भागसूचना
एकषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कुबेरका गन्धमादन पर्वतपर आगमन और युधिष्ठिरसे उनकी भेंट
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा बहुविधैः शब्दैर्नाद्यमानां गिरेर्गुहाम्।
अजातशत्रुः कौन्तेयो माद्रीपुत्रावुभावपि ॥ १ ॥
धौम्यः कृष्णा च विप्राश्च सर्वे च सुहृदस्तथा।
भीमसेनमपश्यन्तः सर्वे विमनसोऽभवन् ॥ २ ॥
मूलम्
श्रुत्वा बहुविधैः शब्दैर्नाद्यमानां गिरेर्गुहाम्।
अजातशत्रुः कौन्तेयो माद्रीपुत्रावुभावपि ॥ १ ॥
धौम्यः कृष्णा च विप्राश्च सर्वे च सुहृदस्तथा।
भीमसेनमपश्यन्तः सर्वे विमनसोऽभवन् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! उस समय उस पर्वतकी गुफा नाना प्रकारके शब्दोंसे प्रतिध्वनित हो रही थी। वह प्रतिध्वनि सुनकर अजातशत्रु कुन्तीकुमार युधिष्ठिर, दोनों माद्री-पुत्र नकुल-सहदेव, पुरोहित धौम्य, द्रौपदी और समस्त ब्राह्मण तथा सुहृद्—ये सभी भीमसेनको न देखनेके कारण बहुत उदास हो गये॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौपदीमार्ष्टिषेणाय सम्प्रधार्य महारथाः ।
सहिताः सायुधाः शूराः शैलमारुरुहुस्तदा ॥ ३ ॥
मूलम्
द्रौपदीमार्ष्टिषेणाय सम्प्रधार्य महारथाः ।
सहिताः सायुधाः शूराः शैलमारुरुहुस्तदा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वे महारथी शूर-वीर द्रौपदीको आर्ष्टिषेणकी देख-रेखमें सौंपकर हाथोंमें अस्त्र-शस्त्र लिये एक साथ पर्वतपर चढ़ गये॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सम्प्राप्य शैलाग्रं वीक्षमाणा महारथाः।
ददृशुस्ते महेष्वासा भीमसेनमरिंदमाः ॥ ४ ॥
मूलम्
ततः सम्प्राप्य शैलाग्रं वीक्षमाणा महारथाः।
ददृशुस्ते महेष्वासा भीमसेनमरिंदमाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर शत्रुओंका दमन करनेवाले वे महाधनुर्धर एवं महारथी वीर उस पर्वतके शिखरपर पहुँचकर जब इधर-उधर दृष्टिपात करने लगे, तब उन्हें भीमसेन दिखायी दिये॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्फुरतश्च महाकायान् गतसत्त्वांश्च राक्षसान्।
महाबलान् महासत्त्वान् भीमसेनेन पातितान् ॥ ५ ॥
मूलम्
स्फुरतश्च महाकायान् गतसत्त्वांश्च राक्षसान्।
महाबलान् महासत्त्वान् भीमसेनेन पातितान् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साथ ही उन्होंने भीमसेनके द्वारा मार गिराये हुए महान् शक्तिशाली तथा परम उत्साही विशालकाय राक्षस भी देखे, जिनमेंसे कुछ छटपटा रहे थे और कुछ मरे पड़े थे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुशुभे स महाबाहुर्गदाखड्गधनुर्धरः ।
निहत्य समरे सर्वान् दानवान् मघवानिव ॥ ६ ॥
मूलम्
शुशुभे स महाबाहुर्गदाखड्गधनुर्धरः ।
निहत्य समरे सर्वान् दानवान् मघवानिव ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय गदा, खड्ग और धनुष धारण किये महाबाहु भीमसेन समरभूमिमें सम्पूर्ण दानवोंका संहार करके खड़े हुए देवराज इन्द्रके समान शोभा पा रहे थे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते भ्रातरं दृष्ट्वा परिष्वज्य महारथाः।
तत्रोपविविशुः पार्थाः प्राप्ता गतिमनुत्तमाम् ॥ ७ ॥
मूलम्
ततस्ते भ्रातरं दृष्ट्वा परिष्वज्य महारथाः।
तत्रोपविविशुः पार्थाः प्राप्ता गतिमनुत्तमाम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वे उत्तम आश्रयको प्राप्त हुए महारथी पाण्डव भाई भीमसेनको हृदयसे लगाकर उनके पास ही बैठ गये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैश्चतुर्भिर्महेष्वासैर्गिरिशृङ्गमशोभत ।
लोकपालैर्महाभागैर्दिवं देववरैरिव ॥ ८ ॥
मूलम्
तैश्चतुर्भिर्महेष्वासैर्गिरिशृङ्गमशोभत ।
