भागसूचना
चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दुर्योधनका सेनासहित वनमें जाकर गौओंकी देखभाल करना और उसके सैनिकों एवं गन्धर्वोंमें परस्पर कटु संवाद
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ दुर्योधनो राजा तत्र तत्र वने वसन्।
जगाम घोषानभितस्तत्र चक्रे निवेशनम् ॥ १ ॥
मूलम्
अथ दुर्योधनो राजा तत्र तत्र वने वसन्।
जगाम घोषानभितस्तत्र चक्रे निवेशनम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर राजा दुर्योधन जहाँ-तहाँ वनमें पड़ाव डालता हुआ उन घोषों (गोशालाओं)-के पास पहुँच गया और वहाँ उसने अपनी छावनी डाली॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रमणीये समाज्ञाते सोदके समहीरुहे।
देशे सर्वगुणोपेते चक्रुरावसथान् पराः ॥ २ ॥
मूलम्
रमणीये समाज्ञाते सोदके समहीरुहे।
देशे सर्वगुणोपेते चक्रुरावसथान् पराः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके साथ गये हुए लोगोंने भी उस सर्वगुणसम्पन्न, रमणीय, सुपरिचित, सजल तथा सघन वृक्षावलियोंसे युक्त प्रदेशमें अपने डेरे डाल दिये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव तत्समीपस्थान् पृथगावसथान् बहुन्।
कर्णस्य शकुनेश्चैव भ्रातॄणां चैव सर्वशः ॥ ३ ॥
मूलम्
तथैव तत्समीपस्थान् पृथगावसथान् बहुन्।
कर्णस्य शकुनेश्चैव भ्रातॄणां चैव सर्वशः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार दुर्योधनके डेरेके पास ही कर्ण, शकुनि तथा दुःशासन आदि सब भाइयोंके लिये पृथक्-पृथक् बहुत-से खेमे पड़ गये॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददर्श स तदा गावः शतशोऽथ सहस्रशः।
अङ्कैर्लक्षैश्च ताः सर्वा लक्षयामास पार्थिवः ॥ ४ ॥
मूलम्
ददर्श स तदा गावः शतशोऽथ सहस्रशः।
अङ्कैर्लक्षैश्च ताः सर्वा लक्षयामास पार्थिवः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(रहनेकी व्यवस्था ठीक हो जानेपर) राजा दुर्योधनने अपनी सैकड़ों एवं हजारों गौओंका निरीक्षण करना आरम्भ किया। उन सबपर संख्या और निशानी डलवा दी॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्कयामास वत्सांश्च जज्ञे चोपसृतांस्त्वपि।
बालवत्साश्च या गावः कालयामास ता अपि ॥ ५ ॥
मूलम्
अङ्कयामास वत्सांश्च जज्ञे चोपसृतांस्त्वपि।
बालवत्साश्च या गावः कालयामास ता अपि ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर बछड़ोंपर भी संख्या और निशानी डलवायी और उनमेंसे जो नाथनेयोग्य थे, उन सबकी गणना कराकर उनपर पहचान डाल दी। जिन गौओंके बछड़े बहुत छोटे थे, उनकी भी अलग गणना करवायी॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ स स्मारणं कृत्वा लक्षयित्वा त्रिहायनान्।
वृतो गोपालकैः प्रीतो व्यहरत् कुरुनन्दनः ॥ ६ ॥
मूलम्
अथ स स्मारणं कृत्वा लक्षयित्वा त्रिहायनान्।
वृतो गोपालकैः प्रीतो व्यहरत् कुरुनन्दनः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जाँच-पड़तालका काम पूरा करके कुरुनन्दन दुर्योधनने तीन सालके बछड़ोंकी पृथक् गणना करवायी और स्मरणके लिये सब कुछ लिखकर वह बड़ी प्रसन्नताके साथ ग्वालोंसे घिरकर उस वनमें विहार करने लगा॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स च पौरजनः सर्वः सैनिकाश्च सहस्रशः।
