भागसूचना
चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
द्रौपदीकी मूर्छा, पाण्डवोंके उपचारसे उसका सचेत होना तथा भीमसेनके स्मरण करनेपर घटोत्कचका आगमन
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोशमात्रं प्रयातेषु पाण्डवेषु महात्मसु।
पद्भ्यामनुचिता गन्तुं द्रौपदी समुपाविशत् ॥ १ ॥
श्रान्ता दुःखपरीता च वातवर्षेण तेन च।
सौकुमार्याच्च पाञ्चाली सम्मुमोह तपस्विनी ॥ २ ॥
मूलम्
क्रोशमात्रं प्रयातेषु पाण्डवेषु महात्मसु।
पद्भ्यामनुचिता गन्तुं द्रौपदी समुपाविशत् ॥ १ ॥
श्रान्ता दुःखपरीता च वातवर्षेण तेन च।
सौकुमार्याच्च पाञ्चाली सम्मुमोह तपस्विनी ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! महात्मा पाण्डव अभी कोसभर ही गये होंगे कि पांचालराजकुमारी तपस्विनी द्रौपदी सुकुमारताके कारण थककर बैठ गयी। वह पैदल चलनेयोग्य कदापि नहीं थी। उस भयानक वायु और वर्षासे पीड़ित हो दुःखमग्न होकर वह मूर्छित होने लगी थी॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा कम्पमाना मोहेन बाहुभ्यामसितेक्षणा।
वृत्ताभ्यामनुरूपाभ्यामूरू समवलम्बत ॥ ३ ॥
मूलम्
सा कम्पमाना मोहेन बाहुभ्यामसितेक्षणा।
वृत्ताभ्यामनुरूपाभ्यामूरू समवलम्बत ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घबराहटसे काँपती हुई कजरारे नेत्रोंवाली कृष्णाने अपने गोल-गोल और सुन्दर हाथोंसे दोनों जाँघोंको थाम लिया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आलम्बमाना सहितावूरू गजकरोपमौ ।
पपात सहसा भूमौ वेपन्ती कदली यथा ॥ ४ ॥
तां पतन्तीं वरारोहां भज्यमानां लतामिव।
नकुलः समभिद्रुत्य परिजग्राह वीर्यवान् ॥ ५ ॥
मूलम्
आलम्बमाना सहितावूरू गजकरोपमौ ।
पपात सहसा भूमौ वेपन्ती कदली यथा ॥ ४ ॥
तां पतन्तीं वरारोहां भज्यमानां लतामिव।
नकुलः समभिद्रुत्य परिजग्राह वीर्यवान् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हाथीकी सूँड़के समान चढ़ाव-उतारवाली परस्पर सटी हुई जाँघोंका सहारा ले केलेके वृक्षकी भाँति काँपती हुई वह सहसा पृथ्वीपर गिर पड़ी। सुन्दर अंगोंवाली द्रौपदीको टूटी हुई लताकी भाँति गिरती देख बलशाली नकुलने दौड़कर थाम लिया॥४-५॥
मूलम् (वचनम्)
नकुल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजन् पञ्चालराजस्य सुतेयमसितेक्षणा ।
श्रान्ता निपतिता भूमौ तामवेक्षस्व भारत ॥ ६ ॥
मूलम्
राजन् पञ्चालराजस्य सुतेयमसितेक्षणा ।
श्रान्ता निपतिता भूमौ तामवेक्षस्व भारत ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् नकुलने कहा— भरतकुलभूषण महाराज! यह श्याम नेत्रवाली पांचालराजकुमारी द्रौपदी थककर धरतीपर गिर पड़ी है, आप आकर इसे देखिये॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदुःखार्हा परं दुःखं प्राप्तेयं मृदुगामिनी।
आश्वासय महाराज तामिमां श्रमकर्शिताम् ॥ ७ ॥
मूलम्
अदुःखार्हा परं दुःखं प्राप्तेयं मृदुगामिनी।
आश्वासय महाराज तामिमां श्रमकर्शिताम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यह मन्दगतिसे चलनेवाली देवी दुःख सहन करनेके योग्य नहीं है; तो भी इसपर महान् दुःख आ पड़ा है। रास्तेके परिश्रमसे यह दुर्बल हो गयी है। आप आकर इसे सान्त्वना दें॥७॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा तु वचनात् तस्य भृशं दुःखसमन्वितः।
