भागसूचना
एकोनपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
हनुमान्जीके द्वारा चारों युगोंके धर्मोंका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तो महाबाहुर्भीमसेनः प्रतापवान् ।
प्रणिपत्य ततः प्रीत्या भ्रातरं हृष्टमानसः ॥ १ ॥
उवाच श्लक्ष्णया वाचा हनूमन्तं कपीश्वरम्।
मया धन्यतरो नास्ति यदार्यं दृष्टवानहम् ॥ २ ॥
मूलम्
एवमुक्तो महाबाहुर्भीमसेनः प्रतापवान् ।
प्रणिपत्य ततः प्रीत्या भ्रातरं हृष्टमानसः ॥ १ ॥
उवाच श्लक्ष्णया वाचा हनूमन्तं कपीश्वरम्।
मया धन्यतरो नास्ति यदार्यं दृष्टवानहम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! हनुमान्जीके ऐसा कहनेपर प्रतापी वीर महाबाहु भीमसेनके मनमें बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने बड़े प्रेमसे अपने भाई वानरराज हनुमान्को प्रणाम करके मधुर वाणीमें कहा—‘अहा! आज मेरे समान बड़भागी दूसरा कोई नहीं है; क्योंकि आज मुझे अपने ज्येष्ठ भ्राताका दर्शन हुआ है॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुग्रहो मे सुमहांस्तृप्तिश्च तव दर्शनात्।
एकं तु कृतमिच्छामि त्वयाद्य प्रियमात्मनः ॥ ३ ॥
मूलम्
अनुग्रहो मे सुमहांस्तृप्तिश्च तव दर्शनात्।
एकं तु कृतमिच्छामि त्वयाद्य प्रियमात्मनः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आर्य! आपने मुझपर बड़ी कृपा की है। आपके दर्शनसे मुझे बड़ा सुख मिला है। अब मैं पुनः आपके द्वारा अपना एक और प्रिय कार्य पूर्ण करना चाहता हूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् ते तदाऽऽसीत् प्लवतः सागरं मकरालयम्।
रूपमप्रतिमं वीर तदिच्छामि निरीक्षितुम् ॥ ४ ॥
एवं तुष्टो भविष्यामि श्रद्धास्यामि च ते वचः।
एवमुक्तः स तेजस्वी प्रहस्य हरिरब्रवीत् ॥ ५ ॥
मूलम्
यत् ते तदाऽऽसीत् प्लवतः सागरं मकरालयम्।
रूपमप्रतिमं वीर तदिच्छामि निरीक्षितुम् ॥ ४ ॥
एवं तुष्टो भविष्यामि श्रद्धास्यामि च ते वचः।
एवमुक्तः स तेजस्वी प्रहस्य हरिरब्रवीत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीरवर! मकरालय समुद्रको लाँघते समय आपने जो अनुपम रूप धारण किया था, उसका दर्शन करनेकी मुझे बड़ी इच्छा हो रही है। उसे देखनेसे मुझे संतोष तो होगा ही, आपकी बातपर श्रद्धा भी हो जायगी।’ भीमसेनके ऐसा कहनेपर महातेजस्वी हनुमान्जीने हँसकर कहा—॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तच्छक्यं त्वया द्रष्टुं रूपं नान्येन केनचित्।
कालावस्था तदा ह्यन्या वर्तते सा न साम्प्रतम् ॥ ६ ॥
मूलम्
न तच्छक्यं त्वया द्रष्टुं रूपं नान्येन केनचित्।
कालावस्था तदा ह्यन्या वर्तते सा न साम्प्रतम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भैया! तुम उस स्वरूपको नहीं देख सकते, कोई दूसरा मनुष्य भी उसे नहीं देख सकता। उस समयकी अवस्था कुछ और ही थी, अब वह नहीं है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यः कृतयुगे कालस्त्रेतायां द्वापरे परः।
अयं प्रध्वंसनः कालो नाद्य तद् रूपमस्ति मे ॥ ७ ॥
भूमिर्नद्यो नगाः शैलाः सिद्धा देवा महर्षयः।
कालं समनुवर्तन्ते यथा भावा युगे युगे ॥ ८ ॥
बलवर्ष्मप्रभावा हि प्रहीयन्त्युद्भवन्ति च।
तदलं बत तद् रूपं द्रष्टुं कुरुकुलोद्वह।
युगं समनुवर्तामि कालो हि दुरतिक्रमः ॥ ९ ॥
मूलम्
अन्यः कृतयुगे कालस्त्रेतायां द्वापरे परः।
अयं प्रध्वंसनः कालो नाद्य तद् रूपमस्ति मे ॥ ७ ॥
भूमिर्नद्यो नगाः शैलाः सिद्धा देवा महर्षयः।
कालं समनुवर्तन्ते यथा भावा युगे युगे ॥ ८ ॥
बलवर्ष्मप्रभावा हि प्रहीयन्त्युद्भवन्ति च।