यथोपजोषं चिक्रीडुर्वने तस्मिन् यथामराः ॥ ७ ॥
मूलम्
स च पौरजनः सर्वः सैनिकाश्च सहस्रशः।
यथोपजोषं चिक्रीडुर्वने तस्मिन् यथामराः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे समस्त पुरवासी और सहस्रोंकी संख्यामें आये हुए सैनिक उस वनमें अपनी-अपनी रुचिके अनुसार देवताओंके समान क्रीड़ा करने लगे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो गोपाः प्रगातारः कुशला नृत्यवादने।
धार्तराष्ट्रमुपातिष्ठन् कन्याश्चैव स्वलंकृताः ॥ ८ ॥
मूलम्
ततो गोपाः प्रगातारः कुशला नृत्यवादने।
धार्तराष्ट्रमुपातिष्ठन् कन्याश्चैव स्वलंकृताः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर नृत्य और वादनकी कलामें कुशल कुछ गवैये गोप तथा गहने-कपड़ोंसे सजी हुई उनकी कन्याएँ दुर्योधनके समीप आयीं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स स्त्रीगणावृतो राजा प्रहृष्टः प्रददौ वसु।
तेभ्यो यथार्हमन्नानि पानानि विविधानि च ॥ ९ ॥
मूलम्
स स्त्रीगणावृतो राजा प्रहृष्टः प्रददौ वसु।
तेभ्यो यथार्हमन्नानि पानानि विविधानि च ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी स्त्रियोंके साथ राजा दुर्योधन उनको देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और उन्हें बहुत-सा धन दिया तथा यथायोग्य नाना प्रकारकी खाने-पीनेकी वस्तुएँ अर्पित कीं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते सहिताः सर्वे तरक्षून् महिषान् मृगान्।
गवयर्क्षवराहांश्च समन्तात् पर्यकालयन् ॥ १० ॥
मूलम्
ततस्ते सहिताः सर्वे तरक्षून् महिषान् मृगान्।
गवयर्क्षवराहांश्च समन्तात् पर्यकालयन् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वे सब लोग तरक्षुओं (जरखों), जंगली भैंसों, गवयों, रीछों और शूकरों एवं अन्य जंगली हिंसक पशुओंका सब ओरसे शिकार करने लगे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स ताञ्छरैर्विनिर्भिद्य गजांश्च सुबहून् वने।
रमणीयेषु देशेषु ग्राहयामास वै मृगान् ॥ ११ ॥
मूलम्
स ताञ्छरैर्विनिर्भिद्य गजांश्च सुबहून् वने।
रमणीयेषु देशेषु ग्राहयामास वै मृगान् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने वनके रमणीय प्रदेशोंमें बहुत-से हाथियोंको अपने बाणोंसे विदीर्ण करके अनेकानेक हिंस्र पशुओंको पकड़ लिया॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोरसानुपयुञ्जान उपभोगांश्च भारत ।
पश्यन् स रमणीयानि वनान्युपवनानि च ॥ १२ ॥
मत्तभ्रमरजुष्टानि बर्हिणाभिरुतानि च ।
अगच्छदानुपूर्व्येण पुण्यं द्वैतवनं सरः ॥ १३ ॥
मूलम्
गोरसानुपयुञ्जान उपभोगांश्च भारत ।
पश्यन् स रमणीयानि वनान्युपवनानि च ॥ १२ ॥
मत्तभ्रमरजुष्टानि बर्हिणाभिरुतानि च ।
