१७९ युधिष्ठिरेण भीमसेनान्वेषणम्

भागसूचना

एकोनाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीमसेन और सर्परूपधारी नहुषकी बातचीत, भीमसेनकी चिन्ता तथा युधिष्ठिरद्वारा भीमकी खोज

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भीमसेनस्तेजस्वी तथा सर्पवशं गतः
चिन्तयामास सर्पस्य वीर्यमत्यद्भुतं महत् ॥ १ ॥

मूलम्

स भीमसेनस्तेजस्वी तथा सर्पवशं गतः
चिन्तयामास सर्पस्य वीर्यमत्यद्भुतं महत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार सर्पके वशमें पड़े हुए वे तेजस्वी भीमसेन उस अजगरकी अत्यन्त अद्भुत शक्तिके विषयमें विचार करने लग गये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उवाच च महासर्पं कामया ब्रूहि पन्नग
कस्त्वं भो भुजगश्रेष्ठ किं मया च करिष्यसि ॥ २ ॥
पाण्डवो भीमसेनोऽहं धर्मराजादनन्तरः
नागायुतसमप्राणस्त्वया नीतः कथं वशम् ॥ ३ ॥
सिंहाः केसरिणो व्याघ्रा महिषा वारणास्तथा
समागताश्च शतशो निहताश्च मया युधि ॥ ४ ॥
राक्षसाश्च पिशाचाश्च पन्नगाश्च महाबलाः
भुजवेगमशक्ता मे सोढुं पन्नगसत्तम ॥ ५ ॥
किं नु विद्याबलं किं नु वरदानमथो तव
उद्योगमपि कुर्वाणो वशगोऽस्मि कृतस्त्वया ॥ ६ ॥
असत्यो विक्रमो नॄणामिति मे धीयते मतिः
यथेदं मे त्वया नाग बलं प्रतिहतं महत् ॥ ७ ॥

मूलम्

उवाच च महासर्पं कामया ब्रूहि पन्नग
कस्त्वं भो भुजगश्रेष्ठ किं मया च करिष्यसि ॥ २ ॥
पाण्डवो भीमसेनोऽहं धर्मराजादनन्तरः
नागायुतसमप्राणस्त्वया नीतः कथं वशम् ॥ ३ ॥
सिंहाः केसरिणो व्याघ्रा महिषा वारणास्तथा
समागताश्च शतशो निहताश्च मया युधि ॥ ४ ॥
राक्षसाश्च पिशाचाश्च पन्नगाश्च महाबलाः
भुजवेगमशक्ता मे सोढुं पन्नगसत्तम ॥ ५ ॥
किं नु विद्याबलं किं नु वरदानमथो तव
उद्योगमपि कुर्वाणो वशगोऽस्मि कृतस्त्वया ॥ ६ ॥
असत्यो विक्रमो नॄणामिति मे धीयते मतिः
यथेदं मे त्वया नाग बलं प्रतिहतं महत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन्होंने उस महान् सर्पसे कहा—‘भुजंगप्रवर! आप स्वेच्छापूर्वक बताइये। आप कौन हैं? और मुझे पकड़कर क्या करेंगे? मैं धर्मराज युधिष्ठिरका छोटा भाई पाण्डुपुत्र भीमसेन हूँ। मुझमें दस हजार हाथियोंका बल है, फिर भी न जाने कैसे आपने मुझे अपने वशमें कर लिया? मेरे सामने सैकड़ों केसरी, सिंह, व्याघ्र, महिष और गजराज आये, किंतु मैंने सबको युद्धमें मार गिराया। पन्नगश्रेष्ठ! राक्षस, पिशाच और महाबली नाग भी मेरी (इन) भुजाओंका वेग नहीं सह सकते थे। परंतु छूटनेके लिये मेरे उद्योग करनेपर भी आपने मुझे वशमें कर लिया, इसका क्या कारण है? क्या आपमें किसी विद्याका बल है अथवा आपको कोई अद्भुत वरदान मिला है? नागराज! आज मेरी बुद्धिमें यही सिद्धान्त स्थिर हो रहा है कि मनुष्योंका पराक्रम झूठा है। जैसा कि इस समय आपने मेरे इस महान् बलको कुण्ठित कर दिया है’॥२—७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवंवादिनं वीर भीममक्लिष्टकारिणम्
भोगेन महता गृह्य समन्तात् पर्यवेष्टयत् ॥ ८ ॥

