भागसूचना
त्रिसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अर्जुनद्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयोंका वध और इन्द्रद्वारा अर्जुनका अभिनन्दन
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवर्तमानेन मया महद् दृष्टं ततोऽपरम्
पुरं कामचरं दिव्यं पावकार्कसमप्रभम् ॥ १ ॥
मूलम्
निवर्तमानेन मया महद् दृष्टं ततोऽपरम्
पुरं कामचरं दिव्यं पावकार्कसमप्रभम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन बोले— राजन्! तत्पश्चात् लौटते समय मार्गमें मैंने एक दूसरा दिव्य एवं विशाल नगर देखा, जो अग्नि और सूर्यके समान प्रकाशित हो रहा था। वह अपने निवासियोंकी इच्छाके अनुसार सर्वत्र आ-जा सकता था॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रत्नद्रुममयैश्चित्रैः सुस्वरैश्च पतत्त्रिभिः
पौलोमैः कालकञ्जैश्च नित्यहृष्टै रधिष्ठितम् ॥ २ ॥
मूलम्
रत्नद्रुममयैश्चित्रैः सुस्वरैश्च पतत्त्रिभिः
पौलोमैः कालकञ्जैश्च नित्यहृष्टै रधिष्ठितम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विचित्र रत्नमय वृक्ष और मधुर स्वरमें बोलनेवाले पक्षी उस नगरकी शोभा बढ़ाते थे। पौलोम और कालकञ्ज नामक दानव सदा प्रसन्नतापूर्वक वहाँ निवास करते थे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोपुराट्टालकोपेतं चतुर्द्वारं दुरासदम्
सर्वरत्नमयं दिव्यमद्भुतोपमदर्शनम् ॥ ३ ॥
मूलम्
गोपुराट्टालकोपेतं चतुर्द्वारं दुरासदम्
सर्वरत्नमयं दिव्यमद्भुतोपमदर्शनम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस नगरमें ऊँचे-ऊँचे गोपुरोंसहित सुन्दर अट्टालिकायें सुशोभित थीं। उसमें चारों दिशाओंमें एक-एक करके चार फाटक लगे थे। शत्रुओंके लिये उस नगरमें प्रवेश पाना अत्यन्त कठिन था। सब प्रकारके रत्नोंसे निर्मित वह दिव्य नगर अद्भुत दिखायी देता था॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रुमैः पुष्पफलोपेतैः सर्वरत्नमयैर्वृतम्
तथा पतत्त्रिभिर्दिव्यैरुपेतं सुमनोहरैः ॥ ४ ॥
मूलम्
द्रुमैः पुष्पफलोपेतैः सर्वरत्नमयैर्वृतम्
तथा पतत्त्रिभिर्दिव्यैरुपेतं सुमनोहरैः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फल और फूलोंसे भरे हुए सर्वरत्नमय वृक्ष नगरको सब ओरसे घेरे हुए थे तथा वह नगर दिव्य एवं अत्यन्त मनोहर पक्षियोंसे युक्त था॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असुरैर्नित्यमुदितैः शूलर्ष्टिमुसलायुधैः
चापमुद्गरहस्तैश्च स्रग्विभिः सर्वतो वृतम् ॥ ५ ॥
मूलम्
असुरैर्नित्यमुदितैः शूलर्ष्टिमुसलायुधैः
चापमुद्गरहस्तैश्च स्रग्विभिः सर्वतो वृतम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सदा प्रसन्न रहनेवाले बहुत-से असुर गलेमें सुन्दर माला धारण किये और हाथोंमें शूल, ऋष्टि, मुसल, धनुष तथा मुद्गर आदि अस्त्र-शस्त्र लिये सब ओरसे घेरकर उस नगरकी रक्षा करते थे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदहं प्रेक्ष्य दैत्यानां पुरमद्भुतदर्शनम्
अपृच्छं मातलिं राजन् किमिदं वर्ततेऽद्भुतम् ॥ ६ ॥
मूलम्
तदहं प्रेक्ष्य दैत्यानां पुरमद्भुतदर्शनम्
अपृच्छं मातलिं राजन् किमिदं वर्ततेऽद्भुतम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! दैत्योंके उस अद्भुत दिखायी देनेवाले नगरको देखकर मैंने मातलिसे पूछा—‘सारथे! यह कौन-सा अद्भुत नगर है?’॥६॥
मूलम् (वचनम्)
मातलिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुलोमा नाम दैतेयी कालका च महासुरी
दिव्यं वर्षसहस्रं ते चेरतुः परमं तपः ॥ ७ ॥
तपसोऽन्ते ततस्ताभ्यां स्वयम्भूरदद् वरम्
अगृह्णीतां वरं ते तु सुतानामल्पदुःखताम् ॥ ८ ॥
मूलम्
पुलोमा नाम दैतेयी कालका च महासुरी
दिव्यं वर्षसहस्रं ते चेरतुः परमं तपः ॥ ७ ॥
तपसोऽन्ते ततस्ताभ्यां स्वयम्भूरदद् वरम्
अगृह्णीतां वरं ते तु सुतानामल्पदुःखताम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मातलिने कहा— पार्थ! दैत्यकुलकी कन्या पुलोमा तथा महान् असुरवंशकी कन्या कालका—उन दोनोंने एक हजार दिव्य वर्षोंतक बड़ी भारी तपस्या की। तदनन्तर तपस्या पूर्ण होनेपर भगवान् ब्रह्माजीने उन दोनोंको वर दिया। उन्होंने यही वर माँगा कि ‘हमारे पुत्रोंका दुःख दूर हो जाय’॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवध्यतां च राजेन्द्र सुरराक्षसपन्नगैः
पुरं सुरमणीयं च खचरं सुमहाप्रभम् ॥ ९ ॥
सर्वरत्नैः समुदितं दुर्धर्षममरैरपि
महर्षियक्षगन्धर्वपन्नगासुरराक्षसैः ॥ १० ॥
