भागसूचना
सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अर्जुन और निवातकवचोंका युद्ध
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो निवातकवचाः सर्वे वेगेन भारत।
अभ्यद्रवन् मां सहिताः प्रगृहीतायुधा रणे ॥ १ ॥
मूलम्
ततो निवातकवचाः सर्वे वेगेन भारत।
अभ्यद्रवन् मां सहिताः प्रगृहीतायुधा रणे ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन बोले— भारत! तदनन्तर सारे निवातकवच संगठित हो हाथोंमें अस्त्र-शस्त्र लिये युद्धभूमिमें वेगपूर्वक मेरे ऊपर टूट पड़े॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आच्छाद्य रथपन्थानमुत्क्रोशन्तो महारथाः ।
आवृत्य सर्वतस्ते मां शरवर्षैरवाकिरन् ॥ २ ॥
ततोऽपरे महावीर्याः शूलपट्टिशपाणयः ।
शूलानि च भुशुण्डीश्च मुमुचुर्दानवा मयि ॥ ३ ॥
मूलम्
आच्छाद्य रथपन्थानमुत्क्रोशन्तो महारथाः ।
आवृत्य सर्वतस्ते मां शरवर्षैरवाकिरन् ॥ २ ॥
ततोऽपरे महावीर्याः शूलपट्टिशपाणयः ।
शूलानि च भुशुण्डीश्च मुमुचुर्दानवा मयि ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन महारथी दानवोंने मेरे रथका मार्ग रोककर भीषण गर्जना करते हुए मुझे सब ओरसे घेर लिया और मुझपर बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी। फिर कुछ अन्य महापराक्रमी दानव शूल और पट्टिश आदि हाथोंमें लिये मेरे सामने आये और मुझपर शूल तथा भुशुण्डियोंका प्रहार करने लगे॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छूलवर्षं सुमहद् गदाशक्तिसमाकुलम् ।
अनिशं सृज्यमानं तैरपतन्मद्रथोपरि ॥ ४ ॥
अन्ये मामभ्यधावन्त निवातकवचा युधि।
शितशस्त्रायुधा रौद्राः कालरूपाः प्रहारिणः ॥ ५ ॥
मूलम्
तच्छूलवर्षं सुमहद् गदाशक्तिसमाकुलम् ।
अनिशं सृज्यमानं तैरपतन्मद्रथोपरि ॥ ४ ॥
अन्ये मामभ्यधावन्त निवातकवचा युधि।
शितशस्त्रायुधा रौद्राः कालरूपाः प्रहारिणः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दानवोंद्वारा की गयी वह शूलोंकी बड़ी भारी वर्षा निरन्तर मेरे रथपर होने लगी। उसके साथ ही गदा और शक्तियोंका भी प्रहार हो रहा था। कुछ दूसरे निवातकवच हाथोंमें तीखे अस्त्र-शस्त्र लिये उस युद्धके मैदानमें मेरी और दौड़े। वे प्रहार करनेमें कुशल थे। उनकी आकृति बड़ी भयंकर थी और देखनेमें वे कालरूप जान पड़ते थे॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानहं विविधैर्बाणैर्वेगवद्भिरजिह्मगैः ।
गाण्डीवमुक्तैरभ्यघ्नमेकैकं दशभिर्मृधे ॥ ६ ॥
मूलम्
तानहं विविधैर्बाणैर्वेगवद्भिरजिह्मगैः ।
गाण्डीवमुक्तैरभ्यघ्नमेकैकं दशभिर्मृधे ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मैंने उनमेंसे एक-एकको युद्धमें गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए सीधे जानेवाले विविध प्रकारके दस-दस वेगवान् वाणोंद्वारा बींध डाला॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते कृता विमुखाः सर्वे मत्प्रयुक्तैः शिलाशितैः।
ततो मातलिना तूर्णं हयास्ते सम्प्रचोदिताः ॥ ७ ॥
मूलम्
ते कृता विमुखाः सर्वे मत्प्रयुक्तैः शिलाशितैः।
ततो मातलिना तूर्णं हयास्ते सम्प्रचोदिताः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे छोड़े हुए बाण पत्थरपर तेज किये हुए थे। उनकी मार खाकर सभी दानव युद्धभूमिसे भाग चले। तब मातलि उस रथके घोड़ोंको तुरंत ही तीव्र वेगसे हाँका॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मार्गान् बहुविधांस्तत्र विचेरुर्वातरंहसः ।
सुसंयता मातलिना प्रामथ्नन्त दितेः सुतान् ॥ ८ ॥
मूलम्
