१८१ नहुुषस्य सर्पजन्मनः मुक्तिः

भागसूचना

एकाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरद्वारा अपने प्रश्नोंका उचित उत्तर पाकर संतुष्ट हुए सर्परूपधारी नहुषका भीमसेनको छोड़ देना तथा युधिष्ठिरके साथ वार्तालाप करनेके प्रभावसे सर्पयोनिसे मुक्त होकर स्वर्ग जाना

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवानेतादृशो लोके वेदवेदाङ्गपारगः ।
ब्रूहि किं कुर्वतः कर्म भवेद् गतिरनुत्तमा ॥ १ ॥

मूलम्

भवानेतादृशो लोके वेदवेदाङ्गपारगः ।
ब्रूहि किं कुर्वतः कर्म भवेद् गतिरनुत्तमा ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— तुम सम्पूर्ण वेद-वेदांगोंके पारगामी हो। लोकमें तुम्हारी ऐसी ही ख्वाति है। बताओ, किस कर्मके आचरणसे सर्वोत्तम गति प्राप्त हो सकती है?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

सर्प उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पात्रे दत्त्वा प्रियाण्युक्त्वा सत्यमुक्त्वा च भारत।
अहिंसानिरतः स्वर्गं गच्छेदिति मतिर्मम ॥ २ ॥

मूलम्

पात्रे दत्त्वा प्रियाण्युक्त्वा सत्यमुक्त्वा च भारत।
अहिंसानिरतः स्वर्गं गच्छेदिति मतिर्मम ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्पने कहा— भारत! इस विषयमें मेरा विचार यह है कि मनुष्य सत्पात्रको दान देनेसे, सत्य और प्रिय वचन बोलनेसे तथा अहिंसा-धर्ममें तत्पर रहनेसे स्वर्ग (उत्तम गति) पा सकता है॥२॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दानाद् वा सर्प सत्याद् वा किमतो गुरु दृश्यते।
अहिंसाप्रिययोश्चैव गुरुलाघवमुच्यताम् ॥ ३ ॥

मूलम्

दानाद् वा सर्प सत्याद् वा किमतो गुरु दृश्यते।
अहिंसाप्रिययोश्चैव गुरुलाघवमुच्यताम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— नागराज! दान और सत्यमें किसका पलड़ा भारी देखा जाता है? अहिंसा और प्रियभाषण—इनमेंसे किसका महत्त्व अधिक है और किसका कम? यह बताओ॥३॥

मूलम् (वचनम्)

सर्प उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दानं च सत्यं तत्त्वं वा अहिंसा प्रियमेव च।
एषां कार्यगरीयस्त्वाद् दृश्यते गुरुलाघवम् ॥ ४ ॥

मूलम्

दानं च सत्यं तत्त्वं वा अहिंसा प्रियमेव च।
एषां कार्यगरीयस्त्वाद् दृश्यते गुरुलाघवम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्पने कहा— महाराज! दान, सत्य-तत्त्व, अहिंसा और प्रियभाषण—इनकी गुरुता और लघुता कार्यकी महत्ताके अनुसार देखी जाती है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कस्माच्चिद् दानयोगाद्धि सत्यमेव विशिष्यते।
सत्यवाक्याच्च राजेन्द्र किंचिद् दानं विशिष्यते ॥ ५ ॥

मूलम्

कस्माच्चिद् दानयोगाद्धि सत्यमेव विशिष्यते।
सत्यवाक्याच्च राजेन्द्र किंचिद् दानं विशिष्यते ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! किसी दानसे सत्यका ही महत्त्व बढ़ जाता है और कोई-कोई दान ही सत्यभाषणसे अधिक महत्त्व रखता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेव महेष्वास प्रियवाक्यान्महीपते ।
अहिंसा दृश्यते गुर्वी ततश्च प्रियमिष्यते ॥ ६ ॥

मूलम्

एवमेव महेष्वास प्रियवाक्यान्महीपते ।
अहिंसा दृश्यते गुर्वी ततश्च प्रियमिष्यते ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महान् धनुर्धर भूपाल! इसी प्रकार कहीं तो प्रिय वचनकी अपेक्षा अहिंसाका गौरव अधिक देखा जाता है और कहीं अहिंसासे भी बढ़कर प्रियभाषणका महत्त्व दृष्टिगोचर होता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतद् भवेद् राजन् कार्यापेक्षमनन्तरम्।
यदभिप्रेतमन्यत् ते ब्रूहि यावद् ब्रवीम्यहम् ॥ ७ ॥