सर्वकामगुणोपेतं वीतशोकमनामयम्
ब्रह्मणा भरतश्रेष्ठ कालकेयकृते कृतम् ॥ ११ ॥
तदेतत् खपुरं दिव्यं चरत्यमरवर्जितम्
पौलोमाध्युषितं वीर कालकञ्जैश्च दानवैः ॥ १२ ॥
मूलम्
अवध्यतां च राजेन्द्र सुरराक्षसपन्नगैः
पुरं सुरमणीयं च खचरं सुमहाप्रभम् ॥ ९ ॥
सर्वरत्नैः समुदितं दुर्धर्षममरैरपि
महर्षियक्षगन्धर्वपन्नगासुरराक्षसैः ॥ १० ॥
सर्वकामगुणोपेतं वीतशोकमनामयम्
ब्रह्मणा भरतश्रेष्ठ कालकेयकृते कृतम् ॥ ११ ॥
तदेतत् खपुरं दिव्यं चरत्यमरवर्जितम्
पौलोमाध्युषितं वीर कालकञ्जैश्च दानवैः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! उन दोनोंने यह भी प्रार्थना की कि ‘हमारे पुत्र देवता, राक्षस तथा नागोंके लिये भी अवध्य हों। इनके रहनेके लिये एक सुन्दर नगर होना चाहिये, जो अपने महान् प्रभा-पुञ्जसे जगमगा रहा हो। वह नगर विमानकी भाँति आकाशमें विचरनेवाला होना चाहिये, उसमें सब प्रकारके रत्नोंका संचय रहना चाहिये, देवता, महर्षि, यक्ष, गन्धर्व, नाग, असुर तथा राक्षस कोई भी उसका विध्वंस न कर सके। वह नगर समस्त मनोवाञ्छित गुणोंसे सम्पन्न, शोकशून्य तथा रोग आदिसे रहित होना चाहिये।’ भरतश्रेष्ठ! ब्रह्माजीने कालकेयोंके लिये वैसे ही नगरका निर्माण किया था। यह वही आकाशचारी दिव्य नगर है, जो सर्वत्र विचरता है। इसमें देवताओंका प्रवेश नहीं है। वीरवर! इसमें पौलोम और कालकंज नामक दानव ही निवास करते हैं॥९—१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरण्यपुरमित्येवं ख्यायते नगरं महत्
रक्षितं कालकेयैश्च पौलोमैश्च महासुरैः ॥ १३ ॥
मूलम्
हिरण्यपुरमित्येवं ख्यायते नगरं महत्
रक्षितं कालकेयैश्च पौलोमैश्च महासुरैः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह विशाल नगर हिरण्यपुरके नामसे विख्यात है। कालकेय तथा पौलोम नामक महान् असुर इसकी रक्षा करते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त एते मुदिता राजन्नवध्याः सर्वदैवतैः
निवसन्त्यत्र राजेन्द्र गतोद्वेगा निरुत्सुकाः ॥ १४ ॥
मूलम्
त एते मुदिता राजन्नवध्याः सर्वदैवतैः
निवसन्त्यत्र राजेन्द्र गतोद्वेगा निरुत्सुकाः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! ये वे ही दानव हैं, जो सम्पूर्ण देवताओंसे अवध्य रहकर उद्वेग तथा उत्कण्ठासे रहित हो यहाँ प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानुषान्मृत्युरेतेषां निर्दिष्टो ब्रह्मणा पुरा
एतानपि रणे पार्थ कालकञ्जान् दुरासदान्
वज्रास्त्रेण नयस्वाशु विनाशं सुमहाबलान् ॥ १५ ॥
मूलम्
मानुषान्मृत्युरेतेषां निर्दिष्टो ब्रह्मणा पुरा
एतानपि रणे पार्थ कालकञ्जान् दुरासदान्
वज्रास्त्रेण नयस्वाशु विनाशं सुमहाबलान् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें ब्रह्माजीने मनुष्यके हाथसे इनकी मृत्यु निश्चित की थी। कुन्तीकुमार! ये कालकंज और पौलोम अत्यन्त बलवान् तथा दुर्धर्ष हैं। तुम युद्धमें वज्रास्त्रके द्वारा इनका भी शीघ्र ही संहार कर डालो॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरासुरैरवध्यं तदहं ज्ञात्वा विशाम्पते
अब्रुवं मातलिं हृष्टो याह्येतत् पुरमञ्जसा ॥ १६ ॥
मूलम्
सुरासुरैरवध्यं तदहं ज्ञात्वा विशाम्पते
अब्रुवं मातलिं हृष्टो याह्येतत् पुरमञ्जसा ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन बोले— राजन्! उस हिरण्यपुरको देवताओं और असुरोंके लिये अवध्य जानकर मैंने मातलिसे प्रसन्नतापूर्वक कहा—‘आप यथाशीघ्र इस नगरमें अपना रथ ले चलिये’॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिदशेशद्विषो यावत् क्षयमस्त्रैर्नयाम्यहम्
न कथञ्चिद्धि मे पापा न वध्या ये सुरद्विषः॥१७॥
मूलम्
त्रिदशेशद्विषो यावत् क्षयमस्त्रैर्नयाम्यहम्
न कथञ्चिद्धि मे पापा न वध्या ये सुरद्विषः॥१७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिससे देवराजके द्रोहियोंको मैं अपने अस्त्रोंद्वारा नष्ट कर डालूँ। जो देवताओंसे द्वेष रखते हैं, उन पापियोंको मैं किसी प्रकार मारे बिना नहीं छोड़ सकता’॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाह मां ततः शीघ्रं हिरण्यपुरमन्तिकात्
रथेन तेन दिव्येन हरियुक्तेन मातलिः ॥ १८ ॥
मूलम्
उवाह मां ततः शीघ्रं हिरण्यपुरमन्तिकात्
रथेन तेन दिव्येन हरियुक्तेन मातलिः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे ऐसा कहनेपर मातलिने घोड़ोंसे युक्त उस दिव्य रथके द्वारा मुझे शीघ्र ही हिरण्यपुरके निकट पहुँचा दिया॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते मामालक्ष्य दैतेया विचित्राभरणाम्बराः
