भागसूचना
(जटासुरवधपर्व)
सप्तपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
जटासुरके द्वारा द्रौपदीसहित युधिष्ठिर, नकुल, सहदेवका हरण तथा भीमसेनद्वारा जटासुरका वध
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तान् परिविश्वस्तान् वसतस्तत्र पाण्डवान्।
पर्वतेन्द्रे द्विजैः सार्धं पार्थागमनकाङ्क्षया ॥ १ ॥
गतेषु तेषु रक्षःसु भीमसेनात्मजेऽपि च।
रहितान् भीमसेनेन कदाचित् तान् यदृच्छया ॥ २ ॥
जहार धर्मराजानं यमौ कृष्णां च राक्षसः।
ब्राह्मणो मन्त्रकुशलः सर्वशास्त्रविदुत्तमः ॥ ३ ॥
इति ब्रुवन् पाण्डवेयान् पर्युपास्ते स्म नित्यदा।
परीप्समानः पार्थानां कलापानि धनूंषि च ॥ ४ ॥
अन्तरं सम्परिप्रेप्सुर्द्रौपद्या हरणं प्रति।
दुष्टात्मा पापबुद्धिः स नाम्ना ख्यातो जटासुरः ॥ ५ ॥
मूलम्
ततस्तान् परिविश्वस्तान् वसतस्तत्र पाण्डवान्।
पर्वतेन्द्रे द्विजैः सार्धं पार्थागमनकाङ्क्षया ॥ १ ॥
गतेषु तेषु रक्षःसु भीमसेनात्मजेऽपि च।
रहितान् भीमसेनेन कदाचित् तान् यदृच्छया ॥ २ ॥
जहार धर्मराजानं यमौ कृष्णां च राक्षसः।
ब्राह्मणो मन्त्रकुशलः सर्वशास्त्रविदुत्तमः ॥ ३ ॥
इति ब्रुवन् पाण्डवेयान् पर्युपास्ते स्म नित्यदा।
परीप्समानः पार्थानां कलापानि धनूंषि च ॥ ४ ॥
अन्तरं सम्परिप्रेप्सुर्द्रौपद्या हरणं प्रति।
दुष्टात्मा पापबुद्धिः स नाम्ना ख्यातो जटासुरः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर पर्वतराज गन्धमादनपर सब पाण्डव अर्जुनके आनेकी प्रतीक्षा करते हुए ब्राह्मणोंके साथ निःशंक रहने लगे। उन्हें पहुँचानेके लिये आये हुए राक्षस चले गये। भीमसेनका पुत्र घटोत्कच भी विदा हो गया। तत्पश्चात् एक दिनकी बात है, भीमसेनकी अनुपस्थितिमें अकस्मात् एक राक्षसने धर्मराज युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव तथा द्रौपदीको हर लिया। वह ब्राह्मणके वेषमें प्रतिदिन उन्हींके साथ रहता था और सब पाण्डवोंसे कहता था कि ‘मैं सम्पूर्ण शास्त्रोंमें श्रेष्ठ और मन्त्र-कुशल ब्राह्मण हूँ।’ वह कुन्तीकुमारोंके तरकस और धनुषको भी हर लेना चाहता था और द्रौपदीका अपहरण करनेके लिये सदा अवसर ढूँढ़ता रहता था। उस दुष्टात्मा एवं पापबुद्धि राक्षसका नाम जटासुर था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पोषणं तस्य राजेन्द्र चक्रे पाण्डवनन्दनः।
बुबुधे न च तं पापं भस्मच्छन्नमिवानलम् ॥ ६ ॥
मूलम्
पोषणं तस्य राजेन्द्र चक्रे पाण्डवनन्दनः।
बुबुधे न च तं पापं भस्मच्छन्नमिवानलम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! पाण्डवोंको आनन्द प्रदान करनेवाले युधिष्ठिर अन्य ब्राह्मणोंकी तरह उसका भी पालन-पोषण करते थे। परंतु राखमें छिपी हुई आगकी भाँति उस पापीके असली स्वरूपको वे नहीं जानते थे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स भीमसेने निष्क्रान्ते मृगयार्थमरिन्दम।
घटोत्कचं सानुचरं दृष्ट्वा विप्रद्रुतं दिशः ॥ ७ ॥
लोमशप्रभृतींस्तांस्तु महर्षींश्च समाहितान् ।
स्नातुं विनिर्गतान् दृष्ट्वा पुष्पार्थं च तपोधनान् ॥ ८ ॥
रूपमन्यत् समास्थाय विकृतं भैरवं महत्।
गृहीत्वा सर्वशस्त्राणि द्रौपदीं परिगृह्य च ॥ ९ ॥
प्रातिष्ठत स दुष्टात्मा त्रीन् गृहीत्वा च पाण्डवान्।
सहदेवस्तु यत्नेन ततोऽपक्रम्य पाण्डवः ॥ १० ॥
विक्रम्य कौशिकं खड्गं मोक्षयित्वा ग्रहं रिपोः।
आक्रन्दद् भीमसेनं वै येन यातो महाबलः ॥ ११ ॥
मूलम्
स भीमसेने निष्क्रान्ते मृगयार्थमरिन्दम।
घटोत्कचं सानुचरं दृष्ट्वा विप्रद्रुतं दिशः ॥ ७ ॥
लोमशप्रभृतींस्तांस्तु महर्षींश्च समाहितान् ।
स्नातुं विनिर्गतान् दृष्ट्वा पुष्पार्थं च तपोधनान् ॥ ८ ॥
रूपमन्यत् समास्थाय विकृतं भैरवं महत्।
गृहीत्वा सर्वशस्त्राणि द्रौपदीं परिगृह्य च ॥ ९ ॥
प्रातिष्ठत स दुष्टात्मा त्रीन् गृहीत्वा च पाण्डवान्।
सहदेवस्तु यत्नेन ततोऽपक्रम्य पाण्डवः ॥ १० ॥
विक्रम्य कौशिकं खड्गं मोक्षयित्वा ग्रहं रिपोः।