मूलम्

एवमेतद् भवेद् राजन् कार्यापेक्षमनन्तरम्।
यदभिप्रेतमन्यत् ते ब्रूहि यावद् ब्रवीम्यहम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस प्रकार इनके गौरव-लाघवका निश्चय कार्यकी अपेक्षासे ही होता है। अब और जो कुछ भी प्रश्न तुम्हें अभीष्ट हो, वह पूछो। मैं यथासाध्य उत्तर देता हूँ॥७॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं स्वर्गे गतिः सर्प कर्मणां च फलं ध्रुवम्।
अशरीरस्य दृश्येत प्रब्रूहि विषयांश्च मे ॥ ८ ॥

मूलम्

कथं स्वर्गे गतिः सर्प कर्मणां च फलं ध्रुवम्।
अशरीरस्य दृश्येत प्रब्रूहि विषयांश्च मे ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— सर्प! मनुष्यको स्वर्गकी प्राप्ति और कर्मोंका निश्चयरूपसे मिलनेवाला फल किस प्रकार देखनेमें आता है एवं देहाभिमानसे रहित पुरुषकी गति किस प्रकार होती है? इन विषयोंको मुझसे भलीभाँति कहिये॥८॥

मूलम् (वचनम्)

सर्प उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिस्रो वै गतयो राजन् परिदृष्टाः स्वकर्मभिः।
मानुषं स्वर्गवासश्च तिर्यग्योनिश्च तत् त्रिधा ॥ ९ ॥

मूलम्

तिस्रो वै गतयो राजन् परिदृष्टाः स्वकर्मभिः।
मानुषं स्वर्गवासश्च तिर्यग्योनिश्च तत् त्रिधा ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्पने कहा— राजन्! अपने-अपने कर्मोंके अनुसार जीवोंकी तीन प्रकारकी गतियाँ देखी जाती हैं—स्वर्गलोककी प्राप्ति, मनुष्ययोनिमें जन्म लेना और पशु-पक्षी आदि योनियोंमें (तथा नरकोंमें) उत्पन्न होना।1 बस, ये ही तीन योनियाँ हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र वै मानुषाल्लोकाद् दानादिभिरतन्द्रितः।
अहिंसार्थसमायुक्तैः कारणैः स्वर्गमश्नुते ॥ १० ॥

मूलम्

तत्र वै मानुषाल्लोकाद् दानादिभिरतन्द्रितः।
अहिंसार्थसमायुक्तैः कारणैः स्वर्गमश्नुते ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनमेंसे जो जीव मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होता है, पर यदि आलस्य और प्रमादका त्याग करके अहिंसाका पालन करते हुए दान आदि शुभ कर्म करता है, तो उसे इन पुण्य कर्मोंके कारण स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विपरीतैश्च राजेन्द्र कारणैर्मानुषो भवेत्।
तिर्यग्योनिस्तथा तात विशेषश्चात्र वक्ष्यते ॥ ११ ॥
कामक्रोधसमायुक्तो हिंसालोभसमन्वितः ।
मनुष्यत्वात् परिभ्रष्टस्तिर्यग्योनौ प्रसूयते ॥ १२ ॥

मूलम्

विपरीतैश्च राजेन्द्र कारणैर्मानुषो भवेत्।
तिर्यग्योनिस्तथा तात विशेषश्चात्र वक्ष्यते ॥ ११ ॥
कामक्रोधसमायुक्तो हिंसालोभसमन्वितः ।
मनुष्यत्वात् परिभ्रष्टस्तिर्यग्योनौ प्रसूयते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! इसके विपरीत कारण उपस्थित होनेपर मनुष्ययोनिमें तथा पशु-पक्षी आदि योनिमें जन्म लेना पड़ता है। तात! पशु-पक्षी आदि योनियोंमें जन्म लेनेका जो विशेष कारण है, उसे भी यहाँ बतलाया जाता है। जो काम, क्रोध, लोभ और हिंसामें तत्पर होकर मानवतासे भ्रष्ट हो जाता है, अपनी मनुष्य होनेकी योग्यताको भी खो देता है, वही पशु-पक्षी आदि योनिमें जन्म पाता है॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिर्यग्योन्याः पृथग्भावो मनुष्यार्थे विधीयते।
गवादिभ्यस्तथाश्वेभ्यो देवत्वमपि दृश्यते ॥ १३ ॥