समुत्पेतुर्महावेगा रथानास्थाय दंशिताः ॥ १९ ॥
मूलम्
ते मामालक्ष्य दैतेया विचित्राभरणाम्बराः
समुत्पेतुर्महावेगा रथानास्थाय दंशिताः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे देखते ही विचित्र वस्त्राभूषणोंसे विभूषित वे दैत्य कवच पहनकर अपने रथोंपर जा बैठे और बड़े वेगसे मेरे ऊपर टूट पड़े॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो नालीकनाराचैर्भल्लैः शक्त्यृष्टितोमरैः
प्रत्यघ्नन् दानवेन्द्रा मां क्रुद्धास्तीव्रपराक्रमाः ॥ २० ॥
मूलम्
ततो नालीकनाराचैर्भल्लैः शक्त्यृष्टितोमरैः
प्रत्यघ्नन् दानवेन्द्रा मां क्रुद्धास्तीव्रपराक्रमाः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् क्रोधमें भरे हुए उन प्रचण्ड पराक्रमी दानवेन्द्रोंने नालीक, नाराच, भल्ल, शक्ति, ऋष्टि तथा तोमर आदि अस्त्रोंद्वारा मुझे मारना आरम्भ किया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदहं शरवर्षेण महता प्रत्यवारयम्
शस्त्रवर्षं महद् राजन् विद्याबलमुपाश्रितः ॥ २१ ॥
व्यामोहयं च तान् सर्वान् रथमार्गैश्चरन् रणे
तेऽन्योन्यमभिसम्मूढाः पातयन्ति स्म दानवान् ॥ २२ ॥
मूलम्
तदहं शरवर्षेण महता प्रत्यवारयम्
शस्त्रवर्षं महद् राजन् विद्याबलमुपाश्रितः ॥ २१ ॥
व्यामोहयं च तान् सर्वान् रथमार्गैश्चरन् रणे
तेऽन्योन्यमभिसम्मूढाः पातयन्ति स्म दानवान् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस समय मैंने विद्या-बलका आश्रय लेकर महती बाण-वर्षाके द्वारा उनके अस्त्र-शस्त्रोंकी भारी बौछारको रोका और युद्ध-भूमिमें रथके विभिन्न पैंतरे बदलकर विचरते हुए उन सबको मोहमें डाल दिया। वे ऐसे किंकर्तव्यविमूढ हो रहे थे कि आपसमें ही लड़कर एक-दूसरे दानवोंको धराशायी करने लगे॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषामेवं विमूढानामन्योन्यमभिधावताम्
शिरांसि विशिखैर्दीप्तैर्न्यहनं शतसङ्घशः ॥ २३ ॥
मूलम्
तेषामेवं विमूढानामन्योन्यमभिधावताम्
शिरांसि विशिखैर्दीप्तैर्न्यहनं शतसङ्घशः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मूढ़चित्त हो आपसमें ही एक-दूसरेपर धावा करनेवाले उन दानवोंके सौ-सौ मस्तकोंको मैं अपने प्रज्वलित बाणोंद्वारा काट-काटकर गिराने लगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वध्यमाना दैतेयाः पुरमास्थाय तत् पुनः
खमुत्पेतुः सनगरा मायामास्थाय दानवीम् ॥ २४ ॥
मूलम्
ते वध्यमाना दैतेयाः पुरमास्थाय तत् पुनः
खमुत्पेतुः सनगरा मायामास्थाय दानवीम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दैत्य जब इस प्रकार मारे जाने लगे, तब पुनः अपने उस नगरमें ही घुस गये और दानवी मायाका सहारा ले नगर सहित आकाशमें ऊँचे उड़ गये॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽहं शरवर्षेण महता कुरुनन्दन
मार्गमावृत्य दैत्यानां गतिं चैषामवारयम् ॥ २५ ॥
मूलम्
ततोऽहं शरवर्षेण महता कुरुनन्दन
मार्गमावृत्य दैत्यानां गतिं चैषामवारयम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! तब मैं बाणोंकी भारी बौछार करके दैत्योंका मार्ग रोक लिया और उनकी गति कुण्ठित कर दी॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् पुरं खचरं दिव्यं कामगं सूर्यसप्रभम्
दैतेयैर्वरदानेन धार्यते स्म यथासुखम् ॥ २६ ॥
मूलम्
तत् पुरं खचरं दिव्यं कामगं सूर्यसप्रभम्
दैतेयैर्वरदानेन धार्यते स्म यथासुखम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्यके समान प्रकाशित होनेवाला दैत्योंका वह आकाशचारी दिव्य नगर उनकी इच्छाके अनुसार चलनेवाला था और दैत्यलोग वरदानके प्रभावसे उसे सुखपूर्वक आकाशमें धारण करते थे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तर्भूमौ निपतति पुनरूर्ध्वं प्रतिष्ठते
पुनस्तिर्यक् प्रयात्याशु पुनरप्सु निमज्जति ॥ २७ ॥
मूलम्
अन्तर्भूमौ निपतति पुनरूर्ध्वं प्रतिष्ठते
पुनस्तिर्यक् प्रयात्याशु पुनरप्सु निमज्जति ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह दिव्य पुर कभी पृथ्वीपर अथवा पातालमें चला जाता, कभी ऊपर उड़ जाता, कभी तिरछी दिशाओंमें चलता और कभी शीघ्र ही जलमें डूब जाता था॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमरावतिसंकाशं तत् पुरं कामगं महत्
अहमस्त्रैर्बहुविधैः प्रत्यगृह्णं परंतप ॥ २८ ॥
मूलम्
अमरावतिसंकाशं तत् पुरं कामगं महत्
