वशः।
शरणं पाण्डवान् जग्मुर्ह्रियमाणे महीपतौ ॥ १० ॥

मूलम्

शकटापणवेशाश्च यानयुग्यं च सर्वशः।
शरणं पाण्डवान् जग्मुर्ह्रियमाणे महीपतौ ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्व जब राजा दुर्योधनको बंदी बनाकर ले जाने लगे, उस समय छकड़े, रसदकी दूकान, वेष-भूषा, सवारी ढोने तथा कंधोंपर जुआ रखकर चलनेमें समर्थ बैल आदि सब उपकरणोंको साथ ले कौरव-सैनिक पाण्डवोंकी शरणमें गये॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

सैनिका ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियदर्शी महाबाहुर्धार्तराष्ट्रो महाबलः ।
गन्धर्वैर्ह्रियते राजा पार्थास्तमनुधावत ॥ ११ ॥
दुःशासनो दुर्विषहो दुर्मुखो दुर्जयस्तथा।
बद्‌ध्वा ह्रियन्ते गन्धर्वै राजदाराश्च सर्वशः ॥ १२ ॥

मूलम्

प्रियदर्शी महाबाहुर्धार्तराष्ट्रो महाबलः ।
गन्धर्वैर्ह्रियते राजा पार्थास्तमनुधावत ॥ ११ ॥
दुःशासनो दुर्विषहो दुर्मुखो दुर्जयस्तथा।
बद्‌ध्वा ह्रियन्ते गन्धर्वै राजदाराश्च सर्वशः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सैनिक बोले— कुन्तीकुमारो! हमारे प्रियदर्शी महाबाहु महाबली धृतराष्ट्रकुमार राजा दुर्योधनको गन्धर्व (बाँधकर) लिये जाते हैं। आपलोग उनकी रक्षाके लिये दौड़िये। वे दुःशासन, दुर्विषह, दुर्मुख, दुर्जय तथा कुरुकुलकी सब स्त्रियोंको भी कैद करके लिये जा रहे हैं॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति दुर्योधनामात्याः क्रोशन्तो राजगृद्धिनः।
आर्ता दीनास्ततः सर्वे युधिष्ठिरमुपागमन् ॥ १३ ॥

मूलम्

इति दुर्योधनामात्याः क्रोशन्तो राजगृद्धिनः।
आर्ता दीनास्ततः सर्वे युधिष्ठिरमुपागमन् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाको हृदयसे चाहनेवाले दुर्योधनके सब मन्त्री आर्त एवं दीन होकर उपर्युक्त बातें जोर-जोरसे कहते हुए युधिष्ठिरके समीप गये॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तांस्तथा व्यथितान् दीनान्‌ भिक्षमाणान् युधिष्ठिरम्।
वृद्धान् दुर्योधनामात्यान् भीमसेनोऽभ्यभाषत ॥ १४ ॥

मूलम्

तांस्तथा व्यथितान् दीनान्‌ भिक्षमाणान् युधिष्ठिरम्।
वृद्धान् दुर्योधनामात्यान् भीमसेनोऽभ्यभाषत ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनके उन बूढ़े मन्त्रियोंको इस प्रकार दीन एवं दुःखी होकर युधिष्ठिरसे सहायताकी भीख माँगते देख भीमसेनने कहा—॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महता हि प्रयत्नेन संनह्य गजवाजिभिः।
अस्माभिर्यदनुष्ठेयं गन्धर्वैस्तदनुष्ठितम् ॥ १५ ॥

मूलम्

महता हि प्रयत्नेन संनह्य गजवाजिभिः।
अस्माभिर्यदनुष्ठेयं गन्धर्वैस्तदनुष्ठितम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हमें हाथी-घोड़ों आदिके द्वारा बहुत प्रयत्न करके कमर कसकर जो काम करना चाहिये था, उसे गन्धर्वोंने ही पूरा कर दिया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यथा वर्तमानानामर्थो जातोऽयमन्यथा ।
दुर्मन्त्रितमिदं तावद् राज्ञो दुर्द्यूतदेविनः ॥ १६ ॥

