भागसूचना
(द्रौपदीसत्यभामासंवादपर्व)
त्रयस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
द्रौपदीका सत्यभामाको सती स्त्रीके कर्तव्यकी शिक्षा देना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपासीनेषु विप्रेषु पाण्डवेषु महात्मसु।
द्रौपदी सत्यभामा च विविशाते तदा समम् ॥ १ ॥
जाहस्यमाने सुप्रीते सुखं तत्र निषीदतुः।
चिरस्य दृष्ट्वा राजेन्द्र तेऽन्योन्यस्य प्रियंवदे ॥ २ ॥
मूलम्
उपासीनेषु विप्रेषु पाण्डवेषु महात्मसु।
द्रौपदी सत्यभामा च विविशाते तदा समम् ॥ १ ॥
जाहस्यमाने सुप्रीते सुखं तत्र निषीदतुः।
चिरस्य दृष्ट्वा राजेन्द्र तेऽन्योन्यस्य प्रियंवदे ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जब महात्मा पाण्डव तथा ब्राह्मणलोग आस-पास बैठकर धर्मचर्चा कर रहे थे, उसी समय द्रौपदी और सत्यभामा भी एक ओर जाकर एक ही साथ सुखपूर्वक बैठीं और अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक परस्पर हास्य-विनोद करने लगीं। राजेन्द्र! दोनोंने एक-दूसरीको बहुत दिनों बाद देखा था, इसलिये परस्पर प्रिय लगनेवाली बातें करती हुई वहाँ सुखपूर्वक बैठी रहीं॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथयामासतुश्चित्राः कथाः कुरुयदूत्थिताः ।
अथाब्रवीत् सत्यभामा कृष्णस्य महिषी प्रिया ॥ ३ ॥
सात्राजिती याज्ञसेनीं रहसीदं सुमध्यमा।
केन द्रौपदि वृत्तेन पाण्डवानधितिष्ठसि ॥ ४ ॥
लोकपालोपमान् वीरान् पुनः परमसंहतान्।
कथं च वशगास्तुभ्यं न कुप्यन्ति च ते शुभे॥५॥
मूलम्
कथयामासतुश्चित्राः कथाः कुरुयदूत्थिताः ।
अथाब्रवीत् सत्यभामा कृष्णस्य महिषी प्रिया ॥ ३ ॥
सात्राजिती याज्ञसेनीं रहसीदं सुमध्यमा।
केन द्रौपदि वृत्तेन पाण्डवानधितिष्ठसि ॥ ४ ॥
लोकपालोपमान् वीरान् पुनः परमसंहतान्।
कथं च वशगास्तुभ्यं न कुप्यन्ति च ते शुभे॥५॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुकुल और यदुकुलसे सम्बन्ध रखनेवाली अनेक विचित्र बातें उनकी चर्चाकी विषय थीं। भगवान् श्रीकृष्णकी प्यारी पटरानी सत्राजित्कुमारी सुन्दरी सत्यभामाने एकान्तमें द्रौपदीसे इस प्रकार पूछा—‘शुभे! द्रुपदकुमारि! किस बर्तावसे तुम हृष्ट-पुष्ट अंगोंवाले तथा लोकपालोंके समान वीर पाण्डवोंके हृदयपर अधिकार रखती हो? किस प्रकार तुम्हारे वशमें रहते हुए वे कभी तुमपर कुपित नहीं होते?॥३—५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तव वश्या हि सततं पाण्डवाः प्रियदर्शने।
मुखप्रेक्षाश्च ते सर्वे तत्त्वमेतद् ब्रवीहि मे ॥ ६ ॥
मूलम्
तव वश्या हि सततं पाण्डवाः प्रियदर्शने।
मुखप्रेक्षाश्च ते सर्वे तत्त्वमेतद् ब्रवीहि मे ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रियदर्शने! क्या कारण है कि पाण्डव सदा तुम्हारे अधीन रहते हैं और सब-के-सब तुम्हारे मुँहकी ओर देखते रहते हैं? इसका यथार्थ रहस्य मुझे बताओ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्रतचर्या तपो वापि स्नानमन्त्रौषधानि वा।
विद्यावीर्यं मूलवीर्यं जपहोमागदास्तथा ॥ ७ ॥
ममाद्याचक्ष्व पाञ्चालि यशस्यं भगदैवतम्।
येन कृष्णे भवेन्नित्यं मम कृष्णो वशानुगः ॥ ८ ॥
मूलम्
व्रतचर्या तपो वापि स्नानमन्त्रौषधानि वा।
विद्यावीर्यं मूलवीर्यं जपहोमागदास्तथा ॥ ७ ॥
ममाद्याचक्ष्व पाञ्चालि यशस्यं भगदैवतम्।
येन कृष्णे भवेन्नित्यं मम कृष्णो वशानुगः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पाञ्चालकुमारी कृष्णे! आज मुझे भी कोई ऐसा व्रत, तप, स्नान, मन्त्र, औषध, विद्या-शक्ति, मूल-शक्ति (जड़ी-बूटीका प्रभाव) जप, होम या दवा बताओ, जो यश और सौभाग्यकी वृद्धि करनेवाला हो तथा जिससे श्यामसुन्दर सदा मेरे अधीन रहें’॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा सत्यभामा विरराम यशस्विनी।
पतिव्रता महाभागा द्रौपदी प्रत्युवाच ताम् ॥ ९ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा सत्यभामा विरराम यशस्विनी।