आक्रन्दद् भीमसेनं वै येन यातो महाबलः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुसूदन! हिंसक पशुओंको मारनेके लिये भीमसेनके आश्रमसे बाहर चले जानेपर उस राक्षसने देखा कि घटोत्कच अपने सेवकोंसहित किसी अज्ञात दिशाको चला गया, लोमश आदि महर्षि ध्यान लगाये बैठे हैं तथा दूसरे तपोधन स्नान करने और फूल लानेके लिये कुटियासे बाहर निकल गये हैं, तब उस दुष्टात्माने विशाल, विकराल एवं भयंकर दूसरा रूप धारण करके पाण्डवोंके सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र, द्रौपदी तथा तीनों पाण्डवोंको भी लेकर वहाँसे प्रस्थान कर दिया। उस समय पाण्डु-कुमार सहदेव प्रयत्न करके उस राक्षसकी पकड़से छूट गये और पराक्रम करके म्यानसे निकली हुई अपनी तलवारको भी उससे छुड़ा लिया। फिर वे महाबली भीमसेन जिस मार्गसे गये थे, उधर ही जाकर उन्हें जोर-जोरसे पुकारने लगे॥७—११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमब्रवीद् धर्मराजो ह्रियमाणो युधिष्ठिरः।
धर्मस्ते हीयते मूढ न तत्त्वं समवेक्षसे ॥ १२ ॥
मूलम्
तमब्रवीद् धर्मराजो ह्रियमाणो युधिष्ठिरः।
धर्मस्ते हीयते मूढ न तत्त्वं समवेक्षसे ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर जिन्हें वह जटासुर हरकर लिये जा रहा था ‘वे धर्मराज युधिष्ठिर उससे इस प्रकार बोले—‘अरे मूर्ख! इस प्रकार (विश्वासघात करनेसे) तो तेरे धर्मका ही नाश हो रहा है। किंतु उधर तेरी दृष्टि नहीं जाती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येऽन्ये क्वचिन्मनुष्येषु तिर्यग्योनिगताश्च ये।
धर्मं ते समवेक्षन्ते रक्षांसि च विशेषतः ॥ १३ ॥
मूलम्
येऽन्ये क्वचिन्मनुष्येषु तिर्यग्योनिगताश्च ये।
धर्मं ते समवेक्षन्ते रक्षांसि च विशेषतः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दूसरे भी जहाँ कहीं मनुष्य अथवा पशु-पक्षीकी योनिमें स्थित प्राणी हैं, वे सभी धर्मपर दृष्टि रखते हैं। राक्षस तो (पशु-पक्षीकी अपेक्षा भी) विशेषरूपसे धर्मका विचार करते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मस्य राक्षसा मूलं धर्मं ते विदुरुत्तमम्।
एतत् परीक्ष्य सर्वं त्वं समीपे स्थातुमर्हसि ॥ १४ ॥
देवाश्च ऋषयः सिद्धाः पितरश्चापि राक्षस।
गन्धर्वोरगरक्षांसि वयांसि पशवस्तथा ॥ १५ ॥
तिर्यग्योनिगताश्चैव अपि कीटपिपीलिकाः ।
मनुष्यानुपजीवन्ति ततस्त्वमपि जीवसि ॥ १६ ॥
मूलम्
धर्मस्य राक्षसा मूलं धर्मं ते विदुरुत्तमम्।
एतत् परीक्ष्य सर्वं त्वं समीपे स्थातुमर्हसि ॥ १४ ॥
देवाश्च ऋषयः सिद्धाः पितरश्चापि राक्षस।
गन्धर्वोरगरक्षांसि वयांसि पशवस्तथा ॥ १५ ॥
तिर्यग्योनिगताश्चैव अपि कीटपिपीलिकाः ।
मनुष्यानुपजीवन्ति ततस्त्वमपि जीवसि ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राक्षस धर्मके मूल हैं। वे उत्तम धर्मका ज्ञान रखते हैं। इन सब बातोंका विचार करके तुझे हमलोगोंके समीप ही रहना चाहिये। राक्षस! देवता, ऋषि, सिद्ध, पितर, गन्धर्व, नाग, राक्षस, पशु, तिर्यग्योनिके सभी प्राणी और कीड़े-मकोड़े, चींटी आदि भी मनुष्योंके आश्रित हो जीवन-निर्वाह करते हैं। इस दृष्टिसे तू भी मनुष्योंसे ही जीविका चलाता है॥१४—१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समृद्ध्या ह्यस्य लोकस्य लोको युष्माकमृध्यति।
इमं च लोकं शोचन्तमनुशोचन्ति देवताः ॥ १७ ॥
मूलम्
समृद्ध्या ह्यस्य लोकस्य लोको युष्माकमृध्यति।
इमं च लोकं शोचन्तमनुशोचन्ति देवताः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस मनुष्यलोककी समृद्धिसे ही तुम सब लोगोंका लोक समृद्धिशाली होता है। यदि इस लोककी दशा शोचनीय हो तो देवता भी शोकमें पड़ जाते हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूज्यमानाश्च वर्धन्ते हव्यकव्यैर्यथाविधि ।
वयं राष्ट्रस्य गोप्तारो रक्षितारश्च राक्षस ॥ १८ ॥
मूलम्
पूज्यमानाश्च वर्धन्ते हव्यकव्यैर्यथाविधि ।
वयं राष्ट्रस्य गोप्तारो रक्षितारश्च राक्षस ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्योंकि मनुष्यद्वारा हव्य और कव्यसे विधिपूर्वक पूजित होनेपर उनकी वृद्धि होती है। राक्षस! हमलोग राष्ट्रके पालक और संरक्षक हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राष्ट्रस्यारक्ष्यमाणस्य कुतो भूतिः कुतः सुखम्।
न च राजावमन्तव्यो रक्षसा जात्वनागसि ॥ १९ ॥
मूलम्
राष्ट्रस्यारक्ष्यमाणस्य कुतो भूतिः कुतः सुखम्।
न च राजावमन्तव्यो रक्षसा जात्वनागसि ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हमारे द्वारा रक्षित न होनेपर राष्ट्रको कैसे समृद्धि प्राप्त होगी और कैसे उसे सुख मिलेगा? राक्षसको भी उचित है कि वह बिना अपराधके कभी किसी राजाका अपमान न करे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अणुरप्यपचारश्च नास्त्यस्माकं नराशन ।
