२३९ दुर्योधनप्रस्थाने

भागसूचना

एकोनचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कर्ण आदिके द्वारा द्वैतवनमें जानेका प्रस्ताव, राजा धृतराष्ट्रकी अस्वीकृति, शकुनिका समझाना, धृतराष्ट्रका अनुमति देना तथा दुर्योधनका प्रस्थान

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृतराष्ट्रं ततः सर्वे ददृशुर्जनमेजय।
पृष्ट्वा सुखमथो राज्ञः पृष्टा राज्ञा च भारत ॥ १ ॥

मूलम्

धृतराष्ट्रं ततः सर्वे ददृशुर्जनमेजय।
पृष्ट्वा सुखमथो राज्ञः पृष्टा राज्ञा च भारत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— भरतनन्दन जनमेजय! तदनन्तर वे सब लोग राजा धृतराष्ट्रसे मिले। उन्होंने राजाकी कुशल पूछी तथा राजाने उनकी॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तैर्विहितः पूर्वं समङ्गो नाम बल्लवः।
समीपस्थास्तदा गावो धृतराष्ट्रे न्यवेदयत् ॥ २ ॥

मूलम्

ततस्तैर्विहितः पूर्वं समङ्गो नाम बल्लवः।
समीपस्थास्तदा गावो धृतराष्ट्रे न्यवेदयत् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन लोगोंने समंग नामक एक ग्वालेको पहलेसे ही सिखा-पढ़ाकर ठीक कर लिया था। उसने राजा धृतराष्ट्रकी सेवामें निवेदन किया कि ‘महाराज! आजकल आपकी गौएँ समीप ही आयी हुई हैं’॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनन्तरं च राधेयः शकुनिश्च विशाम्पते।
आहतुः पार्थिवश्रेष्ठं धृतराष्ट्रं जनाधिपम् ॥ ३ ॥

मूलम्

अनन्तरं च राधेयः शकुनिश्च विशाम्पते।
आहतुः पार्थिवश्रेष्ठं धृतराष्ट्रं जनाधिपम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! इसके बाद कर्ण और शकुनिने राजाओंमें श्रेष्ठ जननायक धृतराष्ट्रसे कहा—॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रमणीयेषु देशेषु घोषाः सम्प्रति कौरव।
स्मारणे समयः प्राप्तो वत्सानामपि चाङ्कनम् ॥ ४ ॥

मूलम्

रमणीयेषु देशेषु घोषाः सम्प्रति कौरव।
स्मारणे समयः प्राप्तो वत्सानामपि चाङ्कनम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुराज! इस समय हमारी गौओंके स्थान रमणीय प्रदेशोंमें हैं। यह समय गौओं और बछड़ोंकी गणना करने तथा उनकी आयु, रंग, जाति एवं नामका ब्यौरा लिखनेके लिये भी अत्यन्त उपयोगी है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृगया चोचिता राजन्नस्मिन् काले सुतस्य ते।
दुर्योधनस्य गमनं समनुज्ञातुमर्हसि ॥ ५ ॥

मूलम्

मृगया चोचिता राजन्नस्मिन् काले सुतस्य ते।
दुर्योधनस्य गमनं समनुज्ञातुमर्हसि ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! इस समय आपके पुत्र दुर्योधनके लिये हिंसक पशुओंके शिकार करनेका भी उपयुक्त अवसर है। अतः आप इन्हें द्वैतवनमें जानेकी आज्ञा दीजिये’॥५॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृगया शोभना तात गवां हि समवेक्षणम्।
विश्रम्भस्तु न गन्तव्यो बल्लवानामिति स्मरे ॥ ६ ॥

मूलम्

मृगया शोभना तात गवां हि समवेक्षणम्।
विश्रम्भस्तु न गन्तव्यो बल्लवानामिति स्मरे ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— तात! हिंसक पशुओंका शिकार खेलनेका प्रस्ताव सुन्दर है। गौओंकी देख-भालका काम भी अच्छा ही है; परंतु ग्वालोंकी बातोंपर विश्वास नहीं करना चाहिये, यह नीतिका वचन है, जिसका मुझे स्मरण हो आया है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते तु तत्र नरव्याघ्राः समीप इति नः श्रुतम्।
अतो नाभ्यनुजानामि गमनं तत्र वः स्वयम् ॥ ७ ॥

मूलम्

ते तु तत्र नरव्याघ्राः समीप इति नः श्रुतम्।
अतो नाभ्यनुजानामि गमनं तत्र वः स्वयम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने सुना है कि नरश्रेष्ठ पाण्डव भी इन दिनों वहीं कहीं आस-पास ठहरे हुए हैं; अतः तुमलोगोंको मैं स्वयं वहाँ जानेकी आज्ञा नहीं दे सकता॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छद्मना निर्जितास्ते तु कर्शिताश्च महावने।
तपोनित्याश्च राधेय समर्थाश्च महारथाः ॥ ८ ॥