मूलम्

तिर्यग्योन्याः पृथग्भावो मनुष्यार्थे विधीयते।
गवादिभ्यस्तथाश्वेभ्यो देवत्वमपि दृश्यते ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर मनुष्य-जन्मकी प्राप्तिके लिये उसका तिर्यक्-योनिसे उद्धार होता है। गौओं तथा अश्वोंको भी उस योनिसे छुटकारा मिलकर देवत्वकी प्राप्ति होती है, यह बात देखी जाती है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽयमेता गतीस्तात जन्तुश्चरति कार्यवान्।
नित्ये महति चात्मानमवस्थापयते द्विजः ॥ १४ ॥
जातो जातश्च बलवद् भुङ्‌क्ते चात्मा स देहवान्।
फलार्थस्तात निष्पृक्तः प्रजापालनभावनः ॥ १५ ॥

मूलम्

सोऽयमेता गतीस्तात जन्तुश्चरति कार्यवान्।
नित्ये महति चात्मानमवस्थापयते द्विजः ॥ १४ ॥
जातो जातश्च बलवद् भुङ्‌क्ते चात्मा स देहवान्।
फलार्थस्तात निष्पृक्तः प्रजापालनभावनः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! प्रयोजनवश वही यह जीव इन्हीं तीन गतियोंमें भटकता रहता है। कर्मफलको चाहनेवाला देहाभिमानी जीव परवशतासे बार-बार जन्म लेता और दुःख-सुखका उपभोग करता है। किंतु तात! जो कर्मफलमें आसक्त नहीं है, वह प्रजाजनोंके पालनकी भावनावाला द्विज अपने आत्माको नित्य परब्रह्म परमात्मामें भलीभाँति स्थित कर देता है॥१४-१५॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शब्दे स्पर्शे च रूपे च तथैव रसगन्धयोः।
तस्याधिष्ठानमव्यग्रो ब्रूहि सर्प यथातथम् ॥ १६ ॥

मूलम्

शब्दे स्पर्शे च रूपे च तथैव रसगन्धयोः।
तस्याधिष्ठानमव्यग्रो ब्रूहि सर्प यथातथम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— सर्प! शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध—इनका आधार क्या है? आप शान्तचित्त होकर इसे यथार्थरूपसे बताइये॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं न गृह्णाति विषयान् युगपच्च महामते।
एतावदुच्यतां चोक्तं सर्वं पन्नगसत्तम ॥ १७ ॥

मूलम्

किं न गृह्णाति विषयान् युगपच्च महामते।
एतावदुच्यतां चोक्तं सर्वं पन्नगसत्तम ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामते! पन्नगश्रेष्ठ! मन विषयोंका एक ही साथ ग्रहण क्यों नहीं करता? इन उपर्युक्त सब बातोंको बताइये॥

मूलम् (वचनम्)

सर्प उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदात्मद्रव्यमायुष्मन् देहसंश्रयणान्वितम् ।
करणाधिष्ठितं भोगानुपभुङ्‌क्ते यथाविधि ॥ १८ ॥

मूलम्

यदात्मद्रव्यमायुष्मन् देहसंश्रयणान्वितम् ।
करणाधिष्ठितं भोगानुपभुङ्‌क्ते यथाविधि ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्पने कहा— आयुष्मन्! स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरोंका आश्रय लेनेवाला और इन्द्रियोंसे युक्त जो आत्मा नामक द्रव्य है, वही विधिपूर्वक नाना प्रकारके भोगोंको भोगता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानं चैवात्र बुद्धिश्च मनश्च भरतर्षभ।
तस्य भोगाधिकरणे करणानि निबोध मे ॥ १९ ॥

मूलम्

ज्ञानं चैवात्र बुद्धिश्च मनश्च भरतर्षभ।
तस्य भोगाधिकरणे करणानि निबोध मे ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! ज्ञान, बुद्धि और मन—ये ही शरीरमें उसके करण समझो॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनसा तात पर्येति क्रमशो विषयानिमान्।
विषयायतनस्थो हि भूतात्मा क्षेत्रमास्थितः ॥ २० ॥

