१७७ पाण्डवानां द्वैतवनप्रवेशः

भागसूचना

सप्तसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पाण्डवोंका गन्धमादनसे बदरिकाश्रम, सुबाहुनगर और विशाखयूप वनमें होते हुए सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवनमें प्रवेश

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नगोत्तमं प्रस्रवणैरुपेतं
दिशां गजैः किन्नरपक्षिभिश्च
सुखं निवासं जहतां हि तेषां
न प्रीतिरासीद् भरतर्षभाणाम् ॥ १ ॥

मूलम्

नगोत्तमं प्रस्रवणैरुपेतं
दिशां गजैः किन्नरपक्षिभिश्च
सुखं निवासं जहतां हि तेषां
न प्रीतिरासीद् भरतर्षभाणाम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! पर्वतश्रेष्ठ गन्धमादन अनेकानेक निर्झरोंसे सुशोभित तथा दिग्गजों, किन्नरों और पक्षियोंसे सुसेवित होनेके कारण भरतवंशियों-में श्रेष्ठ पाण्डवोंके लिये एक सुखदायक निवास था, उसे छोड़ते समय उनका मन प्रसन्न नहीं था॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु तेषां पुनरेव हर्षः
कैलासमालोक्य महान् बभूव
कुबेरकान्तं भरतर्षभाणां
महीधरं वारिधरप्रकाशम् ॥ २ ॥

मूलम्

ततस्तु तेषां पुनरेव हर्षः
कैलासमालोक्य महान् बभूव
कुबेरकान्तं भरतर्षभाणां
महीधरं वारिधरप्रकाशम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् कुबेरके प्रिय भूधर कैलाशको, जो श्वेत बादलोंके समान प्रकाशित हो रहा था, देखकर भरतकुलभूषण पाण्डुपुत्रोंको पुनः महान् हर्ष प्राप्त हुआ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुच्छ्रयान् पर्वतसंनिरोधान्
गोष्ठान् हरीणां गिरिसेतुमालाः
बहून् प्रपातांश्च समीक्ष्य वीराः
स्थलानि निम्नानि च तत्र तत्र ॥ ३ ॥
तथैव चान्यानि महावनानि
मृगद्विजानेकपसेवितानि
आलोकयन्तोऽभिययुः प्रतीता-
स्ते धन्विनः खड्‌गधरा नराग्र्याः ॥ ४ ॥

मूलम्

समुच्छ्रयान् पर्वतसंनिरोधान्
गोष्ठान् हरीणां गिरिसेतुमालाः
बहून् प्रपातांश्च समीक्ष्य वीराः
स्थलानि निम्नानि च तत्र तत्र ॥ ३ ॥
तथैव चान्यानि महावनानि
मृगद्विजानेकपसेवितानि
आलोकयन्तोऽभिययुः प्रतीता-
स्ते धन्विनः खड्‌गधरा नराग्र्याः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ पाण्डव अपने हाथोंमें खड्ग और धनुष लिये हुए थे। वे ऊँचाई, पर्वतोंके सकरे स्थान, सिंहोंकी मादें, पर्वतीय नदियोंको पार करनेके लिये बने हुए पुल, बहुत-से झरने और नीची भूमियोंको जहाँ-तहाँ देखते हुए तथा मृग, पक्षी एवं हाथियोंसे सेवित दूसरे-दूसरे विशाल वनोंका अवलोकन करते हुए विश्वासपूर्वक आगे बढ़ने लगे॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वनानि रम्याणि नदीः सरांसि
गुहा गिरीणां गिरिगह्वराणि
एते निवासाः सततं बभूवु-
र्दिवानिशं प्राप्य नरर्षभाणाम् ॥ ५ ॥