मूलम्

इत्येवंवादिनं वीर भीममक्लिष्टकारिणम्
भोगेन महता गृह्य समन्तात् पर्यवेष्टयत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ऐसी बातें करनेवाले वीरवर भीमसेनको, जो अनायास ही महान् पराक्रम कर दिखानेवाले थे, उस अजगरने अपने विशाल शरीरसे जकड़कर चारों ओरसे लपेट लिया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निगृह्यैनं महाबाहुं ततः स भुजगस्तदा
विमुच्यास्य भुजौ पीनाविदं वचनमब्रवीत् ॥ ९ ॥

मूलम्

निगृह्यैनं महाबाहुं ततः स भुजगस्तदा
विमुच्यास्य भुजौ पीनाविदं वचनमब्रवीत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब इस प्रकार महाबाहु भीमसेनको अपने वशमें करके उस भुजंगमने उनकी दोनों मोटी-मोटी भुजाओंको छोड़ दिया और इस प्रकार कहा—॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्टस्त्वं क्षुधितस्याद्य देवैर्भक्षो महाभुज
दिष्ट्या कालस्य महतः प्रियाः प्राणा हि देहिनाम् ॥ १० ॥

मूलम्

दिष्टस्त्वं क्षुधितस्याद्य देवैर्भक्षो महाभुज
दिष्ट्या कालस्य महतः प्रियाः प्राणा हि देहिनाम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! मैं दीर्घकालसे भूखा बैठा था, आज सौभाग्यवश देवताओंने तुम्हें ही मेरे लिये भोजनके रूपमें भेज दिया है। सभी देहधारियोंको अपने-अपने प्राण प्रिय होते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा त्विदं मया प्राप्तं सर्परूपमरिंदम
तथावश्यं मया ख्याप्यं तवाद्य शृणु सत्तम ॥ ११ ॥

मूलम्

यथा त्विदं मया प्राप्तं सर्परूपमरिंदम
तथावश्यं मया ख्याप्यं तवाद्य शृणु सत्तम ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुदमन! जिस प्रकार मुझे यह सर्पका शरीर प्राप्त हुआ है, वह आज अवश्य तुमसे बतलाना है। सज्जनशिरोमणे! तुम ध्यान देकर सुनो॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमामवस्थां सम्प्राप्तो ह्यहं कोपान्मनीषिणाम्
शापस्यान्तं परिप्रेप्सुः सर्वं तत् कथयामि ते ॥ १२ ॥

मूलम्

इमामवस्थां सम्प्राप्तो ह्यहं कोपान्मनीषिणाम्
शापस्यान्तं परिप्रेप्सुः सर्वं तत् कथयामि ते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं मनीषी महात्माओंके कोपसे इस दुर्दशाको प्राप्त हुआ हूँ और इस शापके निवारणकी प्रतीक्षा करते हुए यहाँ रहता हूँ। शापका क्या कारण है? यह सब तुमसे कहता हूँ, सुनो॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नहुषो नाम राजर्षिर्व्यक्तं ते श्रोत्रमागतः
तवैव पूर्वः पूर्वेषामायोर्वंशधरः सुतः ॥ १३ ॥

मूलम्

नहुषो नाम राजर्षिर्व्यक्तं ते श्रोत्रमागतः
तवैव पूर्वः पूर्वेषामायोर्वंशधरः सुतः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं राजर्षि नहुष हूँ, अवश्य ही यह मेरा नाम तुम्हारे कानोंमें पड़ा होगा। मैं तुम्हारे पूर्वजोंका भी पूर्वज हूँ। महाराज आयुका वंशप्रवर्तक पुत्र हूँ॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं शापादगस्त्यस्थ ब्राह्मणानवमन्य च
इमामवस्थामापन्नः पश्य दैवमिदं मम ॥ १४ ॥

