भागसूचना
(आजगरपर्व)
षट्सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भीमसेनकी युधिष्ठिरसे बातचीत और पाण्डवोंका गन्धमादनसे प्रस्थान
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् कृतास्त्रे रथिनां प्रवीरे
प्रत्यागते भवनाद् वृत्रहन्तुः
अतः परं किमकुर्वन्त पार्थाः
समेत्य शूरेण धनंजयेन ॥ १ ॥
मूलम्
तस्मिन् कृतास्त्रे रथिनां प्रवीरे
प्रत्यागते भवनाद् वृत्रहन्तुः
अतः परं किमकुर्वन्त पार्थाः
समेत्य शूरेण धनंजयेन ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयने पूछा— भगवन्! रथियोंमें श्रेष्ठ महावीर अर्जुन जब इन्द्रभवनसे दिव्यास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त करके लौट आये, तब उनसे मिलकर कुन्तीकुमारोंने पुनः कौन-सा कार्य किया?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वनेषु तेष्वेव तु ते नरेन्द्राः
सहार्जुनेनेन्द्रसमेन वीराः
तस्मिंश्च शैलप्रवरे सुरम्ये
धनेश्वराक्रीडगता विजह्रुः ॥ २ ॥
मूलम्
वनेषु तेष्वेव तु ते नरेन्द्राः
सहार्जुनेनेन्द्रसमेन वीराः
तस्मिंश्च शैलप्रवरे सुरम्ये
धनेश्वराक्रीडगता विजह्रुः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी बोले— राजन्! वे नरश्रेष्ठ वीर पाण्डव इन्द्रतुल्य पराक्रमी अर्जुनके साथ उस परम रमणीय शैलशिखरपर कुबेरकी क्रीड़ाभूमिके अन्तर्गत उन्हीं वनोंमें सुखसे विहार करने लगे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेश्मानि तान्यप्रतिमानि पश्चन्
क्रीडाश्च नानाद्रुमसंनिबद्धाः
चचार धन्वी बहुधा नरेन्द्रः
सोऽस्त्रेषु यत्तः सततं किरीटी ॥ ३ ॥
मूलम्
वेश्मानि तान्यप्रतिमानि पश्चन्
क्रीडाश्च नानाद्रुमसंनिबद्धाः
चचार धन्वी बहुधा नरेन्द्रः
सोऽस्त्रेषु यत्तः सततं किरीटी ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ कुबेरके अनुपम भवन बने हुए थे। नाना प्रकारके वृक्षोंके निकट अनेक प्रकारके खेल होते रहते थे। उन सबको देखते हुए किरीटधारी अर्जुन बहुधा वहाँ विचरा करते और हाथमें धनुष लेकर सदा अस्त्रोंके अभ्यासमें संलग्न रहते थे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवाप्य वासं नरदेवपुत्राः
प्रसादजं वैश्रवणस्य राज्ञः
न प्राणिनां ते स्पृहयन्ति राजन्
शिवश्च कालः स बभूव तेषाम् ॥ ४ ॥
मूलम्
अवाप्य वासं नरदेवपुत्राः
प्रसादजं वैश्रवणस्य राज्ञः
न प्राणिनां ते स्पृहयन्ति राजन्
शिवश्च कालः स बभूव तेषाम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! राजकुमार पाण्डवोंको राजाधिराज कुबेरकी कृपासे वहाँका निवास प्राप्त हुआ था। वे वहाँ रहकर भूतलके अन्य प्राणियोंके ऐश्वर्य-सुखकी अभिलाषा नहीं रखते थे। उनका वह समय बड़े सुखसे बीत रहा था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समेत्य पार्थेन यथैकरात्र-
मूषुः समास्तत्र तदा चतस्रः
पूर्वाश्च षट् ता दश पाण्डवानां
शिवा बभूवुर्वसतां वनेषु ॥ ५ ॥
मूलम्