अगच्छदानुपूर्व्येण पुण्यं द्वैतवनं सरः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! दुर्योधन अपने साथियोंसहित दूध आदि गोरसोंका उपयोग करता और भाँति-भाँतिके भोग भोगता हुआ वहाँके रमणीय वनों और उपवनोंकी शोभा देखने लगा। उनमें मतवाले भ्रमर गुंजार करते थे और मयूरोंकी मधुर वाणी सब ओर गूँज रही थी। इस प्रकार क्रमशः आगे बढ़ता हुआ वह परम पवित्र द्वैतवननामक सरोवरके समीप जा पहुँचा॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्तभ्रमरसंजुष्टं नीलकण्ठरवाकुलम् ।
सप्तच्छदसमाकीर्णं पुन्नागबकुलैर्युतम् ॥ १४ ॥
मूलम्
मत्तभ्रमरसंजुष्टं नीलकण्ठरवाकुलम् ।
सप्तच्छदसमाकीर्णं पुन्नागबकुलैर्युतम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ मधुमत्त भ्रमर कमलपुष्पोंका रस ले रहे थे। मयूरोंकी मधुर वाणीसे वह सारा प्रदेश व्याप्त हो रहा था। सप्तच्छद (छितवन)-के वृक्षोंसे वह सरोवर आच्छादित-सा जान पड़ता था। उसके तटोंपर मौलसिरी और नागकेसरके वृक्ष शोभा पा रहे थे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋद्ध्या परमया युक्तो महेन्द्र इव वज्रभृत्।
यदृच्छया च तत्रस्थो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ १५ ॥
ईजे राजर्षियज्ञेन साद्यस्केन विशाम्पते।
दिव्येन विधिना चैव वन्येन कुरुसत्तम ॥ १६ ॥
(विद्वद्भिः सहितो धीमान् ब्राह्मणैर्वनवासिभिः।)
कृत्वा निवेशमभितः सरसस्तस्य कौरव।
द्रौपद्या सहितो धीमान् धर्मपत्न्या नराधिपः ॥ १७ ॥
मूलम्
ऋद्ध्या परमया युक्तो महेन्द्र इव वज्रभृत्।
यदृच्छया च तत्रस्थो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ १५ ॥
ईजे राजर्षियज्ञेन साद्यस्केन विशाम्पते।
दिव्येन विधिना चैव वन्येन कुरुसत्तम ॥ १६ ॥
(विद्वद्भिः सहितो धीमान् ब्राह्मणैर्वनवासिभिः।)
कृत्वा निवेशमभितः सरसस्तस्य कौरव।
द्रौपद्या सहितो धीमान् धर्मपत्न्या नराधिपः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी सरोवरके तटपर वज्रधारी इन्द्रके समान उत्तम ऐश्वर्यसे सम्पन्न बुद्धिमान् धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर अपनी धर्मपत्नी महारानी द्रौपदीके साथ साद्यस्क (एक दिनमें पूर्ण होनेवाले) राजर्षियज्ञका अनुष्ठान कर रहे थे। कुरुश्रेष्ठ जनमेजय! उस यज्ञमें उनके साथ बहुत-से वनवासी विद्वान् ब्राह्मण भी थे। राजा वनमें सुलभ होनेवाली सामग्रीद्वारा दिव्य विधिसे यज्ञ कर रहे थे। वे उसी सरोवरके आस-पास कुटी बनाकर रहते थे॥१५—१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनः प्रेष्यानादिदेश सहस्रशः।
आक्रीडावसथाः क्षिप्रं क्रियन्तामिति भारत ॥ १८ ॥
मूलम्
ततो दुर्योधनः प्रेष्यानादिदेश सहस्रशः।
आक्रीडावसथाः क्षिप्रं क्रियन्तामिति भारत ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! तदनन्तर दुर्योधनने अपने सहस्रों सेवकोंको आज्ञा दी—‘तुमलोग बहुत-से क्रीडामण्डप तैयार करो’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तथेत्येव कौरव्यमुक्त्वा वचनकारिणः।
चिकीर्षन्तस्तदाऽऽक्रीडाञ्जग्मुर्द्वैतवनं सरः ॥ १९ ॥
मूलम्
ते तथेत्येव कौरव्यमुक्त्वा वचनकारिणः।
चिकीर्षन्तस्तदाऽऽक्रीडाञ्जग्मुर्द्वैतवनं सरः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज्ञाकारी सेवक दुर्योधनसे ‘तथास्तु’ कहकर क्रीडाभवन बनानेकी इच्छासे द्वैतवनके सरोवरके निकट गये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रविशन्तं वनद्वारि गन्धर्वाः समवारयन्।
