भागसूचना
पञ्चचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
घटोत्कच और उसके साथियोंकी सहायतासे पाण्डवोंका गन्धमादन पर्वत एवं बदरिकाश्रममें प्रवेश तथा बदरीवृक्ष, नर-नारायणाश्रम और गंगाका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मज्ञो बलवान् शूरः सत्यो राक्षसपुङ्गवः।
भक्तोऽस्मानौरसः पुत्रो भीम गृह्णातु मा चिरम् ॥ १ ॥
तव भीम सुतेनाहमतिभीमपराक्रम ।
अक्षतः सह पाञ्चाल्या गच्छेयं गन्धमादनम् ॥ २ ॥
मूलम्
धर्मज्ञो बलवान् शूरः सत्यो राक्षसपुङ्गवः।
भक्तोऽस्मानौरसः पुत्रो भीम गृह्णातु मा चिरम् ॥ १ ॥
तव भीम सुतेनाहमतिभीमपराक्रम ।
अक्षतः सह पाञ्चाल्या गच्छेयं गन्धमादनम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— अत्यन्त भयानक पराक्रम दिखानेवाले भीम! तुम्हारा औरस पुत्र राक्षसश्रेष्ठ घटोत्कच धर्मज्ञ, बलवान्, शूरवीर, सत्यवादी तथा हमलोगोंका भक्त है। यह हमें शीघ्र उठा ले चले। जिससे भीमसेन! तुम्हारे पुत्र घटोत्कचद्वारा शरीरसे किसी प्रकारकी क्षति उठाये बिना ही मैं द्रौपदीसहित गन्धमादन पर्वतपर पहुँच जाऊँ॥१-२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातुर्वचनमाज्ञाय भीमसेनो घटोत्कचम् ।
आदिदेश नरव्याघ्रस्तनयं शत्रुकर्शनम् ॥ ३ ॥
मूलम्
भ्रातुर्वचनमाज्ञाय भीमसेनो घटोत्कचम् ।
आदिदेश नरव्याघ्रस्तनयं शत्रुकर्शनम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! भाईकी इस आज्ञाको शिरोधार्य करके नरश्रेष्ठ भीमसेनने अपने पुत्र शत्रुसूदन घटोत्कचको इस प्रकार आज्ञा दी॥३॥
मूलम् (वचनम्)
भीमसेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हैडिम्बेय परिश्रान्ता तव मातापराजित।
त्वं च कामगमस्तात बलवान् वह तां खग ॥ ४ ॥
मूलम्
हैडिम्बेय परिश्रान्ता तव मातापराजित।
त्वं च कामगमस्तात बलवान् वह तां खग ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन बोले— अपराजित और आकाशचारी हिडिम्बानन्दन! तुम्हारी माता द्रौपदी बहुत थक गयी है। तुम बलवान् एवं इच्छानुसार सर्वत्र जानेमें समर्थ हो; अतः इसे (आकाशमार्गसे) ले चलो॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्कन्धमारोप्य भद्रं ते मध्येऽस्माकं विहायसा।
गच्छ नीचिकया गत्या यथा चैनां न पीडयेः ॥ ५ ॥
मूलम्
स्कन्धमारोप्य भद्रं ते मध्येऽस्माकं विहायसा।
गच्छ नीचिकया गत्या यथा चैनां न पीडयेः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! तुम्हारा कल्याण हो। इसे कंधेपर बैठाकर हम लोगोंके बीच रहते हुए आकाशमार्गसे इस प्रकार धीरे-धीरे ले चलो, जिससे इसे तनिक भी कष्ट न हो॥५॥
मूलम् (वचनम्)
घटोत्कच उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मराजं च धौम्यं च कृष्णां च यमजौ तथा।
एकोऽप्यहमलं वोढुं किमुताद्य सहायवान् ॥ ६ ॥
अन्ये च शतशः शूरा विहङ्गाः कामरूपिणः।
सर्वान् वो ब्राह्मणैः सार्धं वक्ष्यन्ति सहितानघ ॥ ७ ॥
मूलम्
धर्मराजं च धौम्यं च कृष्णां च यमजौ तथा।
एकोऽप्यहमलं वोढुं किमुताद्य सहायवान् ॥ ६ ॥
अन्ये च शतशः शूरा विहङ्गाः कामरूपिणः।