मार्गान् बहुविधांस्तत्र विचेरुर्वातरंहसः ।
सुसंयता मातलिना प्रामथ्नन्त दितेः सुतान् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सारथिसे प्रेरित होकर वे अश्व नाना प्रकारकी चालें दिखाते हुए वायुके समान वेगसे चलने लगे। मातलिने उन्हें अच्छी तरह काबूमें कर रखा था। उन सबने वहाँ दितिके पुत्रोंको रौंद डाला॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शतं शतास्ते हरयस्तस्मिन् युक्ता महारथे।
शान्ता मातलिना यत्ता व्यचरन्नल्पका इव ॥ ९ ॥
मूलम्
शतं शतास्ते हरयस्तस्मिन् युक्ता महारथे।
शान्ता मातलिना यत्ता व्यचरन्नल्पका इव ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनके उस विशाल रथमें दस हजार घोड़े जुते हुए थे, तो भी मातलिने उन्हें इस प्रकार वशमें कर रखा था कि वे अल्पसंख्यक अश्वोंकी भाँति शान्तभावसे विचरते थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां चरणपातेन रथनेमिस्वनेन च।
मम बाणनिपातैश्च हतास्ते शतशोऽसुराः ॥ १० ॥
मूलम्
तेषां चरणपातेन रथनेमिस्वनेन च।
मम बाणनिपातैश्च हतास्ते शतशोऽसुराः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन घोड़ोंके पैरोंकी मार पड़नेसे, रथके पहियेकी घर्घराहट होनेसे तथा मेरे बाणोंकी चोट खानेसे सैकड़ों दैत्य मर गये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गतासवस्तथैवान्ये प्रगृहीतशरासनाः ।
हतसारथयस्तत्र व्यकृष्यन्त तुरंगमैः ॥ ११ ॥
मूलम्
गतासवस्तथैवान्ये प्रगृहीतशरासनाः ।
हतसारथयस्तत्र व्यकृष्यन्त तुरंगमैः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार वहाँ दूसरे बहुत-से असुर हाथमें धनुष-बाण लिये प्राणरहित हो गये थे और उनके सारथि भी मारे गये थे, उस दशामें सारथिशून्य घोड़े उनके निर्जीव शरीरको खींचे लिये जाते थे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते दिशो विदिशः सर्वे प्रतिरुध्य प्रहारिणः।
अभ्यघ्नन् विविधैः शस्त्रैस्ततो मे व्यथितं मनः ॥ १२ ॥
मूलम्
ते दिशो विदिशः सर्वे प्रतिरुध्य प्रहारिणः।
अभ्यघ्नन् विविधैः शस्त्रैस्ततो मे व्यथितं मनः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वे समस्त दानव सारी दिशाओं और विदिशाओंको रोककर भाँति-भाँतिके अस्त्र-शास्त्रोंद्वारा मुझपर घातक प्रहार करने लगे। इससे मेरे मनमें बड़ी व्यथा हुई॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽहं मातलेर्वीर्यमपश्यं परमाद्भुतम् ।
अश्वांस्तथा वेगवतो यदयत्नादधारयत् ॥ १३ ॥
मूलम्
ततोऽहं मातलेर्वीर्यमपश्यं परमाद्भुतम् ।
अश्वांस्तथा वेगवतो यदयत्नादधारयत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय मैंने मातलिकी अत्यन्त अद्भुत शक्ति देखी। उन्होंने वैसे वेगशाली अश्वोंको बिना किसी प्रयासके ही काबूमें कर लिया॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽहं लघुभिश्चित्रैरस्त्रैस्तानसुरान् रणे ।
चिच्छेद सायुधान् राजन् शतशोऽथ सहस्रशः ॥ १४ ॥
एवं मे चरतस्तत्र सर्वयत्नेन शत्रुहन्।
प्रीतिमानभवद् वीरो मातलिः शक्रसारथिः ॥ १५ ॥
मूलम्
ततोऽहं लघुभिश्चित्रैरस्त्रैस्तानसुरान् रणे ।
चिच्छेद सायुधान् राजन् शतशोऽथ सहस्रशः ॥ १४ ॥
एवं मे चरतस्तत्र सर्वयत्नेन शत्रुहन्।
प्रीतिमानभवद् वीरो मातलिः शक्रसारथिः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तब मैंने उस रणभूमिने अस्त्र-शस्त्रधारी सैकड़ों तथा सहस्रों असुरोंको विचित्र एवं शीघ्रगामी बाणोंद्वारा मार गिराया। शत्रुदमन नरेश! इस प्रकार पूर्ण प्रयत्नपूर्वक युद्धमें विचरते हुए मेरे ऊपर इन्द्रसारथि वीरवर मातलि बड़े प्रसन्न हुए॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बध्यमानास्ततस्तैस्तु हयैस्तेन रथेन च।