पतिव्रता महाभागा द्रौपदी प्रत्युवाच ताम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर यशस्विनी सत्यभामा चुप हो गयी। तब पतिपरायणा महाभागा द्रौपदीने उसे इस प्रकार उत्तर दिया—॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असत्स्त्रीणां समाचारं सत्ये मामनुपृच्छसि।
असदाचरिते मार्गे कथं स्यादनुकीर्तनम् ॥ १० ॥
मूलम्
असत्स्त्रीणां समाचारं सत्ये मामनुपृच्छसि।
असदाचरिते मार्गे कथं स्यादनुकीर्तनम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सत्ये! तुम मुझसे जिसके विषयमें पूछ रही हो, वह साध्वी स्त्रियोंका नहीं, दुराचारिणी और कुलटा स्त्रियोंका आचरण है। जिस मार्गका दुराचारिणी स्त्रियोंने अवलम्बन किया है उसके विषयमें हमलोग कोई चर्चा कैसे कर सकती हैं?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुप्रश्नः संशयो वा नैतत् त्वय्युपपद्यते।
तथा ह्युपेता बुद्ध्या त्वं कृष्णस्य महिषी प्रिया ॥ ११ ॥
मूलम्
अनुप्रश्नः संशयो वा नैतत् त्वय्युपपद्यते।
तथा ह्युपेता बुद्ध्या त्वं कृष्णस्य महिषी प्रिया ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस प्रकारका प्रश्न अथवा स्वामीके स्नेहमें संदेह करना तुम्हारे-जैसी साध्वी स्त्रीके लिये कदापि उचित नहीं है; चूँकि तुम बुद्धिमती होनेके साथ ही श्यामसुन्दरकी प्रियतमा पटरानी हो॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदैव भर्ता जानीयान्मन्त्रमूलपरां स्त्रियम्।
उद्विजेत तदैवास्याः सर्पाद् वेश्मगतादिव ॥ १२ ॥
मूलम्
यदैव भर्ता जानीयान्मन्त्रमूलपरां स्त्रियम्।
उद्विजेत तदैवास्याः सर्पाद् वेश्मगतादिव ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब पतिको यह मालूम हो जाय कि उसकी पत्नी उसे वशमें करनेके लिये किसी मन्त्र-तन्त्र अथवा जड़ी-बूटीका प्रयोग कर रही है तो वह उससे उसी प्रकार उद्विग्न हो उठता है जैसे अपने घरमें घुसे हुए सर्पसे लोग शंकित रहते हैं’॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्विग्नस्य कुतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।
न जातु वशगो भर्ता स्त्रियाः स्यान्मन्त्रकर्मणा ॥ १३ ॥
मूलम्
उद्विग्नस्य कुतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।
न जातु वशगो भर्ता स्त्रियाः स्यान्मन्त्रकर्मणा ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उद्विग्नको शान्ति कैसी? और अशान्तको सुख कहाँ? अतः मन्त्र-तन्त्र करनेसे पति अपनी पत्नीके वशमें कदापि नहीं हो सकता॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमित्रप्रहितांश्चापि गदान् परमदारुणान् ।
मूलप्रचारैर्हि विषं प्रयच्छन्ति जिघांसवः ॥ १४ ॥
मूलम्
अमित्रप्रहितांश्चापि गदान् परमदारुणान् ।
मूलप्रचारैर्हि विषं प्रयच्छन्ति जिघांसवः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसके सिवा, ऐसे अवसरोंपर धोखेसे शत्रुओं-द्वारा भेजी हुई ओषधियोंको खिलाकर कितनी ही स्त्रियाँ अपने पतियोंको अत्यन्त भयंकर रोगोंका शिकार बना देती हैं। किसीको मारनेकी इच्छावाले मनुष्य उसकी स्त्रीके हाथमें यह प्रचार करते हुए विष दे देते हैं कि ‘यह पतिको वशमें करनेवाली जड़ी-बूटी है’॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिह्वया यानि पुरुषस्त्वचा वाप्युपसेवते।
तत्र चूर्णानि दत्तानि हन्युः क्षिप्रमसंशयम् ॥ १५ ॥
मूलम्
जिह्वया यानि पुरुषस्त्वचा वाप्युपसेवते।
तत्र चूर्णानि दत्तानि हन्युः क्षिप्रमसंशयम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उनके दिये हुए चूर्ण ऐसे होते हैं कि उन्हें पति यदि जिह्वा अथवा त्वचासे भी स्पर्श कर ले, तो वे निःसंदेह उसी क्षण उसके प्राण ले लें॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जलोदरसमायुक्ताः श्वित्रिणः पलितास्तथा ।
अपुमांसः कृताः स्त्रीभिर्जडान्धबधिरास्तथा ॥ १६ ॥
मूलम्
जलोदरसमायुक्ताः श्वित्रिणः पलितास्तथा ।
अपुमांसः कृताः स्त्रीभिर्जडान्धबधिरास्तथा ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कितनी ही स्त्रियोंने अपने पतियोंको (वशमें करनेकी आशासे हानिकारक दवाएँ खिलाकर उन्हें) जलोदर और कोढ़का रोगी, असमयमें ही वृद्ध, नपुंसक, अंधा, गूँगा और बहरा बना दिया है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पापानुगास्तु पापास्ताः पतीनुपसृजन्त्युत ।