लोकपालैर्महाभागैर्दिवं देववरैरिव ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे महान् भाग्यशाली देवश्रेष्ठ इन्द्र आदि लोकपालोंके द्वारा स्वर्गलोककी शोभा होती है, उसी प्रकार उन चार महाधनुर्धर बन्धुओंसे उस समय वह पर्वत-शिखर सुशोभित हो रहा था॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुबेरसदनं दृष्ट्वा राक्षसांश्च निपातितान्।
भ्राता भ्रातरमासीनमब्रवीत् पृथिवीपतिः ॥ ९ ॥
मूलम्
कुबेरसदनं दृष्ट्वा राक्षसांश्च निपातितान्।
भ्राता भ्रातरमासीनमब्रवीत् पृथिवीपतिः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा युधिष्ठिरने कुबेरका भवन देखकर और मारे गये राक्षसोंकी ओर दृष्टिपात करके अपने पास बैठे हुए भाई भीमसेनसे कहा॥९॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
साहसाद् यदि वा मोहाद् भीम पापमिदं कृतम्।
नैतत् ते सदृशं वीर मुनेरिव मृषा वधः ॥ १० ॥
मूलम्
साहसाद् यदि वा मोहाद् भीम पापमिदं कृतम्।
नैतत् ते सदृशं वीर मुनेरिव मृषा वधः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— वीर भीमसेन! तुमने दुःसाहसवश अथवा मोहके कारण जो यह पापकर्म किया है, वह मुनिवृत्तिसे रहनेवाले तुम्हारे अनुरूप नहीं है। राक्षसोंका यह संहार व्यर्थ ही किया गया है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजद्विष्टं न कर्तव्यमिति धर्मविदो विदुः।
त्रिदशानामिदं द्विष्टं भीमसेन त्वया कृतम् ॥ ११ ॥
मूलम्
राजद्विष्टं न कर्तव्यमिति धर्मविदो विदुः।
त्रिदशानामिदं द्विष्टं भीमसेन त्वया कृतम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन! धर्मज्ञ पुरुष यह जानते और मानते हैं कि राजद्रोहका कार्य नहीं करना चाहिये; परन्तु तुमने तो न केवल राजद्रोहका अपितु देवताओंके भी द्रोहका कार्य किया है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थधर्मावनादृत्य यः पापे कुरुते मनः।
कर्मणां पार्थ पापानां स फलं विन्दते ध्रुवम्।
पुनरेवं न कर्तव्यं मम चेदिच्छसि प्रियम् ॥ १२ ॥
मूलम्
अर्थधर्मावनादृत्य यः पापे कुरुते मनः।
कर्मणां पार्थ पापानां स फलं विन्दते ध्रुवम्।
पुनरेवं न कर्तव्यं मम चेदिच्छसि प्रियम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! जो अर्थ और धर्मका अनादर करके पापमें मन लगाता है उसे पापकर्मोंका फल अवश्य प्राप्त होता है। यदि तुम वही कार्य करना चाहते हो जो मुझे प्रिय लगे तो आजसे फिर कभी ऐसा काम तुम्हें नहीं करना चाहिये॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा स धर्मात्मा भ्राता भ्रातरमच्युतम्।
अर्थतत्त्वविभागज्ञः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ १३ ॥
विरराम महातेजास्तमेवार्थं विचिन्तयन् ।
मूलम्
एवमुक्त्वा स धर्मात्मा भ्राता भ्रातरमच्युतम्।
अर्थतत्त्वविभागज्ञः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ १३ ॥
विरराम महातेजास्तमेवार्थं विचिन्तयन् ।
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! धर्मात्मा भाई महातेजस्वी कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर अर्थतत्त्वके विभागको ठीक-ठीक जाननेवाले थे। वे धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले अपने भाई भीमसेनसे उपर्युक्त बातें कहकर चुप हो गये और उसी विषयपर बार-बार विचार करने लगे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते हतशिष्टा ये भीमसेनेन राक्षसाः ॥ १४ ॥
सहिताः प्रत्यपद्यन्त कुबेरसदनं प्रति।
मूलम्
ततस्ते हतशिष्टा ये भीमसेनेन राक्षसाः ॥ १४ ॥
सहिताः प्रत्यपद्यन्त कुबेरसदनं प्रति।
अनुवाद (हिन्दी)
उधर भीमसेनकी मारसे बचे हुए राक्षस एक साथ हो कुबेरके भवनमें गये॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते जवेन महावेगाः प्राप्य वैश्रवणालयम् ॥ १५ ॥
भीममार्तस्वरं चक्रुर्भीमसेनभयार्दिताः ।
न्यस्तशस्त्रायुधाः क्लान्ताः शोणिताक्ततनुच्छदाः ॥ १६ ॥