मूलम्

सोऽहं शापादगस्त्यस्थ ब्राह्मणानवमन्य च
इमामवस्थामापन्नः पश्य दैवमिदं मम ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं ब्राह्मणोंका अनादर करके महर्षि अगस्त्यके शापसे इस अवस्थाको प्राप्त हुआ हूँ। मेरे इस दुर्भाग्यको अपने आँखों देख लो॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वां चेदवध्यं दायादमतीव प्रियदर्शनम्
अहमद्योपयोक्ष्यामि विधानं पश्य यादृशम् ॥ १५ ॥

मूलम्

त्वां चेदवध्यं दायादमतीव प्रियदर्शनम्
अहमद्योपयोक्ष्यामि विधानं पश्य यादृशम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम यद्यपि अवध्य हो; क्योंकि मेरे ही वंशज हो। देखनेमें अत्यन्त प्रिय लगते हो तथापि आज तुम्हें अपना आहार बनाऊँगा। देखो, विधाताका कैसा विधान है?॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि मे मुच्यते कश्चित् कथंचित् प्रग्रहं गतः
गजो वा महिषो वापि षष्ठे काले नरोत्तम ॥ १६ ॥

मूलम्

न हि मे मुच्यते कश्चित् कथंचित् प्रग्रहं गतः
गजो वा महिषो वापि षष्ठे काले नरोत्तम ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरश्रेष्ठ! दिनके छठे भागमें कोई भैंसा अथवा हाथी ही क्यों न हो, मेरी पकड़में आ जानेपर किसी तरह छूट नहीं सकता॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नासि केवलसर्पेण तिर्यग्योनिषु वर्तता
गृहीतः कौरवश्रेष्ठ वरदानमिदं मम ॥ १७ ॥

मूलम्

नासि केवलसर्पेण तिर्यग्योनिषु वर्तता
गृहीतः कौरवश्रेष्ठ वरदानमिदं मम ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कौरवश्रेष्ठ! तुम तिर्यग् योनिमें पड़े हुए किसी साधारण सर्पकी पकड़में नहीं आये हो। किंतु मुझे ऐसा ही वरदान मिला है (इसीलिये मैं तुम्हें पकड़ सका हूँ)॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतता हि विमानाग्र्यान्मया शक्रासनाद् द्रुतम्
कुरु शापान्तमित्युक्तो भगवान् मुनिसत्तमः ॥ १८ ॥

मूलम्

पतता हि विमानाग्र्यान्मया शक्रासनाद् द्रुतम्
कुरु शापान्तमित्युक्तो भगवान् मुनिसत्तमः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जब मैं इन्द्रके सिंहासनसे भ्रष्ट हो शीघ्रतापूर्वक श्रेष्ठ विमानसे नीचे गिरने लगा, उस समय मैंने मुनिश्रेष्ठ भगवान् अगस्त्यसे प्रार्थना की कि प्रभो! मेरे शापका अन्त नियत कर दीजिये॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मामुवाच तेजस्वी कृपयाभिपरिप्लुतः
मोक्षस्ते भविता राजन् कस्माच्चित्‌ कालपर्ययात् ॥ १९ ॥

मूलम्

स मामुवाच तेजस्वी कृपयाभिपरिप्लुतः
मोक्षस्ते भविता राजन् कस्माच्चित्‌ कालपर्ययात् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उस समय उन तेजस्वी महर्षिने दयासे द्रवित होकर मुझसे कहा—‘राजन्! कुछ कालके पश्चात् तुम इस शापसे मुक्त हो जाओगे’॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽस्मि पतितो भूमौ न च मामजहात् स्मृतिः
स्मार्तमस्ति पुराणं मे यथैवाधिगतं तथा ॥ २० ॥

मूलम्

ततोऽस्मि पतितो भूमौ न च मामजहात् स्मृतिः
स्मार्तमस्ति पुराणं मे यथैवाधिगतं तथा ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उनके इतना कहते ही मैं पृथ्वीपर गिर पड़ा। परंतु आज भी वह पुरानी स्मरण-शक्ति मुझे छोड़ नहीं सकी है। यद्यपि यह वृत्तान्त बहुत पुराना हो चुका है तथापि जो कुछ जैसे हुआ था; वह सब मुझे ज्यों-का-त्यों स्मरण है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु ते व्याहृतान् प्रश्नान् प्रतिब्रूयाद्‌ विभागवित्।
स त्वां मोक्षयिता शापादिति मामब्रवीदृषिः ॥ २१ ॥

