भागसूचना
सप्तत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शकुनि और कर्णका दुर्योधनकी प्रशंसा करते हुए उसे वनमें पाण्डवोंके पास चलनेके लिये उभाड़ना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृतराष्ट्रस्य तद् वाक्यं निशम्य शकुनिस्तदा।
दुर्योधनमिदं काले कर्णेन सहितोऽब्रवीत् ॥ १ ॥
मूलम्
धृतराष्ट्रस्य तद् वाक्यं निशम्य शकुनिस्तदा।
दुर्योधनमिदं काले कर्णेन सहितोऽब्रवीत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! धृतराष्ट्रके पूर्वोक्त वचन सुनकर उस समय कर्णसहित शकुनिने अवसर देखकर दुर्योधनसे इस प्रकार कहा—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रव्राज्य पाण्डवान् वीरान् स्वेन वीर्येण भारत।
भुङ्क्ष्वेमां पृथिवीमेको दिवि शम्बरहा यथा ॥ २ ॥
मूलम्
प्रव्राज्य पाण्डवान् वीरान् स्वेन वीर्येण भारत।
भुङ्क्ष्वेमां पृथिवीमेको दिवि शम्बरहा यथा ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भरतनन्दन! तुमने अपने पराक्रमसे पाण्डव-वीरोंको देशनिकाला देकर वनवासी बना दिया है। अब तुम स्वर्गमें इन्द्रकी भाँति अकेले ही इस पृथ्वीका राज्य भोगो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(तवाद्य पृथिवी राजन्नखिला सागराम्बरा।
सपर्वतवनारामा सह स्थावरजङ्गमा ॥)
मूलम्
(तवाद्य पृथिवी राजन्नखिला सागराम्बरा।
सपर्वतवनारामा सह स्थावरजङ्गमा ॥)
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! पर्वत, वन, उद्यान एवं स्थावर-जङ्गमोंसहित यह सारी समुद्रपर्यना पृथ्वी आज तुम्हारे अधिकारमें है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राच्याश्च दाक्षिणात्याश्च प्रतीच्योदीच्यवासिनः ।
कृताः करप्रदाः सर्वे राजानस्ते नराधिप ॥ ३ ॥
मूलम्
प्राच्याश्च दाक्षिणात्याश्च प्रतीच्योदीच्यवासिनः ।
कृताः करप्रदाः सर्वे राजानस्ते नराधिप ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाके सभी राजाओंको तुम्हारे लिये करदाता बना दिया है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
या हि सा दीप्यमानेव पाण्डवानभजत् पुरा।
साद्य लक्ष्मीस्त्वया राजन्नवाप्ता भ्रातृभिः सह ॥ ४ ॥
मूलम्
या हि सा दीप्यमानेव पाण्डवानभजत् पुरा।
साद्य लक्ष्मीस्त्वया राजन्नवाप्ता भ्रातृभिः सह ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! जो दीप्तिमती श्री पहले पाण्डवोंकी सेवा करती थी, वही आज भाइयोंसहित तुम्हारे अधिकारमें आ गयी है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रप्रस्थगते यां तां दीप्यमानां युधिष्ठिरे।
अपश्याम श्रियं राजन् दृश्यते सा तवाद्य वै ॥ ५ ॥
मूलम्
इन्द्रप्रस्थगते यां तां दीप्यमानां युधिष्ठिरे।
अपश्याम श्रियं राजन् दृश्यते सा तवाद्य वै ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! इन्द्रप्रस्थमें जानेपर युधिष्ठिरके यहाँ हम लोग जिस राजलक्ष्मीको प्रकाशित होते देखते थे, वही आज तुम्हारे यहाँ उद्भासित होती दिखायी देती है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शत्रवस्तव राजेन्द्र न चिरं शोककर्शिताः।
सा तु बुद्धिबलेनेयं राज्ञस्तस्माद् युधिष्ठिरात् ॥ ६ ॥
