भागसूचना
अष्टात्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दुर्योधनके द्वारा कर्ण और शकुनिकी मन्त्रणा स्वीकार करना तथा कर्ण आदिका घोषयात्राको निमित्त बनाकर द्वैतवनमें जानेके लिये धृतराष्ट्रसे आज्ञा लेने जाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णस्य वचनं श्रुत्वा राजा दुर्योधनस्ततः।
हृष्टो भूत्वा पुनर्दीन इदं वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥
मूलम्
कर्णस्य वचनं श्रुत्वा राजा दुर्योधनस्ततः।
हृष्टो भूत्वा पुनर्दीन इदं वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कर्णकी बात सुनकर राजा दुर्योधनको पहले तो बड़ी प्रसन्नता हुई; फिर वह दीन होकर इस प्रकार बोला—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रवीषि यदिदं कर्ण सर्वं मनसि मे स्थितम्।
न त्वभ्यनुज्ञां लप्स्यामि गमने यत्र पाण्डवाः ॥ २ ॥
मूलम्
ब्रवीषि यदिदं कर्ण सर्वं मनसि मे स्थितम्।
न त्वभ्यनुज्ञां लप्स्यामि गमने यत्र पाण्डवाः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कर्ण! तुम जो कुछ कह रहे हो, वह सब मेरे मनमें भी है। परंतु जहाँ पाण्डव रहते हैं, वहाँ जानेके लिये मैं पिताजीकी आज्ञा नहीं पा सकूँगा॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिदेवति तान् वीरान् धृतराष्ट्रो महीपतिः।
मन्यतेऽभ्यधिकांश्चापि तपोयोगेन पाण्डवान् ॥ ३ ॥
मूलम्
परिदेवति तान् वीरान् धृतराष्ट्रो महीपतिः।
मन्यतेऽभ्यधिकांश्चापि तपोयोगेन पाण्डवान् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज धृतराष्ट्र उन वीर पाण्डवोंके लिये सदा विलाप करते रहते हैं। वे तपःशक्तिके संयोगसे पाण्डवोंको हमसे अधिक बलशाली भी मानते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवाप्यनुबुध्येत नृपोऽस्माकं चिकीर्षितम् ।
एवमप्यायतिं रक्षन् नाभ्यनुज्ञातुमर्हति ॥ ४ ॥
मूलम्
अथवाप्यनुबुध्येत नृपोऽस्माकं चिकीर्षितम् ।
एवमप्यायतिं रक्षन् नाभ्यनुज्ञातुमर्हति ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अथवा यदि उन्हें इस बातका पता लग जाय कि हमलोग वहाँ जाकर क्या करना चाहते हैं, तब वे भावी संकटसे हमारी रक्षाके लिये ही हमें वहाँ जानेकी अनुमति नहीं देंगे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि द्वैतवने किंचिद् विद्यतेऽन्यत् प्रयोजनम्।
उत्सादनमृते तेषां वनस्थानां महाद्युते ॥ ५ ॥
मूलम्
न हि द्वैतवने किंचिद् विद्यतेऽन्यत् प्रयोजनम्।
उत्सादनमृते तेषां वनस्थानां महाद्युते ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महातेजस्वी कर्ण! (पिताजीको यह समझते देर नहीं लगेगी कि) वनमें रहनेवाले पाण्डवोंको उखाड़ फेंकनेके अतिरिक्त हमलोगोंके द्वैतवनमें जानेका दूसरा कोई प्रयोजन नहीं है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानासि हि यथा क्षत्ता द्यूतकाल उपस्थिते।
अब्रवीद् यच्च मां त्वां च सौबलं वचनं तदा॥६॥
मूलम्
जानासि हि यथा क्षत्ता द्यूतकाल उपस्थिते।
अब्रवीद् यच्च मां त्वां च सौबलं वचनं तदा॥६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जुएका अवसर उपस्थित होनेपर विदुरजीने मुझसे, तुमसे तथा (मामा) शकुनिसे जैसी बातें कही थीं, उन्हें तो तुम जानते ही हो॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानि सर्वाणि वाक्यानि यच्चान्यत् परिदेवितम्।
विचिन्त्य नाधिगच्छामि गमनायेतराय वा ॥ ७ ॥
मूलम्
तानि सर्वाणि वाक्यानि यच्चान्यत् परिदेवितम्।
विचिन्त्य नाधिगच्छामि गमनायेतराय वा ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन सब बातोंपर तथा और भी पाण्डवोंके लिये जो विलाप किया गया है, उसपर विचार करके मैं किसी निश्चयपर नहीं पहुँच पाता कि द्वैतवनमें चलूँ या न चलूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ममापि हि महान् हर्षो यदहं भीमफाल्गुनौ।
क्लिष्टावरण्ये पश्येयं कृष्णया सहिताविति ॥ ८ ॥
मूलम्
ममापि हि महान् हर्षो यदहं भीमफाल्गुनौ।