समेत्य पार्थेन यथैकरात्र-
मूषुः समास्तत्र तदा चतस्रः
पूर्वाश्च षट् ता दश पाण्डवानां
शिवा बभूवुर्वसतां वनेषु ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अर्जुनके साथ वहाँ चार वर्षोंतक रहे, परंतु उनको वह समय एक रातके समान ही प्रतीत हुआ। पहलेके छः वर्ष तथा वहाँके चार वर्ष इस प्रकार सब मिलाकर पाण्डवोंके वनवासके दस वर्ष आनन्दपूर्वक बीत गये॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽब्रवीद् वायुसुतस्तरस्वी
जिष्णुश्च राजानमुपोपविश्य
यमौ च वीरौ सुरराजकल्पा-
वेकान्तमास्थाय हितं प्रियं च ॥ ६ ॥
मूलम्
ततोऽब्रवीद् वायुसुतस्तरस्वी
जिष्णुश्च राजानमुपोपविश्य
यमौ च वीरौ सुरराजकल्पा-
वेकान्तमास्थाय हितं प्रियं च ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर एक दिन अर्जुन तथा वीरवर नकुल-सहदेव, जो देवराजके समान पराक्रमी थे, एकान्तमें राजा युधिष्ठिरके पास बैठे थे। उस समय वेगशाली वायुपुत्र भीमसेन यह हितकर एवं प्रिय वचन बोले—॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तव प्रतिज्ञां कुरुराज सत्यां
चिकीर्षमाणास्तदनु प्रियं च
ततो न गच्छाम वनान्यपास्य
सुयोधनं सानुचरं निहन्तुम् ॥ ७ ॥
मूलम्
तव प्रतिज्ञां कुरुराज सत्यां
चिकीर्षमाणास्तदनु प्रियं च
ततो न गच्छाम वनान्यपास्य
सुयोधनं सानुचरं निहन्तुम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुरुराज! आपकी प्रतिज्ञाको सत्य करनेकी इच्छासे और आपका प्रिय करनेकी अभिलाषा रखनेके कारण हमलोग यह वनवास छोड़कर दुर्योधनका अनुचरोंसहित वध करने नहीं जा रहे हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकादशं वर्षमिदं वसामः
सुयोधनेनात्तसुखाः सुखार्हाः
तं वञ्चयित्वाधमबुद्धिशील-
मज्ञातवासं सुखमाप्नुयाम ॥ ८ ॥
मूलम्
एकादशं वर्षमिदं वसामः
सुयोधनेनात्तसुखाः सुखार्हाः
तं वञ्चयित्वाधमबुद्धिशील-
मज्ञातवासं सुखमाप्नुयाम ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब हमारे निवासका यह ग्यारहवाँ वर्ष चल रहा है। हमलोग सुख भोगनेके अधिकारी थे, परन्तु दुर्योधनने हमारा सुख छीन लिया। उसकी बुद्धि तथा स्वभाव अत्यन्त अधम है। उस दुष्टको धोखा देकर हम अपने अज्ञातवासका समय भी सुखपूर्वक बिता लेंगे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तवाज्ञया पार्थिव निर्विशङ्का
विहाय मानं विचरन् वनानि
समीपवासेन विलोभितास्ते
ज्ञास्यन्ति नास्मानपकृष्टदेशान् ॥ ९ ॥
मूलम्
तवाज्ञया पार्थिव निर्विशङ्का
विहाय मानं विचरन् वनानि
समीपवासेन विलोभितास्ते
ज्ञास्यन्ति नास्मानपकृष्टदेशान् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भूपशिरोमणे! आपकी आज्ञासे हम मानापमानका विचार छोड़कर निःशंक हो वनमें विचरते रहेंगे। पहले किसी निकटवर्ती स्थानमें रहकर दुर्योधन आदिके मनमें वहीं खोज करनेका लोभ उत्पन्न करेंगे और फिर वहाँसे दूर देशमें चले जायँगे, जिससे उन्हें हमारा पता न लग सकेगा॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संवत्सरं तत्र विहृत्य गूढं