सर्वान् वो ब्राह्मणैः सार्धं वक्ष्यन्ति सहितानघ ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घटोत्कच बोला— अनघ! मैं अकेला रहूँ तो भी धर्मराज युधिष्ठिर, पुरोहित धौम्य, माता द्रौपदी और चाचा नकुल-सहदेवको भी वहन कर सकता हूँ; फिर आज तो मेरे और भी बहुत-से संगी-साथी मौजूद हैं। इस दशामें आप लोगोंको ले चलना कौन बड़ी बात है? मेरे सिवा दूसरे भी सैकड़ों शूरवीर, आकाशचारी और इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले राक्षस मेरे साथ हैं। वे ब्राह्मणोंसहित आप सब लोगोंको एक साथ वहन करेंगे॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा ततः कृष्णामुवाह स घटोत्कचः।
पाण्डूनां मध्यगो वीरः पाण्डवानपि चापरे ॥ ८ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा ततः कृष्णामुवाह स घटोत्कचः।
पाण्डूनां मध्यगो वीरः पाण्डवानपि चापरे ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर वीर घटोत्कच तो द्रौपदीको लेकर पाण्डवोंके बीचमें चलने लगा और दूसरे राक्षस पाण्डवोंको भी (अपने-अपने कंधेपर बिठाकर) ले चले॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोमशः सिद्धमार्गेण जगामानुपमद्युतिः ।
स्वेनैव स प्रभावेण द्वितीय इव भास्करः ॥ ९ ॥
मूलम्
लोमशः सिद्धमार्गेण जगामानुपमद्युतिः ।
स्वेनैव स प्रभावेण द्वितीय इव भास्करः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनुपम तेजस्वी महर्षि लोमश अपने ही प्रभावसे दूसरे सूर्यकी भाँति सिद्धमार्ग अर्थात् आकाशमार्गसे चलने लगे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणांश्चापि तान् सर्वान् समुपादाय राक्षसाः।
नियोगाद् राक्षसेन्द्रस्य जग्मुर्भीमपराक्रमाः ॥ १० ॥
मूलम्
ब्राह्मणांश्चापि तान् सर्वान् समुपादाय राक्षसाः।
नियोगाद् राक्षसेन्द्रस्य जग्मुर्भीमपराक्रमाः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसराज घटोत्कचकी आज्ञासे अन्य सब ब्राह्मणोंको भी अपने-अपने कंधेपर चढ़ाकर वे भयंकर पराक्रमी राक्षस साथ-साथ चलने लगे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सुरमणीयानि वनान्युपवनानि च।
आलोकयन्तस्ते जग्मुर्विशालां बदरीं प्रति ॥ ११ ॥
मूलम्
एवं सुरमणीयानि वनान्युपवनानि च।
आलोकयन्तस्ते जग्मुर्विशालां बदरीं प्रति ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अत्यन्त रमणीय वन और उपवनोंका अवलोकन करते हुए वे सब लोग विशाला बदरी (बदरिकाश्रम तीर्थ)-की ओर प्रस्थित हुए॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते त्वाशुगतिभिर्वीरा राक्षसैस्तैर्महाजवैः ।
उह्यमाना ययुः शीघ्रं दीर्घमध्वानमल्पवत् ॥ १२ ॥
मूलम्
ते त्वाशुगतिभिर्वीरा राक्षसैस्तैर्महाजवैः ।
उह्यमाना ययुः शीघ्रं दीर्घमध्वानमल्पवत् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन महावेगशाली और तीव्र गतिसे चलनेवाले राक्षसोंपर सवार हो वीर पाण्डवोंने उस विशाल मार्गको इतनी शीघ्रतासे तय कर लिया मानो वह बहुत छोटा हो॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देशान् म्लेच्छजनाकीर्णान् नानारत्नाकरायुतान् ।
ददृशुर्गिरिपादांश्च नानाधातुसमाचितान् ॥ १३ ॥
विद्याधरसमाकीर्णान् युतान् वानरकिन्नरैः ।
तथा किंपुरुषैश्चैव गन्धर्वैश्च समन्ततः ॥ १४ ॥
