भागसूचना
पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
श्रीहनुमान्जीके द्वारा भीमसेनको अपने विशाल रूपका प्रदर्शन और चारों वर्णोंके धर्मोंका प्रतिपादन
मूलम् (वचनम्)
भीमसेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वरूपमदृष्ट्वा ते न यास्यामि कथंचन।
यदि तेऽहमनुग्राह्यो दर्शयात्मानमात्मना ॥ १ ॥
मूलम्
पूर्वरूपमदृष्ट्वा ते न यास्यामि कथंचन।
यदि तेऽहमनुग्राह्यो दर्शयात्मानमात्मना ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनने कहा— कपिप्रवर! मैं आपका वह पूर्वरूप देखे बिना किसी प्रकार नहीं जाऊँगा। यदि मैं आपका कृपापात्र होऊँ, तो आप स्वयं ही अपने-आपको मेरे सामने प्रकट कर दीजिये॥१॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु भीमेन स्मितं कृत्वा प्लवंगमः।
तद् रूपं दर्शयामास यद् वै सागरलङ्घने ॥ २ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु भीमेन स्मितं कृत्वा प्लवंगमः।
तद् रूपं दर्शयामास यद् वै सागरलङ्घने ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! भीमसेनके ऐसा कहनेपर हनुमान्जीने मुसकराकर उन्हें अपना वह रूप दिखाया, जो उन्होंने समुद्र-लंघनके समय धारण किया था॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातुः प्रियमभीप्सन् वै चकार सुमहद् वपुः।
देहस्तस्य ततोऽतीव वर्धत्यायामविस्तरैः ॥ ३ ॥
सद्रुमं कदलीषण्डं छादयन्नमितद्युतिः ।
गिरेश्चोच्छ्रयमाक्रम्य तस्थौ तत्र च वानरः ॥ ४ ॥
मूलम्
भ्रातुः प्रियमभीप्सन् वै चकार सुमहद् वपुः।
देहस्तस्य ततोऽतीव वर्धत्यायामविस्तरैः ॥ ३ ॥
सद्रुमं कदलीषण्डं छादयन्नमितद्युतिः ।
गिरेश्चोच्छ्रयमाक्रम्य तस्थौ तत्र च वानरः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने अपने भाईका प्रिय करनेकी इच्छासे अत्यन्त विशाल शरीर धारण किया। उनका शरीर लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाईमें बहुत बड़ा हो गया। वे अमित तेजस्वी वानरवीर वृक्षोंसहित समूचे कदलीवनको आच्छादित करते हुए गन्धमादन पर्वतकी ऊँचाईको भी लाँघकर वहाँ खड़े हो गये॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समुच्छ्रितमहाकायो द्वितीय इव पर्वतः।
ताम्रेक्षणस्तीक्ष्णदंष्ट्रो भृकुटीकुटिलाननः ॥ ५ ॥
मूलम्
समुच्छ्रितमहाकायो द्वितीय इव पर्वतः।
ताम्रेक्षणस्तीक्ष्णदंष्ट्रो भृकुटीकुटिलाननः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका वह उन्नत विशाल शरीर दूसरे पर्वतके समान प्रतीत होता था। लाल आँखों, तीखी दाढ़ों और टेढ़ी भौंहोंसे युक्त उनका मुख था॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीर्घलाङ्गूलमाविध्य दिशो व्याप्य स्थितः कपिः।
तद् रूपं महदालक्ष्य भ्रातुः कौरवनन्दनः ॥ ६ ॥
विसिष्मिये तदा भीमो जहृषे च पुनः पुनः।
तमर्कमिव तेजोभिः सौवर्णमिव पर्वतम् ॥ ७ ॥
प्रदीप्तमिव चाकाशं दृष्ट्वा भीमो न्यमीलयत्।
आबभाषे च हनुमान् भीमसेनं स्मयन्निव ॥ ८ ॥
मूलम्
दीर्घलाङ्गूलमाविध्य दिशो व्याप्य स्थितः कपिः।
तद् रूपं महदालक्ष्य भ्रातुः कौरवनन्दनः ॥ ६ ॥
विसिष्मिये तदा भीमो जहृषे च पुनः पुनः।
तमर्कमिव तेजोभिः सौवर्णमिव पर्वतम् ॥ ७ ॥
प्रदीप्तमिव चाकाशं दृष्ट्वा भीमो न्यमीलयत्।