न जातु विप्रियं भर्तुः स्त्रिया कार्यं कथंचन ॥ १७ ॥
मूलम्
पापानुगास्तु पापास्ताः पतीनुपसृजन्त्युत ।
न जातु विप्रियं भर्तुः स्त्रिया कार्यं कथंचन ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस प्रकार पापियोंका अनुसरण करनेवाली वे पापिनी स्त्रियाँ अपने पतियोंको अनेक प्रकारकी विपत्तियोंमें डाल देती हैं। अतः साध्वी स्त्रीको चाहिये कि वह कभी किसी प्रकार भी पतिका अप्रिय न करे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्ताम्यहं तु यां वृत्तिं पाण्डवेषु महात्मसु।
तां सर्वां शृणु मे सत्यां सत्यभामे यशस्विनि ॥ १८ ॥
मूलम्
वर्ताम्यहं तु यां वृत्तिं पाण्डवेषु महात्मसु।
तां सर्वां शृणु मे सत्यां सत्यभामे यशस्विनि ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यशस्विनी सत्यभामे! मैं स्वयं महात्मा पाण्डवोंके साथ जैसा बर्ताव करती हूँ, वह सब सच-सच सुनाती हूँ; सुनो॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहंकारं विहायाहं कामक्रोधौ च सर्वदा।
सदारान् पाण्डवान् नित्यं प्रयतोपचराम्यहम् ॥ १९ ॥
मूलम्
अहंकारं विहायाहं कामक्रोधौ च सर्वदा।
सदारान् पाण्डवान् नित्यं प्रयतोपचराम्यहम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं अहंकार और काम-क्रोधको छोड़कर सदा पूरी सावधानीके साथ सब पाण्डवोंकी और उनकी अन्यान्य स्त्रियोंकी भी सेवा करती हूँ॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रणयं प्रतिसंहृत्य निधायात्मानमात्मनि ।
शुश्रूषुर्निरहंमाना पतीनां चित्तरक्षिणी ॥ २० ॥
मूलम्
प्रणयं प्रतिसंहृत्य निधायात्मानमात्मनि ।
शुश्रूषुर्निरहंमाना पतीनां चित्तरक्षिणी ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी इच्छाओंका दमन करके मनको अपने-आपमें ही समेटे हुए केवल सेवाकी इच्छासे ही अपने पतियोंका मन रखती हूँ। अहंकार और अभिमानको अपने पास नहीं फटकने देती॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्व्याहृताच्छङ्कमाना दुःस्थिताद् दुरवेक्षितात् ।
दुरासिताद् दुर्व्रजितादिङ्गिताध्यासितादपि ॥ २१ ॥
मूलम्
दुर्व्याहृताच्छङ्कमाना दुःस्थिताद् दुरवेक्षितात् ।
दुरासिताद् दुर्व्रजितादिङ्गिताध्यासितादपि ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कभी मेरे मुखसे कोई बुरी बात न निकल जाय, इसकी आशंकासे सदा सावधान रहती हूँ। असभ्यकी भाँति कहीं खड़ी नहीं होती। निर्लज्जकी तरह सब ओर दृष्टि नहीं डालती। बुरी जगहपर नहीं बैठती। दुराचारसे बचती तथा चलने-फिरनेमें भी असभ्यता न हो जाय, इसके लिये सतत सावधान रहती हूँ। पतियोंके अभिप्रायपूर्ण संकेतका सदैव अनुसरण करती हूँ॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूर्यवैश्वानरसमान् सोमकल्पान् महारथात् ।
सेवे चक्षुर्हणः पार्थानुग्रवीर्यप्रतापिनः ॥ २२ ॥
मूलम्
सूर्यवैश्वानरसमान् सोमकल्पान् महारथात् ।
सेवे चक्षुर्हणः पार्थानुग्रवीर्यप्रतापिनः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुन्तीदेवीके पाँचों पुत्र ही मेरे पति हैं। वे सूर्य और अग्निके समान तेजस्वी, चन्द्रमाके समान आह्लाद प्रदान करनेवाले, महारथी, दृष्टिमात्रसे ही शत्रुओंको मारनेकी शक्ति रखनेवाले तथा भयंकर बल-पराक्रम एवं प्रतापसे युक्त हैं। मैं सदा उन्हींकी सेवामें लगी रहती हूँ॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवो मनुष्यो गन्धर्वो युवा चापि स्वलंकृतः।
द्रव्यवानभिरूपो वा न मेऽन्यः पुरुषो मतः ॥ २३ ॥
मूलम्
देवो मनुष्यो गन्धर्वो युवा चापि स्वलंकृतः।
द्रव्यवानभिरूपो वा न मेऽन्यः पुरुषो मतः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवता, मनुष्य, गन्धर्व, युवक, बड़ी सजधजवाला धनवान् अथवा परम सुन्दर कैसा ही पुरुष क्यों न हो, मेरा मन पाण्डवोंके सिवा और कहीं नहीं जाता॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाभुक्तवति नास्नाते नासंविष्टे च भर्तरि।