मूलम्
ते जवेन महावेगाः प्राप्य वैश्रवणालयम् ॥ १५ ॥
भीममार्तस्वरं चक्रुर्भीमसेनभयार्दिताः ।
न्यस्तशस्त्रायुधाः क्लान्ताः शोणिताक्ततनुच्छदाः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे महान् वेगशाली तो थे ही, तीव्र गतिसे धनाध्यक्षके महलमें पहुँचकर भयंकर आर्तनाद करने लगे। भीमसेनका भय उस समय भी उन्हें पीड़ा दे रहा था। वे अपने अस्त्र-शस्त्र छोड़ चुके थे एवं थके हुए थे। उनके कवच खूनसे लथपथ हो गये थे॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकीर्णमूर्धजा राजन् यक्षाधिपतिमब्रुवन् ।
गदापरिघनिस्त्रिंशतोमरप्रासयोधिनः ॥ १७ ॥
राक्षसा निहताः सर्वे तव देव पुरःसराः।
मूलम्
प्रकीर्णमूर्धजा राजन् यक्षाधिपतिमब्रुवन् ।
गदापरिघनिस्त्रिंशतोमरप्रासयोधिनः ॥ १७ ॥
राक्षसा निहताः सर्वे तव देव पुरःसराः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! अपने सिरके बाल बिखेरे हुए वे राक्षस यक्षराज कुबेरसे इस प्रकार बोले—‘देव! आपके भी सभी राक्षस, जो युद्धमें सदा आगे रहते और गदा, परिघ, खड्ग, तोमर तथा प्रास आदिके युद्धमें कुशल थे, मार डाले गये॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रमृद्य तरसा शैलं मानुषेण धनेश्वर ॥ १८ ॥
एकेन सहिताः सङ्ख्ये रणे क्रोधवशा गणाः।
मूलम्
प्रमृद्य तरसा शैलं मानुषेण धनेश्वर ॥ १८ ॥
एकेन सहिताः सङ्ख्ये रणे क्रोधवशा गणाः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘धनेश्वर! एक मनुष्यने बलपूर्वक इस पर्वतको रौंद डाला है और युद्धमें क्रोधवश नामक राक्षसगणोंको मार भगाया है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवरा राक्षसेन्द्राणां यक्षाणां च नराधिप ॥ १९ ॥
शेरते निहता देव गतसत्त्वाः परासवः।
लब्धशेषा वयं मुक्ता मणिमांस्ते सखा हतः ॥ २० ॥
मूलम्
प्रवरा राक्षसेन्द्राणां यक्षाणां च नराधिप ॥ १९ ॥
शेरते निहता देव गतसत्त्वाः परासवः।
लब्धशेषा वयं मुक्ता मणिमांस्ते सखा हतः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! राक्षसों और यक्षोंमें जो प्रमुख वीर थे, वे आज उत्साहशून्य तथा निष्प्राण होकर रणभूमिमें सो रहे हैं। हमलोग उसके कृपा-प्रसादसे छूट गये हैं; परंतु आपके सखा राक्षस मणिमान् मार डाले गये हैं॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानुषेण कृतं कर्म विधत्स्व यदनन्तरम्।
स तच्छ्रुत्वा तु संक्रुद्धः सर्वयक्षगणाधिपः ॥ २१ ॥
कोपसंरक्तनयनः कथमित्यब्रवीद् वचः ।
मूलम्
मानुषेण कृतं कर्म विधत्स्व यदनन्तरम्।
स तच्छ्रुत्वा तु संक्रुद्धः सर्वयक्षगणाधिपः ॥ २१ ॥
कोपसंरक्तनयनः कथमित्यब्रवीद् वचः ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह सब कार्य एक मनुष्यने किया है। इसके बाद जो करना उचित हो, वह कीजिये।’ राक्षसोंकी यह बात सुनकर समस्त यक्षगणोंके स्वामी कुबेर कुपित हो उठे, क्रोधसे उनकी आँखें लाल हो गयीं। वे सहसा बोल उठे। ‘यह कैसे सम्भव हुआ?’॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वितीयमपराध्यन्तं भीमं श्रुत्वा धनेश्वरः ॥ २२ ॥
चुक्रोध यक्षाधिपतिर्युज्यतामिति चाब्रवीत् ।
मूलम्
द्वितीयमपराध्यन्तं भीमं श्रुत्वा धनेश्वरः ॥ २२ ॥
चुक्रोध यक्षाधिपतिर्युज्यतामिति चाब्रवीत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
भीमने यह दूसरा अपराध किया है, यह सुनकर धनाध्यक्ष यक्षराजके क्रोधकी सीमा न रही। उन्होंने तुरंत आज्ञा दी, ‘रथ जोतकर ले आओ’॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाभ्रघनसंकाशं गिरिशृङ्गमिवोच्छ्रितम् ॥ २३ ॥
रथं संयोजयामासुर्गन्धर्वैर्हेममालिभिः ।
तस्य सर्वगुणोपेता विमलाक्षा हयोत्तमाः ॥ २४ ॥
तेजोबलगुणोपेता नानारत्नविभूषिताः ।
शोभमाना रथे युक्तास्तरिष्यन्त इवाशुगाः ॥ २५ ॥