आबभाषे च हनुमान् भीमसेनं स्मयन्निव ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे वानरवीर अपनी विशाल पूँछको हिलाते हुए सम्पूर्ण दिशाओंको घेरकर खड़े थे। भाईके उस विराट् रूपको देखकर कौरवनन्दन भीमको बड़ा आश्चर्य हुआ। उनके शरीरमें बार-बार हर्षसे रोमांच होने लगा। हनुमान्जी तेजमें सूर्यके समान दिखायी देते थे। उनका शरीर सुवर्णमय मेरुपर्वतके समान था और उनकी प्रभासे सारा आकाशमण्डल प्रज्वलित-सा जान पड़ता था। उनकी ओर देखकर भीमसेनने दोनों आँखें बंद कर लीं। तब हनुमान्जी उनसे मुसकराते हुए-से बोले—॥६—८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावदिह शक्तस्त्वं द्रष्टुं रूपं ममानघ।
वर्धेऽहं चाप्यतो भूयो यावन्मे मनसि स्थितम्।
भीमशत्रुषु चात्यर्थं वर्धते मूर्तिरोजसा ॥ ९ ॥
मूलम्
एतावदिह शक्तस्त्वं द्रष्टुं रूपं ममानघ।
वर्धेऽहं चाप्यतो भूयो यावन्मे मनसि स्थितम्।
भीमशत्रुषु चात्यर्थं वर्धते मूर्तिरोजसा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अनघ! तुम यहाँ मेरे इतने ही बड़े रूपको देख सकते हो, परंतु मैं इससे भी बड़ा हो सकता हूँ। मेरे मनमें जितने बड़े स्वरूपकी भावना होती है, उतना ही मैं बढ़ सकता हूँ। भयानक शत्रुओंके समीप मेरी मूर्ति अत्यन्त ओजके साथ बढ़ती है’॥९॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदद्भुतं महारौद्रं विन्ध्यपर्वतसंनिभम् ।
दृष्ट्वा हनूमतो वर्ष्म सम्भ्रान्तः पवनात्मजः ॥ १० ॥
प्रत्युवाच ततो भीमः सम्प्रहृष्टतनूरुहः।
कृताञ्जलिरदीनात्मा हनूमन्तमवस्थितम् ॥ ११ ॥
मूलम्
तदद्भुतं महारौद्रं विन्ध्यपर्वतसंनिभम् ।
दृष्ट्वा हनूमतो वर्ष्म सम्भ्रान्तः पवनात्मजः ॥ १० ॥
प्रत्युवाच ततो भीमः सम्प्रहृष्टतनूरुहः।
कृताञ्जलिरदीनात्मा हनूमन्तमवस्थितम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! हनुमान्जीका वह विन्ध्य पर्वतके समान अत्यन्त भयंकर और अद्भुत शरीर देखकर वायुपुत्र भीमसेन घबरा गये। उनके शरीरमें रोंगटे खड़े होने लगे। उस समय उदार-हृदय भीमने हाथ जोड़कर अपने सामने खड़े हुए हनुमान्जीसे कहा—॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्टं प्रमाणं विपुलं शरीरस्यास्य ते विभो।
संहरस्व महावीर्य स्वयमात्मानमात्मना ॥ १२ ॥
मूलम्
दृष्टं प्रमाणं विपुलं शरीरस्यास्य ते विभो।
संहरस्व महावीर्य स्वयमात्मानमात्मना ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रभो! आपके इस शरीरका विशाल प्रमाण प्रत्यक्ष देख लिया। महापराक्रमी वीर! अब आप स्वयं ही अपने शरीरको समेट लीजिये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि शक्नोमि त्वां द्रष्टुं दिवाकरमिवोदितम्।
अप्रमेयमनाधृष्यं मैनाकमिव पर्वतम् ॥ १३ ॥
मूलम्
न हि शक्नोमि त्वां द्रष्टुं दिवाकरमिवोदितम्।
अप्रमेयमनाधृष्यं मैनाकमिव पर्वतम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप तो सूर्यके समान उदित हो रहे हैं। मैं आपकी ओर देख नहीं सकता। आप अप्रमेय तथा दुर्धर्ष मैनाक पर्वतके समान खड़े हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विस्मयश्चैव मे वीर सुमहान् मनसोऽद्य वै।
यद् रामस्त्वयि पार्श्वस्थे स्वयं रावणमभ्यगात् ॥ १४ ॥
मूलम्
विस्मयश्चैव मे वीर सुमहान् मनसोऽद्य वै।
यद् रामस्त्वयि पार्श्वस्थे स्वयं रावणमभ्यगात् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीर! आज मेरे मनमें इस बातको लेकर बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि आपके निकट रहते हुए भी भगवान् श्रीरामने स्वयं ही रावणका सामना किया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमेव शक्तस्तां लङ्कां सयोधां सहवाहनाम्।