त्वयाऽऽक्षिप्ता महाबाहो दीप्यमानेव दृश्यते।
मूलम्
शत्रवस्तव राजेन्द्र न चिरं शोककर्शिताः।
सा तु बुद्धिबलेनेयं राज्ञस्तस्माद् युधिष्ठिरात् ॥ ६ ॥
त्वयाऽऽक्षिप्ता महाबाहो दीप्यमानेव दृश्यते।
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजेन्द्र! तुम्हारे शत्रु शीघ्र ही शोकसे दीन-दुर्बल हो गये हैं। महाबाहो! तुमने राजा युधिष्ठिरसे इस लक्ष्मीको अपने बुद्धिबलसे छीन लिया है। अतः अब तुम्हारे यहाँ यह प्रकाशित होती-सी दिखायी दे रही है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव तव राजेन्द्र राजानः परवीरहन् ॥ ७ ॥
शासनेऽधिष्ठिताः सर्वे किं कुर्म इति वादिनः।
मूलम्
तथैव तव राजेन्द्र राजानः परवीरहन् ॥ ७ ॥
शासनेऽधिष्ठिताः सर्वे किं कुर्म इति वादिनः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले महाराज! इसी प्रकार सब राजा अपनेको किंकर बताते हुए आपकी आज्ञाके अधीन रहते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तवेयं पृथिवी राजन् निखिला सागराम्बरा ॥ ८ ॥
सपर्वतवना देवी सग्रामनगराकरा ।
नानावनोद्देशवती पर्वतैरुपशोभिता ॥ ९ ॥
मूलम्
तवेयं पृथिवी राजन् निखिला सागराम्बरा ॥ ८ ॥
सपर्वतवना देवी सग्रामनगराकरा ।
नानावनोद्देशवती पर्वतैरुपशोभिता ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! इस समय यह सारी समुद्रवसना पृथ्वीदेवी पर्वत, वन, ग्राम, नगर तथा खानोंके साथ तुम्हारे अधिकारमें आ गयी है। यह नाना प्रकारके प्रदेशोंसे युक्त तथा पर्वतोंसे सुशोभित है॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(नानाध्वजपताकाङ्का स्फीतराष्ट्रा महाबला)
मूलम्
(नानाध्वजपताकाङ्का स्फीतराष्ट्रा महाबला)
अनुवाद (हिन्दी)
‘नाना प्रकारकी ध्वजा-पताकाओंसे चिह्नित इस भूतलपर कितने ही समृद्धिशाली राष्ट्र हैं और वहाँ बहुत-सी विशाल सेनाएँ संगठित हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वन्द्यमानो द्विजै राजन् पूज्यमानश्च राजभिः।
पौरुषाद् दिवि देवेषु भ्राजसे रश्मिवानिव ॥ १० ॥
मूलम्
वन्द्यमानो द्विजै राजन् पूज्यमानश्च राजभिः।
पौरुषाद् दिवि देवेषु भ्राजसे रश्मिवानिव ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! तुम अपने पुरुषार्थसे द्विजोंद्वारा सम्मानित तथा राजाओंद्वारा पूजित होकर स्वर्ग एवं देवताओंमें अंशुमाली सूर्यकी भाँति इस भूतलपर प्रकाशित हो रहे हो॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुद्रैरिव यमो राजा मरुद्भिरिव वासवः।
कुरुभिस्त्वं वृतो राजन् भासि नक्षत्रराडिव ॥ ११ ॥
मूलम्
रुद्रैरिव यमो राजा मरुद्भिरिव वासवः।
कुरुभिस्त्वं वृतो राजन् भासि नक्षत्रराडिव ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! जिस प्रकार रुद्रोंसे यमराज, मरुद्गणोंसे इन्द्र तथा नक्षत्रोंसे उनके स्वामी चन्द्रमाकी शोभा होती है, उसी प्रकार कौरवोंसे घिरे हुए तुम शोभा पा रहे हो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यैः स्म ते नाद्रियेताज्ञा न च ये शासने स्थिताः।
पश्यामस्तान् श्रिया हीनान् पाण्डवान् वनवासिनः ॥ १२ ॥
मूलम्
यैः स्म ते नाद्रियेताज्ञा न च ये शासने स्थिताः।