मूलम्
अथाभ्रघनसंकाशं गिरिशृङ्गमिवोच्छ्रितम् ॥ २३ ॥
रथं संयोजयामासुर्गन्धर्वैर्हेममालिभिः ।
तस्य सर्वगुणोपेता विमलाक्षा हयोत्तमाः ॥ २४ ॥
तेजोबलगुणोपेता नानारत्नविभूषिताः ।
शोभमाना रथे युक्तास्तरिष्यन्त इवाशुगाः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो सेवकोंने सुनहरे बादलोंकी घटाके सदृश विशाल पर्वतशिखरके समान ऊँचा रथ जोतकर तैयार किया। उसमें सुवर्णमालाओंसे विभूषित गन्धर्वदेशीय घोड़े जुते हुए थे। वे सर्वगुणसम्पन्न उत्तम अश्व तेजस्वी, बलवान् और अश्वोचित गुणोंसे युक्त थे। उनकी आँखें निर्मल थीं और उन्हें नाना प्रकारके रत्नमय आभूषण पहनाये गये थे। रथमें जुते हुए वे शोभाशाली अश्व शीघ्रगामी थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो वे अभी सब कुछ लाँघ जायँगे॥२३—२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ह्रेषयामासुरन्योन्यं ह्रेषितैर्विजयावहैः ।
स तमास्थाय भगवान् राजराजो महारथम् ॥ २६ ॥
प्रययौ देवगन्धर्वैः स्तूयमानो महाद्युतिः।
मूलम्
ह्रेषयामासुरन्योन्यं ह्रेषितैर्विजयावहैः ।
स तमास्थाय भगवान् राजराजो महारथम् ॥ २६ ॥
प्रययौ देवगन्धर्वैः स्तूयमानो महाद्युतिः।
अनुवाद (हिन्दी)
उन अश्वोंके हिनहिनानेकी आवाज विजयकी सूचना देनेवाली थी। उनमेंसे प्रत्येक अश्व स्वयं हिनहिनाकर दूसरेको भी इसके लिये प्रेरणा देता था। उस विशाल रथपर आरूढ़ हो महातेजस्वी राजाधिराज भगवान् कुबेर देवताओं और गन्धर्वोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए चले॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं प्रयान्तं महात्मानं सर्वे यक्षा धनाधिपम् ॥ २७ ॥
मूलम्
तं प्रयान्तं महात्मानं सर्वे यक्षा धनाधिपम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनाध्यक्ष महामना कुबेरके प्रस्थान करनेपर समस्त यक्ष भी उनके साथ चले॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्ताक्षा हेमसंकाशा महाकाया महाबलाः।
सायुधा बद्धनिस्त्रिंशा यक्षा दशशतावराः ॥ २८ ॥
मूलम्
रक्ताक्षा हेमसंकाशा महाकाया महाबलाः।
सायुधा बद्धनिस्त्रिंशा यक्षा दशशतावराः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन सबके नेत्र लाल थे। शरीरकी कान्ति सुवर्णके समान थी। वे सभी महाकाय और महाबली थे। वे सब तलवार बाँधे अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित थे। उनकी संख्या एक हजारसे कम नहीं थी॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते जवेन महावेगाः प्लवमाना विहायसा।
गन्धमादनमाजग्मुः प्रकर्षन्त इवाम्बरम् ॥ २९ ॥
मूलम्
ते जवेन महावेगाः प्लवमाना विहायसा।
गन्धमादनमाजग्मुः प्रकर्षन्त इवाम्बरम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे महान् वेगशाली यक्ष आकाशमें उड़ते हुए गन्धमादन पर्वतपर आये, मानो समूचे आकाशमण्डल-को खींचे ले रहे हों॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् केसरिमहाजालं धनाधिपतिपालितम् ।
कुबेरं च महात्मानं यक्षरक्षोगणावृतम् ॥ ३० ॥
ददृशुर्हृष्टरोमाणः पाण्डवाः प्रियदर्शनम् ।
कुबेरस्तु महासत्त्वान् पाण्डोः पुत्रान् महारथान् ॥ ३१ ॥
आत्तकार्मुकनिस्त्रिंशान् दृष्ट्वा प्रीतोऽभवत् तदा।
देवकार्यं चिकीर्षन् स हृदयेन तुतोष ह ॥ ३२ ॥
मूलम्
तत् केसरिमहाजालं धनाधिपतिपालितम् ।
कुबेरं च महात्मानं यक्षरक्षोगणावृतम् ॥ ३० ॥
ददृशुर्हृष्टरोमाणः पाण्डवाः प्रियदर्शनम् ।
कुबेरस्तु महासत्त्वान् पाण्डोः पुत्रान् महारथान् ॥ ३१ ॥
आत्तकार्मुकनिस्त्रिंशान् दृष्ट्वा प्रीतोऽभवत् तदा।