अहमस्त्रैर्बहुविधैः प्रत्यगृह्णं परंतप ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतप! इच्छानुसार विचरनेवाला वह विशाल नगर अमरावतीके ही तुल्य था; परंतु मैंने नाना प्रकारके अस्त्रों द्वारा उसे सब ओरसे रोक लिया॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽहं शरजालेन दिव्यास्त्रनुदितेन च
व्यगृह्णं सह दैतेयैस्तत् पुरं पुरुषर्षभ ॥ २९ ॥
मूलम्
ततोऽहं शरजालेन दिव्यास्त्रनुदितेन च
व्यगृह्णं सह दैतेयैस्तत् पुरं पुरुषर्षभ ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! फिर दिव्यास्त्रोंसे अभिमन्त्रित बाणसमूहोंकी वृष्टि करते हुए मैंने दैत्योंसहित उस नगरको क्षत-विक्षत करना आरम्भ किया॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विक्षतं चायसैर्बाणैर्मत्प्रयुक्तैरजिह्मगैः
महीमभ्यपतद् राजन् प्रभग्नं पुरमासुरम् ॥ ३० ॥
मूलम्
विक्षतं चायसैर्बाणैर्मत्प्रयुक्तैरजिह्मगैः
महीमभ्यपतद् राजन् प्रभग्नं पुरमासुरम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! मेरे चलाये हुए लोहनिर्मित बाण सीधे लक्ष्यतक पहुँचनेवाले थे। उनसे क्षतिग्रस्त हुआ वह दैत्य-नगर तहस-नहस होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वध्यमाना मद्बाणैर्वज्रवेगैरयस्मयैः
पर्यभ्रमन्त वै राजन्नसुराः कालचोदिताः ॥ ३१ ॥
मूलम्
ते वध्यमाना मद्बाणैर्वज्रवेगैरयस्मयैः
पर्यभ्रमन्त वै राजन्नसुराः कालचोदिताः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! लोहेके बने हुए मेरे बाणोंका वेग वज्रके समान था। उनकी मार खाकर वे कालप्रेरित असुर चारों ओर चक्कर काटने लगते थे॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मातलिरारुह्य पुरस्तान्निपतन्निव
महीमवातरत् क्षिप्रं रथेनादित्यवर्चसा ॥ ३२ ॥
मूलम्
ततो मातलिरारुह्य पुरस्तान्निपतन्निव
महीमवातरत् क्षिप्रं रथेनादित्यवर्चसा ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर मातलि आकाशमें ऊँचे चढ़कर सूर्यके समान तेजस्वी रथद्वारा उन राक्षसोंके सामने गिरते हुए-से शीघ्र ही पृथ्वीपर उतरे॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रथसहस्राणि षष्टिस्तेषाममर्षिणाम्
युयुत्सूनां मया सार्धं पर्यवर्तन्त भारत
तान्यहं निशितैर्बाणैर्व्यधमं गार्ध्रराजितैः ॥ ३३ ॥
मूलम्
ततो रथसहस्राणि षष्टिस्तेषाममर्षिणाम्
युयुत्सूनां मया सार्धं पर्यवर्तन्त भारत
तान्यहं निशितैर्बाणैर्व्यधमं गार्ध्रराजितैः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! उस समय युद्धकी इच्छासे अमर्षमें भरे हुए उन दानवोंके साठ हजार रथ मेरे साथ लड़नेके लिये डट गये। यह देख मैंने गृद्धपंखसे सुशोभित तीखे बाणोंद्वारा उन सबको घायल करना आरम्भ किया॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते युद्धे सन्न्यवर्तन्त समुद्रस्य यथोर्मयः
नेमे शक्या मानुषेण युद्धेनेति प्रचिन्त्य तत् ॥ ३४ ॥
ततोऽहमानुपूर्व्येण दिव्यान्यस्त्राण्ययोजयम्
मूलम्
ते युद्धे सन्न्यवर्तन्त समुद्रस्य यथोर्मयः
नेमे शक्या मानुषेण युद्धेनेति प्रचिन्त्य तत् ॥ ३४ ॥
ततोऽहमानुपूर्व्येण दिव्यान्यस्त्राण्ययोजयम्
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु वे दानव युद्धके लिये इस प्रकार मेरी ओर चढ़े आ रहे थे, मानो समुद्रकी लहरें उठ रही हों। तब मैंने यह सोचकर कि मानवोचित युद्धके द्वारा इनपर विजय नहीं पायी जा सकती, क्रमशः दिव्यास्त्रोंका प्रयोग आरम्भ किया॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तानि सहस्राणि रथिनां चित्रयोधिनाम् ॥ ३५ ॥
अस्त्राणि मम दिव्यानि प्रत्यघ्नन् शनकैरिव
मूलम्
ततस्तानि सहस्राणि रथिनां चित्रयोधिनाम् ॥ ३५ ॥
अस्त्राणि मम दिव्यानि प्रत्यघ्नन् शनकैरिव
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु विचित्र युद्ध करनेवाले वे सहस्रों रथारूढ़ दानव धीरे-धीरे मेरे दिव्यास्त्रोंका भी निवारण करने लगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथमार्गान् विचित्रांस्ते विचरन्तो महाबलाः ॥ ३६ ॥
प्रत्यदृश्यन्त संग्रामे शतशोऽथ सहस्रशः
मूलम्
रथमार्गान् विचित्रांस्ते विचरन्तो महाबलाः ॥ ३६ ॥
प्रत्यदृश्यन्त संग्रामे शतशोऽथ सहस्रशः
अनुवाद (हिन्दी)
वे महान् बलवान् तो थे ही, रथके विचित्र पैंतरे बदलकर रणभूमिमें विचर रहे थे। उस युद्धके मैदानमें उनके सौ-सौ और हजार-हजारके झुंड दिखायी देते थे॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विचित्रमुकुटापीडा विचित्रकवचध्वजाः ॥ ३७ ॥