क्लिष्टावरण्ये पश्येयं कृष्णया सहिताविति ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि मैं भीमसेन तथा अर्जुनको द्रौपदीके साथ वनमें क्लेश उठाते देख सकूँ, तो मुझे भी बड़ी प्रसन्नता होगी॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तथा ह्याप्नुयां प्रीतिमवाप्य वसुधामिमाम्।
दृष्ट्वा यथा पाण्डुसुतान् वल्कलाजिनवाससः ॥ ९ ॥
मूलम्
न तथा ह्याप्नुयां प्रीतिमवाप्य वसुधामिमाम्।
दृष्ट्वा यथा पाण्डुसुतान् वल्कलाजिनवाससः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पाण्डवोंको वल्कल वस्त्र पहने और मृगचर्म ओढ़े देखकर मुझे जितनी खुशी होगी, उतनी इस समूची पृथ्वीका राज्य पाकर भी नहीं होगी’॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं नु स्यादधिकं तस्माद् यदहं द्रुपदात्मजाम्।
द्रौपदीं कर्ण पश्येयं काषायवसनां वने ॥ १० ॥
मूलम्
किं नु स्यादधिकं तस्माद् यदहं द्रुपदात्मजाम्।
द्रौपदीं कर्ण पश्येयं काषायवसनां वने ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कर्ण! मैं द्रुपदकुमारी कृष्णाको वनमें गेरुए कपड़े पहने देखूँ, इससे बढ़कर प्रसन्नताकी बात मेरे लिये और क्या हो सकती है?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि मां धर्मराजश्च भीमसेनश्च पाण्डवः।
युक्तं परमया लक्ष्म्या पश्येतां जीवितं भवेत् ॥ ११ ॥
मूलम्
यदि मां धर्मराजश्च भीमसेनश्च पाण्डवः।
युक्तं परमया लक्ष्म्या पश्येतां जीवितं भवेत् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि धर्मराज युधिष्ठिर तथा पाण्डुनन्दन भीमसेन मुझे परमोत्कृष्ट राजलक्ष्मीसे सम्पन्न देख लें तो मेरा जीवन सफल हो जाय॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपायं न तु पश्यामि येन गच्छेम तद् वनम्।
यथा चाभ्यनुजानीयाद् गच्छन्तं मां महीपतिः ॥ १२ ॥
मूलम्
उपायं न तु पश्यामि येन गच्छेम तद् वनम्।
यथा चाभ्यनुजानीयाद् गच्छन्तं मां महीपतिः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परन्तु मुझे कोई ऐसा उपाय नहीं दिखायी देता, जिससे हमलोग द्वैतवनमें जा सकें; अथवा महाराज मुझे वहाँ जानेकी आज्ञा दे दें’॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सौबलेन सहितस्तथा दुःशासनेन च।
उपायं पश्य निपुणं येन गच्छेम तद् वनम् ॥ १३ ॥
मूलम्
स सौबलेन सहितस्तथा दुःशासनेन च।
उपायं पश्य निपुणं येन गच्छेम तद् वनम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः तुम मामा शकुनि तथा भाई दुःशासनके साथ सलाह करके कोई अच्छा-सा उपाय ढूँढ़ निकालो, जिससे हमलोग द्वैतवनमें चल सकें॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहमप्यद्य निश्चित्य गमनायेतराय च।
कल्यमेव गमिष्यामि समीपं पार्थिवस्य ह ॥ १४ ॥
मूलम्
अहमप्यद्य निश्चित्य गमनायेतराय च।
कल्यमेव गमिष्यामि समीपं पार्थिवस्य ह ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं भी आज ही जाने या न जानेके विषयमें कोई निश्चय करके कल सबेरा होते ही महाराजके पास जाऊँगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयि तत्रोपविष्टे तु भीष्मे च कुरुसत्तमे।
उपायो यो भवेद् दृष्टस्तं ब्रूयाः सहसौबलः ॥ १५ ॥
मूलम्
मयि तत्रोपविष्टे तु भीष्मे च कुरुसत्तमे।
उपायो यो भवेद् दृष्टस्तं ब्रूयाः सहसौबलः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब मैं वहाँ बैठ जाऊँ और कुरुश्रेष्ठ भीष्मजी भी उपस्थित रहें, उस समय जो उपाय दिखायी दे, उसे तुम और शकुनि—दोनों बतलाना॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वचो भीष्मस्य राज्ञश्च निशम्य गमनं प्रति।
व्यवसायं करिष्येऽहमनुनीय पितामहम् ॥ १६ ॥
मूलम्
वचो भीष्मस्य राज्ञश्च निशम्य गमनं प्रति।
व्यवसायं करिष्येऽहमनुनीय पितामहम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पितामह भीष्मजीकी तथा महाराजकी वहाँ जानेके विषयमें क्या सम्मति है; यह सुन लेनेपर पितामहको अनुनय-विनयसे राजी करके (उनकी आज्ञा लेकर ही) द्वैतवनमें चलनेका निश्चय करूँगा’॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे जग्मुरावसथान् प्रति।
व्युषितायां रजन्यां तु कर्णो राजानमभ्ययात् ॥ १७ ॥
मूलम्
तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे जग्मुरावसथान् प्रति।