पश्यामस्तान् श्रिया हीनान् पाण्डवान् वनवासिनः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिन्होंने तुम्हारी आज्ञाका आदर नहीं किया था और जो तुम्हारे शासनमें नहीं थे, उन पाण्डवोंकी दशा हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं। वे राजलक्ष्मीसे वञ्चित हो वनमें निवास करते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रूयते हि महाराज सरो द्वैतवनं प्रति।
वसन्तः पाण्डवाः सार्धं ब्राह्मणैर्वनवासिभिः ॥ १३ ॥
मूलम्
श्रूयते हि महाराज सरो द्वैतवनं प्रति।
वसन्तः पाण्डवाः सार्धं ब्राह्मणैर्वनवासिभिः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! सुननेमें आया है कि पाण्डवलोग द्वैतवनमें सरोवरके तटपर वनवासी ब्राह्मणोंके साथ रहते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स प्रयाहि महाराज श्रिया परमया युतः।
तापयन् पाण्डुपुत्रांस्त्वं रश्मिवानिव तेजसा ॥ १४ ॥
मूलम्
स प्रयाहि महाराज श्रिया परमया युतः।
तापयन् पाण्डुपुत्रांस्त्वं रश्मिवानिव तेजसा ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! तुम उत्कृष्ट राजलक्ष्मीसे सुशोभित होकर वहाँ चलो और जैसे सूर्य अपने तेजसे जगत्को संतप्त करते हैं, उसी प्रकार पाण्डुपुत्रोंको संताप दो॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थितो राज्ये च्युतान् राज्याच्छ्रिया हीनाञ्छ्रिया वृतः।
असमृद्धान् समृद्धार्थः पश्य पाण्डुसुतान् नृप ॥ १५ ॥
मूलम्
स्थितो राज्ये च्युतान् राज्याच्छ्रिया हीनाञ्छ्रिया वृतः।
असमृद्धान् समृद्धार्थः पश्य पाण्डुसुतान् नृप ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस समय तुम राजाके पदपर प्रतिष्ठित हो और पाण्डव राज्यसे भ्रष्ट हो गये हैं। तुम श्रीसम्पन्न हो और वे श्रीहीन हैं। तुम समृद्धिशाली हो और वे निर्धन हो गये हैं। नरेश्वर! तुम इसी दशामें चलकर पाण्डवोंको देखो॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाभिजनसम्पन्नं भद्रे महति संस्थितम्।
पाण्डवास्त्वाभिवीक्षन्तां ययातिमिव नाहुषम् ॥ १६ ॥
मूलम्
महाभिजनसम्पन्नं भद्रे महति संस्थितम्।
पाण्डवास्त्वाभिवीक्षन्तां ययातिमिव नाहुषम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पाण्डव तुम्हें नहुषनन्दन ययातिकी भाँति महान् वंशमें उत्पन्न तथा परम मंगलमयी स्थितिमें प्रतिष्ठित देखें॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यां श्रियं सुहृदश्चैव दुर्हृदश्च विशाम्पते।
पश्यन्ति पुरुषे दीप्तां सा समर्था भवत्युत ॥ १७ ॥
मूलम्
यां श्रियं सुहृदश्चैव दुर्हृदश्च विशाम्पते।
पश्यन्ति पुरुषे दीप्तां सा समर्था भवत्युत ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रजापालक नरेश! पुरुषमें प्रकाशित होनेवाली जिस लक्ष्मीको उसके सुहृद् और शत्रु दोनों देखते हैं, वही सबल होती है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समस्थो विषमस्थान् हि दुर्हृदो योऽभिवीक्षते।
जगतीस्थानिवाद्रिस्थः किमतः परमं सुखम् ॥ १८ ॥
मूलम्
समस्थो विषमस्थान् हि दुर्हृदो योऽभिवीक्षते।