विघसाशान् यथाशक्त्या कुर्महे देवतादिषु ॥ २० ॥
मूलम्
अणुरप्यपचारश्च नास्त्यस्माकं नराशन ।
विघसाशान् यथाशक्त्या कुर्महे देवतादिषु ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरभक्षी निशाचर! तेरे प्रति हमलोगोंकी ओरसे थोड़ा-सा भी अपराध नहीं हुआ है। हम देवता आदिको समर्पित करके बचे हुए प्रसादस्वरूप अन्नका यथाशक्ति गुरुजनों और ब्राह्मणोंको भोजन कराते हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरूंश्च ब्राह्मणांश्चैव प्रणामप्रवणाः सदा।
द्रोग्धव्यं न च मित्रेषु न विश्वस्तेषु कर्हिचित् ॥ २१ ॥
मूलम्
गुरूंश्च ब्राह्मणांश्चैव प्रणामप्रवणाः सदा।
द्रोग्धव्यं न च मित्रेषु न विश्वस्तेषु कर्हिचित् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘गुरुजनों तथा ब्राह्मणोंके सम्मुख हमारा मस्तक सदा झुका रहता है। किसी भी पुरुषको कभी अपने मित्रों और विश्वासी पुरुषोंके साथ द्रोह नहीं करना चाहिये॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येषां चान्नानि भुञ्जीत यत्र च स्यात् प्रतिश्रयः।
स त्वं प्रतिश्रयेऽस्माकं पूज्यमानः सुखोषितः ॥ २२ ॥
मूलम्
येषां चान्नानि भुञ्जीत यत्र च स्यात् प्रतिश्रयः।
स त्वं प्रतिश्रयेऽस्माकं पूज्यमानः सुखोषितः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिनका अन्न खाये और जहाँ अपनेको आश्रय मिला हो, उनके साथ भी द्रोह या विश्वासघात करना उचित नहीं है। तू हमारे आश्रयमें हमलोगोंसे सम्मानित होकर सुखपूर्वक रहा है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भुक्त्वा चान्नानि दुष्प्रज्ञ कथमस्मान् जिहीर्षसि।
एवमेव वृथाचारो वृथावृद्धो वृथामतिः ॥ २३ ॥
मूलम्
भुक्त्वा चान्नानि दुष्प्रज्ञ कथमस्मान् जिहीर्षसि।
एवमेव वृथाचारो वृथावृद्धो वृथामतिः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘खोटी बुद्धिवाले राक्षस! तू हमारा अन्न खाकर हमें ही हर ले जानेकी इच्छा कैसे करता है? इस प्रकार तो अबतक तूने ब्राह्मणरूपसे जो आचार दिखाया था, वह सब व्यर्थ ही था। तेरा बढ़ना या वृद्ध होना भी व्यर्थ ही है। तेरी बुद्धि भी व्यर्थ है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृथामरणमर्हश्च वृथाद्य न भविष्यसि।
अथ चेद् दुष्टबुद्धिस्त्वं सर्वैर्धर्मैर्विवर्जितः ॥ २४ ॥
प्रदाय शस्त्राण्यस्माकं युद्धेन द्रौपदीं हर।
अथ चेत् त्वमविज्ञानादिदं कर्म करिष्यसि ॥ २५ ॥
अधर्मं चाप्यकीर्तिं च लोके प्राप्स्यसि केवलम्।
एतामद्य परामृश्य स्त्रियं राक्षस मानुषीम् ॥ २६ ॥
विषमेतत् समालोड्य कुम्भेन प्राशितं त्वया।
ततो युधिष्ठिरस्तस्य गुरुकः समपद्यत ॥ २७ ॥
मूलम्
वृथामरणमर्हश्च वृथाद्य न भविष्यसि।
अथ चेद् दुष्टबुद्धिस्त्वं सर्वैर्धर्मैर्विवर्जितः ॥ २४ ॥
प्रदाय शस्त्राण्यस्माकं युद्धेन द्रौपदीं हर।
अथ चेत् त्वमविज्ञानादिदं कर्म करिष्यसि ॥ २५ ॥
अधर्मं चाप्यकीर्तिं च लोके प्राप्स्यसि केवलम्।
एतामद्य परामृश्य स्त्रियं राक्षस मानुषीम् ॥ २६ ॥
विषमेतत् समालोड्य कुम्भेन प्राशितं त्वया।
ततो युधिष्ठिरस्तस्य गुरुकः समपद्यत ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ऐसी दशामें तू व्यर्थ मृत्युका ही अधिकारी है और आज व्यर्थ ही तुम्हारे प्राण नष्ट हो जायँगे। यदि तेरी बुद्धि दुष्टतापर ही उतर आयी है और तू सम्पूर्ण धर्मोंको भी छोड़ बैठा है, तो हमें हमारे अस्त्र देकर युद्ध कर तथा उसमें विजयी होनेपर द्रौपदीको ले जा। यदि तू अज्ञानवश यह विश्वासघात या अपहरण कर्म करेगा, तो संसारमें तुझे केवल अधर्म और अकीर्ति ही प्राप्त होगी। निशाचर! आज तूने इस मानवजातिकी स्त्रीका स्पर्श करके जो पाप किया है, यह भयंकर विष है, जिसे तूने घड़ेमें घोलकर पी लिया है।’ इतना कहकर युधिष्ठिर उसके लिये बहुत भारी हो गये॥२४—२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु भाराभिभूतात्मा न तथा शीघ्रगोऽभवत्।
अथाब्रवीद् द्रौपदीं च नकुलं च युधिष्ठिरः ॥ २८ ॥
मूलम्
स तु भाराभिभूतात्मा न तथा शीघ्रगोऽभवत्।