नराधमं तं सुखमुद्धरेम
निर्यात्य वैरं सफलं सपुष्पं
तस्मै नरेन्द्राधमपूरुषाय ॥ १० ॥
सुयोधनायानुचरैर्वृताय
ततो महीमावस धर्मराज
स्वर्गोपमं देशमिमं चरद्भिः
शक्यो विहन्तुं नरदेव शोकः ॥ ११ ॥
मूलम्
संवत्सरं तत्र विहृत्य गूढं
नराधमं तं सुखमुद्धरेम
निर्यात्य वैरं सफलं सपुष्पं
तस्मै नरेन्द्राधमपूरुषाय ॥ १० ॥
सुयोधनायानुचरैर्वृताय
ततो महीमावस धर्मराज
स्वर्गोपमं देशमिमं चरद्भिः
शक्यो विहन्तुं नरदेव शोकः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वहाँ एक वर्षतक गुप्तरूपसे निवास करके जब हम लौटेंगे, तब अनायास ही उस नराधम दुर्योधनकी जड़ उखाड़ देंगे। नरेन्द्र! नीच दुर्योधन आज अपने अनुचरोंसे घिरकर सुखी हो रहा है। उसने जो वैरका वृक्ष लगा रखा है, उसे हम फल-फूलसहित उखाड़ फेकेंगे और उससे वैरका बदला लेंगे। अतः धर्मराज! आप यहाँसे चलकर पृथ्वीपर निवास करें। नरदेव! इसमें संदेह नहीं कि हमलोग इस स्वर्गतुल्य प्रदेशमें विचरते रहनेपर भी अपना सारा शोक अनायास ही निवृत्त कर सकते हैं॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीर्तिस्तु ते भारत पुण्यगन्धा
नश्येद्धि लोकेषु चराचरेषु
तत् प्राप्य राज्यं कुरुपुङ्गवानां
शक्यं महत् प्राप्तुमथ क्रियाश्च ॥ १२ ॥
इदं तु शक्यं सततं नरेन्द्र
प्राप्तुं त्वया यल्लभसे कुबेरात्
कुरुष्व बुद्धिं द्विषतां वधाय
कृतागसां भारत निग्रहे च ॥ १३ ॥
मूलम्
कीर्तिस्तु ते भारत पुण्यगन्धा
नश्येद्धि लोकेषु चराचरेषु
तत् प्राप्य राज्यं कुरुपुङ्गवानां
शक्यं महत् प्राप्तुमथ क्रियाश्च ॥ १२ ॥
इदं तु शक्यं सततं नरेन्द्र
प्राप्तुं त्वया यल्लभसे कुबेरात्
कुरुष्व बुद्धिं द्विषतां वधाय
कृतागसां भारत निग्रहे च ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परंतु ऐसा होनेपर चराचर जगत्में आपकी पुण्यमयी कीर्ति नष्ट हो जायगी। इसलिये कुरुवंश-शिरोमणि अपने पूर्वजोंके उस महान् राज्यको प्राप्त करके ही हम और कोई सत्कर्म करनेयोग्य हो सकते हैं। भरतकुलभूषण महाराज! आप कुबेरसे जो सम्मान या अनुग्रह प्राप्त कर रहे हैं, इसे तो सदा ही प्राप्त कर सकते हैं। इस समय तो अपराधी शत्रुओंको मारने और दण्ड देनेका निश्चय कीजिये॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेजस्तवोग्रं न सहेत राजन्
समेत्य साक्षादपि वज्रपाणिः
न हि व्यथां जातु करिष्यतस्तौ
समेत्य देवैरपि धर्मराज ॥ १४ ॥
तवार्थसिद्ध्यर्थमपि प्रवृत्तौ
सुपर्णकेतुश्च शिनेश्च नप्ता
तथैव कृष्णोऽप्रतिमो बलेन
तथैव चाहं नरदेववर्य ॥ १५ ॥
तवार्थसिद्ध्यर्थमभिप्रपन्नो
यथैव कृष्णः सह यादवैस्तैः
तथैव चाहं नरदेववर्य
यमौ च वीरौ कृतिनौ प्रयोगे ॥ १६ ॥
मूलम्
तेजस्तवोग्रं न सहेत राजन्
समेत्य साक्षादपि वज्रपाणिः
न हि व्यथां जातु करिष्यतस्तौ
समेत्य देवैरपि धर्मराज ॥ १४ ॥