मूलम्

अन्यथा वर्तमानानामर्थो जातोऽयमन्यथा ।
दुर्मन्त्रितमिदं तावद् राज्ञो दुर्द्यूतदेविनः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये कौरव कुछ और ही करना चाहते थे; परंतु इन्हें उलटा परिणाम देखना पड़ा। कपटद्यूत खेलनेवाले राजा दुर्योधनका यह दुर्मन्त्रणापूर्ण षड्‌यन्त्र था, जो सफल न हो सका॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वेष्टारमन्ये क्लीबस्य पातयन्तीति नः श्रुतम्।
इदं कृतं नः प्रत्यक्षं गन्धर्वैरतिमानुषम् ॥ १७ ॥

मूलम्

द्वेष्टारमन्ये क्लीबस्य पातयन्तीति नः श्रुतम्।
इदं कृतं नः प्रत्यक्षं गन्धर्वैरतिमानुषम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हमने सुना है, जो लोग असमर्थ पुरुषोंसे द्वेष करते हैं, उन्हें दूसरे ही लोग नीचा दिखा देते हैं। गन्धर्वोंने आज अलौकिक पराक्रम करके हमारी इस सुनी हुई बातको प्रत्यक्ष कर दिखाया॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या लोके पुमानस्ति कश्चिदस्मत्प्रिये स्थितः।
येनास्माकं हृतो भार आसीनानां सुखावहः ॥ १८ ॥

मूलम्

दिष्ट्या लोके पुमानस्ति कश्चिदस्मत्प्रिये स्थितः।
येनास्माकं हृतो भार आसीनानां सुखावहः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सौभाग्यकी बात है कि संसारमें कोई ऐसा भी पुरुष है, जो हमलोगोंके प्रिय एवं हितसाधनमें लगा हुआ है। उसने हमलोगोंका भार उतार दिया और हमें बैठे-ही-बैठे सुख पहुँचाया है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शीतवातातपसहांस्तपसा चैव कर्शितान् ।
समस्थो विषमस्थान् हि द्रष्टुमिच्छति दुर्मतिः ॥ १९ ॥

मूलम्

शीतवातातपसहांस्तपसा चैव कर्शितान् ।
समस्थो विषमस्थान् हि द्रष्टुमिच्छति दुर्मतिः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हम सर्दी, गर्मी और हवाका कष्ट सहते हैं, तपस्यासे दुर्बल हो गये हैं और विषम परिस्थितिमें पड़े हैं, तो भी वह दुर्बुद्धि दुर्योधन, जो इस समय राजगद्दीपर बैठकर मौज उड़ा रहा है, हमें इस दुर्दशामें देखनेकी इच्छा रखता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मचारिणस्तस्य कौरव्यस्य दुरात्मनः ।
ये शीलमनुवर्तन्ते ते पश्यन्ति पराभवम् ॥ २० ॥

मूलम्

अधर्मचारिणस्तस्य कौरव्यस्य दुरात्मनः ।
ये शीलमनुवर्तन्ते ते पश्यन्ति पराभवम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उस पापाचारी दुरात्मा कौरवके स्वभावका जो लोग अनुसरण करते हैं, वे भी अपनी पराजय देखते हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मो हि कृतस्तेन येनैतदुपशिक्षितम्।
अनृशंसास्तु कौन्तेयास्तत् प्रत्यक्षं ब्रवीमि वः ॥ २१ ॥

मूलम्

अधर्मो हि कृतस्तेन येनैतदुपशिक्षितम्।
अनृशंसास्तु कौन्तेयास्तत् प्रत्यक्षं ब्रवीमि वः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसने दुर्योधनको यह सलाह दी है कि वह वनमें पाण्डवोंसे मिलकर उनकी हँसी उड़ावे, उसने बड़ा भारी पाप किया है। कुन्तीके पुत्र कभी क्रूरतापूर्ण बर्ताव नहीं करते, मैं यह बात आपलोगोंके सामने कह रहा हूँ’॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ब्रुवाणं कौन्तेयं भीमसेनमपस्वरम्।
न कालः परुषस्यायमिति राजाभ्यभाषत ॥ २२ ॥

मूलम्

एवं ब्रुवाणं कौन्तेयं भीमसेनमपस्वरम्।
न कालः परुषस्यायमिति राजाभ्यभाषत ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन भीमसेनको इस प्रकार विकृत स्वरमें बात करते देख राजा युधिष्ठिरने कहा—‘भैया! यह कड़वी बातें कहनेका समय नहीं है’॥२२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि घोषयात्रापर्वणि दुर्योधनादिहरणे द्विचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २४२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत घोषयात्रापर्वमें दुर्योधन आदिका अपहरणविषयक दो सौ बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२४२॥