अथाब्रवीद् द्रौपदीं च नकुलं च युधिष्ठिरः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारसे उसका शरीर दबने लगा, इसलिये अब वह पहलेकी तरह शीघ्रतापूर्वक न चल सका। तब युधिष्ठिरने नकुल और द्रौपदीसे कहा—॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा भैष्ट राक्षसान्मूढाद् गतिरस्य मया हृता।
नातिदूरे महाबाहुर्भविता पवनात्मजः ॥ २९ ॥
मूलम्
मा भैष्ट राक्षसान्मूढाद् गतिरस्य मया हृता।
नातिदूरे महाबाहुर्भविता पवनात्मजः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुमलोग इस मूढ़ राक्षससे डरना मत। मैंने इसकी गति कुण्ठित कर दी है। वायुपुत्र महाबाहु भीमसेन यहाँसे अधिक दूर नहीं होंगे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मिन् मुहुर्ते सम्प्राप्ते न भविष्यति राक्षसः।
सहदेवस्तु तं दृष्ट्वा राक्षसं मूढचेतनम् ॥ ३० ॥
उवाच वचनं राजन् कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
राजन् किंनाम सत्कृत्यं क्षत्रियस्यास्त्यतोऽधिकम् ॥ ३१ ॥
यद् युद्धेऽभिमुखः प्राणांस्त्यजेच्छत्रुं जयेत वा।
एष चास्मान् वयं चैनं युद्ध्यमानाः परंतप ॥ ३२ ॥
सूदयेम महाबाहो देशकालो ह्ययं नृप।
क्षत्रधर्मस्य सम्प्राप्तः कालः सत्यपराक्रमः ॥ ३३ ॥
मूलम्
अस्मिन् मुहुर्ते सम्प्राप्ते न भविष्यति राक्षसः।
सहदेवस्तु तं दृष्ट्वा राक्षसं मूढचेतनम् ॥ ३० ॥
उवाच वचनं राजन् कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
राजन् किंनाम सत्कृत्यं क्षत्रियस्यास्त्यतोऽधिकम् ॥ ३१ ॥
यद् युद्धेऽभिमुखः प्राणांस्त्यजेच्छत्रुं जयेत वा।
एष चास्मान् वयं चैनं युद्ध्यमानाः परंतप ॥ ३२ ॥
सूदयेम महाबाहो देशकालो ह्ययं नृप।
क्षत्रधर्मस्य सम्प्राप्तः कालः सत्यपराक्रमः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस आगामी मुहूर्तके आते ही इस राक्षसके प्राण नहीं रहेंगे।’ इधर सहदेवने उस मूढ़ राक्षसकी ओर देखते हुए कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरसे कहा—‘राजन्! क्षत्रियके लिये इससे अधिक सत्कर्म क्या होगा कि वह युद्धमें शत्रुका सामना करते हुए प्राणोंका त्याग कर दे अथवा शत्रुको ही जीत ले। राजन्! इस प्रकार यह हमें अथवा हम इसे युद्ध करते हुए मार डालें। परंतप महाबाहु नरेश! यह क्षत्रिय धर्मके अनुकूल देश-काल प्राप्त हुआ है। यह समय यथार्थ पराक्रम प्रकट करनेके लिये है॥३०—३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयन्तो हन्यमाना वा प्राप्तुमर्हाम सद्गतिम्।
राक्षसे जीवमानेऽद्य रविरस्तमियाद् यदि ॥ ३४ ॥
नाहं ब्रूयां पुनर्जातु क्षत्रियोऽस्मीति भारत।
भो भो राक्षस तिष्ठस्व सहदेवोऽस्मि पाण्डवः ॥ ३५ ॥
हत्वा वा मां नयस्वैनां हतो वाद्येह स्वप्स्यसि।
तदा ब्रुवति माद्रेये भीमसेनो यदृच्छया ॥ ३६ ॥
प्रत्यदृश्यद् गदाहस्तः सवज्र इव वासवः।
सोऽपश्यद् भ्रातरौ तत्र द्रौपदीं च यशस्विनीम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
जयन्तो हन्यमाना वा प्राप्तुमर्हाम सद्गतिम्।
राक्षसे जीवमानेऽद्य रविरस्तमियाद् यदि ॥ ३४ ॥
नाहं ब्रूयां पुनर्जातु क्षत्रियोऽस्मीति भारत।
भो भो राक्षस तिष्ठस्व सहदेवोऽस्मि पाण्डवः ॥ ३५ ॥
हत्वा वा मां नयस्वैनां हतो वाद्येह स्वप्स्यसि।
तदा ब्रुवति माद्रेये भीमसेनो यदृच्छया ॥ ३६ ॥
प्रत्यदृश्यद् गदाहस्तः सवज्र इव वासवः।
सोऽपश्यद् भ्रातरौ तत्र द्रौपदीं च यशस्विनीम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भारत! हम विजयी हों या मारे जायँ, सभी दशाओंमें उत्तम गति प्राप्त कर सकते हैं। यदि इस राक्षसके जीते-जी सूर्य डूब गये, तो मैं फिर कभी अपनेको क्षत्रिय नहीं कहूँगा। अरे ओ निशाचर! खड़ा रह, मैं पाण्डुकुमार सहदेव हूँ, या तो तू मुझे मारकर द्रौपदीको ले जा या स्वयं मेरे हाथों मारा जाकर आज यहीं सदाके लिये सो जा।’ माद्रीनन्दन सहदेव जब ऐसी बात कह रहे थे, उसी समय अकस्मात् गदा हाथमें लिये भीमसेन दिखायी दिये, मानो वज्रधारी इन्द्र आ पहुँचे हों। उन्होंने वहाँ (राक्षसके अधिकारमें पड़े हुए) अपने दोनों भाइयों तथा यशस्विनी द्रौपदीको देखा॥३४—३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षितिस्थं सहदेवं च क्षिपन्तं राक्षसं तदा।
मार्गाच्च राक्षसं मूढं कालोपहतचेतसम् ॥ ३८ ॥
भ्रमन्तं तत्र तत्रैव देवेन विनिवारितम्।
भ्रातॄंस्तान् ह्रियतो दृष्ट्वा द्रौपदीं च महाबलः ॥ ३९ ॥
क्रोधमाहारयद् भीमो राक्षसं चेदमब्रवीत्।
विज्ञातोऽसि मया पूर्वं पाप शस्त्रपरीक्षणे ॥ ४० ॥