तवार्थसिद्ध्यर्थमपि प्रवृत्तौ
सुपर्णकेतुश्च शिनेश्च नप्ता
तथैव कृष्णोऽप्रतिमो बलेन
तथैव चाहं नरदेववर्य ॥ १५ ॥
तवार्थसिद्ध्यर्थमभिप्रपन्नो
यथैव कृष्णः सह यादवैस्तैः
तथैव चाहं नरदेववर्य
यमौ च वीरौ कृतिनौ प्रयोगे ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! साक्षात् वज्रधारी इन्द्र भी आपसे भिड़कर आपके भयंकर तेजको नहीं सह सकते। धर्मराज! आपका कार्य सिद्ध करनेके लिये दो वीर सदा प्रयत्न करते हैं! गरुडध्वज भगवान् श्रीकृष्ण और शिनिके नाती वीरवर सात्यकि। ये दोनों आपके लिये देवताओंसे भी युद्ध करनेमें कभी कष्टका अनुभव नहीं करेंगे। नरदेवशिरोमणे! इन्हीं दोनोंके समान अर्जुन भी बल और पराक्रममें अपना सानी नहीं रखते। इसी प्रकार मैं भी बलमें किसीसे कम नहीं हूँ। जैसे भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण यादवोंके साथ आपके प्रत्येक कार्यकी सिद्धिके लिये उद्यत रहते हैं, उसी प्रकार मैं, अर्जुन तथा अस्त्रोंके प्रयोगमें कुशल वीर नकुल-सहदेव भी आपकी आज्ञाका पालन करनेके लिये सदा संनद्ध रहा करते हैं॥१४—१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वदर्थयोगप्रभवप्रधानाः
शमं करिष्याम परान् समेत्य ॥ १६ ॥
मूलम्
त्वदर्थयोगप्रभवप्रधानाः
शमं करिष्याम परान् समेत्य ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपको धनकी प्राप्ति हो और आपका ऐश्वर्य बढ़े, यही हमारा प्रधान लक्ष्य है। अतः हमलोग शत्रुओंसे भिड़कर वैरकी शान्ति करेंगे॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तदाज्ञाय मतं महात्मा
तेषां च धर्मस्य सुतो वरिष्ठः ॥ १७ ॥
प्रदक्षिणं वैश्रवणाधिवासं
चकार धर्मार्थविदुत्तमौजाः
आमन्त्र्य वेश्मानि नदीः सरांसि
सर्वाणि रक्षांसि च धर्मराजः ॥ १८ ॥
यथागतं मार्गमवेक्षमाणः
पुनर्गिरिं चैव निरीक्षमाणः
ततो महात्मा स विशुद्धबुद्धिः
सम्प्रार्थयामास नगेन्द्रवर्यम् ॥ १९ ॥
मूलम्
ततस्तदाज्ञाय मतं महात्मा
तेषां च धर्मस्य सुतो वरिष्ठः ॥ १७ ॥
प्रदक्षिणं वैश्रवणाधिवासं
चकार धर्मार्थविदुत्तमौजाः
आमन्त्र्य वेश्मानि नदीः सरांसि
सर्वाणि रक्षांसि च धर्मराजः ॥ १८ ॥
यथागतं मार्गमवेक्षमाणः
पुनर्गिरिं चैव निरीक्षमाणः
ततो महात्मा स विशुद्धबुद्धिः
सम्प्रार्थयामास नगेन्द्रवर्यम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर धर्म और अर्थके तत्त्वको जाननेवाले उत्तम ओजसे सम्पन्न श्रेष्ठ महात्मा धर्मपुत्र युधिष्ठिरने उस समय उन सबके अभिप्रायको जानकर कुबेरके निवासस्थान उस गन्धमादन पर्वतकी प्रदक्षिणा की। फिर उन्होंने वहाँके भवनों, नदियों, सरोवरों तथा समस्त राक्षसोंसे विदा ली। इसके बाद वे जिस मार्गसे आये थे, उसकी ओर देखने लगे। तदनन्तर उन विशुद्धबुद्धि महात्मा युधिष्ठिरने पुनः गन्धमादन पर्वतकी ओर देखते हुए उस श्रेष्ठ गिरिराजसे इस प्रकार प्रार्थना की॥१७—१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समाप्तकर्मा सहितः सुहृद्भि-