देवकार्यं चिकीर्षन् स हृदयेन तुतोष ह ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनाध्यक्ष कुबेरके द्वारा पालित घोड़ोंके उस महा समुदायको तथा यक्ष-राक्षसोंसे घिरे हुए प्रियदर्शन महामना कुबेरको भी पाण्डवोंने देखा। देखकर उनके अंगोंमें रोमाञ्च हो आया। इधर कुबेर भी धनुष और तलवार लिये शक्तिशाली महारथी पाण्डुपुत्रोंको देखकर बड़े प्रसन्न हुए। कुबेर देवताओंका कार्य सिद्ध करना चाहते थे, इसलिये मन-ही-मन पाण्डवोंसे बहुत संतुष्ट हुए॥३०—३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते पक्षिण इवापेतुर्गिरिशृङ्गं महाजवाः।
तस्थुस्तेषां समभ्याशे धनेश्वरपुरःसराः ॥ ३३ ॥
मूलम्
ते पक्षिण इवापेतुर्गिरिशृङ्गं महाजवाः।
तस्थुस्तेषां समभ्याशे धनेश्वरपुरःसराः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे कुबेर आदि तीव्र वेगशाली यक्ष-राक्षस पक्षीकी तरह उड़कर गन्धमादन पर्वतके शिखरपर आये और पाण्डवोंके समीप खड़े हो गये॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तं हृष्टमनसं पाण्डवान् प्रति भारत।
समीक्ष्य यक्षगन्धर्वा निर्विकारमवस्थिताः ॥ ३४ ॥
मूलम्
ततस्तं हृष्टमनसं पाण्डवान् प्रति भारत।
समीक्ष्य यक्षगन्धर्वा निर्विकारमवस्थिताः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! पाण्डवोंके प्रति कुबेरका मन प्रसन्न देखकर यक्ष और गन्धर्व निर्विकारभावसे खड़े रहे॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवाश्च महात्मानः प्रणम्य धनदं प्रभुम्।
नकुलः सहदेवश्च धर्मपुत्रश्च धर्मवित् ॥ ३५ ॥
अपराद्धमिवात्मानं मन्यमाना महारथाः ।
तस्थुः प्राञ्जलयः सर्वे परिवार्य धनेश्वरम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
पाण्डवाश्च महात्मानः प्रणम्य धनदं प्रभुम्।
नकुलः सहदेवश्च धर्मपुत्रश्च धर्मवित् ॥ ३५ ॥
अपराद्धमिवात्मानं मन्यमाना महारथाः ।
तस्थुः प्राञ्जलयः सर्वे परिवार्य धनेश्वरम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मज्ञ धर्मपुत्र युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव—ये महारथी महामना पाण्डव भगवान् कुबेरको प्रणाम करके अपनेको अपराधी-सा मानते हुए उन्हें सब ओरसे घेरकर हाथ जोड़े खड़े रहे॥३५-३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स ह्यासनवरं श्रीमत् पुष्पकं विश्वकर्मणा।
विहितं चित्रपर्यन्तमातिष्ठत धनाधिपः ॥ ३७ ॥
मूलम्
स ह्यासनवरं श्रीमत् पुष्पकं विश्वकर्मणा।
विहितं चित्रपर्यन्तमातिष्ठत धनाधिपः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनाध्यक्ष कुबेर विश्वकर्माके बनाये हुए सुन्दर एवं श्रेष्ठ विमान पुष्पकपर विराजमान थे। वह विमान विचित्र निर्माणकौशलकी पराकाष्ठा था॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमासीनं महाकायाः शङ्कुकर्णा महाजवाः।
उपोपविविशुर्यक्षा राक्षसाश्च सहस्रशः ॥ ३८ ॥
शतशश्चापि गन्धर्वास्तथैवाप्सरसां गणाः ।
परिवार्योपतिष्ठन्त यथा देवाः शतक्रतुम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
तमासीनं महाकायाः शङ्कुकर्णा महाजवाः।
उपोपविविशुर्यक्षा राक्षसाश्च सहस्रशः ॥ ३८ ॥
शतशश्चापि गन्धर्वास्तथैवाप्सरसां गणाः ।
परिवार्योपतिष्ठन्त यथा देवाः शतक्रतुम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विमानपर बैठे हुए कुबेरके पास कील-जैसी कानवाले तीव्र वेगशाली विशालकाय सहस्रों यक्ष-राक्षस भी बैठे थे। जैसे देवता इन्द्रको घेरकर खड़े होते हैं, उसी प्रकार सैकड़ों गन्धर्व और अप्सराओंके गण कुबेरको सब ओरसे घेरकर खड़े थे॥३८-३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काञ्चनीं शिरसा बिभ्रद् भीमसेनः स्रजं शुभाम्।
पाशखड्गधनुष्पाणिरुदैक्षत धनाधिपम् ॥ ४० ॥
मूलम्
काञ्चनीं शिरसा बिभ्रद् भीमसेनः स्रजं शुभाम्।