तदलं बत तद् रूपं द्रष्टुं कुरुकुलोद्वह।
युगं समनुवर्तामि कालो हि दुरतिक्रमः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सत्ययुगका समय दूसरा था तथा त्रेता और द्वापरका दूसरा ही है। यह काल सभी वस्तुओंको नष्ट करनेवाला है। अब मेरा वह रूप है ही नहीं। पृथ्वी, नदी, वृक्ष, पर्वत, सिद्ध, देवता और महर्षि—ये सभी कालका अनुसरण करते हैं। प्रत्येक युगके अनुसार सभी वस्तुओंके शरीर, बल और प्रभावमें न्यूनाधिकता होती रहती है। अतः कुरुश्रेष्ठ! तुम उस स्वरूपको देखनेका आग्रह न करो। मैं भी युगका अनुसरण करता हूँ; क्योंकि कालका उल्लंघन करना किसीके लिये भी अत्यन्त कठिन है’॥७—९॥
मूलम् (वचनम्)
भीम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
युगसंख्यां समाचक्ष्व आचारं च युगे युगे।
धर्मकामार्थभावांश्च कर्मवीर्ये भवाभवौ ॥ १० ॥
मूलम्
युगसंख्यां समाचक्ष्व आचारं च युगे युगे।
धर्मकामार्थभावांश्च कर्मवीर्ये भवाभवौ ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनने कहा— कपिप्रवर! आप मुझे युगोंकी संख्या बताइये और प्रत्येक युगमें जो आचार, धर्म, अर्थ एवं कामके तत्त्व, शुभाशुभ कर्म, उन कर्मोंकी शक्ति तथा उत्पत्ति और विनाशादि भाव होते हैं, उनका भी वर्णन कीजिये॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
हनूमानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतं नाम युगं तात यत्र धर्मः सनातनः।
कृतमेव न कर्तव्यं तस्मिन् काले युगोत्तमे ॥ ११ ॥
मूलम्
कृतं नाम युगं तात यत्र धर्मः सनातनः।
कृतमेव न कर्तव्यं तस्मिन् काले युगोत्तमे ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान्जी बोले— तात! सबसे पहला कृतयुग है। उसमें सनातनधर्मकी पूर्ण स्थिति रहती है। उसका कृतयुग नाम इसलिये पड़ा है कि उस उत्तम युगके लोग अपना सब कर्तव्यकर्म सम्पन्न ही कर लेते थे। उनके लिये कुछ करना शेष नहीं रहता था (अतः ‘कृतम् एव सर्वं शुभं यस्मिन् युगे’ इस व्युत्पत्तिके अनुसार वह ‘कृतयुग’ कहलाया)॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तत्र धर्माः सीदन्ति क्षीयन्ते न च वै प्रजाः।
ततः कृतयुगं नाम कालेन गुणतां गतम् ॥ १२ ॥
मूलम्
न तत्र धर्माः सीदन्ति क्षीयन्ते न च वै प्रजाः।
ततः कृतयुगं नाम कालेन गुणतां गतम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय धर्मका ह्रास नहीं होता था। प्रजाका अर्थात् (माता-पिताके रहते हुए) संतानका नाश नहीं होता था। तदनन्तर कालक्रमसे उसमें गौणता आ गयी॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवदानवगन्धर्वयक्षराक्षसपन्नगाः ।
नासन् कृतयुगे तात तदा न क्रयविक्रयः ॥ १३ ॥
मूलम्
देवदानवगन्धर्वयक्षराक्षसपन्नगाः ।
नासन् कृतयुगे तात तदा न क्रयविक्रयः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! कृतयुगमें देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग नहीं थे, अर्थात् ये परस्पर भेद-भाव नहीं रखते थे। उस समय क्रय-विक्रयका व्यवहार भी नहीं था॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न सामऋग्यजुर्वर्णाः क्रिया नासीच्च मानवी।
अभिध्याय फलं तत्र धर्मः संन्यास एव च ॥ १४ ॥
मूलम्
न सामऋग्यजुर्वर्णाः क्रिया नासीच्च मानवी।
अभिध्याय फलं तत्र धर्मः संन्यास एव च ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋक्, साम और यजुर्वेदके मन्त्रवर्णोंका पृथक्-पृथक् विभाग नहीं था। कोई मानवी क्रिया (कृषि आदि) भी नहीं होती थी। उस समय चिन्तन करनेमात्रसे सबको अभीष्ट फलकी प्राप्ति हो जाती थी। सत्ययुगमें एक ही धर्म था, स्वार्थका त्याग॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तस्मिन् युगसंसर्गे व्याधयो नेन्द्रियक्षयः।