सेनाग्र्यं धार्तराष्ट्रस्य प्राप्तं द्वैतवनं सरः ॥ २० ॥
मूलम्
प्रविशन्तं वनद्वारि गन्धर्वाः समवारयन्।
सेनाग्र्यं धार्तराष्ट्रस्य प्राप्तं द्वैतवनं सरः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधनका सेनानायक द्वैतवन सरोवरके अत्यन्त निकटतक पहुँच गया था, उस वनके द्वारपर पैर रखते ही उसको गन्धर्वोंने रोक दिया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र गन्धर्वराजो वै पूर्वमेव विशाम्पते।
कुबेरभवनाद् राजन्नाजगाम गणावृतः ॥ २१ ॥
मूलम्
तत्र गन्धर्वराजो वै पूर्वमेव विशाम्पते।
कुबेरभवनाद् राजन्नाजगाम गणावृतः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वहाँ गन्धर्वराज चित्रसेन पहलेसे ही अपने सेवकगणोंके साथ कुबेरभवनसे आये हुए थे॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गणैरप्सरसां चैव त्रिदशानां तथाऽऽत्मजैः।
विहारशीलः क्रीडार्थं तेन तत् संवृतं सरः ॥ २२ ॥
मूलम्
गणैरप्सरसां चैव त्रिदशानां तथाऽऽत्मजैः।
विहारशीलः क्रीडार्थं तेन तत् संवृतं सरः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे उन दिनों अप्सराओं तथा देवकुमारोंके साथ विभिन्न स्थानोंमें भ्रमण करते थे। उन्होंने स्वयं ही क्रीड़ाविहारके लिये उस सरोवरको सब ओरसे घेर लिया था॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन तत् संवृतं दृष्ट्वा ते राजपरिचारकाः।
प्रतिजग्मुस्ततो राजन् यत्र दुर्योधनो नृपः ॥ २३ ॥
स तु तेषां वचः श्रुत्वा सैनिकान् युद्धदुर्मदान्।
प्रेषयामास कौरव्य उत्सारयत तानिति ॥ २४ ॥
मूलम्
तेन तत् संवृतं दृष्ट्वा ते राजपरिचारकाः।
प्रतिजग्मुस्ततो राजन् यत्र दुर्योधनो नृपः ॥ २३ ॥
स तु तेषां वचः श्रुत्वा सैनिकान् युद्धदुर्मदान्।
प्रेषयामास कौरव्य उत्सारयत तानिति ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस सरोवरको गन्धर्वराजने घेर रखा है, यह देखकर वे राजसेवक जहाँ राजा दुर्योधन था, वहाँ लौट गये। जनमेजय! अपने सेवकोंका कथन सुनकर राजा दुर्योधनने युद्धके लिये उन्मत्त रहनेवाले सैनिकोंको यह आदेश देकर भेजा कि ‘गन्धर्वोंको वहाँसे मार भगाओ’॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा राज्ञः सेनाग्रयायिनः।
सरो द्वैतवनं गत्वा गन्धर्वानिदमब्रुवन् ॥ २५ ॥
मूलम्
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा राज्ञः सेनाग्रयायिनः।
सरो द्वैतवनं गत्वा गन्धर्वानिदमब्रुवन् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाका यह आदेश सुनकर उसकी सेनाके नायक द्वैतवन सरोवरके समीप जाकर गन्धर्वोंसे इस प्रकार बोले—॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा दुर्योधनो नाम धृतराष्ट्रसुतो बली।
विजिहीर्षुरिहायाति तदर्थमपसर्पत ॥ २६ ॥
मूलम्
राजा दुर्योधनो नाम धृतराष्ट्रसुतो बली।