मूलम्

छद्मना निर्जितास्ते तु कर्शिताश्च महावने।
तपोनित्याश्च राधेय समर्थाश्च महारथाः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राधानन्दन! पाण्डव छलपूर्वक हराये गये हैं। महान् वनमें रहकर उन्हें बड़ा कष्ट भोगना पड़ा है। वे निरन्तर तपस्या करते रहे हैं और अब विशेष शक्तिसम्पन्न हो गये हैं। महारथी तो वे हैं ही॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मराजो न संक्रुद्ध्येद् भीमसेनस्त्वमर्षणः।
यज्ञसेनस्य दुहिता तेज एव तु केवलम् ॥ ९ ॥

मूलम्

धर्मराजो न संक्रुद्ध्येद् भीमसेनस्त्वमर्षणः।
यज्ञसेनस्य दुहिता तेज एव तु केवलम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माना कि धर्मराज युधिष्ठिर क्रोध नहीं करेंगे, परंतु भीमसेन तो सदा ही अमर्षमें भरे रहते हैं और राजा द्रुपदकी पुत्री कृष्णा भी साक्षात् अग्निकी ही मूर्ति है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यूयं चाप्यपराध्येयुर्दर्पमोहसमन्विताः ।
ततो विनिर्दहेयुस्ते तपसा हि समन्विताः ॥ १० ॥

मूलम्

यूयं चाप्यपराध्येयुर्दर्पमोहसमन्विताः ।
ततो विनिर्दहेयुस्ते तपसा हि समन्विताः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमलोग तो अहंकार और मोहमें चूर रहते ही हो; अतः उनका अपराध अवश्य करोगे। उस दशामें वे तुम्हें भस्म किये बिना नहीं छोड़ेंगे। क्योंकि उनमें तपःशक्ति विद्यमान है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा सायुधा वीरा मन्युनाभिपरिप्लुताः।
सहिता बद्धनिस्त्रिंशा दहेयुः शस्त्रतेजसा ॥ ११ ॥

मूलम्

अथवा सायुधा वीरा मन्युनाभिपरिप्लुताः।
सहिता बद्धनिस्त्रिंशा दहेयुः शस्त्रतेजसा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा, उन वीरोंके पास अस्त्र-शस्त्रोंकी भी कमी नहीं है। तुम्हारे प्रति उनका क्रोध सदा ही बना रहता है। वे तलवार बाँधे सदा एक साथ रहते हैं; अतः वे अपने शस्त्रोंके तेजसे भी तुम्हें दग्ध कर सकते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ यूयं बहुत्वात् तानभियात कथंचन।
अनार्यं परमं तत् स्यादशक्यं तच्च वै मतम् ॥ १२ ॥

मूलम्

अथ यूयं बहुत्वात् तानभियात कथंचन।
अनार्यं परमं तत् स्यादशक्यं तच्च वै मतम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि संख्यासे अधिक होनेके कारण तुमने ही किसी प्रकार उनपर चढ़ाई कर दी तो यह भी तुम्हारी बड़ी भारी नीचता ही समझी जायगी। मेरी समझमें तो तुमलोगोंका पाण्डवोंपर विजय पाना असम्भव ही है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उषितो हि महाबाहुरिन्द्रलोके धनंजयः।
दिव्यान्यस्त्राण्यवाप्याथ ततः प्रत्यागतो वनम् ॥ १३ ॥

मूलम्

उषितो हि महाबाहुरिन्द्रलोके धनंजयः।
दिव्यान्यस्त्राण्यवाप्याथ ततः प्रत्यागतो वनम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहु धनंजय इन्द्रलोकमें रह चुके हैं और वहाँसे दिव्यास्त्रोंकी शिक्षा लेकर वनमें लौटे हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकृतास्त्रेण पृथिवी जिता बीभत्सुना पुरा।
किं पुनः स कृतास्त्रोऽद्य न हन्याद् वो महारथः॥१४॥

मूलम्

अकृतास्त्रेण पृथिवी जिता बीभत्सुना पुरा।
किं पुनः स कृतास्त्रोऽद्य न हन्याद् वो महारथः॥१४॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले जब अर्जुनको दिव्यास्त्र नहीं प्राप्त हुए थे, तभी उन्होंने सारी पृथ्वीको जीत लिया था। अब तो महारथी अर्जुन दिव्यास्त्रोंके विद्वान् हैं, ऐसी दशामें वे तुम्हें मार डालें, यह कौन बड़ी बात है?॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा मद्वचः श्रुत्वा तत्र यत्ता भविष्यथ।
उद्विग्नवासो विश्रम्भाद् दुःखं तत्र भविष्यति ॥ १५ ॥