न संविशामि नाश्नामि सदा कर्मकरेष्वपि ॥ २४ ॥
मूलम्
नाभुक्तवति नास्नाते नासंविष्टे च भर्तरि।
न संविशामि नाश्नामि सदा कर्मकरेष्वपि ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पतियों और उनके सेवकोंको भोजन कराये बिना मैं कभी भोजन नहीं करती, उन्हें नहलाये बिना कभी नहाती नहीं हूँ तथा पतिदेव जबतक शयन न करें, तबतक मैं सोती भी नहीं हूँ॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षेत्राद् वनाद् वा ग्रामाद् वा भर्तारं गृहमागतम्।
अभ्युत्थायाभिनन्दामि आसनेनोदकेन च ॥ २५ ॥
मूलम्
क्षेत्राद् वनाद् वा ग्रामाद् वा भर्तारं गृहमागतम्।
अभ्युत्थायाभिनन्दामि आसनेनोदकेन च ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘खेतसे, वनसे अथवा गाँवसे जब कभी मेरे पति घर पधारते हैं, उस समय मैं खड़ी होकर उनका अभिनन्दन करती हूँ; तथा आसन और जल अर्पण करके उनके स्वागत-सत्कारमें लग जाती हूँ॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रमृष्टभाण्डा मृष्टान्ना काले भोजनदायिनी।
संयता गुप्तधान्या च सुसम्मृष्टनिवेशना ॥ २६ ॥
मूलम्
प्रमृष्टभाण्डा मृष्टान्ना काले भोजनदायिनी।
संयता गुप्तधान्या च सुसम्मृष्टनिवेशना ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं घरके बर्तनोंको माँज-धोकर साफ रखती हूँ। शुद्ध एवं स्वादिष्ट रसोई तैयार करके सबको ठीक समयपर भोजन कराती हूँ। मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर घरमें गुप्तरूपसे अनाजका संचय रखती हूँ और घरको झाड़-बुहार, लीप-पोतकर सदा स्वच्छ एवं पवित्र बनाये रखती हूँ॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतिरस्कृतसम्भाषा दुःस्त्रियो नानुसेवती ।
अनुकूलवती नित्यं भवाम्यनलसा सदा ॥ २७ ॥
मूलम्
अतिरस्कृतसम्भाषा दुःस्त्रियो नानुसेवती ।
अनुकूलवती नित्यं भवाम्यनलसा सदा ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं कोई ऐसी बात मुँहसे नहीं निकालती, जिससे किसीका तिरस्कार होता हो। दुष्ट स्त्रियोंके सम्पर्कसे सदा दूर रहती हूँ। आलस्यको कभी पास नहीं आने देती और सदा पतियोंके अनुकूल बर्ताव करती हूँ॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनर्म चापि हसितं द्वारि स्थानमभीक्ष्णशः।
अवस्करे चिरस्थानं निष्कुटेषु च वर्जये ॥ २८ ॥
मूलम्
अनर्म चापि हसितं द्वारि स्थानमभीक्ष्णशः।
अवस्करे चिरस्थानं निष्कुटेषु च वर्जये ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पतिके किये हुए परिहासके सिवा अन्य समयमें मैं नहीं हँसा करती, दरवाजेपर बार-बार नहीं खड़ी होती, जहाँ कूड़े-करकट फेंके जाते हों, ऐसे गंदे स्थानोंमें देरतक नहीं ठहरती और बगीचोंमें भी बहुत देरतक अकेली नहीं घूमती हूँ॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(अन्त्यालापमसंतोषं परव्यापारसंकथाम् ।
अतिहासातिरोषौ च क्रोधस्थानं च वर्जये।
निरताहं सदा सत्ये भर्तॄणामुपसेवने ॥ २९ ॥
मूलम्
(अन्त्यालापमसंतोषं परव्यापारसंकथाम् ।
अतिहासातिरोषौ च क्रोधस्थानं च वर्जये।
निरताहं सदा सत्ये भर्तॄणामुपसेवने ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नीच पुरुषोंसे बात नहीं करती, मनमें असंतोषको स्थान नहीं देती और परायी चर्चासे दूर रहती हूँ। न अधिक हँसती हूँ और न अधिक क्रोध करती हूँ। क्रोधका अवसर ही नहीं आने देती। सदा सत्य बोलती और पतियोंकी सेवामें लगी रहती हूँ॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वथा भर्तृरहितं न ममेष्टं कथंचन।
यदा प्रवसते भर्ता कुटुम्बार्थेन केनचित् ॥ ३० ॥
सुमनोवर्णकापेता भवामि व्रतचारिणी ।
मूलम्
सर्वथा भर्तृरहितं न ममेष्टं कथंचन।
यदा प्रवसते भर्ता कुटुम्बार्थेन केनचित् ॥ ३० ॥