विचित्राभरणाश्चैव नन्दयन्तीव मे मनः
मूलम्
विचित्रमुकुटापीडा विचित्रकवचध्वजाः ॥ ३७ ॥
विचित्राभरणाश्चैव नन्दयन्तीव मे मनः
अनुवाद (हिन्दी)
उनके मस्तकोंपर विचित्र मुकुट और पगड़ी देखी जाती थी। उनके कवच और ध्वज भी विचित्र ही थे। वे अद्भुत आभूषणोंसे विभूषित हो मेरे लिये मनोरंजनकी-सी वस्तु बन गये थे॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं तु शरवर्षैस्तानस्त्रप्रचुदितै रणे ॥ ३८ ॥
नाशक्नुवं पीडयितुं ते तु मां प्रत्यपीडयन्
मूलम्
अहं तु शरवर्षैस्तानस्त्रप्रचुदितै रणे ॥ ३८ ॥
नाशक्नुवं पीडयितुं ते तु मां प्रत्यपीडयन्
अनुवाद (हिन्दी)
उस युद्धमें दिव्यास्त्रों द्वारा अभिमन्त्रित बाणोंकी वर्षा करके भी मैं उन्हें पीड़ित न कर सका; परंतु वे मुझे बहुत पीड़ा देने लगे॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैः पीड्यमानो बहुभिः कृतास्त्रैः कुशलैर्युधि ॥ ३९ ॥
व्यथितोऽस्मि महायुद्धे भयं चागान्महन्मम
मूलम्
तैः पीड्यमानो बहुभिः कृतास्त्रैः कुशलैर्युधि ॥ ३९ ॥
व्यथितोऽस्मि महायुद्धे भयं चागान्महन्मम
अनुवाद (हिन्दी)
वे अस्त्रोंके ज्ञाता तथा युद्धकुशल थे, उनकी संख्या भी बहुत थी। उस महान् संग्राममें उन दानवोंसे पीड़ित होनेपर मेरे मनमें महान् भय समा गया॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽहं देवदेवाय रुद्राय प्रयतो रणे ॥ ४० ॥
(प्रयतः प्रणतो भूत्वा नमस्कृत्य महात्मने।)
स्वस्ति भूतेभ्य इत्युक्त्वा महास्त्रं समचोदयम्
मूलम्
ततोऽहं देवदेवाय रुद्राय प्रयतो रणे ॥ ४० ॥
(प्रयतः प्रणतो भूत्वा नमस्कृत्य महात्मने।)
स्वस्ति भूतेभ्य इत्युक्त्वा महास्त्रं समचोदयम्
अनुवाद (हिन्दी)
तब मैंने एकाग्रचित्त हो मस्तक झुकाकर देवाधिदेव महात्मा रुद्रको प्रणाम किया और ‘समस्त भूतोंका कल्याण हो’ ऐसा कहकर उनके महान् पाशुपतास्त्रका प्रयोग किया॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् तद् रौद्रमिति ख्यातं सर्वामित्रविनाशनम् ॥ ४१ ॥
(महत् पाशुपतं दिव्यं सर्वलोकनमस्कृतम्।)
ततोऽपश्यं त्रिशिरसं पुरुषं नवलोचनम्
त्रिमुखं षड्भुजं दीप्तमर्कज्वलनमूर्धजम् ॥ ४२ ॥
मूलम्
यत् तद् रौद्रमिति ख्यातं सर्वामित्रविनाशनम् ॥ ४१ ॥
(महत् पाशुपतं दिव्यं सर्वलोकनमस्कृतम्।)
ततोऽपश्यं त्रिशिरसं पुरुषं नवलोचनम्
त्रिमुखं षड्भुजं दीप्तमर्कज्वलनमूर्धजम् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसीको ‘रौद्रास्त्र’ भी कहते हैं। वह समस्त शत्रुओंका विनाश करनेवाला है। वह महान् एवं दिव्य पाशुपतास्त्र सम्पूर्ण विश्वके लिये वन्दनीय है। उसका प्रयोग करते ही मुझे एक दिव्य पुरुषका दर्शन हुआ, जिनके तीन मस्तक, तीन मुख, नौ नेत्र तथा छः भुजाएँ थीं। उनका स्वरूप बड़ा तेजस्वी था। उनके मस्तकके बाल सूर्यके समान प्रज्वलित हो रहे थे॥४१-४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लेलिहानैर्महानागैः कृतचीरममित्रहन्
(भक्तानुकम्पिनं देवं नागयज्ञोपवीतिनम् ।)
विभीस्ततस्तदस्त्रं तु घोरं रौद्रं सनातनम् ॥ ४३ ॥
दृष्ट्वा गाण्डीवसंयोगमानीय भरतर्षभ
नमस्कृत्वा त्रिनेत्राय शर्वायामिततेजसे ॥ ४४ ॥
मुक्तवान् दानवेन्द्राणां पराभावाय भारत
मुक्तमात्रे ततस्तस्मिन् रूपाण्यासन् सहस्रशः ॥ ४५ ॥
मूलम्
लेलिहानैर्महानागैः कृतचीरममित्रहन्
(भक्तानुकम्पिनं देवं नागयज्ञोपवीतिनम् ।)
विभीस्ततस्तदस्त्रं तु घोरं रौद्रं सनातनम् ॥ ४३ ॥
दृष्ट्वा गाण्डीवसंयोगमानीय भरतर्षभ
नमस्कृत्वा त्रिनेत्राय शर्वायामिततेजसे ॥ ४४ ॥
मुक्तवान् दानवेन्द्राणां पराभावाय भारत
मुक्तमात्रे ततस्तस्मिन् रूपाण्यासन् सहस्रशः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन नरेश! लपलपाती जीभवाले बड़े-बड़े नाग उन दिव्य पुरुषके लिये चीर (वस्त्र) बने हुए थे। भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले उन महादेवजीने सर्पोंका ही यज्ञोपवीत धारण कर रखा था। उनके दर्शनसे मेरा सारा भय जाता रहा। भरतश्रेष्ठ! फिर तो मैंने उस भयंकर एवं सनातन पाशुपतास्त्रको गाण्डीव धनुषपर संयोजित करके अमित तेजस्वी त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकरको नमस्कार किया और उन दानवेन्द्रोंके विनाशके लिये उनपर चला दिया। उस अस्त्रके छूटते ही उससे सहस्रों रूप प्रकट हो गये॥४३—४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृगाणामथ सिंहानां व्याघ्राणां च विशाम्पते