मूलम्
क्षितिस्थं सहदेवं च क्षिपन्तं राक्षसं तदा।
मार्गाच्च राक्षसं मूढं कालोपहतचेतसम् ॥ ३८ ॥
भ्रमन्तं तत्र तत्रैव देवेन विनिवारितम्।
भ्रातॄंस्तान् ह्रियतो दृष्ट्वा द्रौपदीं च महाबलः ॥ ३९ ॥
क्रोधमाहारयद् भीमो राक्षसं चेदमब्रवीत्।
विज्ञातोऽसि मया पूर्वं पाप शस्त्रपरीक्षणे ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सहदेव धरतीपर खड़े होकर राक्षसपर आक्षेप कर रहे थे और वह मूढ़ राक्षस मार्गसे भ्रष्ट होकर वहीं चक्कर काट रहा था। कालसे उसकी बुद्धि मारी गयी थी। दैवने ही उसे वहाँ रोक रखा था। भाइयों और द्रौपदीका अपहरण होता देख महाबली भीमसेन कुपित हो उठे और जटासुरसे बोले—‘ओ पापी! पहले जब तू शस्त्रोंकी परीक्षा कर रहा था, तभी मैंने तुझे पहचान लिया था॥३८—४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आस्था तु त्वयि मे नास्ति यतोऽसि न हतस्तदा।
ब्रह्मरूपप्रतिच्छन्नो न नो वदसि चाप्रियम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
आस्था तु त्वयि मे नास्ति यतोऽसि न हतस्तदा।
ब्रह्मरूपप्रतिच्छन्नो न नो वदसि चाप्रियम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुझपर मेरा विश्वास नहीं रह गया था, तो भी तू ब्राह्मणके रूपमें अपने असली स्वरूपको छिपाये हुए था और हमलोगोंसे कोई अप्रिय बात नहीं कहता था। इसीलिये मैंने तुम्हें तत्काल नहीं मार डाला॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रियेषु रममाणं त्वां न चैवाप्रियकारिणम्।
अतिथिं ब्रह्मरूपं च कथं हन्यामनागसम् ॥ ४२ ॥
राक्षसं जानमानोऽपि यो हन्यान्नरकं व्रजेत्।
अपक्वस्य च कालेन वधस्तव न विद्यते ॥ ४३ ॥
मूलम्
प्रियेषु रममाणं त्वां न चैवाप्रियकारिणम्।
अतिथिं ब्रह्मरूपं च कथं हन्यामनागसम् ॥ ४२ ॥
राक्षसं जानमानोऽपि यो हन्यान्नरकं व्रजेत्।
अपक्वस्य च कालेन वधस्तव न विद्यते ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तू हमारे प्रिय कार्योंमें मन लगाता था। जो हमें प्रिय न लगे, ऐसा काम नहीं करता था। ब्राह्मण अतिथिके रूपमें आया था और कभी कोई अपराध नहीं किया था। ऐसी दशामें मैं तुझे कैसे मारता? जो राक्षसको राक्षस जानते हुए भी बिना किसी अपराधके उसका वध करता है, वह नरकमें जाता है। अभी तेरा समय पूरा नहीं हुआ था, इसलिये भी आजसे पहले तेरा वध नहीं किया जा सकता था॥४२-४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनमद्यासि सम्पक्वो यथा ते मतिरीदृशी।
दत्ता कृष्णापहरणे कालेनाद्भुतकर्मणा ॥ ४४ ॥
मूलम्
नूनमद्यासि सम्पक्वो यथा ते मतिरीदृशी।
दत्ता कृष्णापहरणे कालेनाद्भुतकर्मणा ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज निश्चय ही तेरी आयु पूरी हो चुकी है, तभी तो अद्भुत कर्म करनेवाले कालने तुझे इस प्रकार द्रौपदीके अपहरणकी बुद्धि दी है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बडिशोऽयं त्वया ग्रस्तः कालसूत्रेण लम्बितः।
मत्स्योऽम्भसीव स्यूतास्यः कथमद्य भविष्यसि ॥ ४५ ॥
मूलम्
बडिशोऽयं त्वया ग्रस्तः कालसूत्रेण लम्बितः।
मत्स्योऽम्भसीव स्यूतास्यः कथमद्य भविष्यसि ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कालरूपी डोरेसे लटकाया हुआ बंसीका काँटा तूने निगल लिया है। तेरा मुँह जलकी मछलीके समान उस काँटेमें गुँथ गया है, अतः अब तू कैसे जीवन धारण करेगा?॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं चासि प्रस्थितो देशं मनः पूर्वं गतं च ते।
न तं गन्तासि गन्तासि मार्गं बकहिडिम्बयोः ॥ ४६ ॥
मूलम्
यं चासि प्रस्थितो देशं मनः पूर्वं गतं च ते।
न तं गन्तासि गन्तासि मार्गं बकहिडिम्बयोः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिस देशकी ओर तू प्रस्थित हुआ है और जहाँ तेरा मन पहलेसे ही जा पहुँचा है, वहाँ अब तू न जा सकेगा। तुझे तो बक और हिडिम्बके मार्गपर जाना है,॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु भीमेन राक्षसः कालचोदितः।
भीत उत्सृज्य तान् सर्वान् युद्धाय समुपस्थितः ॥ ४७ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु भीमेन राक्षसः कालचोदितः।