पाशखड्गधनुष्पाणिरुदैक्षत धनाधिपम् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने मस्तकपर सुवर्णकी सुन्दर माला धारण किये और हाथोंमें खड्ग, पाश तथा धनुष लिये भीमसेन धनाध्यक्ष कुबेरकी ओर देख रहे थे॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनस्य न ग्लानिर्विक्षतस्यापि राक्षसैः।
आसीत् तस्यामवस्थायां कुबेरमपि पश्यतः ॥ ४१ ॥
मूलम्
भीमसेनस्य न ग्लानिर्विक्षतस्यापि राक्षसैः।
आसीत् तस्यामवस्थायां कुबेरमपि पश्यतः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनको राक्षसोंने बहुत घायल कर दिया था। उस अवस्थामें भी कुबेरको देखकर उनके मनमें तनिक भी ग्लानि नहीं होती थी॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आददानं शितान् बाणान् योद्धुकाममवस्थितम्।
दृष्ट्वा भीमं धर्मसुतमब्रवीन्नरवाहनः ॥ ४२ ॥
मूलम्
आददानं शितान् बाणान् योद्धुकाममवस्थितम्।
दृष्ट्वा भीमं धर्मसुतमब्रवीन्नरवाहनः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन हाथोंमें तीखे बाण लिये उस समय भी युद्धके लिये तैयार खड़े थे। यह देख नरवाहन कुबेरने धर्मपुत्र युधिष्ठिरसे कहा—॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदुस्त्वां सर्वभूतानि पार्थ भूतहिते रतम्।
निर्भयश्चापि शैलाग्रे वस त्वं भ्रातृभिः सह ॥ ४३ ॥
मूलम्
विदुस्त्वां सर्वभूतानि पार्थ भूतहिते रतम्।
निर्भयश्चापि शैलाग्रे वस त्वं भ्रातृभिः सह ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुन्तीनन्दन! तुम सदा सब प्राणियोंके हितमें तत्पर रहते हो, यह बात सब प्राणी जानते हैं। अतः तुम अपने भाइयोंके साथ इस शैल-शिखरपर निर्भय होकर रहो॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च मन्युस्त्वया कार्यो भीमसेनस्य पाण्डव।
कालेनैते हताः पूर्वं निमित्तमनुजस्तव ॥ ४४ ॥
मूलम्
न च मन्युस्त्वया कार्यो भीमसेनस्य पाण्डव।
कालेनैते हताः पूर्वं निमित्तमनुजस्तव ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पाण्डुनन्दन! तुम्हें भीमसेनपर क्रोध नहीं करना चाहिये। ये यक्ष और राक्षस कालके द्वारा पहले ही मारे गये थे। तुम्हारे भाई तो इसमें निमित्तमात्र हुए हैं॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्रीडा चात्र न कर्तव्या साहसं यदिदं कृतम्।
दृष्टश्चापि सुरैः पूर्वं विनाशो यक्षरक्षसाम् ॥ ४५ ॥
मूलम्
व्रीडा चात्र न कर्तव्या साहसं यदिदं कृतम्।
दृष्टश्चापि सुरैः पूर्वं विनाशो यक्षरक्षसाम् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भीमसेनने जो यह दुःसाहसका कार्य किया है, इसके लिये तुम्हें लज्जित नहीं होना चाहिए; क्योंकि यक्ष तथा राक्षसोंका यह विनाश देवताओंको पहले ही प्रत्यक्ष हो चुका था॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न भीमसेने कोपो मे प्रीतोऽस्मि भरतर्षभ।
कर्मणाः भीमसेनस्य मम तुष्टिरभूत् पुरा ॥ ४६ ॥
मूलम्
न भीमसेने कोपो मे प्रीतोऽस्मि भरतर्षभ।
कर्मणाः भीमसेनस्य मम तुष्टिरभूत् पुरा ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भरतश्रेष्ठ! भीमसेनपर मेरा क्रोध नहीं है। मैं इनपर प्रसन्न हूँ। भीमसेनके कार्यसे मुझे पहले भी प्रसन्नता प्राप्त हो चुकी है’॥४६॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा तु राजानं भीमसेनमभाषत।
नैतन्मनसि मे तात वर्तते कुरुसत्तम ॥ ४७ ॥
यदिदं साहसं भीम कृष्णार्थे कृतवानसि।
मामनादृत्य देवांश्च विनाशं यक्षरक्षसाम् ॥ ४८ ॥
स्वबाहुबलमाश्रित्य तेनाहं प्रीतिमांस्त्वयि ।
शापादद्य विनिर्मुक्तो घोरादस्मि वृकोदर ॥ ४९ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा तु राजानं भीमसेनमभाषत।
नैतन्मनसि मे तात वर्तते कुरुसत्तम ॥ ४७ ॥
यदिदं साहसं भीम कृष्णार्थे कृतवानसि।
मामनादृत्य देवांश्च विनाशं यक्षरक्षसाम् ॥ ४८ ॥
स्वबाहुबलमाश्रित्य तेनाहं प्रीतिमांस्त्वयि ।