मूलम्

वनानि रम्याणि नदीः सरांसि
गुहा गिरीणां गिरिगह्वराणि
एते निवासाः सततं बभूवु-
र्दिवानिशं प्राप्य नरर्षभाणाम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषरत्न पाण्डव कभी रमणीय वनोंमें, कभी सरोवरोंके किनारे, कभी नदियोंके तटपर और कभी पर्वतोंकी छोटी-बड़ी गुफाओंमें दिन या रातके समय ठहरते जाते थे। सदा ऐसे ही स्थानोंमें उनका निवास होता था॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते दुर्गवासं बहुधा निरुष्य
व्यतीत्य कैलासमचिन्त्यरूपम्
आसेदुरत्यर्थमनोरमं ते
तमाश्रमाग्र्यं वृषपर्वणस्तु ॥ ६ ॥

मूलम्

ते दुर्गवासं बहुधा निरुष्य
व्यतीत्य कैलासमचिन्त्यरूपम्
आसेदुरत्यर्थमनोरमं ते
तमाश्रमाग्र्यं वृषपर्वणस्तु ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेक बार दुर्गम स्थानोंमें निवास करके अचिन्त्यरूप कैलासपर्वतको पीछे छोड़कर वे पुनः वृषपर्वाके अत्यन्त मनोरम उस श्रेष्ठ आश्रममें आ पहुँचे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समेत्य राज्ञा वृषपर्वणा ते
प्रत्यर्चितास्तेन च वीतमोहाः
शशंसिरे विस्तरशः प्रवासं
गिरौ यथावद् वृषपर्वणस्ते ॥ ७ ॥

मूलम्

समेत्य राज्ञा वृषपर्वणा ते
प्रत्यर्चितास्तेन च वीतमोहाः
शशंसिरे विस्तरशः प्रवासं
गिरौ यथावद् वृषपर्वणस्ते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ राजा वृषपर्वासे मिलकर और उनसे भलीभाँति पूजित होकर उन सबका शोक-मोह दूर हो गया। फिर उन्होंने वृषपर्वासे गन्धमादन पर्वतपर अपने रहनेके वृत्तान्तका यथार्थरूपसे एवं विस्तारपूर्वक वर्णन किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखोषितास्तस्य त एकरात्रं
पुण्याश्रमे देवमहर्षिजुष्टे
अभ्याययुस्ते बदरीं विशालां
सुखेन वीराः पुनरेव वासम् ॥ ८ ॥

मूलम्

सुखोषितास्तस्य त एकरात्रं
पुण्याश्रमे देवमहर्षिजुष्टे
अभ्याययुस्ते बदरीं विशालां
सुखेन वीराः पुनरेव वासम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस पवित्र आश्रममें देवता और महर्षि निवास किया करते थे। वहाँ एक रात सुखपूर्वक रहकर वे वीर पाण्डव फिर विशालापुरीके बदरिकाश्रमतीर्थमें चले आये और वहाँ बड़े आनन्दसे रहे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊषुस्ततस्तत्र महानुभावा
नारायणस्थानगताः समग्राः
कुबेरकान्तां नलिनीं विशोकाः
सम्पश्यमानाः सुरसिद्धजुष्टाम् ॥ ९ ॥

मूलम्

ऊषुस्ततस्तत्र महानुभावा
नारायणस्थानगताः समग्राः
कुबेरकान्तां नलिनीं विशोकाः
सम्पश्यमानाः सुरसिद्धजुष्टाम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् वहाँ भगवान् नर-नारायणके क्षेत्रमें आकर सभी महानुभाव पाण्डवोंने सुखपूर्वक निवास किया और शोकरहित हो कुबेरकी उस प्रिय पुष्करिणीका दर्शन किया, जिसका सेवन देवता और सिद्ध पुरुष किया करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां चाथ दृष्ट्‌वा नलिनीं विशोकाः
पाण्डोः सुताः सर्वनरप्रधानाः
ते रेमिरे नन्दनवासमेत्य
द्विजर्षयो वीतमला यथैव ॥ १० ॥