मूलम्

यस्तु ते व्याहृतान् प्रश्नान् प्रतिब्रूयाद्‌ विभागवित्।
स त्वां मोक्षयिता शापादिति मामब्रवीदृषिः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महर्षिने मुझसे कहा था कि ‘जो तुम्हारे पूछे हुए प्रश्नोंका विभागपूर्वक उत्तर दे दे, वही तुम्हें शापसे छुड़ा सकता है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहीतस्य त्वया राजन् प्राणिनोऽपि बलीयसः
सत्त्वभ्रंशोऽधिकस्यापि सर्वस्याशु भविष्यति ॥ २२ ॥

मूलम्

गृहीतस्य त्वया राजन् प्राणिनोऽपि बलीयसः
सत्त्वभ्रंशोऽधिकस्यापि सर्वस्याशु भविष्यति ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! जिसे तुम पकड़ लोगे, वह बलवान्-से-बलवान् प्राणी क्यों न हो, उसका भी धैर्य छूट जायगा। एवं तुमसे अधिक शक्तिशाली पुरुष क्यों न हो, सबका साहस शीघ्र ही खो जायगा’॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति चाप्यहमश्रौषं वचस्तेषां दयावताम्
मयि संजातहार्दानामथ तेऽन्तर्हिता द्विजाः ॥ २३ ॥

मूलम्

इति चाप्यहमश्रौषं वचस्तेषां दयावताम्
मयि संजातहार्दानामथ तेऽन्तर्हिता द्विजाः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार मेरे प्रति हार्दिक दयाभाव उत्पन्न हो जानेके कारण उन दयालु महर्षियोंने जो बात कही थी, वह भी मैंने स्पष्ट सुनी। तत्पश्चात् वे सारे ब्रह्मर्षि अन्तर्धान हो गये॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं परमदुष्कर्मा वसामि निरयेऽशुचौ
सर्पयोनिमिमां प्राप्य कालाकाङ्‌क्षी महाद्युते ॥ २४ ॥

मूलम्

सोऽहं परमदुष्कर्मा वसामि निरयेऽशुचौ
सर्पयोनिमिमां प्राप्य कालाकाङ्‌क्षी महाद्युते ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाद्युते! इस प्रकार मैं अत्यन्त दुष्कर्मी होनेके कारण इस अपवित्र नरकमें निवास करता हूँ। इस सर्पयोनिमें पड़कर इससे छूटनेके अवसरकी प्रतीक्षा करता हूँ’॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुवाच महाबाहुर्भीमसेनो भुजङ्गमम्
न च कुप्ये महासर्प न चात्मानं विगर्हये ॥ २५ ॥

मूलम्

तमुवाच महाबाहुर्भीमसेनो भुजङ्गमम्
न च कुप्ये महासर्प न चात्मानं विगर्हये ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब महाबाहु भीमने उस अजगरसे कहा—‘महासर्प! न तो मैं आपपर क्रोध करता हूँ और न अपनी ही निन्दा करता हूँ॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मादभावी भावी वा मनुष्यः सुखदुःखयोः
आगमे यदि वापाये न तत्र ग्लपयेन्मनः ॥ २६ ॥

मूलम्

यस्मादभावी भावी वा मनुष्यः सुखदुःखयोः
आगमे यदि वापाये न तत्र ग्लपयेन्मनः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्योंकि मनुष्य सुख-दुःखकी प्राप्ति अथवा निवृतिमें कभी असमर्थ होता है और कभी समर्थ। अतः किसी भी दशामें अपने मनमें ग्लानि नहीं आने देनी चाहिये॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दैवं पुरुषकारेण को वञ्चयितुमर्हति
दैवमेव परं मन्ये पुरुषार्थो निरर्थकः ॥ २७ ॥

मूलम्

दैवं पुरुषकारेण को वञ्चयितुमर्हति
दैवमेव परं मन्ये पुरुषार्थो निरर्थकः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कौन ऐसा मनुष्य है, जो पुरुषार्थके बलसे दैवको वंचित कर सके। मैं तो दैवको ही बड़ा मानता हूँ, पुरुषार्थ व्यर्थ है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य दैवोपघाताद्धि भुजवीर्यव्यपाश्रयम्
इमामवस्थां सम्प्राप्तमनिमित्तमिहाद्य माम् ॥ २८ ॥