स्वबाहुबलमाश्रित्य विनाशयितुमञ्जसा ॥ १५ ॥
मूलम्
त्वमेव शक्तस्तां लङ्कां सयोधां सहवाहनाम्।
स्वबाहुबलमाश्रित्य विनाशयितुमञ्जसा ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप तो अकेले ही अपने बाहुबलका आश्रय लेकर योद्धाओं और वाहनोंसहित समूची लंकाको अनायास नष्ट कर सकते थे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि ते किंचिदप्राप्यं मारुतात्मज विद्यते।
तव नैकस्य पर्याप्तो रावणः सगणो युधि ॥ १६ ॥
मूलम्
न हि ते किंचिदप्राप्यं मारुतात्मज विद्यते।
तव नैकस्य पर्याप्तो रावणः सगणो युधि ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मारुतनन्दन! आपके लिये कुछ भी असम्भव नहीं है। समरभूमिमें अपने सैनिकोंसहित रावण अकेले आपका ही सामना करनेमें समर्थ नहीं था’॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु भीमेन हनूमान् प्लवगोत्तमः।
प्रत्युवाच ततो वाक्यं स्निग्धगम्भीरया गिरा ॥ १७ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु भीमेन हनूमान् प्लवगोत्तमः।
प्रत्युवाच ततो वाक्यं स्निग्धगम्भीरया गिरा ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! भीमके ऐसा कहनेपर कपिश्रेष्ठ हनुमान्जीने स्नेहयुक्त गम्भीर वाणीमें इस प्रकार उत्तर दिया—॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
हनूमानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत।
भीमसेन न पर्याप्तो ममासौ राक्षसाधमः ॥ १८ ॥
मूलम्
एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत।
भीमसेन न पर्याप्तो ममासौ राक्षसाधमः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान्जी बोले— भारत! महाबाहु भीमसेन! तुम जैसा कहते हो, ठीक ही है। वह अधम राक्षस वास्तवमें मेरा सामना नहीं कर सकता था॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मया तु निहते तस्मिन् रावणे लोककण्टके।
कीर्तिर्नश्येद् राघवस्य तत एतदुपेक्षितम् ॥ १९ ॥
मूलम्
मया तु निहते तस्मिन् रावणे लोककण्टके।
कीर्तिर्नश्येद् राघवस्य तत एतदुपेक्षितम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु सम्पूर्ण लोकोंको काँटेके समान कष्ट देनेवाला रावण यदि मेरे ही हाथों मारा जाता, तो भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी कीर्ति नष्ट हो जाती। इसीलिये मैंने उसकी उपेक्षा कर दी॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन वीरेण तं हत्वा सगणं राक्षसाधमम्।
आनीता स्वपुरं सीता कीर्तिश्चाख्यापिता नृषु ॥ २० ॥
मूलम्
तेन वीरेण तं हत्वा सगणं राक्षसाधमम्।
आनीता स्वपुरं सीता कीर्तिश्चाख्यापिता नृषु ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीरवर श्रीरामचन्द्रजी सेनासहित उस अधम राक्षसका वध करके सीताजीको अपनी अयोध्यापुरीमें ले आये। इससे मनुष्योंमें उनकी कीर्तिका भी विस्तार हुआ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् गच्छ विपुलप्रज्ञ भ्रातुः प्रियहिते रतः।
अरिष्टं क्षेममध्वानं वायुना परिरक्षितः ॥ २१ ॥
मूलम्
तद् गच्छ विपुलप्रज्ञ भ्रातुः प्रियहिते रतः।
अरिष्टं क्षेममध्वानं वायुना परिरक्षितः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अच्छा, महाप्राज्ञ! अब तुम अपने भाईके प्रिय एवं हितमें तत्पर रहकर वायुदेवतासे सुरक्षित हो क्लेशरहित मार्गसे कुशलपूर्वक जाओ॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष पन्थाः कुरुश्रेष्ठ सौगन्धिकवनाय ते।