मूलम्

तां चाथ दृष्ट्‌वा नलिनीं विशोकाः
पाण्डोः सुताः सर्वनरप्रधानाः
ते रेमिरे नन्दनवासमेत्य
द्विजर्षयो वीतमला यथैव ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण मनुष्योंमें श्रेष्ठ वे पाण्डुपुत्र उस पुष्करिणीका दर्शन करके शोकरहित हो वहाँ इस प्रकार आनन्दका अनुभव करने लगे, मानो निर्मल ब्रह्मर्षिगण इन्द्रके नन्दनवनमें सानन्द विचर रहे हों॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्रमेणोपययुर्नृवीरा
यथागतेनैव पथा समग्राः
विहृत्य मासं सुखिनो बदर्यां
किरातराज्ञो विषयं सुबाहोः ॥ ११ ॥

मूलम्

ततः क्रमेणोपययुर्नृवीरा
यथागतेनैव पथा समग्राः
विहृत्य मासं सुखिनो बदर्यां
किरातराज्ञो विषयं सुबाहोः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद वे सारे नरवीर जिस मार्गसे आये थे, क्रमशः उसी मार्गसे चल दिये। बदरिकाश्रममें एक मासतक सुखपूर्वक विहार करके उन्होंने किरातनरेश सुबाहुके राज्यकी ओर प्रस्थान किया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पीनांस्तुषारान् दरदांश्च सर्वान्
देशान् कुलिन्दस्य च भूमिरत्नान्
अतीत्य दुर्गं हिमवत्प्रदेशं
पुरं सुबाहोर्ददृशुर्नृवीराः ॥ १२ ॥

मूलम्

पीनांस्तुषारान् दरदांश्च सर्वान्
देशान् कुलिन्दस्य च भूमिरत्नान्
अतीत्य दुर्गं हिमवत्प्रदेशं
पुरं सुबाहोर्ददृशुर्नृवीराः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुलिन्दके तुषार, दरद आदि धन-धान्यसे युक्त और प्रचुर रत्नोंसे सम्पन्न देशोंको लाँघते हुए हिमालयके दुर्गम स्थानोंको पार करके उन नरवीरोंने राजा सुबाहुका नगर देखा॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा च तान् पार्थिवपुत्रपौत्रान्
प्राप्तान् सुबाहुर्विषये समग्रान्
प्रत्युद्ययौ प्रीतियुतः स राजा
तं चाभ्यनन्दन् वृषभाः कुरूणाम् ॥ १३ ॥

मूलम्

श्रुत्वा च तान् पार्थिवपुत्रपौत्रान्
प्राप्तान् सुबाहुर्विषये समग्रान्
प्रत्युद्ययौ प्रीतियुतः स राजा
तं चाभ्यनन्दन् वृषभाः कुरूणाम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा सुबाहुने जब सुना कि मेरे राज्यमें राजपुत्र पाण्डवगण पधारे हुए हैं, तब बहुत प्रसन्न होकर नगरसे बाहर आ उसने उन सबकी अगवानी की। फिर कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर आदिने भी उनका बड़ा समादर किया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समेत्य राज्ञा तु सुबाहुना ते
सूतैर्विशोकप्रमुखैश्च सर्वे
सहेन्द्रसेनैः परिचारिकैश्च
पौरोगवैर्ये च महानसस्थाः ॥ १४ ॥

मूलम्

समेत्य राज्ञा तु सुबाहुना ते
सूतैर्विशोकप्रमुखैश्च सर्वे
सहेन्द्रसेनैः परिचारिकैश्च
पौरोगवैर्ये च महानसस्थाः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा सुबाहुसे मिलकर वे विशोक आदि अपने सारथियों, इन्द्रसेन आदि परिचारकों, अग्रगामी सेवकों तथा रसोइयोंसे भी मिले॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखोषितास्तत्र त एकरात्रं
सूतान् समादाय रथांश्च सर्वान्
घटोत्कचं सानुचरं विसृज्य
ततोऽभ्ययुर्यामुनमद्रिराजम् ॥ १५ ॥

मूलम्

सुखोषितास्तत्र त एकरात्रं
सूतान् समादाय रथांश्च सर्वान्
घटोत्कचं सानुचरं विसृज्य
ततोऽभ्ययुर्यामुनमद्रिराजम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ उन सबने एक रात बड़े सुखसे निवास किया। पाण्डवोंने अपने सारे सारथियों तथा रथोंको साथ ले लिया और अनुचरोंसहित घटोत्कचको विदा करके वहाँसे पर्वतराजको प्रस्थान किया जहाँ यमुनाका उद्‌गम-स्थान है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् गिरौ प्रस्रवणोपपन्न-
हिमोत्तरीयारुणपाण्डुसानौ
विशाखयूपं समुपेत्य चक्रु-
स्तदा निवासं पुरुषप्रवीराः ॥ १६ ॥