नासूया नापि रुदितं न दर्पो नापि वैकृतम् ॥ १५ ॥
मूलम्
न तस्मिन् युगसंसर्गे व्याधयो नेन्द्रियक्षयः।
नासूया नापि रुदितं न दर्पो नापि वैकृतम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस युगमें बीमारी नहीं होती थी। इन्द्रियोंमें भी क्षीणता नहीं आने पाती थी। कोई किसीके गुणोंमें दोष-दर्शन नहीं करता था। किसीको दुःखसे रोना नहीं पड़ता था और न किसीमें घमंड था; तथा न कोई अन्य विकार ही होता था॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न विग्रहः कुतस्तन्द्री न द्वेषो न च पैशुनम्।
न भयं नापि संतापो न चेर्ष्या न च मत्सरः॥१६॥
मूलम्
न विग्रहः कुतस्तन्द्री न द्वेषो न च पैशुनम्।
न भयं नापि संतापो न चेर्ष्या न च मत्सरः॥१६॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहीं लड़ाई-झगड़ा नहीं था, आलसी भी नहीं थे। द्वेष, चुगली, भय, संताप, ईर्ष्या और मात्सर्य भी नहीं था1॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः परमकं ब्रह्म सा गतिर्योगिनां परा।
आत्मा च सर्वभूतानां शुक्लो नारायणस्तदा ॥ १७ ॥
मूलम्
ततः परमकं ब्रह्म सा गतिर्योगिनां परा।
आत्मा च सर्वभूतानां शुक्लो नारायणस्तदा ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय योगियोंके परम आश्रय और सम्पूर्ण भूतोंकी अन्तरात्मा परब्रह्मस्वरूप भगवान् नारायणका वर्ण शुक्ल था॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च कृतलक्षणाः।
कृते युगे समभवन् स्वकर्मनिरताः प्रजाः ॥ १८ ॥
मूलम्
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च कृतलक्षणाः।
कृते युगे समभवन् स्वकर्मनिरताः प्रजाः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी शम-दम आदि स्वभावसिद्ध शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थे। सत्ययुगमें समस्त प्रजा अपने-अपने कर्तव्यकर्मोंमें तत्पर रहती थी॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समाश्रयं समाचारं समज्ञानं च केवलम्।
तदा हि समकर्माणो वर्णा धर्मानवाप्नुवन् ॥ १९ ॥
मूलम्
समाश्रयं समाचारं समज्ञानं च केवलम्।
तदा हि समकर्माणो वर्णा धर्मानवाप्नुवन् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय परब्रह्म परमात्मा ही सबके एकमात्र आश्रय थे। उन्हींकी प्राप्तिके लिये सदाचारका पालन किया जाता था। सब लोग एक परमात्माका ही ज्ञान प्राप्त करते थे। सभी वर्णोंके मनुष्य परब्रह्म परमात्माके उद्देश्यसे ही समस्त सत्कर्मोंका अनुष्ठान करते थे और इस प्रकार उन्हें उत्तम धर्म-फलकी प्राप्ति होती थी॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदेवसदायुक्ता एकमन्त्रविधिक्रियाः ।
पृथग्धर्मास्त्वेकवेदा धर्ममेकमनुव्रताः ॥ २० ॥
मूलम्
एकदेवसदायुक्ता एकमन्त्रविधिक्रियाः ।
पृथग्धर्मास्त्वेकवेदा धर्ममेकमनुव्रताः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब लोग सदा एक परमात्मदेवमें ही चित्त लगाये रहते थे। सब लोग एक परमात्माके ही नामका जप और उन्हींकी सेवा-पूजा किया करते थे। सबके वर्णाश्रमानुसार पृथक्-पृथक् धर्म होनेपर भी वे एकमात्र वेदको ही माननेवाले थे और एक ही सनातनधर्मके अनुयायी थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चातुराश्रम्ययुक्तेन कर्मणा कालयोगिना ।
अकामफलसंयोगात् प्राप्नुवन्ति परां गतिम् ॥ २१ ॥
मूलम्
चातुराश्रम्ययुक्तेन कर्मणा कालयोगिना ।