मूलम्

पश्य दैवोपघाताद्धि भुजवीर्यव्यपाश्रयम्
इमामवस्थां सम्प्राप्तमनिमित्तमिहाद्य माम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देखिये, दैवके आघातसे आज मैं अकारण ही यहाँ इस दशाको प्राप्त हो गया हूँ। नहीं तो मुझे अपने बाहुबलका बड़ा भरोसा था॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किंतु नाद्यानुशोचामि तथाऽऽत्मानं विनाशितम्
यथा तु विपिने न्यस्तान् भ्रातॄन् राज्यपरिच्युतान् ॥ २९ ॥

मूलम्

किंतु नाद्यानुशोचामि तथाऽऽत्मानं विनाशितम्
यथा तु विपिने न्यस्तान् भ्रातॄन् राज्यपरिच्युतान् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु आज मैं अपनी मृत्युके लिये उतना शोक नहीं करता हूँ, जितना कि राज्यसे वंचित हो वनमें पड़े हुए अपने भाइयोंके लिये मुझे शोक हो रहा है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिमवांश्च सुदुर्गोऽयं यक्षराक्षससंकुलः
मां समुद्वीक्षमाणास्ते प्रपतिष्यन्ति विह्वलाः ॥ ३० ॥

मूलम्

हिमवांश्च सुदुर्गोऽयं यक्षराक्षससंकुलः
मां समुद्वीक्षमाणास्ते प्रपतिष्यन्ति विह्वलाः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यक्षों तथा राक्षसोंसे भरा हुआ यह हिमालय अत्यन्त दुर्गम है, मेरे भाई व्याकुल होकर जब मुझे खोजेंगे, तब अवश्य कहीं खंदकमें गिर पड़ेंगे॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनष्टमथ मां श्रुत्व भविष्यन्ति निरुद्यमाः
धर्मशीला मया ते हि बाध्यन्ते राज्यगृद्धिना ॥ ३१ ॥

मूलम्

विनष्टमथ मां श्रुत्व भविष्यन्ति निरुद्यमाः
धर्मशीला मया ते हि बाध्यन्ते राज्यगृद्धिना ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरी मृत्यु हुई सुनकर वे राज्य-प्राप्तिका सारा उद्योग छोड़ बैठेंगे। मेरे सभी भाई स्वभावतः धर्मात्मा हैं। मैं ही राज्यके लोभसे उन्हें युद्धके लिये बाध्य करता रहता हूँ॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा नार्जुनो धीमान् विषादमुपयास्यति
सर्वास्त्रविदनाधृष्यो देवगन्धर्वराक्षसैः ॥ ३२ ॥

मूलम्

अथवा नार्जुनो धीमान् विषादमुपयास्यति
सर्वास्त्रविदनाधृष्यो देवगन्धर्वराक्षसैः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अथवा बुद्धिमान् अर्जुन विषादमें नहीं पड़ेंगे; क्योंकि वे सम्पूर्ण अस्त्रोंके ज्ञाता हैं। देवता, गन्धर्व तथा राक्षस भी उन्हें पराजित नहीं कर सकते॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समर्थः स महाबाहुरेकोऽपि सुमहाबलः
देवराजमपि स्थानात् प्रच्यावयितुमञ्जसा ॥ ३३ ॥

मूलम्

समर्थः स महाबाहुरेकोऽपि सुमहाबलः
देवराजमपि स्थानात् प्रच्यावयितुमञ्जसा ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबली महाबाहु अर्जुन अकेले ही देवराज इन्द्रको भी अनायास ही अपने स्थानसे हटा देनेमें समर्थ हैं॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं पुनर्धृतराष्ट्रस्य पुत्रं दुर्द्यूतदेविनम्
विद्विष्टं सर्वलोकस्य दम्भमोहपरायणम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

किं पुनर्धृतराष्ट्रस्य पुत्रं दुर्द्यूतदेविनम्
विद्विष्टं सर्वलोकस्य दम्भमोहपरायणम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘फिर उस धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनको जीतना उनके लिये कौन बड़ी बात है, जो कपटद्यूतका सेवन करनेवाला, लोकद्रोही, दम्भी तथा मोहमें डूबा हुआ है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातरं चैव शोचामि कृपणां पुत्रगृद्धिनीम्
यास्माकं नित्यमाशास्ते महत्त्वमधिकं परैः ॥ ३५ ॥