मूलम्

तस्मिन् गिरौ प्रस्रवणोपपन्न-
हिमोत्तरीयारुणपाण्डुसानौ
विशाखयूपं समुपेत्य चक्रु-
स्तदा निवासं पुरुषप्रवीराः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

झरनोंसे युक्त हिमराशि उस पर्वतरूपी पुरुषके लिये उत्तरीयका काम करती थी और उसका अरुण एवं श्वेत रंगका शिखर बालसूर्यकी किरणें पड़नेसे सफेद एवं लाल पगड़ीके समान शोभा पाता था। उसके ऊपर विशाखयूप नामक वनमें पहुँचकर नरवीर पाण्डवोंने उस समय निवास किया॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वराहनानामृगपक्षिजुष्टं
महावनं चैत्ररथप्रकाशम्
शिवेन पार्था मृगयाप्रधानाः
संवत्सरं तत्र वने विजह्रुः ॥ १७ ॥

मूलम्

वराहनानामृगपक्षिजुष्टं
महावनं चैत्ररथप्रकाशम्
शिवेन पार्था मृगयाप्रधानाः
संवत्सरं तत्र वने विजह्रुः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह विशाल वन चैत्ररथ वनके समान शोभायमान था। वहाँ सूअर, नाना प्रकारके मृग तथा पक्षी निवास करते थे। उन दिनों पाण्डवोंका वहाँ हिंस्र जीवोंको मारना ही प्रधान काम था। वहाँ वे एक वर्षतक बड़े सुखसे विचरते रहे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्राससादातिबलं भुजङ्गं
क्षुधार्दितं मृत्युमिवोग्ररूपम्
वृकोदरः पर्वतकन्दरायां
विषादमोहव्यथितान्तरात्मा ॥ १८ ॥

मूलम्

तत्राससादातिबलं भुजङ्गं
क्षुधार्दितं मृत्युमिवोग्ररूपम्
वृकोदरः पर्वतकन्दरायां
विषादमोहव्यथितान्तरात्मा ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी यात्रामें भीमसेन एक दिन पर्वतकी कन्दरामें भूखसे पीड़ित एक अजगरके पास जा पहुँचे, जो अत्यन्त बलवान् होनेके साथ ही मृत्युके समान भयानक था। उस समय उनकी अन्तरात्मा विषाद एवं मोहसे व्यथित हो उठी॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वीपोऽभवद् यत्र वृकोदरस्य
युधिष्ठिरो धर्मभृतां वरिष्ठः
अमोक्षयद् यस्तमनन्ततेजा
ग्राहेण संवेष्टितसर्वगात्रम् ॥ १९ ॥

मूलम्

द्वीपोऽभवद् यत्र वृकोदरस्य
युधिष्ठिरो धर्मभृतां वरिष्ठः
अमोक्षयद् यस्तमनन्ततेजा
ग्राहेण संवेष्टितसर्वगात्रम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस अवसरपर धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ अत्यन्त तेजस्वी युधिष्ठिर भीमसेनके लिये द्वीपकी भाँति अवलम्ब हो गये। अजगरने भीमसेनके सम्पूर्ण शरीरको लपेट लिया था, परंतु युधिष्ठिरने (अजगरको उसके प्रश्नोंके उत्तरद्वारा संतुष्ट करके) उन्हें छुड़ा दिया॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते द्वादशं वर्षमुपोपयातं
वने विहर्तुं कुरवः प्रतीताः
तस्माद् वनाच्चैत्ररथप्रकाशात्
श्रिया ज्वलन्तस्तपसा च युक्ताः ॥ २० ॥
ततश्च यात्वा मरुधन्वपार्श्वं
सदा धनुर्वेदरतिप्रधानाः
सरस्वतीमेत्य निवासकामाः
सरस्ततो द्वैतवनं प्रतीयुः ॥ २१ ॥