मूलम्
देशान् म्लेच्छजनाकीर्णान् नानारत्नाकरायुतान् ।
ददृशुर्गिरिपादांश्च नानाधातुसमाचितान् ॥ १३ ॥
विद्याधरसमाकीर्णान् युतान् वानरकिन्नरैः ।
तथा किंपुरुषैश्चैव गन्धर्वैश्च समन्ततः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस यात्रामें उन्होंने म्लेच्छोंसे भरे हुए बहुत-से ऐसे देश देखे जो नाना प्रकारकी रत्नोंकी खानोंसे युक्त थे। वहाँ उन्हें नाना प्रकारके धातुओंसे व्याप्त कितने ही शाखापर्वत दृष्टिगोचर हुए। उन पर्वतीय शिखरोंपर बहुत-से विद्याधर, वानर, किन्नर, किम्पुरुष और गन्धर्व चारों ओर निवास करते थे॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयूरैश्चमरैश्चैव वानरै रुरुभिस्तथा ।
वराहैर्गवयैश्चैव महिषैश्च समावृतान् ॥ १५ ॥
मूलम्
मयूरैश्चमरैश्चैव वानरै रुरुभिस्तथा ।
वराहैर्गवयैश्चैव महिषैश्च समावृतान् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मोर, चमरी गाय, बंदर, रुरुमृग, सूअर, गवय1 और भैंस आदि पशु वहाँ विचर रहे थे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नदीजालसमाकीर्णान् नानापक्षियुतान् बहून् ।
नानाविधमृगैर्जुष्टान् वानरैश्चोपशोभितान् ॥ १६ ॥
मूलम्
नदीजालसमाकीर्णान् नानापक्षियुतान् बहून् ।
नानाविधमृगैर्जुष्टान् वानरैश्चोपशोभितान् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ सब ओर बहुत-सी नदियाँ बह रही थीं। अनेक प्रकारके असंख्य पक्षी विचर रहे थे। वह स्थान नाना प्रकारके मृगोंसे सेवित और वानरोंसे सुशोभित था॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समदैश्चापि विहगैः पादपैरन्वितास्तथा ।
तेऽवतीर्य बहुन् देशानुत्तमर्च्छिसमन्वितान् ॥ १७ ॥
ददृशुर्विविधाश्चर्यं कैलासं पर्वतोत्तमम् ।
तस्याभ्याशे तु ददृशुर्नरनारायणाश्रमम् ॥ १८ ॥
उपेतं पादपैर्दिव्यैः सदापुष्पफलोपगैः ।
ददृशुस्तां च बदरीं वृत्तस्कन्धां मनोरमाम् ॥ १९ ॥
स्निग्धामविरलच्छायां श्रिया परमया युताम्।
पत्रैः स्निग्धैरविरलैरुपेतां मृदुभिः शुभाम् ॥ २० ॥
मूलम्
समदैश्चापि विहगैः पादपैरन्वितास्तथा ।
तेऽवतीर्य बहुन् देशानुत्तमर्च्छिसमन्वितान् ॥ १७ ॥
ददृशुर्विविधाश्चर्यं कैलासं पर्वतोत्तमम् ।
तस्याभ्याशे तु ददृशुर्नरनारायणाश्रमम् ॥ १८ ॥
उपेतं पादपैर्दिव्यैः सदापुष्पफलोपगैः ।
ददृशुस्तां च बदरीं वृत्तस्कन्धां मनोरमाम् ॥ १९ ॥
स्निग्धामविरलच्छायां श्रिया परमया युताम्।
पत्रैः स्निग्धैरविरलैरुपेतां मृदुभिः शुभाम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह पर्वतीय प्रदेश मतवाले विहंगों और अगणित वृक्षोंसे युक्त था। पाण्डवोंने उत्तम समृद्धिसे सम्पन्न बहुत-से देशोंको लाँघकर भाँति-भाँतिके आश्चर्यजनक दृश्योंसे सुशोभित पर्वतश्रेष्ठ कैलासका दर्शन किया। उसीके निकट उन्हें भगवान् नर-नारायणका आश्रम दिखायी दिया, जो नित्य फल-फूल देनेवाले दिव्य वृक्षोंसे अलंकृत था। वहीं वह विशाल एवं मनोरम बदरी भी दिखायी दी, जिसका स्कन्ध (तना) गोल था। वह वृक्ष बहुत ही चिकना, घनी छायासे युक्त और उत्तम शोभासे सम्पन्न था। उस शुभ वृक्षके सघन कोमल पत्ते भी बहुत चिकने थे॥१७—२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशालशाखां विस्तीर्णामतिद्युतिसमन्विताम् ।