भीमश्च सहदेवश्च सहसा समुपाद्रवन् ॥ ८ ॥
मूलम्
राजा तु वचनात् तस्य भृशं दुःखसमन्वितः।
भीमश्च सहदेवश्च सहसा समुपाद्रवन् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! नकुलकी यह बात सुनकर राजा युधिष्ठिर अत्यन्त दुखी हो गये और भीम तथा सहदेवके साथ सहसा वहाँ दौड़े आये॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामवेक्ष्य तु कौन्तेयो विवर्णवदनां कृशाम्।
अङ्कमानीय धर्मात्मा पर्यदेवयदातुरः ॥ ९ ॥
मूलम्
तामवेक्ष्य तु कौन्तेयो विवर्णवदनां कृशाम्।
अङ्कमानीय धर्मात्मा पर्यदेवयदातुरः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मात्मा कुन्तीनन्दनने देखा—द्रौपदीके मुखकी कान्ति फीकी पड़ गयी है और उसका शरीर कृश हो गया है। तब वे उसे अंकमें लेकर शोकातुर हो विलाप करने लगे॥९॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं वेश्मसु गुप्तेषु स्वास्तीर्णशयनोचिता।
भूमौ निपतिता शेते सुखार्हा वरवर्णिनी ॥ १० ॥
मूलम्
कथं वेश्मसु गुप्तेषु स्वास्तीर्णशयनोचिता।
भूमौ निपतिता शेते सुखार्हा वरवर्णिनी ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— अहो! जो सुरक्षित सदनोंमें सुसज्जित सुकोमल शय्यापर शयन करनेयोग्य है, वह सुख भोगनेकी अधिकारिणी परम सुन्दरी कृष्णा आज पृथ्वीपर कैसे सो रही है?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुकुमारौ कथं पादौ मुखं च कमलप्रभम्।
मत्कृतेऽद्य वरार्हायाः श्यामतां समुपागतम् ॥ ११ ॥
मूलम्
सुकुमारौ कथं पादौ मुखं च कमलप्रभम्।
मत्कृतेऽद्य वरार्हायाः श्यामतां समुपागतम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सुखके श्रेष्ठ साधनोंका उपभोग करनेयोग्य है, उसी द्रौपदीके ये दोनों सुकुमार चरण और कमलकी कान्तिसे सुशोभित मुख आज मेरे कारण कैसे काले पड़ गये हैं?॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमिदं द्यूतकामेन मया कृतमबुद्धिना।
आदाय कृष्णां चरता वने मृगगणायुते ॥ १२ ॥
मूलम्
किमिदं द्यूतकामेन मया कृतमबुद्धिना।
आदाय कृष्णां चरता वने मृगगणायुते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझ मूर्खने द्यूतक्रीड़ाकी कामनामें फँसकर यह क्या कर डाला? अहो! सहस्रों मृगसमूहोंसे भरे हुए इस भयानक वनमें द्रौपदीको साथ लेकर हमें विचरना पड़ा है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखं प्राप्स्यसि कल्याणि पाण्डवान् प्राप्य वै पतीन्।
इति द्रुपदराजेन पित्रा दत्ताऽऽयतेक्षणा ॥ १३ ॥
तत् सर्वमनवाप्येयं श्रमशोकाध्वकर्शिता ।
शेते निपतिता भूमौ पापस्य मम कर्मभिः ॥ १४ ॥
मूलम्
सुखं प्राप्स्यसि कल्याणि पाण्डवान् प्राप्य वै पतीन्।
इति द्रुपदराजेन पित्रा दत्ताऽऽयतेक्षणा ॥ १३ ॥
तत् सर्वमनवाप्येयं श्रमशोकाध्वकर्शिता ।
शेते निपतिता भूमौ पापस्य मम कर्मभिः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके पिता राजा द्रुपदने इस विशाललोचना द्रौपदीको यह कहकर हमें प्रदान किया था कि ‘कल्याणि! तुम पाण्डवोंको पतिरूपमें पाकर सुखी होगी।’ परंतु मुझ पापीकी करतूतोंसे वह सब न पाकर यह परिश्रम, शोक और मार्गके कष्टसे कृश होकर आज पृथ्वीपर पड़ी सो रही है॥१३-१४॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा लालप्यमाने तु धर्मराजे युधिष्ठिरे।