भीत उत्सृज्य तान् सर्वान् युद्धाय समुपस्थितः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनके ऐसा कहनेपर वह राक्षस भयभीत हो उन सबको छोड़कर कालकी प्रेरणासे युद्धके लिये उद्यत हो गया॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब्रवीच्च पुनर्भीमं रोषात् प्रस्फुरिताधरः।
न मे मूढा दिशः पाप त्वदर्थं मे विलम्बितम्॥४८॥
मूलम्
अब्रवीच्च पुनर्भीमं रोषात् प्रस्फुरिताधरः।
न मे मूढा दिशः पाप त्वदर्थं मे विलम्बितम्॥४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय रोषसे उसके ओठ फड़क रहे थे। उसने भीमसेनको उत्तर देते हुए कहा—‘ओ पापी! मुझे दिग्भ्रम नहीं हुआ था। मैंने तेरे ही लिये विलम्ब किया था॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुता मे राक्षसा ये ये त्वया विनिहता रणे।
तेषामद्य करिष्यामि तवास्रेणोदकक्रियाम् ॥ ४९ ॥
मूलम्
श्रुता मे राक्षसा ये ये त्वया विनिहता रणे।
तेषामद्य करिष्यामि तवास्रेणोदकक्रियाम् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तूने जिन-जिन राक्षसोंको युद्धमें मारा है, उन सबके नाम मैंने सुने हैं। आज तेरे रक्तसे ही मैं उनका तर्पण करूँगा,॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्ततो भीमः सृक्किणी परिसंलिहन्।
स्मयमान इव क्रोधात् साक्षात् कालान्तकोपमः ॥ ५० ॥
(ब्रुवन् वै तिष्ठ तिष्ठेति क्रोधसंरक्तलोचनः।)
बाहुसंरम्भमेवैक्षन्नभिदुद्राव राक्षसम् ।
राक्षसोऽपि तदा भीमं युद्धार्थिनमवस्थितम् ॥ ५१ ॥
मुहुर्मुहुर्व्याददानः सृक्किणी परिसंलिहन् ।
अभिदुद्राव संरब्धो बलिर्वज्रधरं यथा ॥ ५२ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्ततो भीमः सृक्किणी परिसंलिहन्।
स्मयमान इव क्रोधात् साक्षात् कालान्तकोपमः ॥ ५० ॥
(ब्रुवन् वै तिष्ठ तिष्ठेति क्रोधसंरक्तलोचनः।)
बाहुसंरम्भमेवैक्षन्नभिदुद्राव राक्षसम् ।
राक्षसोऽपि तदा भीमं युद्धार्थिनमवस्थितम् ॥ ५१ ॥
मुहुर्मुहुर्व्याददानः सृक्किणी परिसंलिहन् ।
अभिदुद्राव संरब्धो बलिर्वज्रधरं यथा ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसके ऐसा कहनेपर भीमसेन अपने मुखके दोनों कोने चाटते हुए कुछ मुसकराते-से प्रतीत हुए फिर क्रोधसे साक्षात् काल और यमराजके समान जान पड़ने लगे। रोषसे उनकी आँखें लाल हो गयी थीं ‘खड़ा रह,’ खड़ा रह कहते हुए ताल ठोंककर राक्षसकी ओर दृष्टि गड़ाये उसपर टूट पड़े। राक्षस भी उस समय भीमसेनको युद्धके लिये उपस्थित देख बार-बार मुँह फैलाकर मुँहके दोनों कोने चाटने लगा और जैसे बलिराजा वज्रधारी इन्द्रपर आक्रमण करता है, उसी प्रकार कुपित हो उसने भीमसेनपर धावा किया॥५०—५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(भीमसेनोऽप्यवष्टब्धो नियुद्धायाभवत् स्थितः ।
राक्षसोऽपि च विस्रब्धो बाहुयुद्धमकाङ्क्षत॥
वर्तमाने तदा ताभ्यां बाहुयुद्धे सुदारुणे।
माद्रीपुत्रावतिक्रुद्धावुभावप्यभ्यधावताम् ॥ ५३ ॥
मूलम्
(भीमसेनोऽप्यवष्टब्धो नियुद्धायाभवत् स्थितः ।
राक्षसोऽपि च विस्रब्धो बाहुयुद्धमकाङ्क्षत॥
वर्तमाने तदा ताभ्यां बाहुयुद्धे सुदारुणे।
माद्रीपुत्रावतिक्रुद्धावुभावप्यभ्यधावताम् ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन भी स्थिर होकर उससे युद्धके लिये खड़े हो गये और वह राक्षस भी निश्चिन्त हो उनके साथ बाहुयुद्धकी इच्छा करने लगा। उस समय उन दोनोंमें बड़ा भयंकर बाहुयुद्ध होने लगा। यह देख माद्रीपुत्र नकुल और सहदेव अत्यन्त क्रोधमें भरकर उसकी ओर दौड़े॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न्यवारयत् तौ प्रहसन् कुन्तीपुत्रो वृकोदरः।
शक्तोऽहं राक्षसस्येति प्रेक्षध्वमिति चाब्रवीत् ॥ ५४ ॥
मूलम्
न्यवारयत् तौ प्रहसन् कुन्तीपुत्रो वृकोदरः।
शक्तोऽहं राक्षसस्येति प्रेक्षध्वमिति चाब्रवीत् ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु कुन्तीकुमार भीमसेनने हँसकर उन दोनोंको रोक दिया और कहा—‘मैं अकेला ही इस राक्षसके लिये पर्याप्त हूँ। तुमलोग चुप-चाप देखते रहो’॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मना भ्रातृभिश्चैव धर्मेण सुकृतेन च।
इष्टेन च शपे राजन् सूदयिष्यामि राक्षसम् ॥ ५५ ॥
मूलम्
आत्मना भ्रातृभिश्चैव धर्मेण सुकृतेन च।
इष्टेन च शपे राजन् सूदयिष्यामि राक्षसम् ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वे युधिष्ठिरसे बोले—‘महाराज! मैं अपनी, सब भाइयोंकी, धर्मकी, पुण्य कर्मोंकी तथा यज्ञकी शपथ खाकर कहता हूँ, इस राक्षसको अवश्य मार डालूँगा॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवमुक्त्वा तौ वीरौ स्पर्धमानौ परस्परम्।