फलैरुपचितैर्दिव्यैराचितां स्वादुभिर्भृशम् ॥ २१ ॥
मधुस्रवैः सदा दिव्यां महर्षिगणसेविताम्।
मदप्रमुदितैर्नित्यं नानाद्विजगणैर्युताम् ॥ २२ ॥
मूलम्
विशालशाखां विस्तीर्णामतिद्युतिसमन्विताम् ।
फलैरुपचितैर्दिव्यैराचितां स्वादुभिर्भृशम् ॥ २१ ॥
मधुस्रवैः सदा दिव्यां महर्षिगणसेविताम्।
मदप्रमुदितैर्नित्यं नानाद्विजगणैर्युताम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी डालियाँ बहुत बड़ी और बहुत दूरतक फैली हुई थीं। वह वृक्ष अत्यन्त कान्तिसे सम्पन्न था। उसमें अत्यन्त स्वादिष्ट दिव्य फल अधिक मात्रामें लगे हुए थे। उन फलोंसे मधुकी धारा बहती रहती थी। उस दिव्य वृक्षके नीचे महर्षियोंका समुदाय निवास करता था। वह वृक्ष सदा मदोन्मत्त एवं आनन्दविभोर पक्षियोंसे परिपूर्ण रहता था॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदंशमशके देशे बहुमूलफलोदके ।
नीलशाद्वलसंच्छन्ने देवगन्धर्वसेविते ॥ २३ ॥
सुसमीकृतभूभागे स्वभावविहिते शुभे ।
जातां हिममृदुस्पर्शे देशेऽपहतकण्टके ॥ २४ ॥
मूलम्
अदंशमशके देशे बहुमूलफलोदके ।
नीलशाद्वलसंच्छन्ने देवगन्धर्वसेविते ॥ २३ ॥
सुसमीकृतभूभागे स्वभावविहिते शुभे ।
जातां हिममृदुस्पर्शे देशेऽपहतकण्टके ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस प्रदेशमें डाँस और मच्छरोंका नाम नहीं था। फल-मूल और जलकी बहुतायत थी। वहाँकी भूमि हरी-हरी घाससे ढकी हुई थी। देवता और गन्धर्व वहाँ वास करते थे। उस प्रदेशका भूभाग स्वभावतः समतल और मंगलमय था। उस हिमाच्छादित भूमिका स्पर्श अत्यन्त मृदु था। उस देशमें काँटोंका कहीं नाम नहीं था। ऐसे पावन प्रदेशमें वह विशाल बदरी वृक्ष उत्पन्न हुआ था॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामुपेत्य महात्मानः सह तैर्ब्राह्मणर्षभैः।
अवतेरुस्ततः सर्वे राक्षसस्कन्धतः शनैः ॥ २५ ॥
मूलम्
तामुपेत्य महात्मानः सह तैर्ब्राह्मणर्षभैः।
अवतेरुस्ततः सर्वे राक्षसस्कन्धतः शनैः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके पास पहुँचकर ये सब महात्मा पाण्डव उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके साथ राक्षसोंके कंधोंसे धीरे-धीरे उतरे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तमाश्रमं रम्यं नरनारायणाश्रितम् ।
ददृशुः पाण्डवा राजन् सहिता द्विजपुङ्गवैः ॥ २६ ॥
मूलम्
ततस्तमाश्रमं रम्यं नरनारायणाश्रितम् ।
ददृशुः पाण्डवा राजन् सहिता द्विजपुङ्गवैः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तदनन्तर ब्राह्मणोंसहित पाण्डवोंने एक साथ भगवान् नर-नारायणके उस रमणीय स्थानका दर्शन किया॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमसा रहितं पुण्यमनामृष्टं रवेः करैः।
क्षुत्तृट्शीतोष्णदोषैश्च वर्जितं शोकनाशनम् ॥ २७ ॥
मूलम्
तमसा रहितं पुण्यमनामृष्टं रवेः करैः।
क्षुत्तृट्शीतोष्णदोषैश्च वर्जितं शोकनाशनम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अन्धकार एवं तमोगुणसे रहित तथा पुण्यमय था। (वृक्षोंकी सघनताके कारण) सूर्यकी किरणें उसका स्पर्श नहीं कर पाती थीं। वह आश्रम भूख, प्यास, सर्दी और गरमी आदि दोषोंसे रहित और सम्पूर्ण शोकोंका नाश करनेवाला था॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महर्षिगणसम्बाधं ब्राह्म्या लक्ष्म्या समन्वितम्।