मूलम्

मातरं चैव शोचामि कृपणां पुत्रगृद्धिनीम्
यास्माकं नित्यमाशास्ते महत्त्वमधिकं परैः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं पुत्रोंके प्रति स्नेह रखनेवाली अपनी उस दीन माताके लिये शोक करता हूँ, जो सदा यह आशा रखती है कि हम सभी भाइयोंका महत्त्व शत्रुओंसे बढ़-चढ़कर हो॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याः कथं त्वनाथाया मद्विनाशाद् भुजङ्गम
सफलास्ते भविष्यन्ति मयि सर्वे मनोरथाः ॥ ३६ ॥

मूलम्

तस्याः कथं त्वनाथाया मद्विनाशाद् भुजङ्गम
सफलास्ते भविष्यन्ति मयि सर्वे मनोरथाः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भुजंगम! मेरे मरनेसे मेरी अनाथ माताके वे सभी मनोरथ जो मुझपर अवलम्बित थे, कैसे सफल हो सकेंगे?॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नकुलः सहदेवश्च यमौ च गुरुवर्तिनौ
मद्बाहुबलसंगुप्तौ नित्यं पुरुषमानिनौ ॥ ३७ ॥

मूलम्

नकुलः सहदेवश्च यमौ च गुरुवर्तिनौ
मद्बाहुबलसंगुप्तौ नित्यं पुरुषमानिनौ ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘एक साथ जन्म लेनेवाले नकुल और सहदेव सदा गुरुजनोंकी आज्ञाके पालनमें लगे रहते हैं। मेरे बाहुबलसे सुरक्षित हो वे दोनों भाई सर्वदा अपने पौरुषपर अभिमान रखते हैं॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भविष्यतो निरुत्साहौ भ्रष्टवीर्यपराक्रमौ
मद्विनाशात् परिद्यूनाविति मे वर्तते मतिः ॥ ३८ ॥

मूलम्

भविष्यतो निरुत्साहौ भ्रष्टवीर्यपराक्रमौ
मद्विनाशात् परिद्यूनाविति मे वर्तते मतिः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे मेरे विनाशसे उत्साहशून्य हो जायँगे, अपने बल और पराक्रम खो बैठेंगे और सर्वथा शक्तिहीन हो जायँगे, ऐसा मेरा विश्वास है’॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवंविधं बहु तदा विललाप वृकोदरः
भुजङ्गभोगसंरुद्धो नाशकच्च विचेष्टितुम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

एवंविधं बहु तदा विललाप वृकोदरः
भुजङ्गभोगसंरुद्धो नाशकच्च विचेष्टितुम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! उस समय भीमसेनने इस तरहकी बहुत-सी बातें कहकर देरतक विलाप किया। वे सर्पके शरीरसे इस प्रकार जकड़ गये थे कि हिल-डुल भी नहीं सकते थे॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरस्तु कौन्तेयो बभूवास्वस्थचेतनः ।
अनिष्टदर्शनान् घोरानुत्पातान् परिचिन्तयन् ॥ ४० ॥

मूलम्

युधिष्ठिरस्तु कौन्तेयो बभूवास्वस्थचेतनः ।
अनिष्टदर्शनान् घोरानुत्पातान् परिचिन्तयन् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उधर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर अनिष्टसूचक भयंकर उत्पातोंको देखकर बड़ी चिन्तामें पड़े। वे व्याकुल हो गये॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दारुणं ह्यशिवं नादं शिवा दक्षिणतः स्थिता।
दीप्तायां दिशि वित्रस्ता रौति तस्याश्रमस्य ह ॥ ४१ ॥

मूलम्

दारुणं ह्यशिवं नादं शिवा दक्षिणतः स्थिता।
दीप्तायां दिशि वित्रस्ता रौति तस्याश्रमस्य ह ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके आश्रमसे दक्षिण दिशामें, जहाँ आग लगी हुई थी, एक डरी हुई सियारिन खड़ी हो दारुण अमंगलसूचक आर्तनाद करने लगी॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकपक्षाक्षिचरणा वर्तिका घोरदर्शना ।
रक्तं वमन्ती ददृशे प्रत्यादित्यमभासुरा ॥ ४२ ॥