अकामफलसंयोगात् प्राप्नुवन्ति परां गतिम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्ययुगके लोग समय-समयपर किये जानेवाले चार आश्रमसम्बन्धी सत्कर्मोंका अनुष्ठान करके कर्म-फलकी कामना और आसक्ति न होनेके कारण परम गति प्राप्त कर लेते थे॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मयोगसमायुक्तो धर्मोऽयं कृतलक्षणः ।
कृते युगे चतुष्पादश्चातुर्वण्यस्य शाश्वतः ॥ २२ ॥
मूलम्
आत्मयोगसमायुक्तो धर्मोऽयं कृतलक्षणः ।
कृते युगे चतुष्पादश्चातुर्वण्यस्य शाश्वतः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चित्तवृत्तियोंको परमात्मामें स्थापित करके उनके साथ एकताकी प्राप्ति करानेवाला यह योग नामक धर्म सत्ययुगका सूचक है। सत्ययुगमें चारों वर्णोंका यह सनातन धर्म चारों चरणोंसे सम्पन्न—सम्पूर्ण रूपसे विद्यमान था॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् कृतयुगं नाम त्रैगुण्यपरिवर्जितम्
त्रेतामपि निबोध त्वं यस्मिन् सत्रं प्रवर्तते ॥ २३ ॥
मूलम्
एतत् कृतयुगं नाम त्रैगुण्यपरिवर्जितम्
त्रेतामपि निबोध त्वं यस्मिन् सत्रं प्रवर्तते ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह तीनों गुणोंसे रहित सत्ययुगका वर्णन हुआ। अब त्रेताका वर्णन सुनो, जिसमें यज्ञ-कर्मका आरम्भ होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पादेन ह्रसते धर्मो रक्ततां याति चाच्युतः।
सत्यप्रवृत्ताश्च नराः क्रियाधर्मपरायणाः ॥ २४ ॥
मूलम्
पादेन ह्रसते धर्मो रक्ततां याति चाच्युतः।
सत्यप्रवृत्ताश्च नराः क्रियाधर्मपरायणाः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय धर्मके एक चरणका ह्रास हो जाता है और भगवान् अच्युतका स्वरूप लाल वर्णका हो जाता है। लोग सत्यमें तत्पर रहते हैं। शास्त्रोक्त यज्ञक्रिया तथा धर्मके पालनमें परायण रहते हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो यज्ञाः प्रवर्तन्ते धर्माश्च विविधाः क्रियाः।
त्रेतायां भावसंकल्पाः क्रियादानफलोपगाः ॥ २५ ॥
मूलम्
ततो यज्ञाः प्रवर्तन्ते धर्माश्च विविधाः क्रियाः।
त्रेतायां भावसंकल्पाः क्रियादानफलोपगाः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
त्रेतायुगमें ही यज्ञ, धर्म तथा नाना प्रकारके सत्कर्म आरम्भ होते हैं। लोगोंको अपनी भावना तथा संकल्पके अनुसार वेदोक्त कर्म तथा दान आदिके द्वारा अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रचलन्ति न वै धर्मात् तपोदानपरायणाः।
स्वधर्मस्थाः क्रियावन्तो नरास्त्रेतायुगेऽभवन् ॥ २६ ॥
मूलम्
प्रचलन्ति न वै धर्मात् तपोदानपरायणाः।
स्वधर्मस्थाः क्रियावन्तो नरास्त्रेतायुगेऽभवन् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
त्रेतायुगके मनुष्य तप और दानमें तत्पर रहकर अपने धर्मसे कभी विचलित नहीं होते थे। सभी स्वधर्मपरायण तथा क्रियावान् थे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वापरे च युगे धर्मो द्विभागोनः प्रवर्तते।
विष्णुर्वै पीततां याति चतुर्धा वेद एव च ॥ २७ ॥
मूलम्
द्वापरे च युगे धर्मो द्विभागोनः प्रवर्तते।
विष्णुर्वै पीततां याति चतुर्धा वेद एव च ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्वापरमें हमारे धर्मके दो ही चरण रह जाते हैं, उस समय भगवान् विष्णुका स्वरूप पीले वर्णका हो जाता है और वेद (ऋक्, यजुः, साम और अथर्व—इन) चार भागोंमें बँट जाता है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽन्ये च चतुर्वेदास्त्रिवेदाश्च तथापरे।