दुष्प्रवेशं महाराज नरैर्धर्मबहिष्कृतैः ॥ २८ ॥
मूलम्
महर्षिगणसम्बाधं ब्राह्म्या लक्ष्म्या समन्वितम्।
दुष्प्रवेशं महाराज नरैर्धर्मबहिष्कृतैः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! वह पावन तीर्थ महर्षियोंके समुदायसे भरा हुआ और ब्राह्मी श्रीसे सुशोभित था। धर्महीन मनुष्योंका वहाँ प्रवेश पाना अत्यन्त कठिन था॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलिहोमार्चितं दिव्यं सुसम्मृष्टानुलेपनम् ।
दिव्यपुष्पोपहारैश्च सर्वतोऽभिविराजितम् ॥ २९ ॥
मूलम्
बलिहोमार्चितं दिव्यं सुसम्मृष्टानुलेपनम् ।
दिव्यपुष्पोपहारैश्च सर्वतोऽभिविराजितम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह दिव्य आश्रम देव-पूजा और होमसे अर्चित था। उसे झाड़-बुहारकर अच्छी तरह लीपा गया था। दिव्य पुष्पोंके उपहार सब ओरसे उसकी शोभा बढ़ा रहे थे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशालैरग्निशरणैः स्रुग्भाण्डैराचितं शुभैः ।
महद्भिस्तोयकलशैः कठिनैश्चोपशोभितम् ॥ ३० ॥
मूलम्
विशालैरग्निशरणैः स्रुग्भाण्डैराचितं शुभैः ।
महद्भिस्तोयकलशैः कठिनैश्चोपशोभितम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विशाल अग्निहोत्रगृहों और स्रुक्, स्रुवा आदि सुन्दर यज्ञपात्रोंसे व्याप्त वह पावन आश्रम जलसे भरे हुए बड़े-बड़े कलशों और बर्तनोंसे सुशोभित था॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरण्यं सर्वभूतानां ब्रह्मघोषनिनादितम् ।
दिव्यमाश्रयणीयं तमाश्रमं श्रमनाशनम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
शरण्यं सर्वभूतानां ब्रह्मघोषनिनादितम् ।
दिव्यमाश्रयणीयं तमाश्रमं श्रमनाशनम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह सब प्राणियोंके शरण लेनेयोग्य था। वहाँ वेदमन्त्रोंकी ध्वनि गूँजती रहती थी। वह दिव्य आश्रम सबके रहनेयोग्य और थकावटको दूर करनेवाला था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रिया युतमनिर्देश्यं देवचर्योपशोभितम् ।
फलमूलाशनैर्दान्तैश्चारुकृष्णाजिनाम्बरैः ॥ ३२ ॥
सूर्यवैश्वानरसमैस्तपसा भावितात्मभिः ।
महर्षिभिर्मोक्षपरैर्यतिभिर्नियतेन्द्रियैः ॥ ३३ ॥
ब्रह्मभूतैर्महाभागैरुपेतं ब्रह्मवादिभिः ।
सोऽभ्यगच्छन्महातेजास्तानृषीन् प्रयतः शुचिः ॥ ३४ ॥
भ्रातृभिः सहितो धीमान् धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।
दिव्यज्ञानोपपन्नास्ते दृष्ट्वा प्राप्तं युधिष्ठिरम् ॥ ३५ ॥
अभ्यगच्छन्त सुप्रीताः सर्व एव महर्षयः।
आशीर्वादान् प्रयुञ्जानाः स्वाध्यायनिरता भृशम् ॥ ३६ ॥
प्रीतास्ते तस्य सत्कारं विधिना पावकोपमाः।
उपाजह्रुश्च सलिलं पुष्पमूलफलं शुचि ॥ ३७ ॥
मूलम्
श्रिया युतमनिर्देश्यं देवचर्योपशोभितम् ।
फलमूलाशनैर्दान्तैश्चारुकृष्णाजिनाम्बरैः ॥ ३२ ॥
सूर्यवैश्वानरसमैस्तपसा भावितात्मभिः ।
महर्षिभिर्मोक्षपरैर्यतिभिर्नियतेन्द्रियैः ॥ ३३ ॥
ब्रह्मभूतैर्महाभागैरुपेतं ब्रह्मवादिभिः ।