सुमनोवर्णकापेता भवामि व्रतचारिणी ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘पतिदेवके बिना किसी भी स्थानमें अकेली रहना मुझे बिलकुल पसंद नहीं है। मेरे स्वामी जब कभी कुटुम्बके कार्यसे कभी परदेश चले जाते हैं, उन दिनों मैं फूलोंका शृंगार नहीं धारण करती, अंगराग नहीं लगाती और निरन्तर ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करती हूँ॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्च भर्ता न पिबति यच्च भर्ता न सेवते॥३१॥
यच्च नाश्नाति मे भर्ता सर्वं तद् वर्जयाम्यहम्।
मूलम्
यच्च भर्ता न पिबति यच्च भर्ता न सेवते॥३१॥
यच्च नाश्नाति मे भर्ता सर्वं तद् वर्जयाम्यहम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे पतिदेव जिस चीजको नहीं खाते, नहीं पीते अथवा नहीं सेवन करते, वह सब मैं भी त्याग देती हूँ॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथोपदेशं नियता वर्तमाना वराङ्गने ॥ ३२ ॥
स्वलंकृता सुप्रयता भर्तुः प्रियहिते रता।
ये च धर्माः कुटुम्बेषु श्वश्र्वा मे कथिताः पुरा॥३३॥
(अनुतिष्ठामि तत् सर्वं नित्यकालमतन्द्रिता॥)
मूलम्
यथोपदेशं नियता वर्तमाना वराङ्गने ॥ ३२ ॥
स्वलंकृता सुप्रयता भर्तुः प्रियहिते रता।
ये च धर्माः कुटुम्बेषु श्वश्र्वा मे कथिताः पुरा॥३३॥
(अनुतिष्ठामि तत् सर्वं नित्यकालमतन्द्रिता॥)
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुन्दरी! शास्त्रोंमें स्त्रियोंके लिये जिन कर्तव्योंका उपदेश किया गया है, उन सबका मैं नियमपूर्वक पालन करती हूँ। अपने अंगोंको वस्त्राभूषणोंसे विभूषित रखकर पूरी सावधानीके साथ मैं पतिके प्रिय एवं हित-साधनमें संलग्न रहती हूँ। मेरी सासने अपने परिवारके लोगोंके साथ बर्तावमें लानेयोग्य जो धर्म पहले मुझे बताये थे, उन सबका मैं निरन्तर आलस्यरहित होकर पालन करती हूँ॥३२-३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भिक्षाबलिश्राद्धमिति स्थालीपाकाश्च पर्वसु ।
मान्यानां मानसत्कारा ये चान्ये विदिता मम ॥ ३४ ॥
तान् सर्वाननुवर्तेऽहं दिवारात्रमतन्द्रिता ।
विनयान् नियमांश्चैव सदा सर्वात्मना श्रिता ॥ ३५ ॥
मूलम्
भिक्षाबलिश्राद्धमिति स्थालीपाकाश्च पर्वसु ।
मान्यानां मानसत्कारा ये चान्ये विदिता मम ॥ ३४ ॥
तान् सर्वाननुवर्तेऽहं दिवारात्रमतन्द्रिता ।
विनयान् नियमांश्चैव सदा सर्वात्मना श्रिता ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं दिन-रात आलस्य त्यागकर भिक्षा-दान, बलिवैश्वदेव, श्राद्ध, पर्वकालोचित स्थालीपाकयज्ञ, मान्य पुरुषोंका आदर-सत्कार, विनय, नियम तथा अन्य जो-जो धर्म मुझे ज्ञात हैं, उन सबका सब प्रकारसे उद्यत होकर पालन करती हूँ॥३४-३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृदून् सतः सत्यशीलान् सत्यधर्मानुपालिनः।
आशीविषानिव क्रुद्धान् पतीन् परिचराम्यहम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
मृदून् सतः सत्यशीलान् सत्यधर्मानुपालिनः।
आशीविषानिव क्रुद्धान् पतीन् परिचराम्यहम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे पति बड़े ही सज्जन और मृदुल स्वभावके हैं। सत्यवादी तथा सत्यधर्मका निरन्तर पालन करनेवाले हैं; तथापि क्रोधमें भरे हुए विषैले सर्पोंसे जिस प्रकार लोग डरते हैं, उसी प्रकार मैं अपने पतियोंसे डरती हुई उनकी सेवा करती हूँ॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पत्याश्रयो हि मे धर्मो मतः स्त्रीणां सनातनः।
स देवः सा गतिर्नान्या तस्य का विप्रियं चरेत्॥३७॥
मूलम्
पत्याश्रयो हि मे धर्मो मतः स्त्रीणां सनातनः।
स देवः सा गतिर्नान्या तस्य का विप्रियं चरेत्॥३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं यह मानती हूँ कि पतिके आश्रयमें रहना ही स्त्रियोंका सनातन धर्म है। पति ही उनका देवता है और पति ही उनकी गति है। पतिके सिवा नारीका दूसरा कोई सहारा नहीं है, ऐसे पतिदेवताका भला कौन स्त्री अप्रिय करेगी?॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं पतीन् नातिशये नात्यश्ने नातिभूषये।
नापि श्वश्रूं परिवदे सर्वदा परियन्त्रिता ॥ ३८ ॥
मूलम्
अहं पतीन् नातिशये नात्यश्ने नातिभूषये।