द्विवेदाश्चैकवेदाश्चाप्यनृचश्च तथापरे ॥ २८ ॥
मूलम्
ततोऽन्ये च चतुर्वेदास्त्रिवेदाश्च तथापरे।
द्विवेदाश्चैकवेदाश्चाप्यनृचश्च तथापरे ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय कुछ द्विज चार वेदोंके ज्ञाता, कुछ तीन वेदोंके विद्वान्, कुछ दो ही वेदोंके जानकार, कुछ एक ही वेदके पण्डित और कुछ वेदकी ऋचाओंके ज्ञानसे सर्वथा शून्य होते हैं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं शास्त्रेषु भिन्नेषु बहुधा नीयते क्रिया।
तपोदानप्रवृत्ता च राजसी भवति प्रजा ॥ २९ ॥
मूलम्
एवं शास्त्रेषु भिन्नेषु बहुधा नीयते क्रिया।
तपोदानप्रवृत्ता च राजसी भवति प्रजा ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार भिन्न-भिन्न शास्त्रोंके होनेसे उनके बताये हुए कर्मोंमें भी अनेक भेद हो जाते हैं तथा प्रजा तप और दान—इन दो ही धर्मोंमें प्रवृत होकर राजसी हो जाती है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकवेदस्य चाज्ञानाद् वेदास्ते बहवः कृताः।
सत्त्वस्य चेह विभ्रंशात् सत्ये कश्चिदवस्थितः ॥ ३० ॥
मूलम्
एकवेदस्य चाज्ञानाद् वेदास्ते बहवः कृताः।
सत्त्वस्य चेह विभ्रंशात् सत्ये कश्चिदवस्थितः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्वापरमें सम्पूर्ण एक वेदका भी ज्ञान न होनेसे वेदके बहुत-से विभाग कर लिये गये हैं। इस युगमें सात्त्विक बुद्धिका क्षय होनेसे कोई विरला ही सत्यमें स्थित होता है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यात् प्रच्यवमानानां व्याधयो बहवोऽभवन्।
कामाश्चोपद्रवाश्चैव तदा वै दैवकारिताः ॥ ३१ ॥
मूलम्
सत्यात् प्रच्यवमानानां व्याधयो बहवोऽभवन्।
कामाश्चोपद्रवाश्चैव तदा वै दैवकारिताः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यसे भ्रष्ट होनेके कारण द्वापरके लोगोंमें अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न हो जाते हैं। उनके मनमें अनेक प्रकारकी कामनाएँ पैदा होती हैं और वे बहुत-से दैवी उपद्रवोंसे भी पीड़ित हो जाते हैं॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यैरर्द्यमानाः सुभृशं तपस्तप्यन्ति मानवाः।
कामकामाः स्वर्गकामा यज्ञांस्तन्वन्ति चापरे ॥ ३२ ॥
मूलम्
यैरर्द्यमानाः सुभृशं तपस्तप्यन्ति मानवाः।
कामकामाः स्वर्गकामा यज्ञांस्तन्वन्ति चापरे ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन सबसे अत्यन्त पीड़ित होकर लोग तप करने लगते हैं। कुछ लोग भोग और स्वर्गकी कामनासे यज्ञोंका अनुष्ठान करते हैं॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं द्वापरमासाद्य प्रजाः क्षीयन्त्यधर्मतः।
पादेनैकेन कौन्तेय धर्मः कलियुगे स्थितः ॥ ३३ ॥
मूलम्
एवं द्वापरमासाद्य प्रजाः क्षीयन्त्यधर्मतः।
पादेनैकेन कौन्तेय धर्मः कलियुगे स्थितः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार द्वापरयुगके आनेपर अधर्मके कारण प्रजा क्षीण होने लगती है। (तत्पश्चात् कलियुगका आगमन होता है।) कुन्तीनन्दन! कलियुगमें धर्म एक ही चरणसे स्थित होता है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामसं युगमासाद्य कृष्णो भवति केशवः।
वेदाचाराः प्रशाम्यन्ति धर्मयज्ञक्रियास्तथा ॥ ३४ ॥
मूलम्
तामसं युगमासाद्य कृष्णो भवति केशवः।
वेदाचाराः प्रशाम्यन्ति धर्मयज्ञक्रियास्तथा ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस तमोगुणी युगको पाकर भगवान् विष्णुके श्रीविग्रहका रंग काला हो जाता है। वैदिक सदाचार, धर्म तथा यज्ञ-कर्म नष्ट हो जाते हैं॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईतयो व्याधयस्तन्द्री दोषाः क्रोधादयस्तथा।