सोऽभ्यगच्छन्महातेजास्तानृषीन् प्रयतः शुचिः ॥ ३४ ॥
भ्रातृभिः सहितो धीमान् धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।
दिव्यज्ञानोपपन्नास्ते दृष्ट्वा प्राप्तं युधिष्ठिरम् ॥ ३५ ॥
अभ्यगच्छन्त सुप्रीताः सर्व एव महर्षयः।
आशीर्वादान् प्रयुञ्जानाः स्वाध्यायनिरता भृशम् ॥ ३६ ॥
प्रीतास्ते तस्य सत्कारं विधिना पावकोपमाः।
उपाजह्रुश्च सलिलं पुष्पमूलफलं शुचि ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह शोभासम्पन्न आश्रम अवर्णनीय था। देवोचित कार्योंका अनुष्ठान उसकी शोभा बढ़ाता था। उस आश्रममें फल-मूल खाकर रहनेवाले, कृष्णमृगचर्मधारी, जितेन्द्रिय, अग्नि तथा सूर्यके समान तेजस्वी और तपःपूत अन्तःकरणवाले महर्षि, मोक्षपरायण, इन्द्रिय-संयमी संन्यासी तथा महान् सौभाग्यशाली ब्रह्मवादी ब्रह्मभूत महात्मा निवास करते थे। महातेजस्वी, बुद्धिमान् धर्मपुत्र युधिष्ठिर पवित्र और एकाग्रचित्त होकर भाइयोंके साथ उन आश्रमवासी महर्षियोंके पास गये। युधिष्ठिरको आश्रममें आया देख वे दिव्यज्ञानसम्पन्न सब महर्षि अत्यन्त प्रसन्न होकर उनसे मिले और उन्हें अनेक प्रकारके आशीर्वाद देने लगे। सदा वेदोंके स्वाध्यायमें तत्पर रहनेवाले उन अग्नितुल्य तेजस्वी महात्माओंने प्रसन्न होकर युधिष्ठिरका विधिपूर्वक सत्कार किया और उनके लिये पवित्र फल-मूल, पुष्प और जल आदि सामग्री प्रस्तुत की॥३२—३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तैः प्रीत्याथ सत्कारमुपनीतं महर्षिभिः।
प्रयतः प्रतिगृह्याथ धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ ३८ ॥
मूलम्
स तैः प्रीत्याथ सत्कारमुपनीतं महर्षिभिः।
प्रयतः प्रतिगृह्याथ धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षियोंद्वारा प्रेमपूर्वक प्रस्तुत किये हुए उस आतिथ्य-सत्कारको शुद्ध हृदयसे ग्रहण करके धर्मराज युधिष्ठिर बड़े प्रसन्न हुए॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं शक्रसदनप्रख्यं दिव्यगन्धं मनोरमम्।
प्रीतः स्वर्गोपमं पुण्यं पाण्डवः सह कृष्णया ॥ ३९ ॥
विवेश शोभया युक्तं भ्रातृभिश्च सहानघ।
ब्राह्मणैर्वेदवेदाङ्गपारगैश्च सहस्रशः ॥ ४० ॥
मूलम्
तं शक्रसदनप्रख्यं दिव्यगन्धं मनोरमम्।
प्रीतः स्वर्गोपमं पुण्यं पाण्डवः सह कृष्णया ॥ ३९ ॥
विवेश शोभया युक्तं भ्रातृभिश्च सहानघ।
ब्राह्मणैर्वेदवेदाङ्गपारगैश्च सहस्रशः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने भाइयों तथा द्रौपदीके साथ इन्द्रभवनके समान मनोरम और दिव्य सुगन्धसे परिपूर्ण उस स्वर्ग-सदृश शोभाशाली पुण्यमय नर-नारायण आश्रममें प्रवेश किया। अनघ! उनके साथ ही वेद-वेदांगोंके पारंगत विद्वान् सहस्रों ब्राह्मण भी प्रविष्ट हुए॥३९-४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रापश्यत धर्मात्मा देवदेवर्षिपूजितम् ।
नरनारायणस्थानं भागीरथ्योपशोभितम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
तत्रापश्यत धर्मात्मा देवदेवर्षिपूजितम् ।