मूलम्

मनसा तात पर्येति क्रमशो विषयानिमान्।
विषयायतनस्थो हि भूतात्मा क्षेत्रमास्थितः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! पाँचों विषयोंके आधारभूत पंचभूतोंसे बने हुए शरीरमें स्थित जीवात्मा इस शरीरमें स्थित हुआ ही मनके द्वारा क्रमशः इन पाँचों विषयोंका उपभोग करता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र चापि नरव्याघ्र मनो जन्तोर्विधीयते।
तस्माद् युगपदत्रास्य ग्रहणं नोपपद्यते ॥ २१ ॥

मूलम्

तत्र चापि नरव्याघ्र मनो जन्तोर्विधीयते।
तस्माद् युगपदत्रास्य ग्रहणं नोपपद्यते ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! विषयोंके उपभोगके समय (बुद्धिके द्वारा) इस जीवात्माका मन किसी एक ही विषयमें नियन्त्रित कर दिया जाता है। इसीलिये उसके द्वारा एक ही साथ अनेक विषयोंका ग्रहण सम्भव नहीं हो पाता है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स आत्मा पुरुषव्याघ्र भ्रुवोरन्तरमाश्रितः।
बुद्धिं द्रव्येषु सृजति विविधेषु परावराम् ॥ २२ ॥

मूलम्

स आत्मा पुरुषव्याघ्र भ्रुवोरन्तरमाश्रितः।
बुद्धिं द्रव्येषु सृजति विविधेषु परावराम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह! वही आत्मा दोनों भौंहोंके बीच स्थित होकर उत्तम-अधम बुद्धिको भिन्न-भिन्न द्रव्योंकी ओर प्रेरित करता है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुद्धेरुत्तरकाला च वेदना दृश्यते बुधैः।
एष वै राजशार्दूल विधिः क्षेत्रज्ञभावनः ॥ २३ ॥

मूलम्

बुद्धेरुत्तरकाला च वेदना दृश्यते बुधैः।
एष वै राजशार्दूल विधिः क्षेत्रज्ञभावनः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिकी क्रियाके उत्तरकालमें भी विद्वान् पुरुषोंको एक अनुभूति दिखायी देती है। नृपश्रेष्ठ! यही क्षेत्रज्ञ आत्माको प्रकाशित करनेवाली विधि है॥२३॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनसश्चापि बुद्धेश्च ब्रूहि मे लक्षणं परम्।
एतदध्यात्मविदुषां परं कार्यं विधीयते ॥ २४ ॥

मूलम्

मनसश्चापि बुद्धेश्च ब्रूहि मे लक्षणं परम्।
एतदध्यात्मविदुषां परं कार्यं विधीयते ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— सर्प! मुझे मन और बुद्धिका उत्तम लक्षण बतलाओ। अध्यात्मशास्त्रके विद्वानोंके लिये इनको जानना परम कर्तव्य कहा गया है॥२४॥

मूलम् (वचनम्)

सर्प उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुद्धिरात्मानुगा तात उत्पातेन विधीयते।
तदाश्रिता हि संज्ञैषा बुद्धिस्तस्यैषिणी भवेत् ॥ २५ ॥
बुद्धिरुत्पद्यते कार्यान्मनस्तूत्पन्नमेव हि ।
बुद्धेर्गुणविधानेन मनस्तद्‌गुणवद् भवेत् ॥ २६ ॥