द्रक्ष्यसे धनदोद्यानं रक्षितं यक्षराक्षसैः ॥ २२ ॥
मूलम्
एष पन्थाः कुरुश्रेष्ठ सौगन्धिकवनाय ते।
द्रक्ष्यसे धनदोद्यानं रक्षितं यक्षराक्षसैः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! यह मार्ग सौगन्धिक वनको जाता है। इससे जानेपर तुम्हें कुबेरका बगीचा दिखायी देगा, जो यक्षों तथा राक्षसोंसे सुरक्षित है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च ते तरसा कार्यः कुसुमावचयः स्वयम्।
दैवतानि हि मान्यानि पुरुषेण विशेषतः ॥ २३ ॥
मूलम्
न च ते तरसा कार्यः कुसुमावचयः स्वयम्।
दैवतानि हि मान्यानि पुरुषेण विशेषतः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ जाकर तुम जल्दीसे स्वयं ही उसके फूल न तोड़ने लगना। मनुष्योंको तो विशेषरूपसे देवताओंका सम्मान ही करना चाहिये॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलिहोमनमस्कारैर्मन्त्रैश्च भरतर्षभ ।
दैवतानि प्रसादं हि भक्त्या कुर्वन्ति भारत ॥ २४ ॥
मूलम्
बलिहोमनमस्कारैर्मन्त्रैश्च भरतर्षभ ।
दैवतानि प्रसादं हि भक्त्या कुर्वन्ति भारत ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! पूजा, होम, नमस्कार, मन्त्रजप तथा भक्तिभावसे देवता प्रसन्न होकर कृपा करते हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा तात साहसं कार्षीः स्वधर्मं परिपालय।
स्वधर्मस्थः परं धर्मं बुध्यस्व गमयस्व च ॥ २५ ॥
मूलम्
मा तात साहसं कार्षीः स्वधर्मं परिपालय।
स्वधर्मस्थः परं धर्मं बुध्यस्व गमयस्व च ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! तुम दुःसाहस न कर बैठना, अपने धर्मका पालन करना, स्वधर्ममें स्थित रहकर तुम श्रेष्ठ धर्मको समझो और उसका पालन करो॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि धर्ममविज्ञाय वृद्धाननुपसेव्य च।
धर्मार्थौ वेदितुं शक्यौ बृहस्पतिसमैरपि ॥ २६ ॥
मूलम्
न हि धर्ममविज्ञाय वृद्धाननुपसेव्य च।
धर्मार्थौ वेदितुं शक्यौ बृहस्पतिसमैरपि ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि धर्मको जाने बिना और वृद्ध पुरुषोंकी सेवा किये बिना बृहस्पति-जैसे विद्वानोंके लिये भी धर्म और अर्थके तत्त्वको समझना सम्भव नहीं है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मो यत्र धर्माख्यो धर्मश्चाधर्मसंज्ञितः।
स विज्ञेयो विभागेन यत्र मुह्यन्त्यबुद्धयः ॥ २७ ॥
मूलम्
अधर्मो यत्र धर्माख्यो धर्मश्चाधर्मसंज्ञितः।
स विज्ञेयो विभागेन यत्र मुह्यन्त्यबुद्धयः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहीं अधर्म ही धर्म कहलाता है और कहीं धर्म भी अधर्म कहा जाता है। अतः धर्म और अधर्मके स्वरूपका पृथक्-पृथक् ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। बुद्धिहीनलोग इसमें मोहित हो जाते हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचारसम्भवो धर्मो धर्मे वेदाः प्रतिष्ठिताः।
वेदैर्यज्ञाः समुत्पन्ना यज्ञैर्देवाः प्रतिष्ठिताः ॥ २८ ॥
मूलम्
आचारसम्भवो धर्मो धर्मे वेदाः प्रतिष्ठिताः।
वेदैर्यज्ञाः समुत्पन्ना यज्ञैर्देवाः प्रतिष्ठिताः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आचारसे धर्मकी उत्पत्ति होती है। धर्ममें वेदोंकी प्रतिष्ठा है। वेदोंसे यज्ञ प्रकट हुए हैं और यज्ञोंसे देवताओंकी स्थिति है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदाचारविधानोक्तैर्यज्ञैर्धार्यन्ति देवताः ।