बाहुभ्यां समसज्जेतामुभौ रक्षोवृकोदरौ ॥ ५६ ॥
मूलम्
इत्येवमुक्त्वा तौ वीरौ स्पर्धमानौ परस्परम्।
बाहुभ्यां समसज्जेतामुभौ रक्षोवृकोदरौ ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर वे दोनों वीर राक्षस और भीम एक-दूसरेसे स्पर्धा रखते हुए बाँहोंसे बाँहें मिलाकर गुथ गये॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोरासीत् सम्प्रहारः क्रुद्धयोर्भीमरक्षसोः ।
अमृष्यमाणयोः सङ्ख्ये देवदानवयोरिव ॥ ५७ ॥
मूलम्
तयोरासीत् सम्प्रहारः क्रुद्धयोर्भीमरक्षसोः ।
अमृष्यमाणयोः सङ्ख्ये देवदानवयोरिव ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन तथा राक्षस दोनोंमें देवताओं और दानवोंके समान युद्ध होने लगा। दोनों ही रोष और अमर्षमें भरकर एक-दूसरेपर प्रहार करने लगे॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आरुज्यारुज्य तौ वृक्षानन्योन्यमभिजघ्नतुः ।
जीमूताविव गर्जन्तौ निनदन्तौ महाबलौ ॥ ५८ ॥
मूलम्
आरुज्यारुज्य तौ वृक्षानन्योन्यमभिजघ्नतुः ।
जीमूताविव गर्जन्तौ निनदन्तौ महाबलौ ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दोनोंका बल महान् था। वे गर्जते हुए दो मेघोंकी भाँति सिंहनाद करके वृक्षोंको तोड़-तोड़कर परस्पर चोट करते थे॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बभञ्जतुर्महावृक्षानूरुभिर्बलिनां वरौ ।
अन्योन्येनाभिसंरब्धौ परस्परवधैषिणौ ॥ ५९ ॥
मूलम्
बभञ्जतुर्महावृक्षानूरुभिर्बलिनां वरौ ।
अन्योन्येनाभिसंरब्धौ परस्परवधैषिणौ ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलवानोंमें श्रेष्ठ वे दोनों वीर अपनी जाँघोंके धक्केसे बड़े-बड़े वृक्षोंको तोड़ डालते थे और परस्पर कुपित हो एक-दूसरेको मार डालनेकी इच्छा रखते थे॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् वृक्षयुद्धमभवन्महीरुहविनाशनम् ।
बालिसुग्रीवयोर्भ्रात्रोः पुरा स्त्रीकाङ्क्षिणोर्यथा ॥ ६० ॥
मूलम्
तद् वृक्षयुद्धमभवन्महीरुहविनाशनम् ।
बालिसुग्रीवयोर्भ्रात्रोः पुरा स्त्रीकाङ्क्षिणोर्यथा ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पूर्वकालमें स्त्रीकी इच्छावाले दो भाई बालि और सुग्रीवमें भयंकर संग्राम हुआ था, उसी प्रकार भीमसेन और राक्षसमें होने लगा। उन दोनोंका वह वृक्षयुद्ध उस वनके वृक्षसमूहोंके लिये महान् विनाशकारी सिद्ध हुआ॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आविध्याविध्य तौ वृक्षान् मुहूर्तमितरेतरम्।
ताडयामासतुरुभौ विनदन्तौ मुहुर्मुहुः ॥ ६१ ॥
मूलम्
आविध्याविध्य तौ वृक्षान् मुहूर्तमितरेतरम्।
ताडयामासतुरुभौ विनदन्तौ मुहुर्मुहुः ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों बड़े-बड़े वृक्षोंको हिला-हिलाकर बार-बार विकट गर्जना करते हुए दो घड़ीतक एक-दूसरेपर प्रहार करते रहे॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् देशे यदा वृक्षाः सर्व एव निपातिताः।
पुञ्जीकृताश्च शतशः परस्परवधेप्सया ॥ ६२ ॥
ततः शिलाः समादाय मुहूर्तमिव भारत।
महाभ्रैरिव शैलेन्द्रौ युयुधाते महाबलौ ॥ ६३ ॥
शिलाभिरुग्ररूपाभिर्बृहतीभिः परस्परम् ।
वज्रैरिव महावेगैराजघ्नतुरमर्षणौ ॥ ६४ ॥
मूलम्
तस्मिन् देशे यदा वृक्षाः सर्व एव निपातिताः।
पुञ्जीकृताश्च शतशः परस्परवधेप्सया ॥ ६२ ॥
ततः शिलाः समादाय मुहूर्तमिव भारत।
महाभ्रैरिव शैलेन्द्रौ युयुधाते महाबलौ ॥ ६३ ॥
शिलाभिरुग्ररूपाभिर्बृहतीभिः परस्परम् ।
वज्रैरिव महावेगैराजघ्नतुरमर्षणौ ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! जब उस प्रदेशके सारे वृक्ष गिरा दिये गये, तब एक-दूसरेका वध करनेकी इच्छासे उन महाबली वीरोंने वहाँ ढेर-की-ढेर पड़ी हुई सैकड़ों शिलाएँ लेकर दो घड़ीतक इस प्रकार युद्ध किया, मानो दो पर्वतराज बड़े-बड़े मेघखण्डोंद्वारा परस्पर युद्ध कर रहे हों। वहाँकी शिलाएँ विशाल और अत्यन्त भयंकर थीं। वे देखनेमें महान् वेगशाली वज्रोंके समान जान पड़ती थीं। अमर्षमें भरे हुए वे दोनों योद्धा उन्हीं शिलाओंद्वारा एक-दूसरेको मारने लगे॥६२—६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिद्रुत्य च भूयस्तावन्योन्यं बलदर्पितौ।