मूलम्

बुद्धिरात्मानुगा तात उत्पातेन विधीयते।
तदाश्रिता हि संज्ञैषा बुद्धिस्तस्यैषिणी भवेत् ॥ २५ ॥
बुद्धिरुत्पद्यते कार्यान्मनस्तूत्पन्नमेव हि ।
बुद्धेर्गुणविधानेन मनस्तद्‌गुणवद् भवेत् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्पने कहा— तात! आत्माके भोग और मोक्षका सम्पादन करना ही बुद्धिका प्रयोजन है तथा आत्माका आश्रय लेकर ही बुद्धि विषयोंकी ओर जाती है। इस कारण वह आत्माका अनुसरण करनेवाली मानी जाती है। वह भी आत्माकी चेतनशक्तिके सम्बन्धसे ही है तथा बुद्धिके गुणविधानसे अर्थात् उसकी ज्ञानशक्तिके प्रभावसे ही मन उस गुणसे सम्पन्न होता है यानी इन्द्रियोंके विषयोंको ग्रहण करनेमें समर्थ हो जाता है। अतः बुद्धि तो कार्यके आरम्भसे प्रकट होती है और मन सदैव प्रकट रहता है। (कार्यको देखकर ही कारणकी सत्ता व्यक्त होती है—यह न्याय है)॥२५-२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् विशेषणं तात मनोबुद्ध‌्योर्यदन्तरम्।
त्वमप्यत्राभिसम्बुद्धः कथं वा मन्यते भवान् ॥ २७ ॥

मूलम्

एतद् विशेषणं तात मनोबुद्ध‌्योर्यदन्तरम्।
त्वमप्यत्राभिसम्बुद्धः कथं वा मन्यते भवान् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! मन और बुद्धिकी यह विशेषता ही उन दोनोंका अन्तर है। तुम भी तो इस विषयके अच्छे ज्ञाता हो, अतः बताओ, तुम्हारी कैसी मान्यता है?॥२७॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो बुद्धिमतां श्रेष्ठ शुभा बुद्धिरियं तव।
विदितं वेदितव्यं ते कस्मात् समनुपृच्छसि ॥ २८ ॥

मूलम्

अहो बुद्धिमतां श्रेष्ठ शुभा बुद्धिरियं तव।
विदितं वेदितव्यं ते कस्मात् समनुपृच्छसि ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ! तुम्हारी यह बुद्धि बड़ी उत्तम है। तुम तो जानने योग्य वस्तुको जान चुके हो, फिर मुझसे क्यों पूछते हो?॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वज्ञं त्वां कथं मोह आविशत् स्वर्गवासिनम्।
एवमद्भुतकर्माणमिति मे संशयो महान् ॥ २९ ॥

मूलम्

सर्वज्ञं त्वां कथं मोह आविशत् स्वर्गवासिनम्।
एवमद्भुतकर्माणमिति मे संशयो महान् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम तो सर्वज्ञ तथा स्वर्गके निवासी थे। तुमने बड़े अद्भुत कर्म किये थे। भला, तुम्हें कैसे मोह हो गया? (अर्थात् ब्राह्मणोंका अपमान कैसे कर बैठे?) इस बातको लेकर मेरे मनमें बड़ा संशय हो रहा है॥२९॥

मूलम् (वचनम्)

सर्प उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुप्रज्ञमपि चेच्छूरमृद्धिर्मोहयते नरम् ।
वर्तमानः सुखे सर्वो मुह्यतीति मतिर्मम ॥ ३० ॥

मूलम्

सुप्रज्ञमपि चेच्छूरमृद्धिर्मोहयते नरम् ।
वर्तमानः सुखे सर्वो मुह्यतीति मतिर्मम ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्पने कहा— राजन्! यह धन-सम्पत्ति बड़े-बड़े बुद्धिमान् और शूरवीर मनुष्यको भी मोहमें डाल देती है। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि सुख-विलासमें डूबे हुए सभी लोग मोहित हो जाते हैं॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहमैश्वर्यमोहेन मदाविष्टो युधिष्ठिर ।
पतितः प्रतिसम्बुद्धस्त्वां तु सम्बोधयाम्यहम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

सोऽहमैश्वर्यमोहेन मदाविष्टो युधिष्ठिर ।
पतितः प्रतिसम्बुद्धस्त्वां तु सम्बोधयाम्यहम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! इसी तरह मैं भी ऐश्वर्यके मोहसे मदोन्मत्त हो गया और मुझे उस समय चेत हुआ, जब कि मेरा अधःपतन हो चुका। अतः अब तुम्हें सचेत कर रहा हूँ॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतं कार्यं महाराज त्वया मम परंतप।
क्षीणःशापः सुकृच्छ्रो मे त्वया सम्भाष्य साधुना ॥ ३२ ॥