जगतीस्थानिवाद्रिस्थः किमतः परमं सुखम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे पर्वतकी चोटीपर खड़ा हुआ मनुष्य भूतलपर स्थित हुई सभी वस्तुओंको नीची और छोटी देखता है, उसी प्रकार जो पुरुष स्वयं सुखमें रहकर शत्रुओंको संकटमें पड़ा हुआ देखता है, उसके लिये इससे बढ़कर सुखकी बात और क्या होगी?॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न पुत्रधनलाभेन न राज्येनापि विन्दति।
प्रीतिं नृपतिशार्दूल याममित्राघदर्शनात् ॥ १९ ॥
किं नु तस्य सुखं न स्यादाश्रमे यो धनंजयम्।
अभिवीक्षेत सिद्धार्थो वल्कलाजिनवाससम् ॥ २० ॥
मूलम्
न पुत्रधनलाभेन न राज्येनापि विन्दति।
प्रीतिं नृपतिशार्दूल याममित्राघदर्शनात् ॥ १९ ॥
किं नु तस्य सुखं न स्यादाश्रमे यो धनंजयम्।
अभिवीक्षेत सिद्धार्थो वल्कलाजिनवाससम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नृपश्रेष्ठ! मनुष्यको अपने शत्रुओंकी दुर्दशा देखनेसे जो प्रसन्नता प्राप्त होती है, वह धन, पुत्र तथा राज्य मिलनेसे भी नहीं होती। हमलोगोंमेंसे जो भी स्वयं सिद्धमनोरथ होकर आश्रममें अर्जुनको वल्कल और मृगछाला पहने देखेगा, उसे कौन-सा सुख नहीं मिल जायगा?॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुवाससो हि ते भार्या वल्कलाजिनसंवृताम्।
पश्यन्तु दुःखितां कृष्णां सा च निर्विद्यतां पुनः ॥ २१ ॥
मूलम्
सुवाससो हि ते भार्या वल्कलाजिनसंवृताम्।
पश्यन्तु दुःखितां कृष्णां सा च निर्विद्यतां पुनः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम्हारी रानियाँ सुन्दर साड़ियाँ पहनकर चलें और वनमें वल्कल एवं मृगचर्म लपेटकर दुःखमें डूबी हुई द्रुपदकुमारी कृष्णाको देखें तथा द्रौपदी भी इन्हें देखकर बार-बार संताप करे॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विनिन्दतां तथाऽऽत्मानं जीवितं च धनच्युतम्।
न तथा हि सभामध्ये तस्या भवितुमर्हति।
वैमनस्यं यथा दृष्ट्वा तव भार्याः स्वलंकृताः ॥ २२ ॥
मूलम्
विनिन्दतां तथाऽऽत्मानं जीवितं च धनच्युतम्।
न तथा हि सभामध्ये तस्या भवितुमर्हति।
वैमनस्यं यथा दृष्ट्वा तव भार्याः स्वलंकृताः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह धनसे वञ्चित हुए अपने आत्मा तथा जीवनकी निन्दा करे—उन्हें बार-बार धिक्कारे। सभामें उसके साथ जो बर्ताव किया गया था, उससे उसके हृदयमें इतना दुःख नहीं हुआ होगा, जितना कि तुम्हारी रानियोंको वस्त्राभूषणोंसे विभूषित देखकर हो सकता है’॥२२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा तु राजानं कर्णः शकुनिना सह।
तूष्णीम्बभूवतुरुभौ वाक्यान्ते जनमेजय ॥ २३ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा तु राजानं कर्णः शकुनिना सह।
तूष्णीम्बभूवतुरुभौ वाक्यान्ते जनमेजय ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! शकुनि और कर्ण दोनों राजा दुर्योधनसे ऐसा कहकर (अपनी बात पूरी होनेपर) चुप हो गये॥२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि घोषयात्रापर्वणि कर्णशकुनिवाक्ये सप्तत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत घोषयात्रापर्वमें कर्ण और शकुनिके वचनविषयक दो सौ सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३७॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १ श्लोक मिलाकर कुल २४ श्लोक हैं।)