मूलम्

अथवा मद्वचः श्रुत्वा तत्र यत्ता भविष्यथ।
उद्विग्नवासो विश्रम्भाद् दुःखं तत्र भविष्यति ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा मेरी बात सुनकर तुमलोग वहाँ यदि अपनेको काबूमें रखते हुए सावधानीके साथ रह सको, तो भी यह विश्वास करके कि ये लोग सत्यवादी होनेके कारण हमें कष्ट नहीं देंगे, वनवाससे उद्विग्न हुए पाण्डवोंके बीचमें निवास करना तुम्हारे लिये दुःखदायी ही होगा॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा सैनिकाः केचिदपकुर्युर्युधिष्ठिरम् ।
तदबुद्धिकृतं कर्म दोषमुत्पादयेच्च वः ॥ १६ ॥

मूलम्

अथवा सैनिकाः केचिदपकुर्युर्युधिष्ठिरम् ।
तदबुद्धिकृतं कर्म दोषमुत्पादयेच्च वः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा यह भी सम्भव है कि तुमलोगोंके कुछ सैनिक युधिष्ठिरका अपमान कर बैठें और तुम्हारे अनजानमें किया गया यह अपराध तुमलोगोंके लिये हानिकारक हो जाय॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् गच्छन्तु पुरुषाः स्मारणायाप्तकारिणः।
न स्वयं तत्र गमनं रोचये तव भारत ॥ १७ ॥

मूलम्

तस्माद् गच्छन्तु पुरुषाः स्मारणायाप्तकारिणः।
न स्वयं तत्र गमनं रोचये तव भारत ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः भरतनन्दन! दूसरे विश्वसनीय पुरुष गौओंकी गणना करनेके लिये वहाँ चले जायँगे। स्वयं तुम्हारा वहाँ जाना मुझे ठीक नहीं जान पड़ता॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

शकुनिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मज्ञः पाण्डवो ज्येष्ठः प्रतिज्ञातं च संसदि।
तेन द्वादश वर्षाणि वस्तव्यानीति भारत ॥ १८ ॥

मूलम्

धर्मज्ञः पाण्डवो ज्येष्ठः प्रतिज्ञातं च संसदि।
तेन द्वादश वर्षाणि वस्तव्यानीति भारत ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शकुनि बोला— भारत! ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर धर्मात्मा हैं। उन्होंने भरी सभामें यह प्रतिज्ञा की है कि ‘हमें बारह वर्षोंतक वनमें रहना है’॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुवृत्ताश्च ते सर्वे पाण्डवा धर्मचारिणः।
युधिष्ठिरस्तु कौन्तेयो न नः कोपं करिष्यति ॥ १९ ॥

मूलम्

अनुवृत्ताश्च ते सर्वे पाण्डवा धर्मचारिणः।
युधिष्ठिरस्तु कौन्तेयो न नः कोपं करिष्यति ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्य पाण्डव भी धर्मपर ही चलनेवाले हैं; अतः वे सब-के-सब युधिष्ठिरका ही अनुसरण करते हैं। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर हमलोगोंपर कदापि क्रोध नहीं करेंगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृगयां चैव नो गन्तुमिच्छा संवर्तते भृशम्।
स्मारणं तु चिकीर्षामो न तु पाण्डवदर्शनम् ॥ २० ॥

मूलम्

मृगयां चैव नो गन्तुमिच्छा संवर्तते भृशम्।
स्मारणं तु चिकीर्षामो न तु पाण्डवदर्शनम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमारी विशेष इच्छा केवल हिंसक पशुओंका शिकार खेलनेकी है। हमलोग वहाँ स्मरणके लिये केवल गौओंकी गणना करना चाहते हैं। पाण्डवोंसे मिलनेकी हमारी इच्छा बिलकुल नहीं है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चानार्यसमाचारः कश्चित् तत्र भविष्यति।
न च तत्र गमिष्यामो यत्र तेषां प्रतिश्रयः ॥ २१ ॥

मूलम्

न चानार्यसमाचारः कश्चित् तत्र भविष्यति।
न च तत्र गमिष्यामो यत्र तेषां प्रतिश्रयः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमारी ओरसे वहाँ कोई भी नीचतापूर्ण व्यवहार नहीं होगा। जहाँ पाण्डवोंका निवास होगा, उधर हमलोग जायँगे ही नहीं॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः शकुनिना धृतराष्ट्रो जनेश्वरः।
दुर्योधनं सहामात्यमनुजज्ञे न कामतः ॥ २२ ॥