मूलम्

कृतं कार्यं महाराज त्वया मम परंतप।
क्षीणःशापः सुकृच्छ्रो मे त्वया सम्भाष्य साधुना ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतप महाराज! आज तुमने मेरा बहुत बड़ा कार्य किया। इस समय तुम-जैसे श्रेष्ठ पुरुषसे वार्तालाप करनेके कारण मेरा वह अत्यन्त कष्टदायक शाप निवृत्त हो गया॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं हि दिवि दिव्येन विमानेन चरन् पुरा।
अभिमानेन मत्तः सन् कंचिन्नान्यमचिन्तयम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

अहं हि दिवि दिव्येन विमानेन चरन् पुरा।
अभिमानेन मत्तः सन् कंचिन्नान्यमचिन्तयम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें (जब मैं स्वर्गका राजा था,) दिव्य विमानपर चढ़कर आकाशमें विचरता रहता था। उस समय अभिमानसे मत्त होकर मैं दूसरे किसीको कुछ नहीं समझता था॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मर्षिदेवगन्धर्वयक्षराक्षसपन्नगाः ।
करान् मम प्रयच्छन्ति सर्वे त्रैलोक्यवासिनः ॥ ३४ ॥

मूलम्

ब्रह्मर्षिदेवगन्धर्वयक्षराक्षसपन्नगाः ।
करान् मम प्रयच्छन्ति सर्वे त्रैलोक्यवासिनः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मर्षि, देवता गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग आदि जो भी इस त्रिलोकीमें निवास करनेवाले प्राणी थे, वे सब मुझे कर देते थे॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चक्षुषा यं प्रपश्यामि प्राणिनं पृथिवीपते।
तस्य तेजो हराम्याशु तद्धि-दृष्टेर्बलं मम ॥ ३५ ॥

मूलम्

चक्षुषा यं प्रपश्यामि प्राणिनं पृथिवीपते।
तस्य तेजो हराम्याशु तद्धि-दृष्टेर्बलं मम ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उन दिनों मैं जिस प्राणीकी ओर आँख उठाकर देखता था, उसका तेज तत्काल हर लेता था। यह थी मेरी दृष्टिकी शक्ति॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मर्षीणां सहस्रं हि उवाह शिबिकां मम।
स मामपनयो राजन् भ्रंशयामास वै श्रियः ॥ ३६ ॥

मूलम्

ब्रह्मर्षीणां सहस्रं हि उवाह शिबिकां मम।
स मामपनयो राजन् भ्रंशयामास वै श्रियः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हजारों ही ब्रह्मर्षि मेरी पालकी ढोते थे। महाराज! मेरे इसी अत्याचारने मुझे स्वर्गकी राज्यलक्ष्मीसे भ्रष्ट कर दिया॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र ह्यगस्त्यः पादेन वहन् स्पृष्टो मया मुनिः।
अगस्त्येन ततोऽस्म्युक्तः सर्पस्त्वं च भवेति ह ॥ ३७ ॥

मूलम्

तत्र ह्यगस्त्यः पादेन वहन् स्पृष्टो मया मुनिः।
अगस्त्येन ततोऽस्म्युक्तः सर्पस्त्वं च भवेति ह ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वर्गमें मुनिवर अगस्त्य जब मेरी पालकी ढो रहे थे, तब मैंने उन्हें लात मारी, इसलिये उन्होंने मुझे ऐसा कहा कि ‘तू निश्चय ही सर्प हो जा’॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तस्माद्‌ विमानाग्र्यात् प्रच्युतश्च्युतलक्षणः ।
प्रपतन् बुबुधेऽऽत्मानं व्यालीभूतमधोमुखम् ।
आयाचं तमहं विप्रं शापस्यान्तो भवेदिति ॥ ३८ ॥

मूलम्

ततस्तस्माद्‌ विमानाग्र्यात् प्रच्युतश्च्युतलक्षणः ।
प्रपतन् बुबुधेऽऽत्मानं व्यालीभूतमधोमुखम् ।
आयाचं तमहं विप्रं शापस्यान्तो भवेदिति ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके इतना कहते ही मेरे सभी राजचिह्न लुप्त हो गये। मैं (सर्प होकर) उस उत्तम विमानसे नीचे गिरा। उस समय मुझे ज्ञात हुआ कि मैं सर्प होकर नीचे मुँह किये गिर रहा हूँ; तब मैंने शापका अन्त होनेके उद्देश्यसे उन ब्रह्मर्षिसे याचना करते हुए कहा॥३८॥