शापादद्य विनिर्मुक्तो घोरादस्मि वृकोदर ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! राजा युधिष्ठिरसे ऐसा कहकर कुबेरने भीमसेनसे कहा—‘तात! कुरुश्रेष्ठ भीम! तुमने द्रौपदीके लिये जो यह साहसपूर्ण कार्य किया है, इसके लिये मेरे मनमें कोई विचार नहीं है। तुमने मेरी तथा देवताओंकी अवहेलना करके अपने बाहुबलके भरोसे यक्षों तथा राक्षसोंका विनाश किया है, इससे तुमपर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। वृकोदर! आज मैं एक भयंकर शापसे छूट गया हूँ॥४७—४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं पूर्वमगस्त्येन क्रुद्धेन परमर्षिणा।
शप्तोऽपराधे कस्मिंश्चित् तस्यैषा निष्कृतिः कृता ॥ ५० ॥
दृष्टो हि मम संक्लेशः पुरा पाण्डवनन्दन।
न तवात्रापराधोऽस्ति कथंचिदपि पाण्डव ॥ ५१ ॥
मूलम्
अहं पूर्वमगस्त्येन क्रुद्धेन परमर्षिणा।
शप्तोऽपराधे कस्मिंश्चित् तस्यैषा निष्कृतिः कृता ॥ ५० ॥
दृष्टो हि मम संक्लेशः पुरा पाण्डवनन्दन।
न तवात्रापराधोऽस्ति कथंचिदपि पाण्डव ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पूर्वकालकी बात है, महर्षि अगस्त्यने किसी अपराधपर कुपित हो मुझे शाप दे दिया था; उसका तुम्हारे द्वारा निराकरण हुआ। पाण्डव-नन्दन! मुझे पूर्वकालसे ही यह दुःख देखना बदा था। इसमें तुम्हारा किसी तरह भी कोई अपराध नहीं है’॥५०-५१॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं शप्तोऽसि भगवन्नगस्त्येन महात्मना।
श्रोतुमिच्छाम्यहं देव तवैतच्छापकारणम् ॥ ५२ ॥
मूलम्
कथं शप्तोऽसि भगवन्नगस्त्येन महात्मना।
श्रोतुमिच्छाम्यहं देव तवैतच्छापकारणम् ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भगवन्! महात्मा अगस्त्यने आपको कैसे शाप दे दिया? देव! आपको शाप मिलनेका क्या कारण है? यह मैं सुनना चाहता हूँ॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं चाश्चर्यभूतं मे यत् क्रोधात् तस्य धीमतः।
तदैव त्वं न निर्दग्धः सबलः सपदानुगः ॥ ५३ ॥
मूलम्
इदं चाश्चर्यभूतं मे यत् क्रोधात् तस्य धीमतः।
तदैव त्वं न निर्दग्धः सबलः सपदानुगः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे इस बातके लिये बड़ा आश्चर्य होता है कि उन बुद्धिमान् महर्षिके क्रोधसे आप उसी समय अपने सेवकों और सैनिकोंसहित जलकर भस्म क्यों नहीं हो गये?॥५३॥
मूलम् (वचनम्)
धनेश्वर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवतानामभून्मन्त्रः कुशवत्यां नरेश्वर ।
वृतस्तत्राहमगमं महापद्मशतैस्त्रिभिः ॥ ५४ ॥
मूलम्
देवतानामभून्मन्त्रः कुशवत्यां नरेश्वर ।
वृतस्तत्राहमगमं महापद्मशतैस्त्रिभिः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुबेर बोले— नरेश्वर! प्राचीन कालमें कुशवतीमें देवताओंकी मन्त्रणा-सभा बैठी थी। उसमें मुझे भी बुलाया गया था। मैं तीन सौ महापद्म यक्षोंके साथ वहाँ गया॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यक्षाणां घोररूपाणां विविधायुधधारिणाम् ।
अध्वन्यहमथापश्यमगस्त्यमृषिसत्तमम् ॥ ५५ ॥
उग्रं तपस्तप्यमानं यमुनातीरमाश्रितम् ।
नानापक्षिगणाकीर्णं पुष्पितद्रुमशोभितम् ॥ ५६ ॥
मूलम्
यक्षाणां घोररूपाणां विविधायुधधारिणाम् ।
अध्वन्यहमथापश्यमगस्त्यमृषिसत्तमम् ॥ ५५ ॥
उग्रं तपस्तप्यमानं यमुनातीरमाश्रितम् ।
नानापक्षिगणाकीर्णं पुष्पितद्रुमशोभितम् ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे भयानक यक्ष नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लिये हुए थे। रास्तेमें मुझे मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यजी दिखायी दिये, जो यमुनाके तटपर कठोर तपस्या कर रहे थे। वह प्रदेश भाँति-भाँतिके पक्षियोंसे व्याप्त और विकसित वृक्षावलियोंसे सुशोभित था॥५५-५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमूर्ध्वबाहुं दृष्ट्वैव सूर्यस्याभिमुखे स्थितम्।