बृहस्पत्युशनःप्रोक्तैर्नयैर्धार्यन्ति मानवाः ॥ २९ ॥
मूलम्
वेदाचारविधानोक्तैर्यज्ञैर्धार्यन्ति देवताः ।
बृहस्पत्युशनःप्रोक्तैर्नयैर्धार्यन्ति मानवाः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदोक्त आचारके विधानसे बतलाये हुए यज्ञोंद्वारा देवताओंकी आजीविका चलती है और बृहस्पति तथा शुक्राचार्यकी कही हुई नीतियाँ मनुष्योंके जीवन-निर्वाहकी आधारभूमि हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पण्याकरवणिज्याभिः कृष्यागोजाविपोषणैः ।
विद्यया धार्यते सर्वं धर्मैरेतैर्द्विजातिभिः ॥ ३० ॥
मूलम्
पण्याकरवणिज्याभिः कृष्यागोजाविपोषणैः ।
विद्यया धार्यते सर्वं धर्मैरेतैर्द्विजातिभिः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हाट-बाजार करना, कर (लगान या टैक्स) लेना, व्यापार, खेती, गोपालन, भेड़ और बकरोंका पोषण तथा विद्या पढ़ना-पढ़ाना—इन धर्मानुकूल वृत्तियोंद्वारा द्विजगण सम्पूर्ण जगत्की रक्षा करते हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्तिस्रो विद्या विजानताम्।
ताभिः सम्यक् प्रयुक्ताभिर्लोकयात्रा विधीयते ॥ ३१ ॥
मूलम्
त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्तिस्रो विद्या विजानताम्।
ताभिः सम्यक् प्रयुक्ताभिर्लोकयात्रा विधीयते ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदत्रयी, वार्ता (कृषि-वाणिज्य आदि) और दण्डनीति—ये तीन विद्याएँ हैं (इनमें वेदाध्ययन ब्राह्मणकी, वार्ता वैश्यकी और दण्डनीति क्षत्रियकी जीविकावृत्ति है)। विज्ञ पुरुषोंद्वारा इन वृत्तियोंका ठीक-ठीक प्रयोग होनेसे लोकयात्राका निर्वाह होता है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा चेद् धर्मकृता न स्यात् त्रयीधर्ममृते भुवि।
दण्डनीतिमृते चापि निर्मर्यादमिदं भवेत् ॥ ३२ ॥
मूलम्
सा चेद् धर्मकृता न स्यात् त्रयीधर्ममृते भुवि।
दण्डनीतिमृते चापि निर्मर्यादमिदं भवेत् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि लोकयात्रा धर्मपूर्वक न चलायी जाय, इस पृथ्वीपर वेदोक्त धर्मका पालन न हो और दण्डनीति भी उठा दी जाय तो यह सारा जगत् मर्यादाहीन हो जाय॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वार्ताधर्मे ह्यवर्तिन्यो विनश्येयुरिमाः प्रजाः।
सुप्रवृत्तैस्त्रिभिर्ह्येतैर्धर्मं सूयन्ति वै प्रजाः ॥ ३३ ॥
मूलम्
वार्ताधर्मे ह्यवर्तिन्यो विनश्येयुरिमाः प्रजाः।
सुप्रवृत्तैस्त्रिभिर्ह्येतैर्धर्मं सूयन्ति वै प्रजाः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि यह प्रजा वार्ता-धर्म (कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य) में प्रवृत्त न हो तो नष्ट हो जायगी। इन तीनोंकी सम्यक् प्रवृत्ति होनेसे प्रजा धर्मका सम्पादन करती है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विजातीनामृतं धर्मो ह्येकश्चैवैकलक्षणः ।
यज्ञाध्ययनदानानि त्रयः साधारणाः स्मृताः ॥ ३४ ॥
मूलम्
द्विजातीनामृतं धर्मो ह्येकश्चैवैकलक्षणः ।
यज्ञाध्ययनदानानि त्रयः साधारणाः स्मृताः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्विजातियोंका मुख्य धर्म है सत्य (सत्य-भाषण, सत्य-व्यवहार, सद्भाव)। यह धर्मका एक प्रधान लक्षण है। यज्ञ, स्वाध्याय और दान—ये तीन धर्म द्विजमात्रके सामान्य धर्म माने गये हैं॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