मूलम् (वचनम्)

सर्प उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रमादात् सम्प्रमूढस्य भगवन् क्षन्तुमर्हसि।
ततः स मामुवाचेदं प्रपतन्तं कृपान्वितः ॥ ३९ ॥

मूलम्

प्रमादात् सम्प्रमूढस्य भगवन् क्षन्तुमर्हसि।
ततः स मामुवाचेदं प्रपतन्तं कृपान्वितः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्पने कहा— भगवन्! मैं प्रमादवश विवेकशून्य हो गया था। इसीलिये मुझसे यह घोर अपराध हुआ है। आप कृपया क्षमा करें। तब मुझे गिरते देख वे महर्षि दयासे द्रवित होकर बोले—॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरो धर्मराजः शापात् त्वां मोक्षयिष्यति।
अभिमानस्य घोरस्य पापस्य च नराधिप ॥ ४० ॥
फले क्षीणे महाराज फलं पुण्यमवाप्स्यसि।
ततो मे विस्मयो जातस्तद् दृष्ट्‌वा तपसो बलम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

युधिष्ठिरो धर्मराजः शापात् त्वां मोक्षयिष्यति।
अभिमानस्य घोरस्य पापस्य च नराधिप ॥ ४० ॥
फले क्षीणे महाराज फलं पुण्यमवाप्स्यसि।
ततो मे विस्मयो जातस्तद् दृष्ट्‌वा तपसो बलम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! धर्मराज युधिष्ठिर तुम्हें इस शापसे मुक्त करेंगे। महाराज! जब तुम्हारे इस अभिमान और घोर पापका फल क्षीण हो जायगा, तब तुम्हें फिर तुम्हारे पुण्योंका फल प्राप्त होगा’। उस समय मुझे उनकी तपस्याका महान् बल देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ॥४०-४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्म च ब्राह्मणत्वं च येन त्वाहमचूचुदम्।
सत्यं दमस्तपो दानमहिंसा धर्मनित्यता ॥ ४२ ॥
साधकानि सदा पुंसां न जातिर्न कुलं नृप।
अरिष्ट एष ते भ्राता भीमसेनो महाबलः।
स्वस्ति तेऽस्तु महाराज गमिष्यामि दिवं पुनः ॥ ४३ ॥

मूलम्

ब्रह्म च ब्राह्मणत्वं च येन त्वाहमचूचुदम्।
सत्यं दमस्तपो दानमहिंसा धर्मनित्यता ॥ ४२ ॥
साधकानि सदा पुंसां न जातिर्न कुलं नृप।
अरिष्ट एष ते भ्राता भीमसेनो महाबलः।
स्वस्ति तेऽस्तु महाराज गमिष्यामि दिवं पुनः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उनका ब्रह्म-ज्ञान और ब्राह्मणत्व देखकर भी मुझे बड़ा विस्मय हुआ। इसीलिये इस विषयमें मैंने तुमसे पहले प्रश्न किया था। राजन्! सत्य, इन्द्रियसंयम, तपस्या, दान, अहिंसा और धर्मपरायणता—ये सद्‌गुण ही सदा मनुष्योंको सिद्धिकी प्राप्ति करानेवाले हैं, जाति और कुल नहीं। ये रहे तुम्हारे भाई महाबली भीमसेन, जो सर्वथा सकुशल हैं। महाराज! तुम्हारा कल्याण हो, अब मैं पुनः स्वर्गलोकको जाऊँगा॥४२-४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(स चायं पुरुषव्याघ्र कालः पुण्य उपागतः।
तदस्मात्‌ कारणात्‌ पार्थ कार्यं मम महत्‌ कृतम्॥)

मूलम्

(स चायं पुरुषव्याघ्र कालः पुण्य उपागतः।
तदस्मात्‌ कारणात्‌ पार्थ कार्यं मम महत्‌ कृतम्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह! पार्थ! तुम्हारे शुभागमनसे ही यह पुण्यकाल प्राप्त हुआ है, इस कारण तुमने मेरा बहुत बड़ा कार्य सिद्ध कर दिया।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