ऋक्षाणां महिषाणां च पन्नगानां तथा गवाम् ॥ ४६ ॥
शरभाणां गजानां च वानराणां च सङ्घशः
ऋषभाणां वराहाणां मार्जाराणां तथैव च ॥ ४७ ॥
शालावृकाणां प्रेतानां भुरुण्डानां च सर्वशः
गृध्राणां गरुडानां च चमराणां तथैव च ॥ ४८ ॥
देवानां च ऋषीणां च गन्धर्वाणां च सर्वशः
पिशाचानां सयक्षाणां तथैव च सुरद्विषाम् ॥ ४९ ॥
गुह्यकानां च संग्रामे नैर्ऋतानं तथैव च
झषाणां गजवक्त्राणामुलूकानां तथैव च ॥ ५० ॥
मीनवाजिसरूपाणां नानाशस्त्रासिपाणिनाम्
तथैव यातुधानानां गदामुद्गरधारिणाम् ॥ ५१ ॥
मूलम्
मृगाणामथ सिंहानां व्याघ्राणां च विशाम्पते
ऋक्षाणां महिषाणां च पन्नगानां तथा गवाम् ॥ ४६ ॥
शरभाणां गजानां च वानराणां च सङ्घशः
ऋषभाणां वराहाणां मार्जाराणां तथैव च ॥ ४७ ॥
शालावृकाणां प्रेतानां भुरुण्डानां च सर्वशः
गृध्राणां गरुडानां च चमराणां तथैव च ॥ ४८ ॥
देवानां च ऋषीणां च गन्धर्वाणां च सर्वशः
पिशाचानां सयक्षाणां तथैव च सुरद्विषाम् ॥ ४९ ॥
गुह्यकानां च संग्रामे नैर्ऋतानं तथैव च
झषाणां गजवक्त्राणामुलूकानां तथैव च ॥ ५० ॥
मीनवाजिसरूपाणां नानाशस्त्रासिपाणिनाम्
तथैव यातुधानानां गदामुद्गरधारिणाम् ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! मृग, सिंह, व्याघ्र, रीछ, भैंस, नाग, गौ, शरभ, हाथी, वानर, बैल, सूअर, बिलाव, भेड़िये, प्रेत, मुरुण्ड, गिद्ध, गरुड, चमरी गाय, देवता, ऋषि, गन्धर्व, पिशाच, यक्ष, देवद्रोही राक्षस, गुह्यक, निशाचर, मत्स्य, गजमुख, उल्लू, मीन तथा अश्व-जैसे रूपवाले नाना प्रकारके जीवोंका प्रादुर्भाव हुआ। उन सबके हाथमें भाँति-भाँतिके अस्त्र-शस्त्र एवं खड्ग थे। इसी प्रकार गदा और मुद्गर धारण किये बहुत-से यातुधान भी प्रकट हुए॥४६—५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतैश्चान्यैश्च बहुभिर्नानारूपधरैस्तथा
सर्वमासीज्जगद् व्याप्तं तस्मिन्नस्त्रे विसर्जिते ॥ ५२ ॥
त्रिशिरोभिश्चतुर्दंष्ट्रैश्चतुरास्यैश्चतुर्भुजैः
अनेकरूपसंयुक्तैर्मांसमेदोवसास्थिभिः ॥ ५३ ॥
मूलम्
एतैश्चान्यैश्च बहुभिर्नानारूपधरैस्तथा
सर्वमासीज्जगद् व्याप्तं तस्मिन्नस्त्रे विसर्जिते ॥ ५२ ॥
त्रिशिरोभिश्चतुर्दंष्ट्रैश्चतुरास्यैश्चतुर्भुजैः
अनेकरूपसंयुक्तैर्मांसमेदोवसास्थिभिः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन सबके साथ दूसरे भी बहुत-से जीवोंका प्राकट्य हुआ, जिन्होंने नाना प्रकारके रूप धारण कर रखे थे। उन सबके द्वारा यह सारा जगत् व्याप्त-सा हो गया था। पाशुपतास्त्रका प्रयोग होते ही कोई तीन मस्तक, कोई चार दाढ़ें, कोई चार मुख और कोई चार भुजावाले अनेक रूपधारी प्राणी प्रकट हुए, जो मांस, मेदा, वसा और हड्डियोंसे संयुक्त थे॥५२-५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभीक्ष्णं वध्यमानास्ते दानवा नाशमागताः
अर्कज्वलनतेजोभिर्वज्राशनिसमप्रभैः ॥ ५४ ॥
अद्रिसारमयैश्चान्यैर्बाणैरपि निबर्हणैः
न्यहनं दानवान् सर्वान् मुहूर्तेनैव भारत ॥ ५५ ॥
मूलम्
अभीक्ष्णं वध्यमानास्ते दानवा नाशमागताः
अर्कज्वलनतेजोभिर्वज्राशनिसमप्रभैः ॥ ५४ ॥
अद्रिसारमयैश्चान्यैर्बाणैरपि निबर्हणैः
न्यहनं दानवान् सर्वान् मुहूर्तेनैव भारत ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन सबके द्वारा गहरी मार पड़नेसे वे सारे दानव नष्ट हो गये। भारत! उस समय सूर्य और अग्निके समान तेजस्वी तथा वज्र और अशनिके समान प्रकाशित होनेवाले शत्रुविनाशक लोहमय बाणोंद्वारा भी मैंने दो ही घड़ीमें सम्पूर्ण दानवोंका संहार कर डाला॥५४-५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गाण्डीवास्त्रप्रणुन्नांस्तान् गतासून् नभसश्च्युतान्
दृष्ट्वाहं प्राणमं भूयस्त्रिपुरघ्नाय वेधसे ॥ ५६ ॥
मूलम्
गाण्डीवास्त्रप्रणुन्नांस्तान् गतासून् नभसश्च्युतान्
दृष्ट्वाहं प्राणमं भूयस्त्रिपुरघ्नाय वेधसे ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए अस्त्रोंद्वारा क्षत-विक्षत हो समस्त दानव प्राण त्यागकर आकाशसे पृथ्वीपर गिर पड़े हैं। यह देखकर मैंने पुनः त्रिपुरनाशक भगवान् शंकरको प्रणाम किया॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा रौद्रास्त्रनिष्पिष्टान् दिव्याभरणभूषितान्
निशम्य परमं हर्षमगमद् देवसारथिः ॥ ५७ ॥
मूलम्
तथा रौद्रास्त्रनिष्पिष्टान् दिव्याभरणभूषितान्
निशम्य परमं हर्षमगमद् देवसारथिः ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दिव्य आभूषणोंसे विभूषित दानव पाशुपतास्त्रसे पिस गये हैं, यह देखकर देवसारथि मातलिको बड़ा हर्ष हुआ॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदसह्यं कृतं कर्म देवैरपि दुरासदम्