अगमन् प्रक्षयं केचिन्न्यवर्तन्त तथा परे ॥ १६ ॥
मूलम्
बध्यमानास्ततस्तैस्तु हयैस्तेन रथेन च।
अगमन् प्रक्षयं केचिन्न्यवर्तन्त तथा परे ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे उन घोड़ों तथा उस दिव्य रथसे कुचल जानेके कारण भी कितने ही दानव मारे गये और बहुत-से युद्ध छोड़कर भाग गये॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्पर्धमाना इवास्माभिर्निवातकवचा रणे ।
शरवर्षैः शरार्तं मां महद्भिः प्रत्यवारयन् ॥ १७ ॥
ततोऽहं लघुभिश्चित्रैर्ब्रह्मास्त्रपरिमन्त्रितैः ।
व्यधमं सायकैराशु शतशोऽथ सहस्रशः ॥ १८ ॥
मूलम्
स्पर्धमाना इवास्माभिर्निवातकवचा रणे ।
शरवर्षैः शरार्तं मां महद्भिः प्रत्यवारयन् ॥ १७ ॥
ततोऽहं लघुभिश्चित्रैर्ब्रह्मास्त्रपरिमन्त्रितैः ।
व्यधमं सायकैराशु शतशोऽथ सहस्रशः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निवातकवचोंने संग्राममें हमलोगोंसे होड़-सी लगा रखी थी। मैं बाणोंके आघातसे पीड़ित था, तो भी उन्होंने बड़ी भारी बाणवर्षा करके मेरी प्रगतिको रोकने-की चेष्टा की। तब मैंने अद्भुत और शीघ्रगामी बाणोंको ब्रह्मास्त्रसे अभिमन्त्रित करके चलाया और उनके द्वारा शीघ्र ही सैकड़ों तथा हजारों दानवोंका संहार करने लगा॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सम्पीड्यनास्ते क्रोधाविष्टा महारथाः।
अपीडयन् मां सहिताः शरशूलासिवृष्टिभिः ॥ १९ ॥
मूलम्
ततः सम्पीड्यनास्ते क्रोधाविष्टा महारथाः।
अपीडयन् मां सहिताः शरशूलासिवृष्टिभिः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर मेरे बाणोंसे पीड़ित होकर वे महारथी दैत्य क्रोधसे आग-बबूला हो उठे और एक साथ संगठित हो खड्ग, शूल तथा बाणोंकी वर्षाद्वारा मुझे घायल करने लगे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽहमस्त्रमातिष्ठं परमं तिग्मतैजसम् ।
दयितं देवराजस्य माधवं नाम भारत ॥ २० ॥
मूलम्
ततोऽहमस्त्रमातिष्ठं परमं तिग्मतैजसम् ।
दयितं देवराजस्य माधवं नाम भारत ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! यह देख मैंने देवराज इन्द्रके परम प्रिय माधव नामक प्रचण्ड तेजस्वी अस्त्रका आश्रय लिया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः खड्गांस्त्रिशूलांश्च तोमरांश्च सहस्रशः।
अस्त्रवीर्येण शतधा तैर्मुक्तानहमच्छिदम् ॥ २१ ॥
मूलम्
ततः खड्गांस्त्रिशूलांश्च तोमरांश्च सहस्रशः।
अस्त्रवीर्येण शतधा तैर्मुक्तानहमच्छिदम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उस अस्त्रके प्रभावसे मैंने दैत्योंके चलाये हुए सहस्रों खड्ग, त्रिशूल और तोमरोंके सौ-सौ टुकड़े कर डाले॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
छित्त्वा प्रहरणान्येषां ततस्तानपि सर्वशः।
प्रत्यविध्यमहं रोषाद् दशभिर्दशभिः शरैः ॥ २२ ॥
मूलम्
छित्त्वा प्रहरणान्येषां ततस्तानपि सर्वशः।
प्रत्यविध्यमहं रोषाद् दशभिर्दशभिः शरैः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् दानवोंके समस्त अस्त्र-शस्त्रोंका उच्छेद करके मैंने रोषवश उन सबको भी दस-दस बाणोंसे घायल करके बदला चुकाया॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गाण्डीवाद्धि तदा संख्ये यथा भ्रमरपङ्क्तयः।
निष्पतन्ति महाबाणास्तन्मातलिरपूजयत् ॥ २३ ॥
मूलम्
गाण्डीवाद्धि तदा संख्ये यथा भ्रमरपङ्क्तयः।