मूलम्

एकपक्षाक्षिचरणा वर्तिका घोरदर्शना ।
रक्तं वमन्ती ददृशे प्रत्यादित्यमभासुरा ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक पाँख, एक आँख तथा एक पैरवाली भयंकर और मलिन वर्तिका (बटेर चिड़िया) सूर्यकी ओर रक्त उगलती हुई दिखायी दी॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रववौ चानिलो रूक्षश्चण्डः शर्करकर्षणः।
अपसव्यानि सर्वाणि मृगपक्षिरुतानि च ॥ ४३ ॥

मूलम्

प्रववौ चानिलो रूक्षश्चण्डः शर्करकर्षणः।
अपसव्यानि सर्वाणि मृगपक्षिरुतानि च ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय कंकड़ बरसानेवाली रूखी और प्रचण्ड वायु बह रही थी और पशु-पक्षियोंके सम्पूर्ण शब्द दाहिनी ओर हो रहे थे॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृष्ठतो वायसः कृष्णो याहि याहीति शंसति।
मुहुर्मुहुः स्फुरति च दक्षिणोऽस्य भुजस्तथा ॥ ४४ ॥

मूलम्

पृष्ठतो वायसः कृष्णो याहि याहीति शंसति।
मुहुर्मुहुः स्फुरति च दक्षिणोऽस्य भुजस्तथा ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पीछेकी ओरसे काला कौवा ‘जाओ-जाओ’ की रट लगा रहा था और उनकी दाहिनी बाँह बार-बार फड़क उठती थी॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृदयं चरणश्चापि वामोऽस्य परितप्यति।
सव्यस्याक्ष्णो विकारश्चाप्यनिष्टः समपद्यत ॥ ४५ ॥

मूलम्

हृदयं चरणश्चापि वामोऽस्य परितप्यति।
सव्यस्याक्ष्णो विकारश्चाप्यनिष्टः समपद्यत ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके हृदय तथा बायें पैरमें पीड़ा होने लगी। बायीं आँखमें अनिष्टसूचक विकार उत्पन्न हो गया॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मराजोऽपि मेधावी मन्यमानो महद् भयम्।
द्रौपदीं परिपप्रच्छ क्व भीम इति भारत ॥ ४६ ॥

मूलम्

धर्मराजोऽपि मेधावी मन्यमानो महद् भयम्।
द्रौपदीं परिपप्रच्छ क्व भीम इति भारत ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! परम बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिरने भी अपने मनमें महान् भय मानते हुए द्रौपदीसे पूछा—‘भीमसेन कहाँ है?’॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शशंस तस्मै पाञ्चाली चिरयातं वृकोदरम्।
स प्रतस्थे महाबाहुर्धौम्येन सहितो नृपः ॥ ४७ ॥

मूलम्

शशंस तस्मै पाञ्चाली चिरयातं वृकोदरम्।
स प्रतस्थे महाबाहुर्धौम्येन सहितो नृपः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदीने उत्तर दिया—‘उनको यहाँसे गये बहुत देर हो गयी’—यह सुनकर महाबाहु महाराज युधिष्ठिर महर्षि धौम्यके साथ उनकी खोजके लिये चल दिये॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रौपद्या रक्षणं कार्यमित्युवाच धनंजयम्।
नकुलं सहदेवं च व्यादिदेश द्विजान् प्रति ॥ ४८ ॥

मूलम्

द्रौपद्या रक्षणं कार्यमित्युवाच धनंजयम्।
नकुलं सहदेवं च व्यादिदेश द्विजान् प्रति ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जाते समय उन्होंने अर्जुनसे कहा—‘द्रौपदीकी रक्षा करना।’ फिर उन्होंने नकुल और सहदेवको ब्राह्मणोंकी रक्षा एवं सेवाके लिये आज्ञा दी॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तस्य पदमुन्नीय तस्मादेवाश्रमात् प्रभुः।
मृगयामास कौन्तेयो भीमसेनं महावने ॥ ४९ ॥