मूलम्

ते द्वादशं वर्षमुपोपयातं
वने विहर्तुं कुरवः प्रतीताः
तस्माद् वनाच्चैत्ररथप्रकाशात्
श्रिया ज्वलन्तस्तपसा च युक्ताः ॥ २० ॥
ततश्च यात्वा मरुधन्वपार्श्वं
सदा धनुर्वेदरतिप्रधानाः
सरस्वतीमेत्य निवासकामाः
सरस्ततो द्वैतवनं प्रतीयुः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब इन पाण्डवोंके वनवासका बारहवाँ वर्ष आ पहुँचा था। उसे भी वनमें सानन्द व्यतीत करनेके लिये उनके मनमें बड़ा उत्साह था। अपनी अद्भुत कान्तिसे प्रकाशित होते हुए तपस्वी पाण्डव चैत्ररथ वनके समान शोभा पानेवाले उस वनसे निकलकर मरुभूमिके पास सरस्वतीके तटपर गये और वहीं निवास करनेकी इच्छासे द्वैतवनके द्वैत सरोवरके समीप गये। उस समय पाण्डवोंका विशेष प्रेम सदा धनुर्वेदमें ही लक्षित होता था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समीक्ष्य तान् द्वैतवने निविष्टान्
निवासिनस्तत्र ततोऽभिजग्मुः
तपोदमाचारसमाधियुक्ता-
स्तृणोदपात्रावरणाश्मकुट्टाः ॥ २२ ॥

मूलम्

समीक्ष्य तान् द्वैतवने निविष्टान्
निवासिनस्तत्र ततोऽभिजग्मुः
तपोदमाचारसमाधियुक्ता-
स्तृणोदपात्रावरणाश्मकुट्टाः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें द्वैतवनमें आया देख वहाँके निवासी उनके दर्शनके लिये निकट आये। वे सब-के-सब तपस्या, इन्द्रिय-संयम, सदाचार और समाधिमें तत्पर रहनेवाले थे। तिनकेकी चटाई, जलपात्र, ओढ़नेका कपड़ा और सिल-लोढ़े—यही उनके पास सामग्री थी॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्लक्षाक्षरौहीतकवेतसाश्च
तथा बदर्यः खदिराः शिरीषाः
बिल्वेङ्‌गुदाः पीलुशमीकरीराः
सरस्वतीतीररुहा बभूवुः ॥ २३ ॥
तां यक्षगन्धर्वमहर्षिकान्ता-
मागारभूतामिव देवतानाम्
सरस्वतीं प्रीतियुताश्चरन्तः
सुखं विजह्रुर्नरदेवपुत्राः ॥ २४ ॥

मूलम्

प्लक्षाक्षरौहीतकवेतसाश्च
तथा बदर्यः खदिराः शिरीषाः
बिल्वेङ्‌गुदाः पीलुशमीकरीराः
सरस्वतीतीररुहा बभूवुः ॥ २३ ॥
तां यक्षगन्धर्वमहर्षिकान्ता-
मागारभूतामिव देवतानाम्
सरस्वतीं प्रीतियुताश्चरन्तः
सुखं विजह्रुर्नरदेवपुत्राः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सरस्वतीके तटपर पाकड़, बहेड़ा, रोहितक, बेंत, बेर, खैर, सिरस, बेल, इंगुदी, पीलु, शमी और करीर आदिके वृक्ष खड़े थे। वह नदी यक्ष, गन्धर्व और महर्षियोंको प्रिय थी। देवताओंकी तो वह मानो बस्ती ही थी। राजपुत्र पाण्डव बड़ी प्रसन्नता और सुखसे वहाँ विचरने और निवास करने लगे॥२३-२४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि आजगरपर्वणि पुनर्द्वैतवनप्रवेशे सप्तसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत आजगरपर्वमें पाण्डवोंका पुनः द्वैतवनमें प्रवेशविषयक एक सौ सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७७॥