नरनारायणस्थानं भागीरथ्योपशोभितम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मात्मा युधिष्ठिरने वहाँ भगवान् नर-नारायणका स्थान देखा, जो देवताओं और देवर्षियोंसे पूजित तथा भागीरथी1 गंगासे सुशोभित था॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्यन्तस्ते नरव्याघ्रा रेमिरे तत्र पाण्डवाः।
मधुस्रवफलं दिव्यं ब्रह्मर्षिगणसेवितम् ॥ ४२ ॥
तदुपेत्य महात्मानस्तेऽवसन् ब्राह्मणैः सह।
मुदा युक्ता महात्मानो रेमिरे तत्र ते तदा ॥ ४३ ॥
मूलम्
पश्यन्तस्ते नरव्याघ्रा रेमिरे तत्र पाण्डवाः।
मधुस्रवफलं दिव्यं ब्रह्मर्षिगणसेवितम् ॥ ४२ ॥
तदुपेत्य महात्मानस्तेऽवसन् ब्राह्मणैः सह।
मुदा युक्ता महात्मानो रेमिरे तत्र ते तदा ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ पाण्डव उस स्थानका दर्शन करते हुए वहाँ सब ओर सुखपूर्वक घूमने-फिरने लगे। ब्रह्मर्षियों-द्वारा सेवित जो अपने फलोंसे मधुकी धारा बहानेवाला दिव्य वृक्ष था, उसके निकट जाकर महात्मा पाण्डव ब्राह्मणोंके साथ वहाँ निवास करने लगे। उस समय वे सब महात्मा बड़ी प्रसन्नताके साथ वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे॥४२-४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आलोकयन्तो मैनाकं नानाद्विजगणायुतम् ।
हिरण्यशिखरं चैव तच्च बिन्दुसरः शिवम् ॥ ४४ ॥
तस्मिन् विहरमाणाश्च पाण्डवाः सह कृष्णया।
मनोज्ञे काननवरे सर्वर्तुकुसुमोज्ज्वले ॥ ४५ ॥
मूलम्
आलोकयन्तो मैनाकं नानाद्विजगणायुतम् ।
हिरण्यशिखरं चैव तच्च बिन्दुसरः शिवम् ॥ ४४ ॥
तस्मिन् विहरमाणाश्च पाण्डवाः सह कृष्णया।
मनोज्ञे काननवरे सर्वर्तुकुसुमोज्ज्वले ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ सुवर्णमय शिखरोंसे सुशोभित और अनेक प्रकारके पक्षियोंसे युक्त मैनाक पर्वत था। वहीं शीतल जलसे सुशोभित बिन्दुसर नामक तालाब था। वह सब देखते हुए पाण्डव द्रौपदीके साथ उस मनोहर उत्तम वनमें विचरने लगे, जो सभी ऋतुओंके फूलोंसे सुशोभित हो रहा था॥४४-४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पादपैः पुष्पविकचैः फलभारावनामिभिः ।
शोभिते सर्वतो रम्यैः पुंस्कोकिलगणायुतैः ॥ ४६ ॥
मूलम्
पादपैः पुष्पविकचैः फलभारावनामिभिः ।
शोभिते सर्वतो रम्यैः पुंस्कोकिलगणायुतैः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस वनमें सब ओर सुरम्य वृक्ष दिखायी देते थे, जो विकसित फूलोंसे युक्त थे। उनकी शाखाएँ फलोंके बोझसे झुकी हुई थीं। कोकिल पक्षियोंसे युक्त बहुसंख्यक वृक्षोंके कारण उस वनकी बड़ी शोभा होती थी॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्निग्धपत्रैरविरलैः शीतच्छायैर्मनोरमैः ।
सरांसि च विचित्राणि प्रसन्नसलिलानि च ॥ ४७ ॥
मूलम्
स्निग्धपत्रैरविरलैः शीतच्छायैर्मनोरमैः ।
सरांसि च विचित्राणि प्रसन्नसलिलानि च ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपर्युक्त वृक्षोंके पत्ते चिकने और सघन थे। उनकी छाया शीतल थी। वे मनको बड़े ही रमणीय लगते थे। उस वनमें कितने ही विचित्र सरोवर भी थे, जो स्वच्छ जलसे भरे हुए थे॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कमलैः सोत्पलैश्चैव भ्राजमानानि सर्वशः।
पश्यन्तश्चारुरूपाणि रेमिरे तत्र पाण्डवाः ॥ ४८ ॥
मूलम्
कमलैः सोत्पलैश्चैव भ्राजमानानि सर्वशः।