मूलम्

स तस्य पदमुन्नीय तस्मादेवाश्रमात् प्रभुः।
मृगयामास कौन्तेयो भीमसेनं महावने ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शक्तिशाली कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने उस महान् वनमें भीमसेनके पदचिह्न देखते हुए उस आश्रमसे निकलकर सब ओर खोजा॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स प्राचीं दिशमास्थाय महतो गजयूथपान्।
ददर्श पृथिवीं चिह्नैर्भीमस्य परिचिह्निताम् ॥ ५० ॥

मूलम्

स प्राचीं दिशमास्थाय महतो गजयूथपान्।
ददर्श पृथिवीं चिह्नैर्भीमस्य परिचिह्निताम् ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले पूर्व दिशामें जाकर हाथियोंके बड़े-बड़े यूथपतियोंको देखा। वहाँकी भूमि भीमसेनके पद-चिह्नोंसे चिह्नित थी॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो मृगसहस्राणि मृगेन्द्राणां शतानि च।
पतितानि वने दृष्ट्‌वा मार्गं तस्याविशन्नृपः ॥ ५१ ॥

मूलम्

ततो मृगसहस्राणि मृगेन्द्राणां शतानि च।
पतितानि वने दृष्ट्‌वा मार्गं तस्याविशन्नृपः ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँसे आगे बढ़नेपर उन्होंने वनमें सैकड़ों सिंह और हजारों अन्य हिंसक पशु पृथ्वीपर पड़े देखे। देखकर भीमसेनके मार्गका अनुसरण करते हुए राजाने उसी वनमें प्रवेश किया॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धावतस्तस्य वीरस्य मृगार्थं वातरंहसः।
ऊरुवातविनिर्भग्ना द्रुमा व्यावर्जिताः पथि ॥ ५२ ॥

मूलम्

धावतस्तस्य वीरस्य मृगार्थं वातरंहसः।
ऊरुवातविनिर्भग्ना द्रुमा व्यावर्जिताः पथि ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वायुके समान वेगशाली वीरवर भीमसेनके शिकारके लिये दौड़नेपर मार्गमें उनकी जाँघोंके आघातसे टूटकर पड़े हुए बहुत-से वृक्ष दिखायी दिये॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गत्वा तैस्तदा चिह्नैर्ददर्श गिरिगह्वरे।
रूक्षमारुतभूयिष्ठे निष्पत्रद्रुमसंकुले ॥ ५३ ॥
ईरिणे निर्जले देशे कण्टकिद्रुमसंकुले।
अश्मस्थाणुक्षुपाकीर्णे सुदुर्गे विषमोत्कटे ।
गृहीतं भुजगेन्द्रेण निश्चेष्टमनुजं तदा ॥ ५४ ॥

मूलम्

स गत्वा तैस्तदा चिह्नैर्ददर्श गिरिगह्वरे।
रूक्षमारुतभूयिष्ठे निष्पत्रद्रुमसंकुले ॥ ५३ ॥
ईरिणे निर्जले देशे कण्टकिद्रुमसंकुले।
अश्मस्थाणुक्षुपाकीर्णे सुदुर्गे विषमोत्कटे ।
गृहीतं भुजगेन्द्रेण निश्चेष्टमनुजं तदा ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन्हीं पद-चिह्नोंके सहारे जाकर उन्होंने पर्वतकी कन्दरामें अपने भाई भीमसेनको देखा, जो अजगरकी पकड़में आकर चेष्टाशून्य हो गये थे। उक्त पर्वतकी कन्दरामें विशेष रूपसे रूक्ष वायु चलती थी। वह गुफा ऐसे वृक्षोंसे ढकी थी, जिनमें नाममात्रके लिये भी पत्ते नहीं थे। इतना ही नहीं, वह स्थान ऊसर, निर्जल, काँटेदार वृक्षोंसे भरा हुआ, पत्थर, ठूँठ और छोटे वृक्षोंसे व्याप्त, अत्यन्त दुर्गम और ऊँचा-नीचा था॥५३-५४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि आजगरपर्वणि युधिष्ठिरभीमदर्शने एकोनाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत आजगरपर्वमें युधिष्ठिरको भीमसेनके दर्शनसे सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ उनासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७९॥