दृष्ट्वा मां पूजयामास मातलिः शक्रसारथिः ॥ ५८ ॥
मूलम्
तदसह्यं कृतं कर्म देवैरपि दुरासदम्
दृष्ट्वा मां पूजयामास मातलिः शक्रसारथिः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कार्य देवताओंके लिये भी दुष्कर और असह्य था, वह मेरेद्वारा पूरा हुआ देख इन्द्रसारथि मातलिने मेरा बड़ा सम्मान किया॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाच वचनं चेदं प्रीयमाणः कृताञ्जलिः
सुरासुरैरसह्यं हि कर्म यत् साधितं त्वया ॥ ५९ ॥
मूलम्
उवाच वचनं चेदं प्रीयमाणः कृताञ्जलिः
सुरासुरैरसह्यं हि कर्म यत् साधितं त्वया ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
और अत्यन्त प्रसन्न हो हाथ जोड़कर कहा—‘अर्जुन! आज तुमने वह कार्य कर दिखाया है जो देवताओं और असुरोंके लिये भी असाध्य था॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्येतत् संयुगे कर्तुमपि शक्तः सुरेश्वरः
(ध्रुवं धनंजय प्रीतस्त्वयि शक्रः पुरार्दन।)
सुरासुरैरवध्यं हि पुरमेतत् खगं महत् ॥ ६० ॥
त्वया विमथितं वीर स्ववीर्यतपसो बलात्
मूलम्
न ह्येतत् संयुगे कर्तुमपि शक्तः सुरेश्वरः
(ध्रुवं धनंजय प्रीतस्त्वयि शक्रः पुरार्दन।)
सुरासुरैरवध्यं हि पुरमेतत् खगं महत् ॥ ६० ॥
त्वया विमथितं वीर स्ववीर्यतपसो बलात्
अनुवाद (हिन्दी)
‘साक्षात् देवराज इन्द्र भी युद्धमें यह सब कार्य करनेकी शक्ति नहीं रखते हैं। हिरण्यपुरका विनाश करनेवाले वीरवर धनंजय! निश्चय ही देवराज इन्द्र आज तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न होंगे। वीर! तुमने अपने पराक्रम और तपस्याके बलसे इस आकाशचारी विशाल नगरको तहस-नहस कर डाला, जिसे सम्पूर्ण देवता और असुर मिलकर भी नष्ट नहीं कर सकते थे’॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विध्वस्ते खपुरे तस्मिन् दानवेषु हतेषु च ॥ ६१ ॥
विनदन्त्यः स्त्रियः सर्वा निष्पेतुर्नगराद् बहिः
प्रकीर्णकेश्यो व्यथिताः कुरर्य इव दुखिताः ॥ ६२ ॥
मूलम्
विध्वस्ते खपुरे तस्मिन् दानवेषु हतेषु च ॥ ६१ ॥
विनदन्त्यः स्त्रियः सर्वा निष्पेतुर्नगराद् बहिः
प्रकीर्णकेश्यो व्यथिताः कुरर्य इव दुखिताः ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस आकाशवर्ती नगरका विध्वंस और दानवोंका संहार हो जानेपर वहाँकी सारी स्त्रियाँ विलाप करती हुई नगरसे बाहर निकल आयीं। उनके केश बिखरे हुए थे। वे दुःख और व्यथामें डूबी हुई कुररीकी भाँति करुण-क्रन्दन करती थीं॥६१-६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पेतुः पुत्रान् पितॄन् भ्रातॄन् शोचमाना महीतले
रुदत्यो दीनकण्ठ्यस्तु निनदन्त्यो हतेश्वराः ॥ ६३ ॥
उरांसि परिनिघ्नन्त्यो विस्रस्तस्रग्विभूषणाः
मूलम्
पेतुः पुत्रान् पितॄन् भ्रातॄन् शोचमाना महीतले
रुदत्यो दीनकण्ठ्यस्तु निनदन्त्यो हतेश्वराः ॥ ६३ ॥
उरांसि परिनिघ्नन्त्यो विस्रस्तस्रग्विभूषणाः
अनुवाद (हिन्दी)
अपने पुत्र, पिता और भाइयोंके लिये शोक करती हुई वे सब-की-सब पृथ्वीपर गिर पड़ीं। जिनके पति मारे गये थे, वे अनाथ अबलाएँ दीनतापूर्ण कष्टसे रोती-चिल्लाती हुई छाती पीट रही थीं। उनके हार और आभूषण इधर-उधर गिर पड़े थे॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छोकयुक्तमश्रीकं दुःखदैन्यसमाहतम् ॥ ६४ ॥
न बभौ दानवपुरं हतत्विट्कं हतेश्वरम्
गन्धर्वनगराकारं हतनागमिव ह्रदम् ॥ ६५ ॥
शुष्कवृक्षमिवारण्यमदृश्यमभवत् पुरम्
मूलम्
तच्छोकयुक्तमश्रीकं दुःखदैन्यसमाहतम् ॥ ६४ ॥
न बभौ दानवपुरं हतत्विट्कं हतेश्वरम्
गन्धर्वनगराकारं हतनागमिव ह्रदम् ॥ ६५ ॥
शुष्कवृक्षमिवारण्यमदृश्यमभवत् पुरम्
अनुवाद (हिन्दी)
दानवोंका वह नगर शोकमग्न हो अपनी सारी शोभा खो चुका था। वहाँ दुःख और दीनता व्याप्त हो रही थी। अपने प्रभुओंके मारे जानेसे वह दानव-नगर निष्प्रभ और अशोभनीय हो गया था। गन्धर्व-नगरकी भाँति उसका अस्तित्व अयथार्थ जान पड़ता था। जिसका हाथी मर गया हो, उस सरोवर और जहाँके वृक्ष सूख गये हों, उस वनके समान वह नगर अदर्शनीय हो गया था॥६४-६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मां तु संहृष्टमनसं क्षिप्रं मातलिरानयत् ॥ ६६ ॥
देवराजस्य भवनं कृतकर्माणमाहवात्
मूलम्
मां तु संहृष्टमनसं क्षिप्रं मातलिरानयत् ॥ ६६ ॥
देवराजस्य भवनं कृतकर्माणमाहवात्