पश्यन्तश्चारुरूपाणि रेमिरे तत्र पाण्डवाः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
खिले हुए उत्पल और कमल सब ओरसे उनकी शोभाका विस्तार करते थे। उन मनोहर सरोवरोंका दर्शन करते हुए पाण्डव वहाँ सानन्द विचरने लगे॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुण्यगन्धःसुखस्पर्शो ववौ तत्र समीरणः।
ह्लादयन् पाण्डवान् सर्वान् द्रौपद्या सहितान् प्रभो ॥ ४९ ॥
मूलम्
पुण्यगन्धःसुखस्पर्शो ववौ तत्र समीरणः।
ह्लादयन् पाण्डवान् सर्वान् द्रौपद्या सहितान् प्रभो ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! गन्धमादन पर्वतपर पवित्र सुगन्धसे वासित सुखदायिनी वायु चल रही थी, जो द्रौपदीसहित पाण्डवोंको आनन्द-निमग्न किये देती थी॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भागीरथीं सुतीर्थां च शीतां विमलपङ्कजाम्।
मणिप्रवालप्रस्तारां पादपैरुपशोभिताम् ॥ ५० ॥
दिव्यपुष्पसमाकीर्णां मनःप्रीतिविवर्धिनीम् ।
वीक्षमाणा महात्मानो विशालां बदरीमनु ॥ ५१ ॥
तस्मिन् देवर्षिचरिते देशे परमदुर्गमे।
भागीरथीपुण्यजले तर्पयांचक्रिरे तदा ॥ ५२ ॥
देवानृषींश्च कौन्तेयाः परमं शौचमास्थिताः।
तत्र ते तर्पयन्तश्च जपन्तश्च कुरूद्वहाः ॥ ५३ ॥
ब्राह्मणैः सहिता वीरा ह्यवसन् पुरुषर्षभाः।
कृष्णायास्तत्र पश्यन्तः क्रीडितान्यमरप्रभाः ।
विचित्राणि नरव्याघ्रा रेमिरे तत्र पाण्डवाः ॥ ५४ ॥
मूलम्
भागीरथीं सुतीर्थां च शीतां विमलपङ्कजाम्।
मणिप्रवालप्रस्तारां पादपैरुपशोभिताम् ॥ ५० ॥
दिव्यपुष्पसमाकीर्णां मनःप्रीतिविवर्धिनीम् ।
वीक्षमाणा महात्मानो विशालां बदरीमनु ॥ ५१ ॥
तस्मिन् देवर्षिचरिते देशे परमदुर्गमे।
भागीरथीपुण्यजले तर्पयांचक्रिरे तदा ॥ ५२ ॥
देवानृषींश्च कौन्तेयाः परमं शौचमास्थिताः।
तत्र ते तर्पयन्तश्च जपन्तश्च कुरूद्वहाः ॥ ५३ ॥
ब्राह्मणैः सहिता वीरा ह्यवसन् पुरुषर्षभाः।
कृष्णायास्तत्र पश्यन्तः क्रीडितान्यमरप्रभाः ।
विचित्राणि नरव्याघ्रा रेमिरे तत्र पाण्डवाः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वोक्त विशाल बदरीवृक्षके समीप उत्तम तीर्थोंसे सुशोभित शीतल जलवाली भागीरथी गंगा बह रही थी, उसमें सुन्दर कमल खिले हुए थे। उसके घाट मणियों और मूँगोंसे आबद्ध थे। अनेक प्रकारके वृक्ष उसके तटप्रान्तकी शोभा बढ़ा रहे थे। वह दिव्य पुष्पोंसे आच्छादित हो हृदयके हर्षोल्लासकी वृद्धि कर रही थी। उसका दर्शन करके महात्मा पाण्डवोंने उस अत्यन्त दुर्गम देवर्षिसेवित प्रदेशमें भागीरथीके पवित्र जलमें स्थित हो परम पवित्रताके साथ देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंका तर्पण किया। इस प्रकार प्रतिदिन तर्पण और जप आदि करते हुए वे पुरुषश्रेष्ठ कुरुकुल-शिरोमणि वीर पाण्डव वहाँ ब्राह्मणोंके साथ रहने लगे। देवताओंके समान कान्तिमान् नरश्रेष्ठ पाण्डव वहाँ द्रौपदीकी विचित्र क्रीड़ाएँ देखते हुए सुखपूर्वक रमण करने लगे॥५०—५४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां गन्धमादनप्रवेशे पञ्चचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशतीर्थयात्राके प्रसंगमें गन्धमादनप्रवेशविषयक एक सौ पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४५॥