र्जित्वा सपत्नान् प्रतिलभ्य राज्यम्
शैलेन्द्र भूयस्तपसे जितात्मा
द्रष्टा तवास्मीति मतिं चकार ॥ २० ॥
मूलम्
समाप्तकर्मा सहितः सुहृद्भि-
र्जित्वा सपत्नान् प्रतिलभ्य राज्यम्
शैलेन्द्र भूयस्तपसे जितात्मा
द्रष्टा तवास्मीति मतिं चकार ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शैलेन्द्र! अब अपने मन और बुद्धिको संयममें रखनेवाला मैं शत्रुओंको जीतकर अपना खोया हुआ राज्य पानेके बाद सुहृदोंके साथ अपना सब कार्य सम्पन्न करके पुनः तपस्याके लिये लौटनेपर आपका दर्शन करूँगा’। इस प्रकार युधिष्ठिरने निश्चय किया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृतश्च सर्वैरनुजैर्द्विजैश्च
तेनैव मार्गेण पतिः कुरूणाम्
उवाह चैतान् गणशस्तथैव
घटोत्कचः पर्वतनिर्झरेषु ॥ २१ ॥
मूलम्
वृतश्च सर्वैरनुजैर्द्विजैश्च
तेनैव मार्गेण पतिः कुरूणाम्
उवाह चैतान् गणशस्तथैव
घटोत्कचः पर्वतनिर्झरेषु ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् समस्त भाइयों और ब्रह्माणोंसे घिरे हुए कुरुराज युधिष्ठिर उसी मार्गसे नीचे उतरने लगे जहाँ दुर्गम पर्वत और झरने पड़ते थे, वहाँ घटोत्कच अपने गणोंसहित आकर पहलेकी तरह इन सबको पीठपर बिठा वहाँसे पार कर देता था॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् प्रस्थितान् प्रीतमना महर्षिः
पितेव पुत्राननुशिष्य सर्वान्
स लोमशः प्रीतमना जगाम
दिवौकसां पुण्यतमं निवासम् ॥ २२ ॥
मूलम्
तान् प्रस्थितान् प्रीतमना महर्षिः
पितेव पुत्राननुशिष्य सर्वान्
स लोमशः प्रीतमना जगाम
दिवौकसां पुण्यतमं निवासम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षि लोमशने जब पाण्डवोंको वहाँसे प्रस्थान करते देखा, तब जिस प्रकार दयालु पिता अपने पुत्रोंको उपदेश देता है वैसे ही उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर सबको उत्तम उपदेश दिया। फिर मन-ही-मन प्रसन्नताका अनुभव करते हुए वे देवताओंके परम पवित्र स्थानको चले गये॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेनार्ष्टिषेणेन तथानुशिष्टा-
स्तीर्थानि रम्याणि तपोवनानि
महान्ति चान्यानि सरांसि पार्थाः
सम्पश्यमानाः प्रययुर्नराग्र्याः ॥ २३ ॥
मूलम्
तेनार्ष्टिषेणेन तथानुशिष्टा-
स्तीर्थानि रम्याणि तपोवनानि
महान्ति चान्यानि सरांसि पार्थाः
सम्पश्यमानाः प्रययुर्नराग्र्याः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार राजर्षि आर्ष्टिषेणने भी उन सबको उपदेश दिया। तत्पश्चात् वे नरश्रेष्ठ पाण्डव पवित्र तीर्थों, मनोहर तपोवनों और अन्य बड़े-बड़े सरोवरोंका दर्शन करते हुए आगे बढ़े॥२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि आजगरपर्वणि गन्धमादनप्रस्थाने षट्सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत आजगरपर्वमें गन्धमादनसे प्रस्थानविषयक एक सौ छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७६॥