याजनाध्यापनं विप्रे धर्मश्चैव प्रतिग्रहः।
पालनं क्षत्रियाणां वै वैश्यधर्मश्च पोषणम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
याजनाध्यापनं विप्रे धर्मश्चैव प्रतिग्रहः।
पालनं क्षत्रियाणां वै वैश्यधर्मश्च पोषणम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञ कराना, वेद और शास्त्रोंको पढ़ाना तथा दान ग्रहण करना—यह ब्राह्मणका ही आजीविकाप्रधान धर्म है। प्रजा-पालन क्षत्रियोंका और पशु-पालन वैश्योंका धर्म है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुश्रूषा च द्विजातीनां शूद्राणां धर्म उच्यते।
भैक्ष्यहोमव्रतैर्हीनास्तथैव गुरुवासिताः ॥ ३६ ॥
मूलम्
शुश्रूषा च द्विजातीनां शूद्राणां धर्म उच्यते।
भैक्ष्यहोमव्रतैर्हीनास्तथैव गुरुवासिताः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण आदि तीनों वर्णोंकी सेवा करना शूद्रोंका धर्म बताया गया है। तीनों वर्णोंकी सेवामें रहनेवाले शूद्रोंके लिये भिक्षा, होम और व्रत मना है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रधर्मोऽत्र कौन्तेय तव धर्मोऽत्र रक्षणम्।
स्वधर्मं प्रतिपद्यस्व विनीतो नियतेन्द्रियः ॥ ३७ ॥
मूलम्
क्षत्रधर्मोऽत्र कौन्तेय तव धर्मोऽत्र रक्षणम्।
स्वधर्मं प्रतिपद्यस्व विनीतो नियतेन्द्रियः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! सबकी रक्षा करना क्षत्रियका धर्म है, अतः तुम्हारा धर्म भी यही है। अपने धर्मका पालन करो। विनयशील बने रहो और इन्द्रियोंको वशमें रखो॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृद्धैः सम्मन्त्र्य सद्भिश्च बुद्धिमद्भिः श्रुतान्वितैः।
आस्थितः शास्ति दण्डेन व्यसनी परिभूयते ॥ ३८ ॥
मूलम्
वृद्धैः सम्मन्त्र्य सद्भिश्च बुद्धिमद्भिः श्रुतान्वितैः।
आस्थितः शास्ति दण्डेन व्यसनी परिभूयते ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेद-शास्त्रोंके विद्वान्, बुद्धिमान् तथा बड़े-बूढ़े श्रेष्ठ पुरुषोंसे सलाह करके उनका कृपापात्र बना हुआ राजा ही दण्डनीतिके द्वारा शासन कर सकता है। जो राजा दुर्व्यसनोंमें आसक्त होता है, उसका पराभव हो जाता है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निग्रहानुग्रहैः सम्यग् यदा राजा प्रवर्तते।
तदा भवन्ति लोकस्य मर्यादाः सुव्यवस्थिताः ॥ ३९ ॥
मूलम्
निग्रहानुग्रहैः सम्यग् यदा राजा प्रवर्तते।
तदा भवन्ति लोकस्य मर्यादाः सुव्यवस्थिताः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब राजा निग्रह और अनुग्रहके द्वारा प्रजावर्गके साथ यथोचित बर्ताव करता है, तभी लोककी सम्पूर्ण मर्यादाएँ सुरक्षित होती हैं॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् देशे च दुर्गे च शत्रुमित्रबलेषु च।
नित्यं चारेण बोद्धव्यं स्थानं वृद्धिः क्षयस्तथा ॥ ४० ॥
मूलम्
तस्माद् देशे च दुर्गे च शत्रुमित्रबलेषु च।
नित्यं चारेण बोद्धव्यं स्थानं वृद्धिः क्षयस्तथा ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये राजाको उचित है कि वह देश और दुर्गमें अपने शत्रु और मित्रोंके सैनिकोंकी स्थिति, वृद्धि और क्षयका गुप्तचरोंद्वारा सदा पता लगाता रहे॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञामुपायश्चारश्च बुद्धिमन्त्रपराक्रमाः ।