उपद्रवाः प्रवर्तन्ते आधयः क्षुद्भयं तथा ॥ ३५ ॥
मूलम्
ईतयो व्याधयस्तन्द्री दोषाः क्रोधादयस्तथा।
उपद्रवाः प्रवर्तन्ते आधयः क्षुद्भयं तथा ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ईति, व्याधि, आलस्य, क्रोध आदि दोष, मानसिक रोग तथा भूख-प्यासका भय—ये सभी उपद्रव बढ़ जाते हैं॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युगेष्वावर्तमानेषु धर्मो व्यावर्तते पुनः।
धर्मे व्यावर्तमाने तु लोको व्यावर्तते पुनः ॥ ३६ ॥
मूलम्
युगेष्वावर्तमानेषु धर्मो व्यावर्तते पुनः।
धर्मे व्यावर्तमाने तु लोको व्यावर्तते पुनः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युगोंके परिवर्तन होनेपर आनेवाले युगोंके अनुसार धर्मका भी ह्रास होता जाता है। इस प्रकार धर्मके क्षीण होनेसे लोक (की सुख-सुविधा)-का भी क्षय होने लगता है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोके क्षीणे क्षयं यान्ति भावा लोकप्रवर्तकाः।
युगक्षयकृता धर्माः प्रार्थनानि विकुर्वते ॥ ३७ ॥
मूलम्
लोके क्षीणे क्षयं यान्ति भावा लोकप्रवर्तकाः।
युगक्षयकृता धर्माः प्रार्थनानि विकुर्वते ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोकके क्षीण होनेपर उसके प्रवर्तक भावोंका भी क्षय हो जाता है। युग-क्षयजनित धर्म मनुष्यकी अभीष्ट कामनाओंके विपरीत फल देते हैं॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् कलियुगं नाम अचिराद् यत् प्रवर्तते।
युगानुवर्तनं त्वेतत् कुर्वन्ति चिरजीविनः ॥ ३८ ॥
मूलम्
एतत् कलियुगं नाम अचिराद् यत् प्रवर्तते।
युगानुवर्तनं त्वेतत् कुर्वन्ति चिरजीविनः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह कलियुगका वर्णन किया गया, जो शीघ्र ही आनेवाला है। चिरजीवीलोग भी इस प्रकार युगका अनुसरण करते हैं॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्च ते मत्परिज्ञाने कौतूहलमरिंदम।
अनर्थकेषु को भावः पुरुषस्य विजानतः ॥ ३९ ॥
मूलम्
यच्च ते मत्परिज्ञाने कौतूहलमरिंदम।
अनर्थकेषु को भावः पुरुषस्य विजानतः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन! तुम्हें मेरे पुरातन स्वरूपको देखने या जाननेके लिये जो कौतूहल हुआ है, वह ठीक नहीं है। किसी भी समझदार मनुष्यका निरर्थक विषयोंके लिये आग्रह क्यों होना चाहिये?॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
युगसंख्यां महाबाहो स्वस्ति प्राप्नुहि गम्यताम् ॥ ४० ॥
मूलम्
एतत् ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
युगसंख्यां महाबाहो स्वस्ति प्राप्नुहि गम्यताम् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! तुमने युगोंकी संख्याके विषयमें मुझसे जो प्रश्न किया है, उसके उत्तरमें मैंने यह सब बातें बतायी हैं। तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम लौट जाओ॥४०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां कदलीषण्डे हनुमद्भीमसंवादे एकोनपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः॥१४९॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत लोमशतीर्थयात्राके प्रसंगमें कदलीवनके भीतर हनुमान्जी और भीमसेनका संवादविषयक एक सौ उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४९॥
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सत्ययुगके मनुष्य आदि प्राणियोंमें दोषोंका अभाव बतलाया है, उसका यह अभिप्राय समझना चाहिये कि अधिकांशमें उनमें इन दोषोंका अभाव था। ↩︎