नापि श्वश्रूं परिवदे सर्वदा परियन्त्रिता ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पतियोंके शयन करनेसे पहले मैं कभी शयन नहीं करती, उनसे पहले भोजन नहीं करती, उनकी इच्छाके विरुद्ध कोई आभूषण नहीं पहनती, अपनी सासकी कभी निन्दा नहीं करती और अपने-आपको सदा नियन्त्रणमें रखती हूँ॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवधानेन सुभगे नित्योत्थिततयैव च।
भर्तारो वशगा मह्यं गुरुशुश्रूषयैव च ॥ ३९ ॥
मूलम्
अवधानेन सुभगे नित्योत्थिततयैव च।
भर्तारो वशगा मह्यं गुरुशुश्रूषयैव च ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सौभाग्यशालिनी सत्यभामे! मैं सावधानीसे सर्वदा सबेरे उठकर समुचित सेवाके लिये सन्नद्ध रहती हूँ। गुरुजनोंकी सेवा-शुश्रूषासे ही मेरे पति मेरे अनुकूल रहते हैं॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यमार्यामहं कुन्तीं वीरसूं सत्यवादिनीम्।
स्वयं परिचराम्येतां पानाच्छादनभोजनैः ॥ ४० ॥
मूलम्
नित्यमार्यामहं कुन्तीं वीरसूं सत्यवादिनीम्।
स्वयं परिचराम्येतां पानाच्छादनभोजनैः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं वीरजननी सत्यवादिनी आर्या कुन्तीदेवीकी भोजन, वस्त्र और जल आदिसे सदा स्वयं सेवा करती रहती हूँ॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतामतिशये जातु वस्त्रभूषणभोजनैः ।
नापि परिवदे चाहं तां पृथां पृथिवीसमाम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
नैतामतिशये जातु वस्त्रभूषणभोजनैः ।
नापि परिवदे चाहं तां पृथां पृथिवीसमाम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वस्त्र, आभूषण और भोजन आदिमें मैं कभी सासकी अपेक्षा अपने लिये कोई विशेषता नहीं रखती। मेरी सास कुन्तीदेवी पृथ्वीके समान क्षमाशील हैं। मैं कभी उनकी निन्दा नहीं करती॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अष्टावग्रे ब्राह्मणानां सहस्राणि स्म नित्यदा।
भुञ्जते रुक्मपात्रीषु युधिष्ठिरनिवेशने ॥ ४२ ॥
मूलम्
अष्टावग्रे ब्राह्मणानां सहस्राणि स्म नित्यदा।
भुञ्जते रुक्मपात्रीषु युधिष्ठिरनिवेशने ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पहले महाराज युधिष्ठिरके महलमें प्रतिदिन आठ हजार ब्राह्मण सोनेकी थालियोंमें भोजन किया करते थे॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अष्टाशीतिसहस्राणि स्नातका गृहमेधिनः ।
त्रिंशद्दासीक एकैको यान् बिभर्ति युधिष्ठिरः ॥ ४३ ॥
मूलम्
अष्टाशीतिसहस्राणि स्नातका गृहमेधिनः ।
त्रिंशद्दासीक एकैको यान् बिभर्ति युधिष्ठिरः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज युधिष्ठिरके यहाँ अट्ठासी हजार ऐसे स्नातक गृहस्थ थे, जिनका वे भरण-पोषण करते थे। उनमेंसे प्रत्येककी सेवामें तीस-तीस दासियाँ रहती थीं॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दशान्यानि सहस्राणि येषामन्नं सुसंस्कृतम्।
ह्रियते रुक्मपात्रीभिर्यतीनामूर्ध्वरेतसाम् ॥ ४४ ॥
मूलम्
दशान्यानि सहस्राणि येषामन्नं सुसंस्कृतम्।
ह्रियते रुक्मपात्रीभिर्यतीनामूर्ध्वरेतसाम् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इनके सिवा दूसरे दस हजार और ऊर्ध्वरेता यति उनके यहाँ रहते थे, जिनके लिये सुन्दर ढंगसे तैयार किया हुआ अन्न सोनेकी थालियोंमें परोसकर पहुँचाया जाता था॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् सर्वानग्रहारेण ब्राह्मणान् वेदवादिनः।
यथार्हं पूजयामि स्म पानाच्छादनभोजनैः ॥ ४५ ॥
मूलम्
तान् सर्वानग्रहारेण ब्राह्मणान् वेदवादिनः।
यथार्हं पूजयामि स्म पानाच्छादनभोजनैः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं उन सब वेदवादी ब्राह्मणोंको अग्रहार (बलिवैश्वदेवके अन्तमें अतिथिको दिये जानेवाले प्रथम अन्न)-का अर्पण करके भोजन, वस्त्र और जलके द्वारा उनकी यथायोग्य पूजा करती थी॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शतं दासीसहस्राणि कौन्तेयस्य महात्मनः।
कम्बुकेयूरधारिण्यो निष्ककण्ठ्यः स्वलङ्कृताः ॥ ४६ ॥
मूलम्
शतं दासीसहस्राणि कौन्तेयस्य महात्मनः।