तेजोराशिं दीप्यमानं हुताशनमिवैधितम् ॥ ५७ ॥
मूलम्
तमूर्ध्वबाहुं दृष्ट्वैव सूर्यस्याभिमुखे स्थितम्।
तेजोराशिं दीप्यमानं हुताशनमिवैधितम् ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षि अगस्त्य अपनी दोनों बाँहें ऊपर उठाये सूर्यकी ओर मुँह करके खड़े थे। वे तेजोराशि महात्मा प्रज्वलित अग्निके समान उद्दीप्त हो रहे थे॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राक्षसाधिपतिः श्रीमान् मणिमान्नाम मे सखा।
मौर्ख्यादज्ञानभावाच्च दर्पान्मोहाच्च पार्थिव ॥ ५८ ॥
न्यष्ठीवदाकाशगतो महर्षेस्तस्य मूर्धनि ।
स कोपान्मामुवाचेदं दिशः सर्वा दहन्निव ॥ ५९ ॥
मूलम्
राक्षसाधिपतिः श्रीमान् मणिमान्नाम मे सखा।
मौर्ख्यादज्ञानभावाच्च दर्पान्मोहाच्च पार्थिव ॥ ५८ ॥
न्यष्ठीवदाकाशगतो महर्षेस्तस्य मूर्धनि ।
स कोपान्मामुवाचेदं दिशः सर्वा दहन्निव ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उन्हें देखकर ही मेरे एक मित्र राक्षसराज श्रीमणिमान्ने मूर्खता, अज्ञान, अभिमान एवं मोहके कारण आकाशसे उन महर्षिके मस्तकपर थूक दिया। तब वे क्रोधसे मानो सारी दिशाओंको दग्ध करते हुए मुझसे इस प्रकार बोले—॥५८—५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मामवज्ञाय दुष्टात्मा यस्मादेष सखा तव।
धर्षणां कृतवानेतां पश्यतस्ते धनेश्वर ॥ ६० ॥
तस्मात् सहैभिः सैन्यैस्ते वधं प्राप्स्यति मानुषात्।
त्वं चाप्येभिर्हतैः सैन्यैः क्लेशं प्राप्येह दुर्मतिः।
तमेव मानुषं दृष्ट्वा किल्बिषाद् विप्रमोक्ष्यसे ॥ ६१ ॥
मूलम्
मामवज्ञाय दुष्टात्मा यस्मादेष सखा तव।
धर्षणां कृतवानेतां पश्यतस्ते धनेश्वर ॥ ६० ॥
तस्मात् सहैभिः सैन्यैस्ते वधं प्राप्स्यति मानुषात्।
त्वं चाप्येभिर्हतैः सैन्यैः क्लेशं प्राप्येह दुर्मतिः।
तमेव मानुषं दृष्ट्वा किल्बिषाद् विप्रमोक्ष्यसे ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धनेश्वर! तुम्हारे इस दुष्टात्मा सखाने मेरी अवहेलना करके तुम्हारे देखते-देखते जो मेरा इस प्रकार तिरस्कार किया है, उसके फलस्वरूप इन समस्त सैनिकोंके साथ यह एक मनुष्यके हाथसे मारा जायगा। तुम्हारी बुद्धि खोटी हो गयी है, अतः इन सब सैनिकोंके मारे जानेपर उनके लिये दुःख उठानेके पश्चात् तुम फिर उसी मनुष्यका दर्शन करके मेरे शाप एवं पापसे छुटकारा पा सकोगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैन्यानां तु तवैतेषां पुत्रपौत्रबलान्वितम्।
न शापं प्राप्यते घोरं तत् तवाज्ञां करिष्यति ॥ ६२ ॥
मूलम्
सैन्यानां तु तवैतेषां पुत्रपौत्रबलान्वितम्।
न शापं प्राप्यते घोरं तत् तवाज्ञां करिष्यति ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन सैनिकोंमेंसे जो तुम्हारी आज्ञाका पालन करेगा, वह पुत्र, पौत्र तथा सेनापर लागू होनेवाले इस भयंकर शापके प्रभावसे अलग रहेगा’॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष शापो मया प्राप्तः प्राक् तस्मादृषिसत्तमात्।
स भीमेन महाराज भ्रात्रा तव विमोक्षितः ॥ ६३ ॥
मूलम्
एष शापो मया प्राप्तः प्राक् तस्मादृषिसत्तमात्।
स भीमेन महाराज भ्रात्रा तव विमोक्षितः ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज युधिष्ठिर! पूर्व कालमें उन मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यसे यही शाप मुझे प्राप्त हुआ था, जिससे तुम्हारे भाई भीमसेनने छुटकारा दिलाया है॥६३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि यक्षयुद्धपर्वणि कुबेरदर्शने एकषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १६१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत यक्षयुद्धपर्वमें कुबेरदर्शनविषयक एक सौ इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६१॥