विजिहीर्षुरिहायाति तदर्थमपसर्पत ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘गन्धर्वो! महाराज धृतराष्ट्रके बलवान् पुत्र राजा दुर्योधन यहाँ विहार करनेकी इच्छासे पधार रहे हैं। तुमलोग उनके लिये यह स्थान खाली करके दूर चले जाओ’॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तास्तु गन्धर्वाः प्रहसन्तो विशाम्पते।
प्रत्यब्रुवंस्तान् पुरुषानिदं हि परुषं वचः ॥ २७ ॥
मूलम्
एवमुक्तास्तु गन्धर्वाः प्रहसन्तो विशाम्पते।
प्रत्यब्रुवंस्तान् पुरुषानिदं हि परुषं वचः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उनके ऐसा कहनेपर गन्धर्व जोर-जोरसे हँसने लगे; और उन राजसेवकोंको उत्तर देते हुए उनसे इस प्रकार कठोर वाणीमें बोले—॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चेतयति वो राजा मन्दबुद्धिः सुयोधनः।
योऽस्मानाज्ञापयत्येवं वैश्यानिव दिवौकसः ॥ २८ ॥
मूलम्
न चेतयति वो राजा मन्दबुद्धिः सुयोधनः।
योऽस्मानाज्ञापयत्येवं वैश्यानिव दिवौकसः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम्हारा राजा दुर्योधन मूर्ख है। उसे तनिक भी चेत नहीं है; क्योंकि वह हम देवलोकवासी गन्धर्वको भी बनियोंके समान समझकर इस प्रकार आज्ञा दे रहा है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यूयं मुमूर्षवश्चापि मन्दप्रज्ञा न संशयः।
ये तस्य वचनादेवमस्मान् ब्रूत विचेतसः ॥ २९ ॥
मूलम्
यूयं मुमूर्षवश्चापि मन्दप्रज्ञा न संशयः।
ये तस्य वचनादेवमस्मान् ब्रूत विचेतसः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुमलोगोंकी भी बुद्धि मारी गयी है। इसमें संदेह नहीं कि तुम सब-के-सब मरना चाहते हो। तभी तो उस दुर्योधनके कहनेसे तुम इस प्रकार हमसे विचारहीन होकर बातें कर रहे हो॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छध्वं त्वरिताः सर्वे यत्र राजा स कौरवः।
न चेदद्यैव गच्छध्वं धर्मराजनिवेशनम् ॥ ३० ॥
मूलम्
गच्छध्वं त्वरिताः सर्वे यत्र राजा स कौरवः।
न चेदद्यैव गच्छध्वं धर्मराजनिवेशनम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘या तो तुम सब लोग तुरन्त वहीं लौट जाओ, जहाँ तुम्हारा राजा दुर्योधन रहता है। या यदि ऐसा नहीं करना है, तो अभी धर्मराजके नगर (यमलोक) की राह लो’॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तास्तु गन्धर्वै राज्ञः सेनाग्रयायिनः।
सम्प्राद्रवन् यतो राजा धृतराष्ट्रसुतोऽभवत् ॥ ३१ ॥
मूलम्
एवमुक्तास्तु गन्धर्वै राज्ञः सेनाग्रयायिनः।
सम्प्राद्रवन् यतो राजा धृतराष्ट्रसुतोऽभवत् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गन्धर्वोंके ऐसा कहनेपर राजाके सेनानायक योद्धा वहीं भाग गये, जहाँ धृतराष्ट्रपुत्र राजा दुर्योधन स्वयं विराजमान था॥३१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि घोषयात्रापर्वणि गन्धर्वदुर्योधनसेनासंवादे चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २४० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत घोषयात्रापर्वमें गन्धर्वदुर्योधनसेनासंवादविषयक दो सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२४०॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ३१ श्लोक हैं)