निग्रहप्रग्रहौ चैव दाक्ष्यं वै कार्यसाधकम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
राज्ञामुपायश्चारश्च बुद्धिमन्त्रपराक्रमाः ।
निग्रहप्रग्रहौ चैव दाक्ष्यं वै कार्यसाधकम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साम, दान, दण्ड, भेद—ये चार उपाय, गुप्तचर, उत्तम बुद्धि, सुरक्षित मन्त्रणा, पराक्रम, निग्रह, अनुग्रह और चतुरता—ये राजाओंके लिये कार्य-सिद्धिके साधन हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साम्ना दानेन भेदेन दण्डेनोपेक्षणेन च।
साधनीयानि कर्माणि समासव्यासयोगतः ॥ ४२ ॥
मूलम्
साम्ना दानेन भेदेन दण्डेनोपेक्षणेन च।
साधनीयानि कर्माणि समासव्यासयोगतः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साम, दान, भेद, दण्ड और उपेक्षा—इन नीतियोंमेंसे एक-दोके द्वारा या सबके एक साथ प्रयोगद्वारा राजाओंको अपने कार्य सिद्ध करने चाहिये॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्त्रमूला नयाः सर्वे चाराश्च भरतर्षभ।
सुमन्त्रितेन या सिद्धिस्तां द्विजैः सह मन्त्रयेत् ॥ ४३ ॥
मूलम्
मन्त्रमूला नयाः सर्वे चाराश्च भरतर्षभ।
सुमन्त्रितेन या सिद्धिस्तां द्विजैः सह मन्त्रयेत् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! सारी नीतियों और गुप्तचरोंका मूल आधार है मन्त्रणाको गुप्त रखना। उत्तम मन्त्रणा या विचारसे जो सिद्धि प्राप्त होती है, उसके लिये द्विजोंके साथ गुप्त परामर्श करना चाहिये॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रिया मूढेन बालेन लुब्धेन लघुनापि वा।
न मन्त्रयीत गुह्यानि येषु चोन्मादलक्षणम् ॥ ४४ ॥
मूलम्
स्त्रिया मूढेन बालेन लुब्धेन लघुनापि वा।
न मन्त्रयीत गुह्यानि येषु चोन्मादलक्षणम् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्त्री, मूर्ख, बालक, लोभी और नीच पुरुषोंके साथ तथा जिसमें उन्मादका लक्षण दिखायी दे, उसके साथ भी गुप्त परामर्श न करे॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्त्रयेत् सह विद्वद्भिः शक्तैः कर्माणि कारयेत्।
स्निग्धैश्च नीतिविन्यासान् मूर्खान् सर्वत्र वर्जयेत् ॥ ४५ ॥
मूलम्
मन्त्रयेत् सह विद्वद्भिः शक्तैः कर्माणि कारयेत्।
स्निग्धैश्च नीतिविन्यासान् मूर्खान् सर्वत्र वर्जयेत् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वानोंके साथ ही गुप्त मन्त्रणा करनी चाहिये। जो शक्तिशाली हों, उन्हींसे कार्य कराने चाहिये। जो स्नेही (सुहृद्) हों उन्हींके द्वारा नीतिके प्रयोगका काम कराना चाहिये। मूर्खोंको तो सभी कार्योंसे अलग रखना चाहिये॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धार्मिकान् धर्मकार्येषु अर्थकार्येषु पण्डितान्।
स्त्रीषु क्लीबान् नियुञ्जीत क्रूरान् क्रूरेषु कर्मसु ॥ ४६ ॥
मूलम्
धार्मिकान् धर्मकार्येषु अर्थकार्येषु पण्डितान्।
स्त्रीषु क्लीबान् नियुञ्जीत क्रूरान् क्रूरेषु कर्मसु ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाको चाहिये कि वह धर्मके कार्योंमें धार्मिक पुरुषोंको, अर्थसम्बन्धी कार्योंमें अर्थशास्त्रके पण्डितोंको, स्त्रियोंकी देख-भालके लिये नपुंसकोंको और कठोर कार्योंमें क्रूर स्वभावके मनुष्योंको लगावे॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वेभ्यश्चैव परेभ्यश्च कार्याकार्यसमुद्भवा ।
बुद्धिः कर्मसु विज्ञेया रिपूणां च बलाबलम् ॥ ४७ ॥