(ततस्तस्मिन् मुहूर्ते तु विमानं कामगामि वै।
अवपातेन महता तत्रावाप तदुत्तमम्॥)
इत्युक्त्वाऽऽजगरं देहं मुक्त्वा स नहुषो नृपः।
दिव्यं वपुः समास्थाय गतस्त्रिदिवमेव ह ॥ ४४ ॥

मूलम्

(ततस्तस्मिन् मुहूर्ते तु विमानं कामगामि वै।
अवपातेन महता तत्रावाप तदुत्तमम्॥)
इत्युक्त्वाऽऽजगरं देहं मुक्त्वा स नहुषो नृपः।
दिव्यं वपुः समास्थाय गतस्त्रिदिवमेव ह ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते है— जनमेजय! तदनन्तर उसी मुहूर्तमें एक इच्छानुसार चलनेवाला उत्तम विमान बड़े जोरकी उड़ानके, साथ वहाँ आ पहुँचा। युधिष्ठिरसे पूर्वोक्त बातें कहकर राजा नहुषने अजगरका शरीर त्याग दिया और दिव्य शरीर धारण करके वे पुनः स्वर्गलोकको चले गये॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरोऽपि धर्मात्मा भ्रात्रा भीमेन संगतः।
धौम्येन सहितः श्रीमानाश्रमं पुनरागमत् ॥ ४५ ॥

मूलम्

युधिष्ठिरोऽपि धर्मात्मा भ्रात्रा भीमेन संगतः।
धौम्येन सहितः श्रीमानाश्रमं पुनरागमत् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मात्मा युधिष्ठिर भी भाई भीमसेनसे मिलकर उनके और धौम्य मुनिके साथ फिर अपने आश्रमपर लौट आये॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो द्विजेभ्यः सर्वेभ्यः समेतेभ्यो यथातथम्।
कथयामास तत् सर्वं धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ ४६ ॥

मूलम्

ततो द्विजेभ्यः सर्वेभ्यः समेतेभ्यो यथातथम्।
कथयामास तत् सर्वं धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब धर्मराज युधिष्ठिरने वहाँ एकत्र हुए सब ब्राह्मणोंको भीमसेनके सर्पके चंगुलसे छूटनेका वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा ते द्विजाः सर्वे भ्रातरश्चास्य ते त्रयः।
आसन् सुव्रीडिता राजन् द्रौपदी च यशस्विनी ॥ ४७ ॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा ते द्विजाः सर्वे भ्रातरश्चास्य ते त्रयः।
आसन् सुव्रीडिता राजन् द्रौपदी च यशस्विनी ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! यह सुनकर सब ब्राह्मण, उनके तीनों भाई और यशस्विनी द्रौपदी सब-के-सब बड़े लज्जित हुए॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते तु सर्वे द्विजश्रेष्ठाःपाण्डवानां हितेप्सया।
मैवमित्यब्रुवन् भीमं गर्हयन्तोऽस्य साहसम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

ते तु सर्वे द्विजश्रेष्ठाःपाण्डवानां हितेप्सया।
मैवमित्यब्रुवन् भीमं गर्हयन्तोऽस्य साहसम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब पाण्डवोंके हितकी इच्छासे वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण भीमसेनको उनके दुःसाहसकी निन्दा करते हुए बोले—‘अब कभी ऐसा न करना’॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवास्तु भयान्मुक्तं प्रेक्ष्य भीमं महाबलम्।
हर्षमाहारयांचक्रुर्विजह्रुश्च मुदा युताः ॥ ४९ ॥

मूलम्

पाण्डवास्तु भयान्मुक्तं प्रेक्ष्य भीमं महाबलम्।
हर्षमाहारयांचक्रुर्विजह्रुश्च मुदा युताः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवलोग महाबली भीमसेनको भयसे मुक्त हुआ देख हर्षसे उल्लसित हो उठे और प्रसन्नतापूर्वक वहाँ विचरने लगे॥४९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि आजगरपर्वणि भीममोचने एकाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १८१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत आजगरपर्वमें भीमसेनके सर्पके भयसे छूटनेसे सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८१॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ५१ श्लोक हैं।)


  1. ये ही क्रमशः ऊर्ध्वगति, मध्यगति और अधोगतिके नामसे प्रसिद्ध हैं। ↩︎