धौम्यप्रभृतयः सर्वे तत्राजग्मुर्द्विजोत्तमाः ॥ १५ ॥
मूलम्
तथा लालप्यमाने तु धर्मराजे युधिष्ठिरे।
धौम्यप्रभृतयः सर्वे तत्राजग्मुर्द्विजोत्तमाः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! धर्मराज युधिष्ठिर जब इस प्रकार विलाप कर रहे थे, उसी समय धौम्य आदि समस्त श्रेष्ठ ब्राह्मण भी वहाँ आ पहुँचे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते समाश्वासयामासुराशीर्भिश्चाप्यपूजयन् ।
रक्षोघ्नांश्च तथा मन्त्राञ्जेपुश्चक्रुश्च ते क्रियाः ॥ १६ ॥
मूलम्
ते समाश्वासयामासुराशीर्भिश्चाप्यपूजयन् ।
रक्षोघ्नांश्च तथा मन्त्राञ्जेपुश्चक्रुश्च ते क्रियाः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने महाराजको आश्वासन दिया और अनेक प्रकारके आशीर्वाद देकर उन्हें सम्मानित किया। तत्पश्चात् वे राक्षसोंका विनाश करनेवाले मन्त्रोंका जप तथा शान्तिकर्म करने लगे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पठ्यमानेषु मन्त्रेषु शान्त्यर्थं परमर्षिभिः।
स्पृश्यमाना करैः शीतैः पाण्डवैश्च मुहुर्मुहुः ॥ १७ ॥
मूलम्
पठ्यमानेषु मन्त्रेषु शान्त्यर्थं परमर्षिभिः।
स्पृश्यमाना करैः शीतैः पाण्डवैश्च मुहुर्मुहुः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षियोंद्वारा शान्तिके लिये मन्त्रपाठ होते समय पाण्डवोंने अपने शीतल हाथोंसे बार-बार द्रौपदीके अंगोंको सहलाया॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेव्यमाना च शीतेन जलमिश्रेण वायुना।
पाञ्चाली सुखमासाद्य लेभे चेतः शनैः शनैः ॥ १८ ॥
मूलम्
सेव्यमाना च शीतेन जलमिश्रेण वायुना।
पाञ्चाली सुखमासाद्य लेभे चेतः शनैः शनैः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जलका स्पर्श करके बहती हुई शीतल वायुने भी उसे सुख पहुँचाया। इस प्रकार कुछ आराम मिलनेपर पांचालराजकुमारी द्रौपदीको धीरे-धीरे चेत हुआ॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिगृह्य च तां दीनां कृष्णामजिनसंस्तरे।
पार्था विश्रामयामासुर्लब्धसंज्ञां तपस्विनीम् ॥ १९ ॥
तस्या यमौ रक्ततलौ पादौ पूजितलक्षणौ।
कराभ्यां किणजाताभ्यां शनकैः संववाहतुः ॥ २० ॥
मूलम्
परिगृह्य च तां दीनां कृष्णामजिनसंस्तरे।
पार्था विश्रामयामासुर्लब्धसंज्ञां तपस्विनीम् ॥ १९ ॥
तस्या यमौ रक्ततलौ पादौ पूजितलक्षणौ।
कराभ्यां किणजाताभ्यां शनकैः संववाहतुः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
होशमें आनेपर दीनावस्थामें पड़ी हुई तपस्विनी द्रौपदीको पकड़कर पाण्डवोंने मृगचर्मके बिस्तरपर सुलाया और उसे विश्राम कराया। नकुल और सहदेवने धनुषकी रगड़के चिह्नसे सुशोभित दोनों हाथोंद्वारा उसके लाल तलवोंसे युक्त और उत्तम लक्षणोंसे अलंकृत दोनों चरणोंको धीरे-धीरे दबाया॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर्याश्वासयदप्येनां धर्मराजो युधिष्ठिरः ।
उवाच च कुरुश्रेष्ठो भीमसेनमिदं वचः ॥ २१ ॥
मूलम्
पर्याश्वासयदप्येनां धर्मराजो युधिष्ठिरः ।
उवाच च कुरुश्रेष्ठो भीमसेनमिदं वचः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर कुरुश्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिरने भी द्रौपदीको बहुत आश्वासन दिया और भीमसेनसे इस प्रकार कहा—॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहवः पर्वता भीम विषमा हिमदुर्गमाः।