भुजाभ्यां परिगृह्याथ चकर्षाते गजाविव ॥ ६५ ॥
मूलम्
अभिद्रुत्य च भूयस्तावन्योन्यं बलदर्पितौ।
भुजाभ्यां परिगृह्याथ चकर्षाते गजाविव ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् अपने-अपने बलके घमंडमें भरे हुए वे दोनों वीर एक दूसरेकी ओर झपटकर पुनः अपनी भुजाओंसे कसते हुए विपक्षीको उसी प्रकार खींचने लगे, जैसे दो गजराज परस्पर भिड़कर एक-दूसरेको खींच रहे हों॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुष्टिभिश्च महाघोरैरन्योन्यमभिजघ्नतुः ।
ततः कटकटाशब्दो बभूव सुमहात्मनोः ॥ ६६ ॥
मूलम्
मुष्टिभिश्च महाघोरैरन्योन्यमभिजघ्नतुः ।
ततः कटकटाशब्दो बभूव सुमहात्मनोः ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने अत्यन्त भयानक मुक्कोंद्वारा वे परस्पर चोट करने लगे। तब उन दोनों महाकाय वीरोंमें जोर-जोरसे कटकटानेकी आवाज होने लगी॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः संहृत्य मुष्टिं तु पञ्चशीर्षमिवोरगम्।
वेगेनाभ्यहनद् भीमो राक्षसस्य शिरोधराम् ॥ ६७ ॥
मूलम्
ततः संहृत्य मुष्टिं तु पञ्चशीर्षमिवोरगम्।
वेगेनाभ्यहनद् भीमो राक्षसस्य शिरोधराम् ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर भीमसेनने पाँच सिरवाले सर्पकी भाँति अपने पाँच अंगुलियोंसे युक्त हाथकी मुट्ठी बाँधकर उसे राक्षसकी गर्दनपर बड़े वेगसे दे मारा॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः श्रान्तं तु तद् रक्षो भीमसेनभुजाहतम्।
सुपरिश्रान्तमालक्ष्य भीमसेनोऽभ्यवर्तत ॥ ६८ ॥
मूलम्
ततः श्रान्तं तु तद् रक्षो भीमसेनभुजाहतम्।
सुपरिश्रान्तमालक्ष्य भीमसेनोऽभ्यवर्तत ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनकी भुजाओंके आघातसे वह राक्षस थक गया था। तदनन्तर उसे अधिक थका हुआ देख भीमसेन आगे बढ़ते गये॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत एनं महाबाहुर्बाहुभ्याममरोपमः ।
समुत्क्षिप्य बलाद् भीमो विनिष्पिष्य महीतले ॥ ६९ ॥
मूलम्
तत एनं महाबाहुर्बाहुभ्याममरोपमः ।
समुत्क्षिप्य बलाद् भीमो विनिष्पिष्य महीतले ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् देवताओंके समान तेजस्वी महाबाहु भीमसेनने उस राक्षसको दोनों भुजाओंसे बलपूर्वक उठा लिया और उसे पृथ्वीपर पटककर पीस डाला॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य गात्राणि सर्वाणि चूर्णयामास पाण्डवः।
अरत्निना चाभिहत्य शिरः कायादपाहरत् ॥ ७० ॥
मूलम्
तस्य गात्राणि सर्वाणि चूर्णयामास पाण्डवः।
अरत्निना चाभिहत्य शिरः कायादपाहरत् ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय पाण्डुनन्दन भीमने उसके सारे अंगोंको दबाकर चूर-चूर कर दिया और थप्पड़ मारकर उसके सिरको धड़से अलग कर दिया॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संदष्टौष्ठं विवृत्ताक्षं फलं वृक्षादिव च्युतम्।
जटासुरस्य तु शिरो भीमसेनबलाद्धतम् ॥ ७१ ॥
मूलम्
संदष्टौष्ठं विवृत्ताक्षं फलं वृक्षादिव च्युतम्।
जटासुरस्य तु शिरो भीमसेनबलाद्धतम् ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनके बलसे कटकर अलग हुआ जटासुरका वह सिर वृक्षसे टूटकर गिरे हुए फलके समान जान पड़ता था। उसका ओठ दाँतोंसे दबा हुआ था और आँखें बहुत फैली हुई थीं॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पपात रुधिरादिग्धं संदष्टदशनच्छदम् ।
तं निहत्य महेष्वासो युधिष्ठिरमुपागमत्।
स्तूयमानो द्विजाग्र्यैस्तु मरुद्भिरिव वासवः ॥ ७२ ॥
मूलम्
पपात रुधिरादिग्धं संदष्टदशनच्छदम् ।
तं निहत्य महेष्वासो युधिष्ठिरमुपागमत्।
स्तूयमानो द्विजाग्र्यैस्तु मरुद्भिरिव वासवः ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दाँतोंसे दबे हुए ओठवाला वह मस्तक खूनसे लथपथ होकर गिर पड़ा था। इस प्रकार जटासुरको मारकर महान् धनुर्धर भीमसेन युधिष्ठिरके पास आये। उस समय श्रेष्ठ द्विज उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे, मानो मरुद्गण देवराज इन्द्रके गुण गा रहे हों॥७२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि जटासुरवधपर्वणि सप्तपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत जटासुरवधपर्वमें एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५७॥
सूचना (हिन्दी)
॥ समाप्तं जटासुरवधपर्व ॥