निष्पतन्ति महाबाणास्तन्मातलिरपूजयत् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय मेरे गाण्डीव धनुषसे बड़े-बड़े बाण उस युद्ध-भूमिमें इस प्रकार छूटते थे, मानो वृक्षसे झुंड-के-झुंड भौंरे उड़ रहे हों। मातलिने मेरे इस कार्यकी बड़ी प्रशंसा की॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषामपि तु बाणास्ते तन्मातलिरपूजयत्।
अवाकिरन् मां बलवत् तानहं व्यधमं शरैः ॥ २४ ॥
मूलम्
तेषामपि तु बाणास्ते तन्मातलिरपूजयत्।
अवाकिरन् मां बलवत् तानहं व्यधमं शरैः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उन दानवोंके भी बाण मेरे ऊपर जोर-जोरसे गिरने लगे। मातलिने उनकी उस बाण-वर्षाकी भी सराहना की। फिर मैंने अपने बाणोंद्वारा शत्रुओंके उन सब बाणोंको छिन्न-भिन्न कर डाला॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वध्यमानास्ततस्ते तु निवातकवचाः पुनः।
शरवर्षैर्महद्भिर्मां समन्तात् पर्यवारयन् ॥ २५ ॥
मूलम्
वध्यमानास्ततस्ते तु निवातकवचाः पुनः।
शरवर्षैर्महद्भिर्मां समन्तात् पर्यवारयन् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मार खाते और मरते रहनेपर भी निवातकवचोंने पुनः भारी बाण-वर्षाके द्वारा मुझे सब ओरसे घेर लिया॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरवेगान्निहत्याहमस्त्रैरस्त्रविघातिभिः ।
ज्वलद्भिः परमैः शीघ्रैस्तानविध्यं सहस्रशः ॥ २६ ॥
मूलम्
शरवेगान्निहत्याहमस्त्रैरस्त्रविघातिभिः ।
ज्वलद्भिः परमैः शीघ्रैस्तानविध्यं सहस्रशः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मैंने अस्त्र-विनाशक अस्त्रोंद्वारा उनकी बाणवर्षाके वेगको शान्त करके अत्यन्त शीघ्रगामी एवं प्रज्वलित बाणोंद्वारा सहस्रों दैत्योंको घायल कर दिया॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां छिन्नानि गात्राणि विसृजन्ति स्म शोणितम्।
प्रावृषीवाभिवृष्टानि शृङ्गाण्यथ धराभृताम् ॥ २७ ॥
मूलम्
तेषां छिन्नानि गात्राणि विसृजन्ति स्म शोणितम्।
प्रावृषीवाभिवृष्टानि शृङ्गाण्यथ धराभृताम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके कटे हुए अंग उसी प्रकार रक्तकी धारा बहाते थे, जैसे वर्षा-ऋतुमें वृष्टिके जलसे भीगे हुए पर्वतोंके शिखर (गेरू आदि धातुओंसे मिश्रित) जलकी धारा बहाते हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्राशनिसमस्पर्शैर्वेगवद्भिरजिह्मगैः ।
मद्बाणैर्वध्यमानास्ते समुद्विग्नाः स्म दानवाः ॥ २८ ॥
मूलम्
इन्द्राशनिसमस्पर्शैर्वेगवद्भिरजिह्मगैः ।
मद्बाणैर्वध्यमानास्ते समुद्विग्नाः स्म दानवाः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे बाणोंका स्पर्श इन्द्रके वज्रके समान था। वे बड़े वेगसे छूटते और सीधे जाकर शत्रुको अपना निशाना बनाते थे। उनकी चोट खाकर वे समस्त दानव भयसे व्याकुल हो उठे॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शतधा भिन्नदेहास्ते क्षीणप्रहरणौजसः ।
ततो निवातकवचा मामयुध्यन्त मायया ॥ २९ ॥
मूलम्
शतधा भिन्नदेहास्ते क्षीणप्रहरणौजसः ।
ततो निवातकवचा मामयुध्यन्त मायया ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दैत्योंके शरीरके सौ-सौ टुकड़े हो गये थे। उनके अस्त्र-शस्त्र कट गये और उत्साह नष्ट हो गया था। ऐसी अवस्थामें निवातकवचोंने मेरे साथ माया-युद्ध आरम्भ कर दिया॥२९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि निवातकवचयुद्धपर्वणि सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्वमें एक सौ सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७०॥