तेषु कृष्णा महाबाहो कथं नु विचरिष्यति ॥ २२ ॥
मूलम्
बहवः पर्वता भीम विषमा हिमदुर्गमाः।
तेषु कृष्णा महाबाहो कथं नु विचरिष्यति ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहु भीम! यहाँ बहुत-से ऊँचे-नीचे पर्वत हैं, जिनपर चलना बर्फके कारण अत्यन्त कठिन है। उनपर द्रौपदी कैसे जा सकेगी?’॥२२॥
मूलम् (वचनम्)
भीमसेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वां राजन् राजपुत्रीं च यमौ च पुरुषर्षभ।
स्वयं नेष्यामि राजेन्द्र मा विषादे मनः कृथाः ॥ २३ ॥
मूलम्
त्वां राजन् राजपुत्रीं च यमौ च पुरुषर्षभ।
स्वयं नेष्यामि राजेन्द्र मा विषादे मनः कृथाः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनने कहा— पुरुषरत्न! महाराज! आप मनमें खेद न करें। मैं स्वयं राजकुमारी द्रौपदी, नकुल-सहदेव और आपको भी ले चलूँगा॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हैडिम्बश्च महावीर्यो विहगो मद्बलोपमः।
वहेदनघ सर्वान्नो वचनात् ते घटोत्कचः ॥ २४ ॥
मूलम्
हैडिम्बश्च महावीर्यो विहगो मद्बलोपमः।
वहेदनघ सर्वान्नो वचनात् ते घटोत्कचः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हिडिम्बाका पुत्र घटोत्कच भी महान् पराक्रमी है। वह मेरे ही समान बलवान् है और आकाशमें चल-फिर सकता है। अनघ! आपकी आज्ञा होनेपर वह हम सबको अपनी पीठपर बिठाकर ले चलेगा॥२४॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुज्ञातो धर्मराज्ञा पुत्रं सस्मार राक्षसम्।
घटोत्कचस्तु धर्मात्मा स्मृतमात्रः पितुस्तदा ॥ २५ ॥
कृताञ्जलिरुपातिष्ठदभिवाद्याथ पाण्डवान् ।
ब्राह्मणांश्च महाबाहुः स च तैरभिनन्दितः ॥ २६ ॥
उवाच भीमसेनं स पितरं भीमविक्रमम्।
स्मृतोऽस्मि भवता शीघ्रं शुश्रूषुरहमागतः ॥ २७ ॥
आज्ञापय महाबाहो सर्वं कर्तास्म्यसंशयम्।
तच्छ्रुत्वा भीमसेनस्तु राक्षसं परिषस्वजे ॥ २८ ॥
मूलम्
अनुज्ञातो धर्मराज्ञा पुत्रं सस्मार राक्षसम्।
घटोत्कचस्तु धर्मात्मा स्मृतमात्रः पितुस्तदा ॥ २५ ॥
कृताञ्जलिरुपातिष्ठदभिवाद्याथ पाण्डवान् ।
ब्राह्मणांश्च महाबाहुः स च तैरभिनन्दितः ॥ २६ ॥
उवाच भीमसेनं स पितरं भीमविक्रमम्।
स्मृतोऽस्मि भवता शीघ्रं शुश्रूषुरहमागतः ॥ २७ ॥
आज्ञापय महाबाहो सर्वं कर्तास्म्यसंशयम्।
तच्छ्रुत्वा भीमसेनस्तु राक्षसं परिषस्वजे ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर धर्मराजकी आज्ञा पाकर भीमसेनने अपने राक्षसपुत्रका स्मरण किया। पिताके स्मरण करते ही धर्मात्मा घटोत्कच हाथ जोड़े हुए वहाँ उपस्थित हुआ। उस महाबाहु वीरने पाण्डवों तथा ब्राह्मणोंको प्रणाम करके उनके द्वारा सम्मानित हो अपने भयंकर पराक्रमी पिता भीमसेनसे कहा—‘महाबाहो! आपने मेरा स्मरण किया है और मैं शीघ्र ही सेवाकी भावनासे आया हूँ, आज्ञा कीजिये; मैं आपका सब कार्य अवश्य ही पूर्ण करूँगा।’ यह सुनकर भीमसेनने राक्षस घटोत्कचको हृदयसे लगा लिया॥२५—२८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां गन्धमादनप्रवेशे चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशतीर्थयात्राके प्रसंगमें गन्धमादनप्रवेशविषयक एक सौ चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४४॥