कम्बुकेयूरधारिण्यो निष्ककण्ठ्यः स्वलङ्कृताः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुन्तीनन्दन महात्मा युधिष्ठिरके एक लाख दासियाँ थीं, जो हाथोंमें शंखकी चूड़ियाँ, भुजाओंमें बाजूबंद और कण्ठमें सुवर्णके हार पहनकर बड़ी सजधजके साथ रहती थीं॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महार्हमाल्याभरणाः सुवर्णाश्चन्दनोक्षिताः ।
मणीन् हेम च बिभ्रत्यो नृत्यगीतविशारदाः ॥ ४७ ॥
मूलम्
महार्हमाल्याभरणाः सुवर्णाश्चन्दनोक्षिताः ।
मणीन् हेम च बिभ्रत्यो नृत्यगीतविशारदाः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उनकी मालाएँ तथा आभूषण बहुमूल्य थे, अंगकान्ति बड़ी सुन्दर थी। वे चन्दनमिश्रित जलसे स्नान करती और चन्दनका ही अंगराग लगाती थीं, मणि तथा सुवर्णके गहने पहना करती थीं। नृत्य और गीतकी कलामें उनका कौशल देखने ही योग्य था॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तासां नाम च रूपं च भोजनाच्छादनानि च।
सर्वासामेव वेदाहं कर्म चैव कृताकृतम् ॥ ४८ ॥
मूलम्
तासां नाम च रूपं च भोजनाच्छादनानि च।
सर्वासामेव वेदाहं कर्म चैव कृताकृतम् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन सबके नाम, रूप तथा भोजन-आच्छादन आदि सभी बातोंकी मुझे जानकारी रहती थी। किसने क्या काम किया और क्या नहीं किया? यह बात भी मुझसे छिपी नहीं रहती थी’॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शतं दासीसहस्राणि कुन्तीपुत्रस्य धीमतः।
पात्रीहस्ता दिवारात्रमतिथीन् भोजयन्त्युत ॥ ४९ ॥
मूलम्
शतं दासीसहस्राणि कुन्तीपुत्रस्य धीमतः।
पात्रीहस्ता दिवारात्रमतिथीन् भोजयन्त्युत ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बुद्धिमान् कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरकी पूर्वोक्त एक लाख दासियाँ हाथोंमें (भोजनसे भरी हुई) थाली लिये दिन-रात अतिथियोंको भोजन कराती थीं॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शतमश्वसहस्राणि दशनागायुतानि च ।
युधिष्ठिरस्यानुयात्रमिन्द्रप्रस्थनिवासिनः ॥ ५० ॥
एतदासीत् तदा राज्ञो यन्महीं पर्यपालयत्।
येषां संख्याविधिं चैव प्रदिशामि शृणोमि च ॥ ५१ ॥
मूलम्
शतमश्वसहस्राणि दशनागायुतानि च ।
युधिष्ठिरस्यानुयात्रमिन्द्रप्रस्थनिवासिनः ॥ ५० ॥
एतदासीत् तदा राज्ञो यन्महीं पर्यपालयत्।
येषां संख्याविधिं चैव प्रदिशामि शृणोमि च ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिन दिनों महाराज युधिष्ठिर इन्द्रप्रस्थमें रहकर इस पृथ्वीका पालन करते थे, उस समय प्रत्येक यात्रामें उनके साथ एक लाख घोड़े और एक लाख हाथी चलते थे। मैं ही उनकी गणना करती, आवश्यक वस्तुएँ देती और उनकी आवश्यकताएँ सुनती थी॥५०-५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तःपुराणां सर्वेषां भृत्यानां चैव सर्वशः।
आगोपालाविपालेभ्यः सर्वं वेद कृताकृतम् ॥ ५२ ॥
मूलम्
अन्तःपुराणां सर्वेषां भृत्यानां चैव सर्वशः।
आगोपालाविपालेभ्यः सर्वं वेद कृताकृतम् ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अन्तःपुरके, नौकरोंके तथा ग्वालों और गड़रियोंसे लेकर समस्त सेवकोंके सभी कार्योंकी देखभाल मैं ही करती थी और किसने क्या काम किया अथवा कौन काम अधूरा रह गया—इन सब बातोंकी जानकारी भी रखती थी॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वं राज्ञः समुदयमायं च व्ययमेव च।
एकाहं वेद्मि कल्याणि पाण्डवानां यशस्विनि ॥ ५३ ॥
मूलम्
सर्वं राज्ञः समुदयमायं च व्ययमेव च।
एकाहं वेद्मि कल्याणि पाण्डवानां यशस्विनि ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कल्याणी एवं यशस्विनी सत्यभामे! महाराज तथा अन्य पाण्डवोंको जो कुछ आय, व्यय और बचत होती थी, उस सबका हिसाब मैं अकेली ही रखती और जानती थी॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयि सर्वं समासज्य कुटुम्बं भरतर्षभाः।
उपासनरताः सर्वे घटयन्ति वरानने ॥ ५४ ॥
मूलम्
मयि सर्वं समासज्य कुटुम्बं भरतर्षभाः।