व्युषितायां रजन्यां तु कर्णो राजानमभ्ययात् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बहुत अच्छा, ऐसा ही हो’ यह कहकर सब अपने-अपने विश्रामगृहमें चले गये। जब रात बीती और सबेरा हुआ, तब कर्ण राजा दुर्योधनके पास गया॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनं कर्णः प्रहसन्निदमब्रवीत्।
उपायः परिदृष्टोऽयं तं निबोध जनेश्वर ॥ १८ ॥
मूलम्
ततो दुर्योधनं कर्णः प्रहसन्निदमब्रवीत्।
उपायः परिदृष्टोऽयं तं निबोध जनेश्वर ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ कर्णने हँसकर दुर्योधनसे कहा—‘जनेश्वर! मुझे जो उपाय सूझा है, उसे बताता हूँ, सुनो॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घोषा द्वैतवने सर्वे त्वत्प्रतीक्षा नराधिप।
घोषयात्रापदेशेन गमिष्यामो न संशयः ॥ १९ ॥
मूलम्
घोषा द्वैतवने सर्वे त्वत्प्रतीक्षा नराधिप।
घोषयात्रापदेशेन गमिष्यामो न संशयः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! गौओंके रहनेके सभी स्थान इस समय द्वैतवनमें ही हैं और वहाँ आपके पधारनेकी सदा प्रतीक्षा की जाती है, अतः घोषयात्रा (उन स्थानोंको देखने)-के बहाने हम वहाँ निःसन्देह चल सकेंगे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उचितं हि सदा गन्तुं घोषयात्रां विशाम्पते।
एवं च त्वां पिता राजन् समनुज्ञातुमर्हति ॥ २० ॥
मूलम्
उचितं हि सदा गन्तुं घोषयात्रां विशाम्पते।
एवं च त्वां पिता राजन् समनुज्ञातुमर्हति ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! अपनी गौओंको देखनेके लिये यात्रा करना सदा उचित ही है; ऐसा बहाना लेनेपर पिताजी तुम्हें अवश्य वहाँ जानेकी आज्ञा दे सकते हैं’॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा कथयमानौ तौ घोषयात्राविनिश्चयम्।
गान्धारराजः शकुनिः प्रत्युवाच हसन्निव ॥ २१ ॥
मूलम्
तथा कथयमानौ तौ घोषयात्राविनिश्चयम्।
गान्धारराजः शकुनिः प्रत्युवाच हसन्निव ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घोषयात्राका निश्चय करनेके लिये इस प्रकारकी बातें करते हुए उन दोनों सुहृदोंसे गान्धारराज शकुनिने हँसते हुए-से कहा—॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपायोऽयं मया दृष्टो गमनाय निरामयः।
अनुज्ञास्यति नो राजा बोधयिष्यति चाप्युत ॥ २२ ॥
मूलम्
उपायोऽयं मया दृष्टो गमनाय निरामयः।
अनुज्ञास्यति नो राजा बोधयिष्यति चाप्युत ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘द्वैतवनमें जानेका यह उपाय मुझे सर्वथा निर्दोष दिखायी दिया है। इसके लिये राजा धृतराष्ट्र हमें अवश्य आज्ञा दे देंगे और वहाँ जाकर हमें क्या-क्या करना चाहिये—इसके विषयमें कुछ समझायेंगे भी॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घोषा द्वैतवने सर्वे त्वत्प्रतीक्षा नराधिप।
घोषयात्रापदेशेन गमिष्यामो न संशयः ॥ २३ ॥
मूलम्
घोषा द्वैतवने सर्वे त्वत्प्रतीक्षा नराधिप।
घोषयात्रापदेशेन गमिष्यामो न संशयः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! गौओंके रहनेके सभी स्थान इस समय द्वैतवनमें ही हैं और वहाँ तुम्हारे पधारनेकी सदा प्रतीक्षा की जाती है; अतः घोषयात्राके बहाने हम वहाँ निःसंदेह चल सकेंगे’॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रहसिताः सर्वे तेऽन्योन्यस्य तलान् ददुः।
तदेव च विनिश्चित्य ददृशुः कुरुसत्तमम् ॥ २४ ॥
मूलम्
ततः प्रहसिताः सर्वे तेऽन्योन्यस्य तलान् ददुः।
तदेव च विनिश्चित्य ददृशुः कुरुसत्तमम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वे सब-के-सब अपनी योजनाको सफल होती देख हँसने और एक-दूसरेके हाथपर प्रसन्नतासे ताली देने लगे। फिर यही निश्चय करके वे तीनों कुरुश्रेष्ठ राजा धृतराष्ट्रसे मिले॥२४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि घोषयात्रापर्वणि घोषयात्रामन्त्रणे अष्टात्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत घोषयात्रापर्वमें घोषयात्राके सम्बन्धमें परामर्शविषयक दो सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३८॥