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे मनमें तो हर्ष और उत्साह भरा हुआ था। मैंने देवताओंका कार्य पूरा कर दिया था। अतः मातलि उस रणभूमिसे मुझे शीघ्र ही देवराज इन्द्रके भवनमें ले आये॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरण्यपुरमुत्सृज्य निहत्य च महासुरान् ॥ ६७ ॥
निवातकवचांश्चैव ततोऽहं शक्रमागमम्
मूलम्
हिरण्यपुरमुत्सृज्य निहत्य च महासुरान् ॥ ६७ ॥
निवातकवचांश्चैव ततोऽहं शक्रमागमम्
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मैं निवातकवच नामक महादानवोंको (तथा पौलोम और कालकेयोंको) मारकर तथा उजड़े हुए हिरण्यपुरको उसी अवस्थामें छोड़कर वहाँसे इन्द्रके पास आया॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम कर्म च देवेन्द्रं मातलिर्विस्तरेण तत् ॥ ६८ ॥
सर्वं विश्रावयामास यथाभूतं महाद्युते
मूलम्
मम कर्म च देवेन्द्रं मातलिर्विस्तरेण तत् ॥ ६८ ॥
सर्वं विश्रावयामास यथाभूतं महाद्युते
अनुवाद (हिन्दी)
महाद्युते! मातलिने मेरा सारा कार्य, जो कुछ जैसे हुआ था, देवराज इन्द्रसे विस्तारपूर्वक कह सुनाया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरण्यपुरघातं च मायानां च निवारणम् ॥ ६९ ॥
निवातकवचानां च वधं संख्ये महौजसाम्
तच्छ्रुत्वा भगवान् प्रीतः सहस्राक्षः पुरंदरः ॥ ७० ॥
मरुद्भिः सहितः श्रीमान् साधु साध्वित्यथाब्रवीत्
(परिष्वज्य च मां प्रेम्णा मूर्ध्नि चाघ्राय सस्मितम्।)
ततो मां देवराजो वै समाश्वास्य पुनः पुनः ॥ ७१ ॥
अब्रवीद् विबुधैः सार्धमिदं स मधुरं वचः
अतिदेवासुरं कर्म कृतमेव त्वया रणे ॥ ७२ ॥
मूलम्
हिरण्यपुरघातं च मायानां च निवारणम् ॥ ६९ ॥
निवातकवचानां च वधं संख्ये महौजसाम्
तच्छ्रुत्वा भगवान् प्रीतः सहस्राक्षः पुरंदरः ॥ ७० ॥
मरुद्भिः सहितः श्रीमान् साधु साध्वित्यथाब्रवीत्
(परिष्वज्य च मां प्रेम्णा मूर्ध्नि चाघ्राय सस्मितम्।)
ततो मां देवराजो वै समाश्वास्य पुनः पुनः ॥ ७१ ॥
अब्रवीद् विबुधैः सार्धमिदं स मधुरं वचः
अतिदेवासुरं कर्म कृतमेव त्वया रणे ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हिरण्यपुरका विध्वंस, दानवी मायाका निवारण तथा महाबलवान् निवातकवचोंका युद्धमें वध सुनकर मरुत् आदि देवताओंसहित भगवान् सहस्रलोचन इन्द्र अत्यन्त प्रसन्न हो मुझे साधुवाद देने लगे और मुझे प्रेम पूर्वक हृदयसे लगाकर मुसकराते हुए मेरा मस्तक सूँघा। तत्पश्चात् देवराजने बार-बार मुझे सान्त्वना देते हुए देवताओंके साथ यह मधुर वचन कहा—‘पार्थ! तुमने युद्धमें वह कार्य किया है, जो देवताओं और असुरोंके लिये भी असम्भव है॥६९—७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर्वर्थश्च कृतः पार्थ महाशत्रून् घ्नता मम
एवमेव सदा भाव्यं स्थिरेणाजौ धनंजय ॥ ७३ ॥
असम्मूढेन चास्त्राणां कर्तव्यं प्रतिपादनम्
अविषह्यो रणे हि त्वं देवदानवराक्षसैः ॥ ७४ ॥
मूलम्
गुर्वर्थश्च कृतः पार्थ महाशत्रून् घ्नता मम
एवमेव सदा भाव्यं स्थिरेणाजौ धनंजय ॥ ७३ ॥
असम्मूढेन चास्त्राणां कर्तव्यं प्रतिपादनम्
अविषह्यो रणे हि त्वं देवदानवराक्षसैः ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज तुमने मेरे महान् शत्रुओंका संहार करके गुरुदक्षिणा चुका दी है। धनंजय! इसी प्रकार तुम्हें सदा युद्धभूमिमें अविचल रहना चाहिये और मोहशून्य होकर अस्त्रोंका प्रयोग करना चाहिये। देवता, दानव तथा राक्षस कोई भी युद्धमें तुम्हारा सामना नहीं कर सकता॥७३-७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सयक्षासुरगन्धर्वैः सपक्षिगणपन्नगैः
वसुधां चापि कौन्तेय त्वद्बाहुबलनिर्जिताम्
पालयिष्यति धर्मात्मा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ७५ ॥
मूलम्
सयक्षासुरगन्धर्वैः सपक्षिगणपन्नगैः
वसुधां चापि कौन्तेय त्वद्बाहुबलनिर्जिताम्
पालयिष्यति धर्मात्मा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यक्ष, असुर, गन्धर्व, पक्षी तथा नाग भी तुम्हारे सामने नहीं टिक सकते। कुन्तीकुमार! धर्मात्मा कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर तुम्हारे बाहुबलसे जीती हुई पृथ्वीका पालन करेंगे॥७५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि निवातकवचयुद्धपर्वणि हिरण्यपुरदैत्यवधे त्रिसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्वमें हिरण्यपुरवासी दैत्योंके वधसे सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७३॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका २ श्लोक मिलाकर कुल ७७ श्लोक हैं)