उपासनरताः सर्वे घटयन्ति वरानने ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वरानने! भरतश्रेष्ठ पाण्डव कुटुम्बका सारा भार मुझपर ही रखकर उपासनामें लगे रहते और तदनुरूप चेष्टा करते थे॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमहं भारमासक्तमनाधृष्यं दुरात्मभिः ।
सुखं सर्वं परित्यज्य रात्र्यहानि घटामि वै ॥ ५५ ॥
मूलम्
तमहं भारमासक्तमनाधृष्यं दुरात्मभिः ।
सुखं सर्वं परित्यज्य रात्र्यहानि घटामि वै ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुझपर जो भार रखा गया था, उसे दुष्ट स्वभावके स्त्री-पुरुष नहीं उठा सकते थे। परंतु मैं सब प्रकारका सुख-भोग छोड़कर रात-दिन उस दुर्वह भारको वहन करनेकी चेष्टा किया करती थी॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधृष्यं वरुणस्येव निधिपूर्णमिवोदधिम् ।
एकाहं वेद्मि कोशं वै पतीनां धर्मचारिणाम् ॥ ५६ ॥
मूलम्
अधृष्यं वरुणस्येव निधिपूर्णमिवोदधिम् ।
एकाहं वेद्मि कोशं वै पतीनां धर्मचारिणाम् ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे धर्मात्मा पतियोंका भरा-पूरा खजाना वरुणके भण्डार और परिपूर्ण महासागरके समान अक्षय एवं अगम्य था। केवल मैं ही उनके विषयकी ठीक जानकारी रखती थी॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिशायां निशायां च सहा या क्षुत्पिपासयोः।
आराधयन्त्याः कौरव्यांस्तुल्या रात्रिरहश्च मे ॥ ५७ ॥
मूलम्
अनिशायां निशायां च सहा या क्षुत्पिपासयोः।
आराधयन्त्याः कौरव्यांस्तुल्या रात्रिरहश्च मे ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रात हो या दिन, मैं सदा भूख-प्यासके कष्ट सहन करके निरन्तर कुरुकुलरत्न पाण्डवोंकी आराधनामें लगी रहती थी। इससे मेरे लिये दिन और रात समान हो गये थे॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रथमं प्रतिबुध्यामि चरमं संविशामि च।
नित्यकालमहं सत्ये एतत् संवननं मम ॥ ५८ ॥
मूलम्
प्रथमं प्रतिबुध्यामि चरमं संविशामि च।
नित्यकालमहं सत्ये एतत् संवननं मम ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सत्ये! मैं प्रतिदिन सबसे पहले उठती और सबसे पीछे सोती थी। यह पतिभक्ति और सेवा ही मेरा वशीकरण मन्त्र है॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतज्जानाम्यहं कर्तुं भर्तृसंवननं महत्।
असत्स्त्रीणां समाचारं नाहं कुर्यां न कामये ॥ ५९ ॥
मूलम्
एतज्जानाम्यहं कर्तुं भर्तृसंवननं महत्।
असत्स्त्रीणां समाचारं नाहं कुर्यां न कामये ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पतिको वशमें करनेका यही सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय मैं जानती हूँ। दुराचारिणी स्त्रियाँ जिन उपायोंका अवलम्बन करती हैं, उन्हें न तो मैं करती हूँ और न चाहती ही हूँ’॥५९॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा धर्मसहितं व्याहृतं कृष्णया तदा।
उवाच सत्या सत्कृत्य पाञ्चालीं धर्मचारिणीम् ॥ ६० ॥
अभिपन्नास्मि पाञ्चालि याज्ञसेनि क्षमस्व मे।
कामकारः सखीनां हि सोपहासं प्रभाषितम् ॥ ६१ ॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा धर्मसहितं व्याहृतं कृष्णया तदा।
उवाच सत्या सत्कृत्य पाञ्चालीं धर्मचारिणीम् ॥ ६० ॥
अभिपन्नास्मि पाञ्चालि याज्ञसेनि क्षमस्व मे।
कामकारः सखीनां हि सोपहासं प्रभाषितम् ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! द्रौपदीकी ये धर्मयुक्त बातें सुनकर सत्यभामाने उस धर्मपरायणा पाञ्चालीका समादर करते हुए कहा—‘पाञ्चालराजकुमारी! याज्ञसेनी! मैं तुम्हारी शरणमें आयी हूँ; (मैंने जो अनुचित प्रश्न किया है), उसके लिये मुझे क्षमा कर दो। सखियोंमें परस्पर स्वेच्छापूर्वक ऐसी हास-परिहासकी बातें हो जाया करती हैं’॥६०-६१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि द्रौपदीसत्यभामासंवादपर्वणि त्रयस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत द्रौपदीसत्यभामा-संवादपर्वमें दो सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३३॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ६२ श्लोक हैं)