मूलम्

एवमुक्तः शकुनिना धृतराष्ट्रो जनेश्वरः।
दुर्योधनं सहामात्यमनुजज्ञे न कामतः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! शकुनिके ऐसा कहनेपर राजा धृतराष्ट्रने इच्छा न होते हुए भी मन्त्रियों-सहित दुर्योधनको वहाँ जानेकी आज्ञा दे दी॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुज्ञातस्तु गान्धारिः कर्णेन सहितस्तदा।
निर्ययौ भरतश्रेष्ठो बलेन महता वृतः ॥ २३ ॥

मूलम्

अनुज्ञातस्तु गान्धारिः कर्णेन सहितस्तदा।
निर्ययौ भरतश्रेष्ठो बलेन महता वृतः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रकी आज्ञा पाकर गान्धारीपुत्र भरतश्रेष्ठ दुर्योधन कर्ण और विशाल सेनाके साथ नगरसे बाहर निकला॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुःशासनेन च तथा सौबलेन च धीमता।
संवृतो भ्रातृभिश्चान्यैः स्त्रीभिश्चापि सहस्रशः ॥ २४ ॥

मूलम्

दुःशासनेन च तथा सौबलेन च धीमता।
संवृतो भ्रातृभिश्चान्यैः स्त्रीभिश्चापि सहस्रशः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुःशासन, बुद्धिमान् शकुनि, अन्यान्य भाइयों तथा सहस्रों स्त्रियोंसे घिरे हुए दुर्योधनने वहाँसे प्रस्थान किया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं निर्यान्तं महाबाहुं द्रष्टुं द्वैतवनं सरः।
पौराश्चानुययुः सर्वे सहदारा वनं च तत् ॥ २५ ॥

मूलम्

तं निर्यान्तं महाबाहुं द्रष्टुं द्वैतवनं सरः।
पौराश्चानुययुः सर्वे सहदारा वनं च तत् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्वैतवन नामक सरोवर तथा वनको देखनेके लिये यात्रा करनेवाले महाबाहु दुर्योधनके पीछे समस्त पुरवासी भी अपनी स्त्रियोंको साथ लेकर गये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टौ रथसहस्राणि त्रीणि नागायुतानि च।
पत्तयो बहुसाहस्रा हयाश्च नवतिः शताः ॥ २६ ॥

मूलम्

अष्टौ रथसहस्राणि त्रीणि नागायुतानि च।
पत्तयो बहुसाहस्रा हयाश्च नवतिः शताः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनके साथ आठ हजार रथ, तीस हजार हाथी, कई हजार पैदल और नौ हजार घोड़े गये॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शकटापणवेशाश्च वणिजो वन्दिनस्तथा ।
नराश्च मृगयाशीलाः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ २७ ॥

मूलम्

शकटापणवेशाश्च वणिजो वन्दिनस्तथा ।
नराश्च मृगयाशीलाः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बोझ ढोनेके लिये सैकड़ों छकड़े, दुकानें तथा वेष-भूषाकी सामग्रियाँ भी साथ चलीं। वणिक्, वंदीजन तथा आखेटप्रिय मनुष्य सैकड़ों-हजारोंकी संख्यामें साथ गये॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रयाणे नृपतेः सुमहानभवत् स्वनः।
प्रावृषीव महावायोरुद्धतस्य विशाम्पते ॥ २८ ॥

मूलम्

ततः प्रयाणे नृपतेः सुमहानभवत् स्वनः।
प्रावृषीव महावायोरुद्धतस्य विशाम्पते ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! राजा दुर्योधनके प्रस्थानकालमें बड़े जोरका कोलाहल हुआ, मानो वर्षाकालमें प्रचण्ड वायुका भयंकर शब्द सुनायी दे रहा हो॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गव्यूतिमात्रे न्यवसद् राजा दुर्योधनस्तदा।
प्रयातो वाहनैः सर्वैस्ततो द्वैतवनं सरः ॥ २९ ॥

मूलम्

गव्यूतिमात्रे न्यवसद् राजा दुर्योधनस्तदा।
प्रयातो वाहनैः सर्वैस्ततो द्वैतवनं सरः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नगरसे दो कोस दूर जाकर राजा दुर्योधनने पड़ाव डाल दिया। फिर वहाँसे समस्त वाहनोंके साथ द्वैतवन एवं सरोवरकी ओर प्रस्थान किया॥२९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि घोषयात्रापर्वणि दुर्योधनप्रस्थाने एकोनचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत घोषयात्रापर्वमें दुर्योधनप्रस्थानविषयक दो सौ उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३९॥