मूलम्
स्वेभ्यश्चैव परेभ्यश्च कार्याकार्यसमुद्भवा ।
बुद्धिः कर्मसु विज्ञेया रिपूणां च बलाबलम् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत-से कार्योंको आरम्भ करते समय अपने तथा शत्रुपक्षके लोगोंसे भी यह सलाह लेनी चाहिये कि अमुक काम करनेयोग्य है या नहीं। साथ ही, शत्रुकी प्रबलता और दुर्बलताको भी जाननेका प्रयत्न करना चाहिये॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुद्ध्या स्वप्रतिपन्नेषु कुर्यात् साधुष्वनुग्रहम्।
निग्रहं चाप्यशिष्टेषु निर्मर्यादेषु कारयेत् ॥ ४८ ॥
मूलम्
बुद्ध्या स्वप्रतिपन्नेषु कुर्यात् साधुष्वनुग्रहम्।
निग्रहं चाप्यशिष्टेषु निर्मर्यादेषु कारयेत् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिसे सोच-विचारकर अपनी शरणमें आये हुए श्रेष्ठ कर्म करनेवाले पुरुषोंपर अनुग्रह करना चाहिये और मर्यादा भंग करनेवाले दुष्ट पुरुषोंको दण्ड देना चाहिये॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निग्रहे प्रग्रहे सम्यग् यदा राजा प्रवर्तते।
तदा भवति लोकस्य मर्यादा सुव्यवस्थिता ॥ ४९ ॥
मूलम्
निग्रहे प्रग्रहे सम्यग् यदा राजा प्रवर्तते।
तदा भवति लोकस्य मर्यादा सुव्यवस्थिता ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब राजा निग्रह और अनुग्रहमें ठीक तौरसे प्रवृत्त होता है, तभी लोककी मर्यादा सुरक्षित रहती है॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष तेऽभिहितः पार्थ घोरो धर्मो दुरन्वयः।
तं स्वधर्मविभागेन विनयस्थोऽनुपालय ॥ ५० ॥
मूलम्
एष तेऽभिहितः पार्थ घोरो धर्मो दुरन्वयः।
तं स्वधर्मविभागेन विनयस्थोऽनुपालय ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! यह मैंने तुम्हें कठोर राज्य-धर्मका उपदेश दिया है। इसके मर्मको समझना अत्यन्त कठिन है। तुम अपने धर्मके विभागानुसार विनीतभावसे इसका पालन करो॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपोधर्मदमेज्याभिर्विप्रा यान्ति यथा दिवम्।
दानातिथ्यक्रियाधर्मैर्यान्ति वैश्याश्च सद्गतिम् ॥ ५१ ॥
क्षत्रं याति तथा स्वर्गं भुवि निग्रहपालनैः।
सम्यक् प्रणीतदण्डा हि कामद्वेषविवर्जिताः।
अलुब्धा विगतक्रोधाः सतां यान्ति सलोकताम् ॥ ५२ ॥
मूलम्
तपोधर्मदमेज्याभिर्विप्रा यान्ति यथा दिवम्।
दानातिथ्यक्रियाधर्मैर्यान्ति वैश्याश्च सद्गतिम् ॥ ५१ ॥
क्षत्रं याति तथा स्वर्गं भुवि निग्रहपालनैः।
सम्यक् प्रणीतदण्डा हि कामद्वेषविवर्जिताः।
अलुब्धा विगतक्रोधाः सतां यान्ति सलोकताम् ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे तपस्या, धर्म, इन्द्रिय-संयम और यज्ञानुष्ठानके द्वारा ब्राह्मण उत्तम लोकमें जाते हैं तथा जिस प्रकार वैश्य दान और आतिथ्यरूप धर्मोंसे उत्तम गति प्राप्त कर लेते हैं, उसी प्रकार इस लोकमें निग्रह और अनुग्रहके यथोचित प्रयोगसे क्षत्रिय स्वर्गलोकमें जाता है। जिनके द्वारा दण्डनीतिका उचित रीतिसे प्रयोग किया जाता है, जो राग-द्वेषसे रहित, लोभशून्य तथा क्रोधहीन हैं; वे क्षत्रिय सत्पुरुषोंको प्राप्त होनेवाले लोकोंमें जाते हैं॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां हनुमद्भीमसेनसंवादे पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशतीर्थयात्राके प्रसंगमें हनुमान्जी और भीमसेनका संवादविषयक एक सौ पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५०॥